संदेश

अगस्त, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

श्रीकृष्ण ©संजीव शुक्ला

 छंद - झूलना  चरण - 4 (समतुकांत ) मात्रा -26  यति - 7, 7, 7, 5 , ( चरणांत -  गुरु लघु ) संकट हरण, मंगल करण, पंकज चरण, घनश्याम l राधा रमण,श्यामल वरण, श्रीपद शरण, सुख़ धाम ll तम कष्ट हर,उज्ज्वल प्रखर,सुख़ शांतिकर,शुभ नाम l उद्धार  कर,  भव  ताप हर,  सुंदर  सुघर,  अभिराम ll मृदु वेणु सुर,मोहक मधुर,उत्तम विदुर, प्रभु रूप l शोभा मुकुर, करुणा प्रचुर , हे कृपापुर, सुर भूप ll मति व्याप्त तम,पातक परम्, हर मोह भ्रम,भव कूप l ब्रम्हाण्डपति, कर शुद्ध मति,दे परम् गति,त्रुटि सूप ll तन पीत पट, त्रैलोक्य नट, अर्कजा तट, नित रास l करुणा नयन, शोभा यतन,सरसिज चरन ,विश्वास ll प्रभु कर कृपा, निर्बल सखा, अंतर सदा, कर वास l अति  दीन मैं, मति हीन मैं,  आधीन मैं,  हर त्रास ll (मौलिक, स्वरचित )   © संजीव शुक्ला 'रिक्त'

कलम ©सरोज गुप्ता

वर्णित करता रूप किसी का,  किसी का प्रीत जताये ।  किसी के सुख का छाप छोड़ता किसी का दुख दर्शाये ।।  कभी छेड़ दे बिगुल युद्ध का, कभी शान्ति दूत बन जाये ।  सबक सिखाये कभी किसी को कभी न्याय दिलवाये ।।  कलम की ताकत सबपे भारी,  हो राजा चाहें भिखारी ।  अगर ये अपने पे आ जाये पलट दे सत्ता सारी ।।  कलमकार की है जुबान ये,  है हथियार ये कवि की ।  है आईना ये समाज का चित्रण करे जो छवि की ।।  कहाँ तलक मैं करूँ व्याख्या,  इस नन्हीं सी कलम का ।  लेखक हो या चाहे पाठक जाने महत्व कलम का ।। © सरोज गुप्ता

कवि की कविता ©रजनी सिंह

 कभी कभी मन एकदम शांत रहता है न?  कोई उथल पुथल नहीं  जैसे कोई ठहरा हुआ पानी  सारे विचार शून्य हो जाते हैँ जैसे...  एक पल में कई सदियाँ जी ली हों जैसे...  जैसे सुबह की ओस की बूँद...   जो पाँव तले आती है..  और जो चित शांत कर देती है  ठीक वैसे ही.....  जैसे मैं कोई कवि हूँ.. और कल्पना जीवित हो गई है  मेरी हर बात कविता की तरह  हज़ारों अर्थ समेटे है..  या जैसे मैं स्वयं एक कविता हूँ ,किसी संवेदनशील कवि की  जीती जागती, हँसती मुस्कुराती कविता..  उस कवि का मुझे देखना  मेरे हृदय तक उतरती हुई उसकी दृष्टि  जैसे मेरे रोम रोम में  डाल रहा हो वह कोई कल्पना  मैं एक पाषाण सी  मूक निश्चल भावहीन  और वह एक एक शब्द से  मेरा अंग अंग सुंदर शिल्प  से   अद्भुत आकार में  मेरा अस्तित्व  तराश रहा हो.... © रजनी सिंह 'अमि'

गीत ©नवल किशोर सिंह

 चरते चारे बन बेचारे, साँढ़ सकल सरकारी। बीच खेत में भेड़ भटकती, सूखी घासें सारी।   वादा करके हरे भरे का, पहले तो फुसलाया। परती धरती के प्रांगण में, फिर खदेड़ पहुँचाया। रेह गेह में धूप धमक से, करती काया छटपट, बैठ मेड़ पर चतुर गड़रिया, करता पहरेदारी।   सूख गईं बूँदें रेतों में, नयनों से जल प्लावन। डूब गया मन-मरुथल लेकिन, सिकता में है सावन। ठूँठ ठठेरा मुँह बिचकाता, खड़ा बिजूका जैसे, घिसे अँगूठे से खेतों को, लील गया पटवारी ।   साहस संबल खूब जुटाकर, निकला बाहर भेड़ा। मिमियाकर निज कथा सुनाया, समझे सभी बखेड़ा। पत्ते हरे शिकारी लेकर, बहलाता भेड़ों को, समय देखकर कुर्बानी का, काट गया पद-धारी। -© नवल किशोर सिंह

