संदेश

मार्च, 2022 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

कहानी-पूजा के फूल ©संजीव शुक्ला

                             हरा भरा खुशहाल छोटा सा गाँव ..ऊँचे ऊँचे पेड़ों के बीच बने खपरैल  के छोटे छोटे घर ..गाय के गोबर से लीपे गए बड़े-बड़े आँगन .उनमे खेलते-कूदते हँसते खिलखिलाते किलकारियां मारते भागते दौड़ते अधनंगे बच्चे ..दालान में रस्सी की खाट डालके बैठे बीड़ी का धुँआ उड़ाते आपस में गप्प करते कुछ बुज़ुर्ग ..घूँघट  निकाल के आपस में हंसी मज़ाक करतीं अपने रोज़ के काम में व्यस्त महिलाएं ..कच्चे रास्ते  पर थोड़ी और आगे चलकर ठीक गाँव के बीचो बीच .बड़ी विशाल  पक्की हवेली ..गाँव के सभी लोग हवेली को बखरी कह्ते हैं ..बखरी में रहते हैं पुराने ज़मीदार.. बड़े बब्बू और नन्हे बब्बू ..के नाम से गाँव के लोग इन्हे जानते हैं बखरी के सभी सदस्यों के प्रति सभी गाँव वालों के मन में बहुत आदर है ..आज भी आपस के छोटे मोटे विवाद बखरी पहुंच कर निपट जाते हैं ..बड़े बब्बू लगातार कई सालों से क्षेत्र के विधायक हैं .अधिकतर शहर में रहते हैं गाँव में कभी कभार आना होता है ..नन्हे बब्बू कुश्ती कसरत और करिंदों के साथ घूमने फिरने में व्यस्त ..कभी कभी नन्हे बब्बू खुली जीप में अपने लठैत कारिंदों के साथ गाँव की मुख्य सड़क पर निकलते है

गीतिका ©अनिता सुधीर

 शूल को पथ से हटाने का मजा कुछ और है। वीथिका को नित सजाने का मजा कुछ और है।। व्यंजना या लक्षणा में भाव हृद के व्यक्त हों छंद को फिर गुनगुनाने का मजा कुछ और है।। क्लांत बैठा हो पथिक जब जिंदगी से हार कर पुष्प उस पथ में बिछाने का मजा कुछ और है।। पंख सपनों को लगाकर दूर बाधा को करें मुश्किलों के पार जाने का मजा कुछ और है।। चाल चलकर काल निष्ठुर ओढ़ चादर सो रहा लालिमा में चहचहाने का मजा कुछ और है।। पीर की सामर्थ्य क्यों अवसाद को नित जोड़ती वेदना में मुस्कुराने का मजा कुछ और है।। कौन हूँ मैं क्या प्रयोजन द्वंद्व अंतस ने लड़ा  लक्ष्य को फिर से जगाने का मजा कुछ और है।। ©अनिता सुधीर

कदाचित ©लवी द्विवेदी

 शिथिल पिपासा विभावरी की अनघ कामना,   कभी कदाचित तिमिर ओज हों एक कल्पना।  भाँति भाँति उन्मादित आशावादी तारें,  क्षण समक्ष, क्षण-क्षण विलुप्त होकर दिखलातें।  एक पंक्ति की थाह समझ, क्षण अगणित शोभा,  दूर क्षितिज पर बैठे जन विचलित हो जातें।  भ्रमर प्रकृति है भृङ्ग मनुज की मूक यातना।   कभी कदाचित तिमिर ओज हों एक कल्पना।  एक वृक्ष की रुग्णित डाली श्याम अमा सी,  हो विह्वल वह मूक अवस्था सी दिखलाती।  पर खद्योत रश्मि छवि संमुख पादप पाकर,  संजीवनी मधुर स्मृतियाँ क्षण दर्शाती।  खग अनुपस्थित रात्रि अचल पर सुखद भावना।  कभी कदाचित तिमिर ओज हों एक कल्पना।  विलग भाव की आभा ही अंगार हुई जब,  तीन पहर क्या सदी बीतते बात वही है।  सरिता की कल-कल करती भयभीय निशा में,  उदयकाल मेँ मनु मन गंगा, पावन ही है।  भाँति समय में भाँति-भाँति की ज्ञान साधना।  कभी कदाचित तिमिर ओज हों एक कल्पना।  ©लवी द्विवेदी

