संदेश

मई, 2022 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

आशिक ©विपिन बहार

 दुनिया कहती... पागल मुझको । वो कहती... आवारा है तू । चाहत कहती... मरना है अब । आदत कहती .. भोला न बन । करवट माँगे.. उसका साया । नींदें माँगे.. उसका सपना । धूप माँगे ... उसकी छाया । आँखे माँगे .. उसका तराना । जीवन माँगे .. उसका होना । बेचैनी बोले .. सिगरेट पियो । तारे बोले .. तन्हा है तू । राते बोले.. भूली-बिसरी । मौसम बोले.. रूखा है तू । चाहत कहती आशिक है तू । आसूँ कहते आशिक़ है तू सारे कहते आशिक है तू  मिलकर कहते  आशिक है तू चारो तरफ से आशिक है तू कैसी आवाजे आशिक है तू हद है यार आशिक है तू चुप हो जाओ आशिक है तू .. आशिक है तू आशिक है तू आशिक है तू © विपिन"बहार"        

रोने पे रो दिये ©परमानन्द भट्ट

 जो हो चुका  था आज उस होने पे रो दिये कुछ लोग गुज़रे वक्त के रोने  पे रो दिये है हाथ में उसको सदा मिट्टी ही मानकर जो मिल न पाया था उसी सोने पे रो दिये रोने का जिनको मर्ज था रोते रहे यहाँ पाने को रो दिये कभी खोने पे रो दिये गोदी में अम्मा की जहाँ सोया किये थे हम सिर को टिकाकर आज उस कोने पे रो दिये भाया नहीं पावन ' परम' तुलसी उखाड़ना हम नागफन की पौध के बोने पे रो दिये ©परमानन्द भट्ट

२५वीं साल गिरह ©तुषार पाठक

 माँ पापा आप दोनों को, शादी की २५वीं साल गिरह की हार्दिक शुभकामनाएं l आपकी यह जोड़ी हमेशा, ऐसी ही बनी रहे, जिंदगी का हर पल हँसी, ख़ुशी और प्यार से बीते,  हर आने वाला दिन शुभ हो, हर तकरार मे भी प्यार दिखे!  आप दोनों ने जो कुछ मेरे लिए किया है उसको मैंने पन्ने पर उतरने की कोशिश की हैं,  एक ने मुझे विनम्रता सिखाई और दूसरे ने मुझे खुद के सम्मान का अर्थ बताया l एक ने मेरी सारी अभिलाषा पूरी की,तो दूसरे ने मुझे अपनी और दूसरों की अभिलाषा को पूरा करने के काबिल बनाया l एक ने अपने हाथ से खाना लिया और दूसरे के आपने हाथ से मेरी चोटों पर मरहम लगया l एक ने ज़िंदगी के सफ़र मे पहला कदम उठना सिखाया तो दूसरे ने ज़िंदगी मे अहम मोड़ पर l एक ने संस्कारों को मेरी ज़िंदगी मे बखूबी पिरोया, तो दूसरे ने संघर्ष को ही एक मात्र सत्य बताया l एक ने जिंदगी जीने का सही रास्ता दिखाया , तो दूसरे ने ज़िंदगी जीने के उसूल बताए l एक ने कर्म मे वीर बनाया,तो दूसरे ने धर्म मे धीर बनाया! एक ने खुद को पीछे रख कर, परिवार मे रहना सिखाया,तो दूसरे ने मुसीबत मे परिवार मे आगे रह कर लड़ना सिखाया l एक ने खुद के लिए कुछ नहीं किया,तो दूसरे ने अप

श्री राम- जानकी ©वन्दना नामदेव

 छंद - कुंडल (सम मात्रिक ) चरण - 4 (दो -दो, या चारों चरण सम तुकांत ) मात्रा -22 यति - 12,10 यति के पूर्व, एवंम् पश्चात त्रिकल चरणान्त - SS (गुरु, गुरु ) जन्मभूमि अवध पुरी, राम जी तिहारी,     समस्त कर्म की धुरी, विष्णु सुअवतारी।  दशरथ श्री श्रेष्ठ तात, मात तीन रानी,    संग तीन अनुज भ्रात, नेह की कहानी ।  मर्यादित विनय शील, धीर सदाचारी,  पुरुषोत्तम सिद्ध नील, वीर धनुष धारी ।  संगिनी बन साथ चली, जानकी भवानी,  साहसी अतुल्य भव्य, दिव्य राज रानी।  राम सिया बसे साथ, हृदय में हमारे,  करते हैं कृपा नाथ, नाम जो पुकारे ।     सोहे है पीत वसन, हस्त धनुष धारी,      चंद्र बदन कमल नयन, मृदुल मंजु प्यारी।  -© वन्दना नामदेव