आधार छन्द मंगलमाया ©अनिता सुधीर आख्या

 जीवन का मनुहार, तुम्हारी आँखों में। परिभाषित है प्यार, तुम्हारी आँखों में।।। छलक-छलक कर प्रेम,भरे उर की गगरी। बहे सदा रसधार, तुम्हारी आँखों में।। तुम जीवन संगीत, सजाया मन उपवन भौरों का अभिसार, तुम्हारी आँखों में।। पूरक जब मतभेद, चली जीवन नैया खट्टी-मीठी रार, तुम्हारी आँखों में।। रही अकिंचन मात्र, मिला जबसे संबल करे शून्य विस्तार, तुम्हारी आँखों में।। किया समर्पण त्याग, जले बाती जैसे करे भाव अँकवार, तुम्हारी आँखों में।। जीवन की जब धूप, जलाती थी काया पीड़ा का उपचार, तुम्हारी आँखों में।। © अनिता सुधीर आख्या

कविता ©रानी श्री

 संगीत की सुमधुर लय में, तम से उत्पन्न आतुर भय में,  हर प्रकार से समीक्षा में रहूंगी  मैं तुम्हारी प्रतीक्षा में रहूंगी। भूत भविष्य के तय में,  हर दृश्य के जय-पराजय में, जीवन की हर अग्नि परीक्षा में रहूंगी  मैं तुम्हारी प्रतीक्षा में रहूंगी। मेरी कविताओं के विषय में,  बहती सरिताओं के आशय में, तुम्हें प्राप्त होती दीक्षा में रहूंगी  मैं तुम्हारी प्रतीक्षा में रहूंगी। पथप्रदर्शक सम नय में,  लोलक सम क्षय-अक्षय में, हर संभव अन्वीक्षा में रहूंगी  मैं तुम्हारी प्रतीक्षा में रहूंगी। लोकप्रिय लोक त्रय में, दाख-धिय मय में,  तुम्हारी स्वीकृति की संप्रतीक्षा में रहूंगी  मैं तुम्हारी प्रतीक्षा में रहूंगी। © रानी श्री

काशी ©विपिन बहार

 #गीतिका #मंगलमाया छंद प्रत्येक चरण 22 मात्राएं(11-11 पर यति) भोले की जयकार,हमारे काशी में , पूजा है साकार,हमारे काशी में । तर होते सब पाप,यहाँ पर जो आते, पावन गंगा धार,हमारे काशी में । संगी साथी साथ,चले आओ मिलकर, नौका नदिया पार, हमारे काशी में । तुलसी मानस धाम,लिए संकट मोचन, भावों का अंबार, हमारे काशी में । दोहावली कबीर,लिए कलम सिपाही, कविता की झंकार,हमारे काशी में । जीवन का सब ज्ञान ,यहाँ सब पाते है, जीवन का है सार,हमारे काशी में । जो भी करे निवास,यहाँ का हो जाए । खुशियों की बौछार, हमारे काशी में । © विपिन"बहार"         

गीत ©गुंजित जैन

 रक्षाबंधन की हार्दिक शुभकामनाएं🙏🙏 रेशमी जिस डोर में रिश्ते सुरक्षित हैं सभी के, पूर्ण रिश्तों का वही सिमटा हुआ आधार राखी, भाव मिश्रित हैं बहन के, इन सुकोमल राखियों में, एक भाई के हृदय का, है समूचा सार राखी। जब दुखों में ही उलझकर, मुस्कराहट जूझती है, हर घड़ी जीवन-मरण की, नव पहेली बूझती है, मन रुदन करने लगे जब, चित्त भी डरने लगे जब, तब कलाई पर बँधी राखी बहन की सूझती है। मुश्किलों के सागरों में, जब कभी ओझल हुआ हो, नाव उनमें तब बहन है, और है पतवार राखी। दौर कठिनाई भरा जब, रास्ते में ही अड़ा हो, भीति का मुख जब जगत में, हौसले से भी बड़ा हो, वह कलाई देखकर तब एक मुख ही याद आता, जो कहीं पर आज उसकी, जीत को तत्पर खड़ा हो, सरहदों पर जब कभी भी, टूटती उम्मीद लगती, इन रगों में हौसले का, तब करे संचार राखी। नित्य लड़ना, नित झगड़ना, सब बहुत नादान लगते, साथ देकर, साथ रहकर, पथ सभी आसान लगते, मुस्कराहट या हँसी हो, या नयन में कुछ नमी हो, हर पहर भाई बहन हर दुक्ख से अनजान लगते, स्नेह का यह दिव्य बंधन, शुद्धता से ही भरा है,  प्राण है भाई-बहन का, है सकल संसार राखी। © गुंजित जैन

