ज़िंदगी ©सुचिता

 डूबते  तो  कभी  हम  उभरते  रहे ।

रौ  में  दरिया  तेरे  यूँ  ही  बहते  रहे 


इस तरह भी बसर  जीस्त करते रहे..

चोट  खाते  रहे  और   हँसते  रहे ।


ज़िंदगी की पढ़ाई मुसलसल रही ..

इंतिहाँ  भी  ब-दस्तूर  चलते   रहे ।


काश और आस के जंगलो में फँसे ..

जाने कब से तसलसुल भटकते रहे ।


रूक जा ऐ ज़िंदगी ठैर जा तू ज़रा ..

छाले हम पा के, कब-तक यूँ सिलते रहे? 


जी तो लेने दे उन लम्हों को भी कभी ..

राह- ए-दिल से सदा जो गुज़रते रहे ।


रात यूँ याद आई किसी ख़्वाब की …

गुफ़्तगू  चाँद  तारो  से  करते रहे  ।


ख़ैर है !  रौशनाई  रही  हाथ  में  …

शुक्र हम तो , खुदा तेरा करते रहे ।


“सूचि” माने भी तो हार कैसे कोई …

ख़्वाब पलको में कल के जो पलते रहे । 

        © सुचिता


टिप्पणियाँ

  1. बेहतरीन मर्मस्पर्शी गज़ल 👌👌👌👏👏👏🙏

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