अधूरा सफर ©रिंकी नेगी

  सुबह जैसे ही सुप्रिया चिकित्सालय पहुंची। वार्ड बॉय सुप्रिया को बताता है कि सिस्टर कल रात को ऑक्सीजन सप्लाई रूक जाने के कारण कोविड़ वार्ड वाले मरीजों की मौत हो गयी । वार्ड बॉय की बात सुनकर सुप्रिया सुन्न रह जाती है और जल्दी से कोविड़ वार्ड में जाकर देखती है कि कही उनमें अभिनव भी तो नहीं।   सुप्रिया प्राइवेट चिकित्सालय में स्टाफ नर्स के पद पर पदस्थ थी। जहां कोविड़ वार्ड के मरीजों को अटेंड करने के लिये उसकी ड्यूटी लगी थी। कोविड़ वार्ड में अपनी सेवायें देती थी। उसी वार्ड में एक दिन एक मरीज आया "अभिनव"। अभिनव सुप्रिया के स्कूल का सहपाठी था और सुप्रिया के जीवन का प्रथम आकर्षण भी । कोविड़ हो जाने के कारण अभिनव की हालत काफी गंभीर हो गयी थी। सुप्रिया ने जैसे ही अभिनव को देखा उसे सभी पुरानी बातें याद आने लगी कि कैसे वो एक-दूसरे के साथ समय व्यतीत किया करते थे। पर स्वयं पर नियंत्रण रखते हुये सुप्रिया ने अभिनव के ईलाज हेतु समस्त आवश्यक चिकित्सकीय प्रक्रिया करना शुरू कर दी थी। चिकित्सक की सलाह अनुसार वो अभिनव का पूरा ध्यान रखती किंतु अभिनव की स्थिति में सुधार नहीं हो पा रहा था। सुप्रिया की ड्

वो....खो गई है ©दीप्ति सिंह

विधा-नज़्म   वज़्न- 122 122 122 122 मुतक़ारिब मुस्समन सालिम  वो मासूम लड़की... कहीं खो गई है । जो थी मेरे जैसी... कहीं खो गई है । वो शामें सँवारे...  अगर मुस्कुरा दे । निगाहें उठाए... तो लम्हे सजा दे  । वो उसकी हँसी भी... कहीं खो गई है । बहुत बचपना था... बड़ी सादगी थी । वो बातों की ख़ुशबू...  बड़ी ताज़गी थी । वो ख़ुशबू महकती... कहीं खो गई है । बड़ी चुलबुली थी... वो लड़की सयानी । वो नादान थोड़ी... ज़रा थी दीवानी । वो आवारगी भी... कहीं खो गई है । वो रहती है गुमसुम  हैं ख़ामोश नज़रें ... लगाए हैं उसने  लबों पे भी पहरे । कहानी है जिसकी ... कहीं खो गई है । वो धड़कन थी दिल की...  ये दिल आशना था । मेरा काम तो बस... उसे चाहना था । वो उल्फ़त सुनहरी... कहीं खो गई है । वो मदहोशियाों में.. जुनूँ बन गई थी । वो बेचैनियों में... सुकूँ दे रही थी । वो लोरी वो थपकी... कहीं खो गई है । हमें आजकल वो... बहुत याद आए । वो आकर ज़हन में... भी हमको सताए ।  जो है तिश़्नगी सी... कहीं खो गई है । मेरी इल्तिजा है... कोई ढूँढ लाए । कभी रूबरू हो...  जो ख़्वाबों में आए । वो थी ज़िंदगी सी... कहीं खो गई है । ©दीप्ति सिंह &