होगा! ©सौम्या शर्मा

 ऊंचा तुमसे भी होगा कद जिसका! यकीनन झुक के ही मिला होगा!! सामने था मगर खामोश था वो! उसको मुझसे कोई गिला होगा!! कमी बुनियाद में ही कुछ होगी! मकां ये यूं ही कब ढहा होगा!! मजाक जो किया था कल उसने! क्या पता हाल-ए-दिल कहा होगा!! रुक गई आ के लब पे बात उसकी! जाने क्यूं होंठों को सिला होगा!! कुछ कहो तुम तो कुछ कहें हम भी! यूं ही बातों का सिलसिला होगा!! है पता कांटों की चुभन का जिसे! फूल वो बेमिसाल सा होगा!! आंखें डबडबाई होंगी बिछड़न से! दिल जिसे देखकर खिला होगा!! ये जिंदगी भी क्या पहेली है! बूझेगा,सच में जो जिया होगा!! © सौम्या शर्मा

हो गए ! ©अंजलि

 आपसे ही हुआ दर्द, आप मुस्कान हो गए, ख्वाब आपके कैसे हमारे अरमान हो गए। ये दिल हमारा अब घर हो गया है आपका, हम मेहमान  इसके आप  मेज़बान हो गए। नहीं लगी हमें ऐसे आदत  कभी किसी की, आपसे हुई जिंदगी, कैसे आप जान हो गए। चाहत थी लफ़्ज़ों में पिरों दे ये इश्क अपना, नज़रें जो मिली आपसे हम बेजुबान हो गए। अकेले थे शर्मो-हया फक़त अक्स थे हमारे, शरीक बने आप,हम आपसे शैतान हो गए। नहीं रहा इल्म मुझे ज़माने की रिवायतों का, ये जहान हुआ आपसे, आप जहान हो गए।     © अंजलि

विदाई ©रेखा खन्ना

  देखो नया साल सर पर आ खड़ा हुआ है और मैं सोचती ही रह गई कि साल की शुरुआत में कौन सा तोहफा दूं तुम्हें पर कुछ समझ ही नहीं आया। पता है पहले सब कुछ इक्कठा कर के  इस 🎁 डिब्बे में सहेज कर कर रख लेती थी। इसमें वो पल थे जिन्हें मैं खुशी खुशी जीने लगी थी और साथ ही में वो सारी खुशियांँ और मुस्कुराहटें थी जो तुमने मुझे दी थी और जब भी मैं उदास होती तो डब्बे को खोल कर इसमें झांकती और फिर से खुशी की लहर मेरे चेहरे पर दौड़ जाती ऐसे जैसे तुम सामने ही हो मेरे। जैसे जैसे वक्त बीतता गया वो खुशियांँ और मुस्कुराहटें ना जाने कहांँ खो गई। खैर वो तो सिर्फ लम्हें थे पर असल में खो तो तुम गए थे अपनी ही दुनियाँ में और मैं नाहक ही तुम से उम्मीद लगा बैठी थी। अब वो सुनहरे पल दब कर रह गए हैं कहीं बहुत नीचे इस डिब्बे में क्योंकि अब उसमें मैं रोज़ सुबह और शाम तुम्हारी भेजी हुई खामोशियों को रखने लगी हूंँ और शायद उन गुजरे लम्हों का दम घुटने लग गया हैं इन भारी भरकम खामोशियों के भार के नीचे। ना जाने कब से इन्हें इक्कठा करने में लगी हुई हूंँ कि अब जगह ही नहीं बची। सोचती हूंँ क्यूंँ ना तुम्हें तोहफा देने की जगह एक नया डब्

अल्फ़ाज़ © दीप्ति सिंह

 अल्फ़ाज़ों में बड़ी जान होती है  जज़्बातों की ये जुबान होती है  बोलें ज़ुबाँ से या लिख दें कलम से हर शक़्सियत की पहचान होती है  पल में बिगाड़े, पल में बना दे जिस पर भी ये मेहरबान होती है  जज़्बात दिल के ला दे ज़ुबाँ पे जिनके दिलों में मेहमान होती है  जिसनें भी इनको दिल में जगह दी  उनकी बहुत कदरदान होती है  चाहे दवा दे चाहे दुआ दे दोनों सूरतों में वरदान होती है  मज़हब न कोई है लफ़्ज़ों का  हर मज़हब का ईमान होती है      © दीप्ति सिंह "दीया"

