ज़िंदगी ©सुचिता
डूबते तो कभी हम उभरते रहे ।
रौ में दरिया तेरे यूँ ही बहते रहे
इस तरह भी बसर जीस्त करते रहे..
चोट खाते रहे और हँसते रहे ।
ज़िंदगी की पढ़ाई मुसलसल रही ..
इंतिहाँ भी ब-दस्तूर चलते रहे ।
काश और आस के जंगलो में फँसे ..
जाने कब से तसलसुल भटकते रहे ।
रूक जा ऐ ज़िंदगी ठैर जा तू ज़रा ..
छाले हम पा के, कब-तक यूँ सिलते रहे?
जी तो लेने दे उन लम्हों को भी कभी ..
राह- ए-दिल से सदा जो गुज़रते रहे ।
रात यूँ याद आई किसी ख़्वाब की …
गुफ़्तगू चाँद तारो से करते रहे ।
ख़ैर है ! रौशनाई रही हाथ में …
शुक्र हम तो , खुदा तेरा करते रहे ।
“सूचि” माने भी तो हार कैसे कोई …
ख़्वाब पलको में कल के जो पलते रहे ।
© सुचिता
बेहद उम्दा गज़ल डियर 👌👌👌
जवाब देंहटाएंशुक्रिया ❤️❤️😊
हटाएंWaah , Bahut badhiya Didi 👌👌
जवाब देंहटाएंshukriya bhai 😊
हटाएंWahhhh mast
जवाब देंहटाएंshukriya ❤️❤️😊
हटाएंउम्दा ग़ज़ल 👏👌
जवाब देंहटाएंshukriya 😊
जवाब देंहटाएं❤️❤️
हटाएं👌👌👏
जवाब देंहटाएंबेहतरीन मर्मस्पर्शी गज़ल 👌👌👌👏👏👏🙏
जवाब देंहटाएंशुक्रिया डियर ❤️😊❤️
जवाब देंहटाएंवाह
जवाब देंहटाएंशुक्रिया आपका 🙏🏻🙏🏻
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