नज़्म चोरी हो गई ©हेमा काण्डपाल

 थी ज़हन की कोठरी में बंद जब वो ख़ुश बहुत थी वो मुक़द्दस वो थी पारस हर गली में फिरती रहती  तंग गलियाँ उसको भाती शाम ,दिन या दोपहर हो  नज़्म हूँ मैं नज़्म हूँ मैं  गा के सब को ये बताती  और बदले में कई रंगीन सपने संग लाती  मुझसे कहती - "लोग मुझको जब सुनेंगे क्या कहेंगे?" क्या मुझे वो प्यार देंगे?  या मुझे दुत्कार देंगे?  और सुनो उनवान मेरा ठीक है क्या?  और ये लफ़्ज़ों की माला ?  नूर नज़्में कहने वाली ख़ास लड़की कुछ तो बोलो! याद झुमके , बात कंगन और बिंदी है ये नुक़्ता तो कहो सब ठीक है ना?  अब सुनो जल्दी से मुझको भेंट कर दो इस ज़हाँ को भेंट कर दो?  गुम गई तो  और चोरी! ना न ना ना  मुझसे ना हो पाएगा ये कह दिया तो कह दिया बस! वो मगर ज़िद्दी बड़ी थी  बात मेरी इक न मानी  और ज़हन से कूद कर उतरी ज़मी पर  गाँव ,कस्बे, वन ,नदी ,पर्वत सभी घूमी वो जी भर  और इक दिन  मुझसे बोली - " जानती हूँ! तुमने मुझको है बनाया कुछ हसीं सपनों को चुनकर  मखमली ख़्वाबों को बुनकर  और इक एहसान कर दो मुझको महफ़िल में पढ़ो तुम" मैंने बोला सुन री पगली  महफ़िलें अब ग़ुम गईं हैं  रौनकें सब थम गईं हैं पहले सी गर बात होती 

उलझन ©रेखा खन्ना

 उलझता हूँ अब अक्सर अपने ही ख्यालों और ख्वाबों से कितना भी समझाऊँ ख्वाबों को, हटते नहीं है बेवजह दिल जलाने से। थी जिंदगी थोड़ी उलझी और थोड़ी सुलझी हुई सी मन है कि जाने क्यूँ हटता नहीं है मरू में फूल खिलाने से। वो बारिश में भीगी मिट्टी की सौंधी खुशबू लिए दाखिल हुए जिंदगी में तल्लिखियाँ मेरी बाज ही ना आई बेवजह दिल दुखाने से। जमाने को जाने क्यूँ भाता है मोहब्बत में तारे तोड़ लाना मैं क्यूँ अलग हूँ जो रो देती हूँ एक तारे के बेवजह टूट जाने से। समंदर अपनी अथाह गहराई को दिखाता है डूबाने के बाद मोहब्बत में डूबा दिल क्यूँ हटता नहीं खुद को तबाह कर रूलाने से। कहने को जिंदा हूंँ पर मरघट हूँ अपने ख्वाबों और ख्यालों का  मैं मरघट हूँ याँ ख्वाहिशों को मज़ा आता है खुद को मुझ में दफनाने से। किनारे के तटस्थ पत्थर जानते हैं कि लहरें उनकी ना होंगी कभी बीच समंदर की लहरें फिर क्यूँ हटती नहीं मोहब्बत जताने से। तकदीर ऐसी ना थी कि जी भर कर हँसते किसी के सँग कभी सुख दुःख बाँटने की चाहत में जाने क्यूँ दिल हटता नहीं है हक जताने से।  ©रेखा खन्ना