चाहत ©परमानन्द भट्ट

 चाह फिर से मचल रही होगी याद रह रह उछल  रही होगी जो उडा़ती है रात की नींदें कोई दिलक़श ग़ज़ल रही होगी चाँदनी आज चाँद के सँग में ख़ूब छत पर टहल रही होगी आँख में आज कैसी हलचल है "कोई ताबीर पल रही होगी" रोज़ तितली को खींच जो लाती ख़ुशबुओं की फ़सल रही होगी ओस की  बूँद  फूल पर क्यूँ है कोई पीड़ा पिघल रही होगी ख़्वाब में वो 'परम' की चाहत ले नीन्द के गाँव चल रही होगी © परमानन्द भट्ट

ग़ज़ल ©प्रशान्त

 मुक़द्दर हर क़दम पर इक नया तूफ़ान देता है l ख़ुदा जब-जब परख़ता है, नई पहचान देता है ll उतर जाता है चेहरा और आंखें सच बताती हैं... अगर झूठी सफाई झूठ पर इंसान देता है ll सनम से दूर जाने का हमारा दिल नहीं करता... ये पापी पेट ही है जो सफ़र वीरान देता है ll ये सारी दौलतें , ये रौनकें फीकी तेरे आगे.... मेरे बच्चे तेरा दीदार ही मुस्कान देता है  ll हमें ये नौकरी परदेस तक भी खींच लाई है.... नफ़ा का बे-वजह अरमान भी नुक़सान देता है ll मैं अपने साथ अपने देश की मिट्टी ले आया हूँ.... सुकून-ए-दिल, सुकून-ए-रूह हिन्दोस्तान देता है ll © प्रशान्त

ग़ज़ल ©संजीव शुक्ला

 कुछ मुख़्तलिफ़ मुआयने हैँ और क्या कहें l लफ़्ज़ों से ज़ुदा मायने हैँ और क्या कहें l तस्वीर कसौटी पे है हर अक़्स परख पे...  हम हैँ हज़ार आईने हैँ और क्या कहें l रुस्वाइयाँ,अज़ीयतें,हज़ार ज़िल्लतें..  फिर बेवज़ह उलाहने हैँ और क्या कहें l भूखे हुजूम भेड़ियों के हैँ शिकार पर... मासूम चंद मेमंने हैँ और क्या कहें l ज़ेर-ओ-ज़बर निग़ाह ने देखे हज़ार बार...  कितने अज़ाब देखने हैँ और क्या कहें..  आदत नहीं है दिल में कोई राज रख सकें..  जो हैँ वो सबके सामने हैँ और क्या कहें l     © संजीव शुक्ला 'रिक्त'

आजादी ©सरोज गुप्ता

 जब भारत माँ थी पराधीन थे कष्ट भरे वो दिन कितने आँखों में माँ के लालों के बस आजादी के थे सपने ,  जब जलियांवाला कांड हुआ माता की छाती छेद गया कितने बेटों के सीने को गोरी बर्बरता बेध गया ,  माँ के बलिदानी बेटों का तब धीरज मन का डोला था ।  आजादी लेकर मानेंगे ये बच्चा बच्चा बोला था ।।  अठ्ठारह सौ सत्तावन में जब बिगुल बजाये थे मंगल  कितने बाँके सर बाँध कफ़न तब निकल पड़े करने दंगल ,  पंजाब केसरी लाला जी साइमन विरोध पुरजोर किये दामोदर, तिलक, गोखले भी निज सर्वस से मुख मोड़ लिये ,  आजादी के मतवालों का जब रँगा बसन्ती चोला था ।  आजादी लेकर मानेंगे ये बच्चा बच्चा बोला था ।।  बिस्मिल के गीत देश हित में जन जन में फूँके इंकलाब बटुकेश्वर दत्त,राजगुरू भी मन में दहकाये क्रांति आग ,  वो वीर भगत सिंह ही तो थे जो हँस कर चूमें फाँसी को लक्ष्मी बाई खुद जीते जी छूने ना दी निज झाँसी को ,  प्राणों पर खेल चंद्रशेखर  काकोरी खज़ाना खोला था ।  आजादी लेकर मानेंगे ये बच्चा बच्चा बोला था ।।  पंद्रह अगस्त सन् सैतालिस वो शुभ दिन कितना पावन था भारत माता आजाद हुईं वो मंज़र बड़ा सुहावन था ,  आखिर वीरों की कुर्बानी  बेकार न