शहादत और आजादी ©प्रशान्त

पहुँच कर मंजिलों पर क्यूँ सफ़र हम भूल जाते हैं ?  सदाएँ  वक़्त  देता  है , अगर  हम  भूल  जाते  हैं  l नहीं!  हम शाम  नब्बे  साल  पहले की  नहीं  भूले l भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव फाँसी चूम जब झूले l शहादत  मार्च  तेइस  को  हुई  थी, याद  है  हमको,  शहादत का सबब क्या था , मगर हम भूल जाते हैं l पहुँच कर मंजिलों पर क्यूँ  सफ़र हम भूल जाते हैं ? पले थे सैकड़ों तूफान , जिनकी  नब्ज़ में  आकर l मशालों ने पकड़ ली आग, जिनसे  रौशनी पाकर l जगी आवाम तब जाकर, हुआ आजाद  हिंदुस्ताँ,  खुली कैसे मगर उसकी नज़र , हम भूल जाते हैं ?  पहुँच कर मंजिलों पर क्यूँ सफ़र हम भूल जाते हैं ?    लहू सत्रह-अठारह साल में जिनका बहा होगा l न  जाने  इंकलाबी  हौसला  कैसा  रहा  होगा ?  वतन के आशिकों की हर कहानी याद है हमको,  वतन पर जाँ लुटाने का हुनर हम भूल जाते हैं l पहुँच कर मंजिलों पर क्यूँ  सफ़र हम भूल जाते हैं ? फिरंगी उस हुकूमत से महज़ आजाद होना था ?  बहा था खून क्यूँ ग़र , इस तरह बर्बाद होना था ?  हुकूमत  में  कभी  गोरे,  कभी  काले  रहे  लेकिन ,  वतन हर दम रहा है दर- बदर , हम भूल जाते हैं ?  पहुँच कर मंजिलों पर क्यूँ सफ

मुझसे भी बेहतर देखा था ©अंशुमान मिश्र

 तुमने  मेरे   खालीपन  को, मुझसे भी बेहतर देखा था, काग़ज़ के कोरेपन को भी, ग़ज़लों  में पढ़कर देखा था, टूटी   आशाएंँ    देखी   थीं, आंँखों  का सागर देखा था, अच्छे  से अच्छा  देखा था, बद से भी बदतर देखा था, भरी हुई, पर खाली दुनिया, खाली गांँव, शहर देखा था, खाली  वो थाली देखी थी, खाली  कोना हर देखा था, खाली  वो  जेबें  देखी थीं, खाली खाली घर देखा था, तुमने  मेरे  खालीपन  को, मुझसे भी बेहतर देखा था, -© अंशुमान मिश्र

शिवस्तुति ©सूर्यम मिश्र

चित्र
  नमामीश शंभू.......त्रिकालं नमामी l महाकाल कालं,......कृपालं नमामी। महेश्वर,सुरेश्वर........कु-संतापहारी l प्रभो चंद्रशेखर.........भुजंगेशधारी l त्रयंतापहारी............जटाजूट शंभो,  दिगंबर दिशाधिप,.....प्रणम्यं पुरारी l पिनाकी,त्रिलोकी,...विशालं नमामी l महाकाल कालं,......कृपालं नमामी l ललाटाक्ष मोहक कृपानिधि जटाधर l परमवीरभद्रं......कपर्दी......धराधर l महादेव,....मृत्युंजयं,.......आदिदेवं, स्वयं शून्यनंतं,......स्वयंभू  चराचर l परशुहस्त........गंगालभालं नमामी l महाकाल कालं,......कृपालं नमामी l नमो चारुविक्रम,..जगद्व्याप्त शंकर l सुखं सृष्टि मूलं,......सुपर्याप्त शंकर l अनघरूप, अव्यक्त,......आसक्तिहीनं,  सदा शक्ति,..शाश्वत समनुरक्त शंकर l गिरीशं नमो,........चंद्र भालं नमामी l महाकाल कालं,.......कृपालं नमामी l ©सूर्यम मिश्र

लाचारी ©विपिन बहार

चित्र
 जिंदगी में वो करूँ तुमसे नही इंकार हों । मौत का सजदा करूँ फिर मौत से इजहार हों ।। चोट खाकर अब हमें ये तो भरोसा हो गया । प्यार जिससे कर रहे हो प्यार के हक़दार हों ।। तोड़ देती हर तरफ से ये किताबी आशिकी । आदमी यूँ प्यार में ऐसे नही बीमार हों ।। कर रहे हैं हम ख़ुदा से बस यही अब आरजू । अब हमारा एक डेरा चाँद के ही पार हों ।। हम तड़प कर ना मरे कुछ तो करो मेरे खुदा । मौत के सर पर कभी ना आँसुओ का भार हों ।। आशिक़ी ने यार हमकों यूँ मिलाया मौत से । एक शायर फिर कभी ऐसे नही लाचार हों ।।          ©विपिन"बहार" Click Here For Watch In YouTube

होली आई ©संजीव शुक्ला

चित्र
 होली आयी वन, लता,पत्र में,कुंजन में,  होली आयी खलिहान,पेड़ की डालों में l पनघट में,,घर में,कुआ, गली चौराहों में,  आज़ाद परिंदों में,..... गेहूँ की बालों में ll टेसू के उजड़े स्याह कलूटे चेहरे पर,  रंगों के कुछ छींटे पड़ते दिखलाई हैं l नूतन कोमल सिन्दूरी पुहुप गुलाल भरे,  कहते पलाश ने होली ख़ूब मनाई हैं ll यौवन की लाज भरी,मुख सिंदूरी आभा,  फागुन की लाली है बेरों के गालों में l होली आयी वन, लता,पत्र में,कुंजन में,  होली आयी खलिहान पेड़ की डालों में ll जो थाल भरे हैं खेत कनकमय रंगों की,  मदमस्त झूमते मंद-मंद मस्तानों से l पक्षीगण हो उन्मुक्त डाल से उतर उतर,  डूबें सोने के रंगों में.......... दीवानों से ll आमों की बौर सुगंध  वादियों में छायी,  चंचल फागुन की हवा बहकती चालों में l होली आयी वन, लता, पत्र में,कुंजन में,  होली आयी खलिहान पेड़ की डालों में ll इन सबकी होली देख-देख उन्माद भरी,  गाते मल्हार खेतिहर मन में मुस्काते हैं l खुश होते देख पसीना अपना श्रमिक बंधु,  होली के स्वागत गीत मधुर धुन गाते हैं ll टिप्पा, राई, कर्मा की.....ऊँची तानों में,  ढोलक,मृदंग की थाप, नगाड़ा तालों में l होली आयी वन,

लेखनी की होली ©सरोज गुप्ता

चित्र
बुरा न मानो होली है 😃😃😃🥳🥳🥳🥳 हमरे गाँव लेखनी में हल्ला हुल्लार भइले हो  होली कमाल भइले हो........  भाई रिक्त बइठ के खटिया,  जोह रहें सबही के बटिया, कउनो सुने कवीरा जे लिख के तैयार कइले हो होली कमाल भइले हो..........  भइया नवल लिए पिचकारी,  रंग लगावैं गजब करारी, उनकैं गीतन से सब बच्चा,बूढ़ जवान भइले हो होली कमाल भइले हो...........  भइया विपिन की जिम्मेवारी, भंग घोटाई अबकी बारी, पिछले साल घोट के आशिष जी बेहाल भइले हो होली कमाल भइले हो...........  दीदी अनिता लिए मिठाई, टेर लगावें कहाँ हो भाई, उनकै दीवाली कै मीठाइया बसियार भइले हो होली कमाल भइले हो...........  दीप्ति दूर झरोखे झकनी,  कहाँ पे बइठल हमरी रजनी, फागुआ गीत, मजीरा, ढोल संग लहकार भइले हो होली कमाल भइले हो............  गुझिया लइ सरोज जो आवैं, बहिन वंदना पापड़ लावैं, सौम्या भाँग पीस कै ठंडाई तैयार कइले हो होली कमाल भइले हो.............  लिए परशांत चले ठंडाई,  लपके झट से संजय भाई,  चढ़ी जो भाॅंग, परम-आनंद के सीमा पार कइले हो होली कमाल भइले हो............  पीपर, हरियर रंग बनइलें,  सूर्यम औ तुषार बउरइलें, पकड़े अंशुमान कै पोत पोत

खूब होली खेलो इस बार! ©गुंजित जैन

 भौजाई जी आकर कहतीं, होली खेलूँ इस साल नहीं, रंगों से मेरा 'लुक' बिगड़े, तो मलना मुझे गुलाल नहीं, सुधारा अपना मुख-आकार,  हुईं झटपट-झटपट तैयार। भैया जी छुपके से दौड़े, भाभी जी को रंग लगाने, भौजाई भी सरपट भागीं, अपनी कोमल त्वचा बचाने, शीघ्र उनका बिखरा शृंगार, बना रंगीन नीर की धार। सदा होती नटखट तकरार। खूब होली खेलो इस बार।। "काजल-पौडर पोत के, हुईं बहुत तैयार। केवल जल की धार से, बिखर गया शृंगार।।" °°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°° रंगों की थैली ठुकराकर, बेटी दृढ़ता से बात कहे, सूरज में वो न पड़े काली, तो खिड़की पर ही खड़ी रहे, किए जल्दी में बंद किवार, हठी है उनकी सुता अपार। थे बाबूजी चालाक बड़े छल से बाहर उसे बुलाया, देकर के नाम मिठाई का , छुपकर उसे गुलाल लगाया, छोड़ सूरज के तप्त विचार हुए सबमें उपहास हज़ार। सुखों के बंद न करना द्वार। खूब होली खेलो इस बार।। "धूप कहाँ से रोक ले, सुख की सुगम बयार। साथ पूर्ण परिवार के , खुशियों की बौछार।।" °°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°° "क्या खेलूँ क्रूर बुढ़ापे में?" चाचाजी बैठे कहकर के, चल सकता पैरों पर अपने,  आशीष यही हैं ईश्वर के, किय