मणिमय भारत ©नवल किशोर सिंह

स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं  भूमंडल में सबसे न्यारा । मणिमय भारत देश हमारा ।। आर्षजनों की धरा सुहावन। सत्य सनातन प्रज्ञा पावन ॥ सकल भुवन में गूँज अपरिमित, अनुनाद अलौकिक ओंकारा । मणिमय भारत देश हमारा ॥ दीप्ति दिव्य मेधा में जागे । बनके तुरग तिमिर तम भागे ॥ अरुण किरण फूटे पूरब में, फैले अग-जग में उजियारा ।   मणिमय भारत देश हमारा ॥ विद्रुम वैभव कनक कलश से । पुलक पात नित सिद्धि हुलस से ॥ स्वयं रमा रमकर करती है, नित वैभव को जहाँ निहारा। मणिमय भारत देश हमारा ॥ हिमगिरि उन्नत सिर नभतल में। सागर सविनय है पगतल में। अभिसिंचित करती है हरदम कलकल सुरसरि अमरित-धारा। मणिमय भारत देश हमारा ॥ -© नवल किशोर सिंह

कठपुतली ©अनिता सुधीर आख्या

 आँख में अंजन दांत में मंजन  नित कर नित कर नित कर नाक में ऊँगली कान में लकड़ी  मत कर मत कर मत कर".. कितनी सरलता से हँस-हँसकर  जीवन का पाठ पढ़ाती थी वो दूसरों के हस्त संचालन से नाचती काठ की कठपुतली थी वो... जिज्ञासा थी बालमन में कैसे डोर से बंधी ये नाचती होगी.. पर्दे के पीछे कमाल सूत्रधार का  जो उंगलियों से उन्हें नचाता होगा... जिज्ञासा अब शांत हो रही  अब डोर है कितने अदृश्य हाथों में... काठ के तो नहीं   भावनाएं है कुछ सपने  कुछ आकांक्षाएं है.. निपुणता से संचालन करते हैं लोग  परिवार धर्म मर्यादा रिश्तों के नाम पर कितनी बखूबी से नचाते है लोग.. वो काठ की कठपुतली थी दूसरों के इशारे पर नाचती थी वो  और अब... © अनिता सुधीर आख्या

उठते भाले का शोर सुनो ©गुंजित जैन

 हम तुम पर गर्व जताते हैं, इस दिन को पर्व बताते हैं, नदियां भी बहने लगती हैं, यह पर्वत भी मुस्काते हैं। स्वर्ण लिए जब "नीरज" आए, लगती खिलती सी भोर सुनो।। उठते भाले का शोर सुनो।। जग-संसार प्रफुल्लित करती, खुशियां सब में शोभित करती, नवयुवकों के चंचल मन को, सख्त भुजाएं प्रेरित करती। मिट्टी में उपजे हीरे के, इन हाथों का यह ज़ोर सुनो।। उठते भाले का शोर सुनो।। करतल ध्वनि का कलरव देखो, पूर्ण देश में उत्सव देखो, देख तिरंगा सब से ऊंचा, भारत माँ का गौरव देखो। हर भारतवासी की रग में, विजयी चर्चे हर ओर सुनो।। उठते भाले का शोर सुनो। © गुंजित जैन

मौत © विपिन बहार

  जिंदगी से हारना भी मौत है । मौत को यूँ चाहना भी मौत है ।। बंद कमरे ,बंद घड़िया कह रही । दर्द को यूँ काटना भी मौत है ।। बढ़ रही है जमघटो में त्रासदी । साथ खुशियां बाटना भी मौत है ।। शक किया बस शक किया है आज-तक । प्यार को यूँ मापना भी मौत है ।। चाल बाजों का जहाँ है ऐ मियाँ । झूठ खुद पर लादना भी मौत है ।। जिंदगी में बात ये अब गाँठ लो । आरजू का काँपना भी मौत है ।। © विपिन"बहार"