ख्वाहिशें ©सम्प्रीति

चित्र
 किसी ने मुझसे पूछा कि इश्क लिखती हो महोब्बत है क्या किसी से? अब.. लिखती तो हूँ.. पर मेरी ख्वाहिशें पूरी कर सके ऐसा अभी कोई मिला नहीं, बहुत बड़ी ख्वाहिशें रखती हो शायद जो अभी तक कोई मिला नहीं, तो हमने कहा....... कि वफा करे हर हाल में ये ख्वाहिश तो नहीं, पर बेवफाई ना करे, एक ऐसा शख्स चाहिए... हर वक्त साथ रहे ये चाहत नहीं, पर जब हो तो बस मेरा ही हो, एक ऐसा शख्स चाहिए... नहीं चाहती कि बिन कहे सब समझ जाए, पर जब कहूँ कि i need you तो दौड़ा चला आए, रोऊं तो भले ही चुप ना करा पाए, पर 'मैं हूँ ना' कहकर झट से गले लगा ले, ऐसा शख्स चाहिए.. नहीं चाहती कि मेरे अलावा किसी से बात ना करे, पर दिल में बस मेरा ही नाम हो, एक ऐसा प्यार करने वाला चाहिए.. ख़ुशी सांझा करे ना करे, पर जब दुःखी हो तो बस मुझे ही याद करे, दुनिया के सामने प्यार जाहिर चाहे ना करे, पर अकेले में सीने से लगाकर 'सिर्फ तुमसे प्यार है' कहे, लोग चाहे जो कहें,  पर मेरे होने पर वो गर्व महसूस करे, और जो जबरदस्ती नहीं मेरी मर्जी को समझ सके, ऐसे दिल वाला चाहिए... ख्वाहिशों की list थोड़ी लम्बी है, तो शायद ऐसा कोई ना मिले, गर मिले

बहुत है ©परमानन्द भट्ट

 अकेले में हमें मिलता बहुत है मगर वो भीड़ में बचता बहुत है यही  है वक्त की उससे शिकायत गमों के दौर में हँसता बहुत है जिसे दुनिया दिवाना कह रही है हमें वह शख़्स ही जँचता बहुत है हमारे ख़्वाब में कल आप आये निभाया आपने रिश्ता बहुत है कहा जब सत्य हमने लोग बोले ये पागल आदमी बकता बहुत है तअल्लुक़ जो वतन से छोड़ आया 'मुजाहिर आँख में चुभता बहुत है' 'परम' को पा लिया जिसने यहाँ वो हमेशा मौन ही रहता बहुत है ©परमानन्द भट्ट

अभिलाषा ©लवी द्विवेदी

चित्र
 हे अविचल अविरल अलख अलंकृत अवनी,  सम मधुर सुधारस सरस सरल सरिता सी।  क्या प्रीत मोहना क्या विस्तृत जिज्ञासा,  ज्यों मध्य रही रजनी वियोग कविता सी।  जीवंत हृदय की विषम व्यग्र अभिलाषा,  क्षण भर की कल-कल दृग दुविधा से बाधित।  निर्णय क्या निर्णायक भी अंतर स्थल,  है और कहाँ गृह औषधि जल मनु आसित।  मध्यम युग अम्बुज साँझ निरखि वह हर क्षण,  वह रवि स्वर्णिम, हो कन्द युक्त ढलता है।  क्षण-क्षण आभा अतिरम्य गगन सुंदरता,  अत्यंत सुगम नभ बिम्ब मधुर बनता है।  हाँ उसी पहर से चली समय गति निर्झर,  मध्यम मध्यम सी आस पवन पावन की।  मृदु एक अकेली अभिलाषा का चिंतन,  वह रुदन समय असमय क्षण-क्षण सावन की।  वह सावन जब रोया हरियाली बिखरी,  निखरी हर क्षण हर पहर नहर नदियों में।  है बाढ़ कहाँ रिमझिम सावन श्यामल घन,  है रुदन अहो! करुणामय अलि कलियों में।   © लवी द्विवेदी

नहीं कहते ©रेखा खन्ना

तुम्हें मोहब्बत नहीं है हमसे, ये जानाँ हमें पता है यकीकन मिल कर गले मिलने को भी तो दिल से जुड़ा नहीं कहते। वाकिफ थे हम भी जमाने की दोगली रवायतों से रेशम पर अक्सर सुनहरे टाट के पैबंद को अच्छा नहीं कहते। कहावतें क्यूंँ गलत नहीं होती, अक्सर सोच कर उलझ जाती हूँ बुरा हो अगर किसी का तो कहावतों के ज्ञान को ढूँढा नहीं कहते। थी दिल्लगी बस तुमसे, प्यार का नशा चढ़ा था जहन में पर अक्सर नशेड़ी को समझदार इसाँ नहीं कहते। रात को अक्सर गले लगा कर हम  जिंदगी को अलविदा कहते सुबह की रौशनी में जब जागे, जिंदगी को अलविदा नहीं कहते। लहरों पर थी चाँदनी, दूर गगन में था चाँद  तरसती हुई निगाहों को क्यूँ प्यासा नहीं कहते। कांटों की सरपरस्ती में गुलाबों का चमन महकता है काँटो को फिर क्यूँ हम गुलदस्ता नहीँ कहते। नाराज़गी खुद से थी या इस दिल को दुखाने वाले से दिल को क्यूंँ हमारे तुम एहसासों से भरा नहीं कहते। © रेखा खन्ना

गीत ©नवल किशोर सिंह

 मेरे हिस्से हे सखी, मास मधुर कब आया?   कोयल कूके बाग में, आँगन बौर नवेली। बालम बतरस के बिना, सूनी पड़ी हवेली। दीदा फाड़े कोठरी, नजर गड़ाये कोना। खाट-पाट उच्चाट-सी, बेकल मन से सोना।   दूर सरक तकिया निठुर, बहुत मुझे तरसाया।   गुमसुम बैठी देहरी, ताखे ढिबरी पीली। अंगीठी की आँच में, सुलगे लकड़ी गीली। एक भगोना भाव का, और उबलता पानी। फदके चावल प्रीति का, बहे झाग बेमानी।   धू-धू जलती आग से, अदहन को खौलाया।   पोंछा पोतन मार के, चौके को चमकाते। राखों का अंबार है, देख कहाँ पर पाते। राख बनी लकड़ी बुझी, या चूल्हे की ज्वाला।  ऊहापोह की जिंदगी, मकड़ी बुनती जाला।   उन जालों के बीच में, मन मेरा अकुलाया।   रूप राशि निष्काम है, पीर हृदय की सोचे। बैठ अकेली जोगनी, काली अलकें नोचे। अलकों के जंजाल से, दूर भँवर वनवासी। कली-कामिनी ताकती, वन में बन उपहासी।   किस कमली की क्रोड में, भँवरा है बिलमाया। मेरे हिस्से हे सखी, मास मधुर कब आया?   -©नवल किशोर सिंह

आखिरी बाते ©तुषार पाठक

 एक सफ़ेद और कोरे काग़ज़ पर मेरी प्रिये तेरी कुछ बाते लिखते हैं,  तेरे मेरे कुछ बिताए हुए पल को मेरी कुंडली की  साढ़े साती की दशा मे राहु की अंतर्दशा का नाम देते हैं,  तेरी कही हर बात को दिल लगा कर सुनना और मेरी बाते को बिना सुने तेरा यूँ ही चले जाने को मेरी खामोशी का नाम देते हैं!  तूने जो झूठी कसमें मेरे लिए खाई थी,  अब वही कसमें तू किसी और के लिए खा रही हैं! तूने मेरे बाहों मे जो ज़िंदगी बिताने के सपने देखे थे, अब वही सपने तू किसी और की बाहों मे देख रही है!  तूने जो कभी मेरे लिए घड़ियाली आँसू  बहाए थे,  अब वही अमृत तुल्य आँसू तू किसी और के लिए बहा रही है!  तू कभी मेरे दिल के बनाए घर पर राज करती थी,  अब तू किसी और के दिलो- दिमाग़ की ज़रूरत बन गई हैं!  मै कभी तेरे आखों का कैदी था, अब तू किसी और की आँखो की मुज़रिम है!  तू कभी मेरे लिए किसी अधूरी कहानी का सारांश थी,  अब तू किसी और की ज़िंदगी का पूर्ण अध्याय है! ©तुषार पाठक