श्रृंगार अश्रुओं का ©रेखा खन्ना

 अश्रुओं के श्रृंगार से आंँखों का काजल घुल रहा है एहसास बन चक्षुओं से निकल कर बस गालों पर बिखर रहा है मन की बुझती हुई राख को भड़काने की कोशिश में ज़ज्बातों की हवा के हवाले कर रहा है अनगिनत एहसासों को इक काली लकीर में पिरो कर जग जाहिर कर रहा हैं कुछ अनकही बातें हैं जो शब्दों को तलाश रही हैं और कुछ शब्द है ऐसे जो आवाज़ के रूंँध जाने की  आस में घुल रहें हैं मन की व्यथा  दिल ही दिल में निरंतर गुफ्तगू में लगी हुई है फुसफुसाते हुए कानों में ना जाने क्या क्या  अस्पष्ट शब्दों में  बयांँ कर रही है काला रंग काजल का आंँखों से निकल कर दिमाग़ पर कब्जा कर रहा है अश्रुओं का श्रृंगार अब सब ख्यालों को धूमिल कर धीरे-धीरे खुशियांँ निगल रहा है। © रेखा खन्ना

प्यारी माँ ©रानी श्री

  ये चिट्ठी लिख रही हूँ एक खास मकसद से। एक बात जानती हो, तुम्हारी बेटी अब बड़ी हो गई है। अब देखो ना जब से तुम गांव गयी हो तब से पूरा घर मैंने ही तो संभाला है। सुबह देर तक सोने वाली लड़की अब जल्दी उठ जाती है। और पूजा पाठ करके रसोई संभालना और फ़िर सुबह से लेकर शाम तक कक्षाएं करना और फ़िर रात को खाना बनाना वो भी अकेले ही बिन किसी की मदद लिये। पहले पहल तो लगता था कि कैसे होगा मगर इतने दिनों में आदत लग गयी है तो सब हो जाता है। मन नहीं भी हो तो भी सब कर लेती हूँ। अब तो रोटियाँ भी अच्छी बनाने लगी हूँ। तुम्हें जान कर बहुत खुशी होगी कि तुम्हारी बेटी की जो एक कमी थी अब वो भी पूरी हो गयी। पहले कुछ दिन तो मैं थोड़ी मोटी रोटियाँ बनाती थी मगर अब धीरे धीरे पतली रोटियाँ बनाने लगी हूँ। मोटी रोटी पर एक बेलन और लगेगा अभी तब पतली होंगी। पहले ही दिन से रोटियाँ अच्छी बनने लगी थीं, यही सोच आश्चर्य होता है कि कैसे हो गया। और उनके आकार भी लगभग गोल ही रहते हैं , बाकी नौसिखिए जैसे नहीं कि कहीं का मानचित्र बना दिया। तुम देखोगी तो आश्चर्य में पड़ जाओगी कि बिन सिखाए मैं रोटियाँ कैसे बनाने लगी वो भी गोल गोल फूली हुई

है! © सौम्या शर्मा

 हार क्यों मानें जिंदगी तुझसे? हममें भी जूझने का हौसला है! चाहे ग़म दे या दे खुशी हमको! हमको मालूम है ये सिलसिला है!! कुछ तो बात होगी मुझमें भी! साथ जो आज मेरे काफिला है! राहों से अब नहीं घबराती मैं! मुझको मंजिलों का पता है! वो जो बख्शे मुझे खुदा मेरा! मुझको दुनिया से क्या गिला है! मुझको जब वो मिला नसीबों से! ऐसा लगता है जैसे सब मिला है!                                              © सौम्या शर्मा

ग़ज़ल ©संजीव शुक्ला

 सभी की खैर की चाहत तुम्हारी l मियाँ अच्छी नहीं आदत तुम्हारी l बिना माँगे मयस्सर हो किसी को..  करेगा क्यों कभी कीमत तुम्हारी  l यहाँ मेहमान हो तुम बिन बुलाये..  कोई कैसे करे इज्जत तुम्हारी  l सुनो, सच की जरूरत ही कहाँ है...  अगर हो झूठ मेँ लज्जत तुम्हारी ll उसे तुमसे अगर मतलब न होता..  तो क्यूँ करता भला ख़िदमत तुम्हारी l परेशाँ हो किसी की फ़िक्र मेँ फिर..  उडी है आज फिर रंगत तुम्हारी l न हो ज़ेर-ओ-ज़बर कुछ ज़िन्दगी मेँ..  अजी ऐसी कहाँ किस्मत तुम्हारी l © संजीव शुक्ला

तृष्णा ©परमानन्द भट्ट

 तृष्णा तृप्त हुई ना अब तक बीती जाती यार उमरिया रेत रेत रिश्तों की नदिया कहाँ भरेगी  नेह गगरिया पनघट पनघट प्यास नांचती सूख गया आँखों का पानी खाली खाली गगरी लेकर कहाँ चल पड़ी ओ दीवानी बिका बिकी का खेल अनौखा चलता है जग के मेले में महफिल महफिल जो हँसता है, रोता वही अकेले में मन मरुथल की सूनी सूनी खाली खाली आज डगरिया पपड़ाये सूखे अधरों को नेह नीर भी कब मिल पाया उम्मीदों की गागर खाली जीर्ण हुई जाती है काया फिर भी काया की मनिहारिन इस मेले में भटक रही हैं थके थके बोझिल नयनों मे कुछ उम्मीदे लटक रही हैं उम्र गुजरती पर ना मिलती नेह नीर की हमें खबरिया । © परमानन्द भट्ट

भारत माता की जय ©सरोज गुप्ता

आप सभी को स्वतंत्रता दिवस की अग्रिम शुभकामनाएँ एवं हार्दिक बधाई 🙏🙏🇮🇳🇮🇳💐💐  पन्द्रह अगस्त , सन् सैतालिस आया मुश्किल से पावन दिन ,  कितने रणवीर शहीद हुए तब जा के मिला सुहावन दिन ।  वो बोस, भगत सिंह, चंद्रशेखर जिस धरती के हैं सुत अजेय ,  पावन है भारत की धरती पावन भारत की सैन्य ध्येय ।  जिस धरती पर हम जन्म लिए उसकी रक्षा का लें निश्चय ,  आओ हम गर्व सहित बोलें पावन भारत - माता की जय ।।  छ: ऋतुओं वाली यह भूमि सम्पूर्ण जगत में है विशेष ,  सभ्यता जहाँ पर पलती है ऐसा है अपना पूज्य देश ।  कल - कल करती जिसकी नदियाँ मस्तक पर मुकुट हिमाला है ,  सागर है चरण पखार रहा रामेश्वर जहाँ शिवाला है ।  निर्विध्न रूप से जीव जहाँ जीता है हो करके निर्भय ।  आओ हम गर्व सहित बोलें पावन भारत - माता की जय ।।  जब दिया शून्य इस भारत ने तब दुनियाँ को गिनती आई ,  इस नभ मंडल की भाषा भी दुनियाँ को हमने सिखलाई ।  जब लिया दशमलव भारत से तब चाँद पे पहुँचा ये जहान ,  अब विश्व गुरू की राहों पे है निकल पड़ा भारत महान ।  अब इसे नहीं बँटने देंगे लें आज अभी हम ये निर्णय ।  आओ हम गर्व सहित बोलें पावन भारत - माता की जय ।।  आओ ह

तेरे होने से ©दीप्ति सिंह

 क्या कहें जानें जाँ किस क़दर प्यार है तेरी उल्फ़त से साँसों में रफ़्तार है  ख़्वाब से ख़ूबसूरत है बातें तेरी  तेरी ख़ामोशियाँ भी असरदार है हम महकते रहे हम बहकते रहे हमनें जबसे किया तेरा दीदार है  हमनें देखा नहीं है ख़ुदा को कभी  तेरी सूरत में देेखा हरेक बार है तेरे होने से है ज़िंदगी ज़िंदगी  बिन तेरे सारी दुनियाँ भी बेकार है    बस ये ख़्वाहिश रही साथ तेरा रहे  अब किसी की कहाँ हमको दरकार है  मेरी साँसों में ख़ुशबू तेरी घुल गई और मुझमें घुला तेरा किरदार है © दीप्ति सिंह "दीया"

ज़िंदगी ©सुचिता

 डूबते  तो  कभी  हम  उभरते  रहे । रौ  में  दरिया  तेरे  यूँ  ही  बहते  रहे  इस तरह भी बसर  जीस्त करते रहे.. चोट  खाते  रहे  और   हँसते  रहे । ज़िंदगी की पढ़ाई मुसलसल रही .. इंतिहाँ  भी  ब-दस्तूर  चलते   रहे । काश और आस के जंगलो में फँसे .. जाने कब से तसलसुल भटकते रहे । रूक जा ऐ ज़िंदगी ठैर जा तू ज़रा .. छाले हम पा के, कब-तक यूँ सिलते रहे?  जी तो लेने दे उन लम्हों को भी कभी .. राह- ए-दिल से सदा जो गुज़रते रहे । रात यूँ याद आई किसी ख़्वाब की … गुफ़्तगू  चाँद  तारो  से  करते रहे  । ख़ैर है !  रौशनाई  रही  हाथ  में  … शुक्र हम तो , खुदा तेरा करते रहे । “सूचि” माने भी तो हार कैसे कोई … ख़्वाब पलको में कल के जो पलते रहे ।          © सुचिता