ख़ुशबू ©दीप्ति सिंह

चित्र
 वज़्न- 212 212 1222 तेरी साँसों की संदली ख़ुशबू  मेरी साँसों में है घुली ख़ुशबू  जब भी तेरा ख़याल आता है ऐसा लगता है ओढ़-ली ख़ुशबू  ज़िक्र तेरा सुकून देता है  ज़िंदगी है ये चुलबुली ख़ुशबू  ये हवा की कोई शरारत है छेड़ जाती है मनचली ख़ुशबू तू बसा है मेरी निगाहों में  तू है नज़रों की मख़मली ख़ुशबू  तेरी उल्फ़त मेरी इबादत है इश्क़ से रूह में खिली ख़ुशबू  रंग लाई है ये दुआ तेरी  आज दीया को है मिली ख़ुशबू  ©दीप्ति सिंह "दीया" Click Here For Watch In YouTube

फ़ाग ©विपिन बहार

 दिल हमारा गुनगुनाता,प्यार जाता जाग जानम । गाल हो जाते गुलाबी,सोचकर वो फ़ाग जानम ।। ओढ़नी तो झिलमिलाती,सप्तरंगी मोतियों से । रंग फेंका जा रहा था,संगमरमर खिड़कियों से ।। तुम लजाई झाँकती थी,क्या करूँगा आँकती थी । इस नजर में देखकर तुम,मन हमारा भाँपती थी ।। जब नजर की हो लड़ाई,तो बदलते राग जानम । गाल हो जाते गुलाबी,सोचकर वो फ़ाग जानम ।। नाम बिन बोले हमारा,बात सब कहती हमें थी । रंग हाथों में लिए तुम,ढूंढती फिरती हमें थी ।। लाल-केसर आसमानी,रंग कैसा घोल जाता । जब तुम्हारी इक छुअन से,मन कुँवारा डोल जाता ।। सब जला कर राख करती,दिल लगी ये आग जानम । गाल हो जाते गुलाबी,सोचकर वो फ़ाग जानम ।। फागुनी मौसम हसीं था,खेत मे सरसों लगें थे । दिल तुम्हारा जीतने में,यों बहुत बरसो लगें थें ।। तुम ख़ुदी को खोजती थी,यार मेरी शायरी में । शायरी को तुम छुपाकर,रख रही थी डायरी में ।। चाहकर भी मिट सके ना,मन जगा अनुराग जानम । गाल हो जाते गुलाबी,सोचकर वो फ़ाग जानम ।। ©विपिन"बहार"          

ग़ज़ल ©प्रशान्त

 2122 1212 22 बात इतनी समझ न आई है l दर्द है इश्क़ या दवाई है l आंख से नींद गुमशुदा सी है,  आंख जबसे कहीं लड़ाई है l रात भर करवटें हमारी हैं,  और सिलवट भरी रज़ाई है l ज़िक़्र जब भी हुआ गुलाबों का,  याद उसके लबों की आई है l जिस्म बेजान था ज़माने से जान आई तो जान आई है l दूर रहना शरीफ़ लोगों से,  ये नज़र देखती बुराई है l राह की ठोकरें तज़ुर्बा थीं,  ज़िंदगी अब समझ‌ में आई है l आज ज़ज़्बात लिख रहा हूं मैं,  बात सारी सुनी-सुनाई है l मौत क्या है 'ग़ज़ल' हक़ीक़त में,  जीस्त की क़ैद से रिहाई है l © प्रशान्त

शिव ©सरोज गुप्ता

चित्र
ब्रह्मा भी शिव, जीव भी शिव हैं,  जीवन के दृढ़ नीव भी शिव हैं । श्वास भी शिव, प्रश्वास भी शिव हैं,  जीने का विश्वास भी शिव हैं ।।  छाॅंव भी शिव औ धूप भी शिव हैं,  ऊर्जा के प्रतिरूप भी शिव हैं ।  जीवन के अवसान भी शिव हैं,  परमज्ञान व्याख्यान भी शिव हैं ।।  नर में शिव, नारी में शिव हैं,  जग के हर प्राणी में शिव हैं ।  बारम्बार नमन उस शिव को जो भोले भंडारी शिव हैं ।। © सरोज गुप्ता