गीत- भारतवर्ष ©प्रशान्त

 'संसार  ही  परिवार है',  यह  प्यार भारतवर्ष है  l सम्पूर्ण मानव-जाति  का उद्धार भारतवर्ष है ll पर्वत मुकुट, सागर चरण, कृषिक्षेत्र सुंदर मध्य में l निर्झर, नदी, झीलें, सरोवर , कूप हैं सानिध्य में ll भू-भाग मैदानी, पठारी , नग, मरुस्थल, वन कहीं l जीवन-सुलभ पर्यावरण, रमणीय षट्-ऋतुएं यहीं ll आकार  मानुष-सम अहा ! साकार भारतवर्ष  है  l सम्पूर्ण  मानव-जाति  का  उद्धार भारतवर्ष  है ll इतिहास साक्षी है  हमारे  पूर्वजों  के  ज्ञान  का l वेदों, पुराणों, शस्त्र-शास्त्रों के महा-उत्थान का ll अद्भुत  हड़प्पा और मोहनजोदड़ो  की  सभ्यता l अवशेष में भी शेष है अनुपम, विलक्षण योग्यता ll मापन दशमलव, शून्य आविष्कार भारतवर्ष  है  l सम्पूर्ण  मानव-जाति  का  उद्धार  भारतवर्ष  है  ll कोई बताए  स्वर्ण का पक्षी  रहा  आधीन  कब ? लौटे सिकंदर , गजनवी , अँग्रेज खाली हाथ सब l कुम्भा, शिवाजी, मौर्य, पृथ्वीराज का सम्मान हम l साँगा, महाराणा, भगत, आजाद की संतान हम ll 'बालक भरत' की सिंह को ललकार भारतवर्ष है l सम्पूर्ण मानव-जाति  का  उद्धार  भारतवर्ष  है  ll अश्फ़ाक़, बिस्मिल,राजगुरु, हममें विवेकानन्द भी l श

बेटे और पापा का रिश्ता ©तुषार पाठक

  कितना अज़ीब है न बेटा और पापा का रिश्ता, यहाँ प्यार से ज्यादा तक़रार दिखती है, लड़को को पापा से हज़ार शिकायत दिखती है, दोनों   में  इतनी नही बनती की आज तक पापा बेटे से  गले मिले हो । एक तरफ़ पापा की सख्ती में अपने बेटे को उसकी मज़िल तक पहुँचाने  की चाह छिपी होती है, तोह वही लड़को की ज़िद्द में उनके माँ पापा का नाम रोशन करने की इच्छा होती है। कितना दिलचस्प है न...  पापा और बेटे में फ़ोन पर बात २ मिनट से ज़्यादा नही होती। पापा का दिल पढ़ना किताब पढ़ने जितना आसान भी नही। पापा वह है जो दिल के अरमानों को बिना बोले पूरा कर देते है, पापा वह है जो अपने लिए कभी कुछ नही माँगते यहाँ तक की वह अपने लिए नही अपने बच्चो के लिए पाप करने के लिए तैयार रहते है। बेटा देखता है अपने पापा को वही पुराने कपड़े पहने हुए त्यौहार पर खुद के लिए छोड़ सब के लिए कुछ न कुछ खरीदेते हुए,वह भी चाहता है कि पापा की ख़्वाहिश को पूरा करे । कहते है न मुसीबत की क्या मज़ाल... पापा का साया ही काफ़ी है। पापा वह अनमोल हीरा है जिसका कोई मोल नही। पापा और बेटे का रिश्ता कुम्हार और कच्चे घड़े जैसा है.. कुम्हार की ठोकर ऊपर से दिखती है, अंदर से दिया गया

यार ©गुंजित जैन

 खूबसूरत हर तराना यार से, हर ख़ुशी का हर बहाना यार से। रास्ते मेरे यहाँ गुम हैं कहीं, मंज़िलों का है ठिकाना यार से। अक़्स दिखता है मुझे मेरा वहाँ, आइना कोई पुराना यार से। शायरों की शायरी है दोस्ती, ये मिज़ाज़-ए-शायराना यार से। मुश्किलों में साथ हर दम है खड़ा, है मेरा सारा ज़माना यार से। इस जहां में दर-ब-दर हूँ ढूंढता, पर नहीं रिश्ता सुहाना यार से। अश्क़ "गुंजित" वो चुरा लेता सभी, बेवजह ही मुस्कराना यार से। ©गुंजित जैन