भारत का सत्य ©सौम्या शर्मा

चित्र
सत्य सनातन परम्परा का वाहक भारतवर्ष रहा l शाश्वत परिपाटी पर होता नव जीवन उत्कर्ष रहा ll इस धरती ने दंश सहे हैं,तीव्र हृदय आघात सहे l गहरे घाव बदन पर लिए अहिंसा क़े संदेश कहे ll भारत हारा नहीं वैश्विक नित नूतन छल-छंदों से! हारा है तो मीर जाफरों से घर के जयचन्दों से!! इस धरती ने ज्ञान दिया,वीरत्व सदा सिखलाया है l इस माँ ने चाणक्य,बुद्ध,बेटा प्रताप सा पाया है ll कोटि-कोटि है नमन धरा की पावन चंदन माटी को! चंदन सम पावन रज,सौ प्रणाम हैँ हल्दी घाटी को l हमने कर विश्वास और विश्वासघात प्रतिफल पाया! फिरभी छल-पाखंड हमारे शोणित मध्य नहीं आया ll गौरवमय इतिहास हमारा,प्रतिपल साहस देता है l सुखद भविष्य सूर्य उदयाचल से यह ढाढ़स देता है ll यह उदारता है दुश्मन को भी हम गले लगाते हैँ l किन्तु कुटिलता घाव पीठ पर विष बदले में पाते हैँ ll ~  ©सौम्या शर्मा Click Here For Watch In YouTube

उनवान- हूँ हमेशा साथ तेरे ©गुंजित जैन

रोशनी हर, राह भूले, ज़िंदगी भी चाह भूले, थोड़ा हिस्सा टूटता हो, कुछ बिखर के छूटता हो, गुम कहीं हो जब उजाले, काटने दौड़े अँधेरे, फिर भी घबराना नहीं तू, हूँ हमेशा, साथ तेरे। अश्क़ का सैलाब आए, तेरी खुशियाँ जो बहाए, हर हँसी भी बंद सी हो, मुस्कुराहट, मंद सी हो, रात में रोते हुए जब, गाल पर बन जाएँ घेरे, फिर भी घबराना नहीं तू, हूँ हमेशा, साथ तेरे। ज़िन्दगी हर पल में अखरे, तू सिमटकर, फिर से बिखरे, ख़ुद लगे, ख़ुदसे मुकरने, हर दफ़ा लग जाए डरने, आसमाँ भी छत नहीं दे, और दुनिया मुँह को फेरे, फिर भी घबराना नहीं तू, हूँ हमेशा, साथ तेरे। दर्द की रातें सताएँ, मुश्किलें बढ़ती ही जाएँ चाँदनी फ़ीकी दिखेगी, ग़म की चादर ही रहेगी, शाम बिलखे, दिन भी रोए, बस दिखे काले सवेरे, फिर भी घबराना नहीं तू, हूँ हमेशा, साथ तेरे। ©गुंजित जैन

कविता-निःस्वयुग ©संजीव शुक्ला

 प्रमाणित होंगे कथन समस्त,  चयन होगा ज़ब कर्म प्रधान l परीक्षण पर उत्तरदायित्व,  निःस्व युग का होगा अवसान l प्रज्वलित होंगे प्रज्ञा दीप,  हृदय उपजेगा अंतर्ज्ञान l जगेगा तंद्रा से चैतन्य,  भ्रमित पथ का तब होगा भान l सकल जन होंगे भिज्ञ सचेत, न मिथ्या जन प्रवाद स्थान  l परीक्षित होंगे सत्य असत्य, छद्म छ्ल की होगी पहचान l कीर्ति गाथा विरुदावलि गीत, निरर्थक जननायक यशगान l कदाचित हो चारण युग अंत,  योग्यता,गुण का हो सम्मान l स्वयंभू देव धर्म ध्वज दंड,  धार कर संतों का परिधान l कुटिलता धर्म पंथ की ओट,  रचे नित नूतन स्वार्थ विधान l सरल जन हृदय पूर्ण अधिकार, सहज कर लेते धूर्त महान l दिखाकर उज्ज्वल आगत स्वप्न,  छले जाते नित श्रमिक किसान l रचे जाते हैँ मायाजाल,  भ्रमित करते जनगण का ध्यान l प्रकट कर संकट छद्म समक्ष,  स्वार्थ मूलक विधि, छद्म निदान l मूल में है सत्ता व्यापार,  प्रकट में पूजा जप तप ज्ञान l राष्ट्र हित चोला, धर्म, सजाति,  बने हैँ सत्ता के वरदान l ©संजीव शुक्ला 'रिक़्त'

गीत - तुम बना दो ©सरोज गुप्ता

 अधर की तेरे बनूँ जो मुरली तो धुन प्रणय की कोई बना दो । मैं राधिका यदि बनूँ तुम्हारी,  स्वयं को घनश्याम तुम बना दो ।।  तेरे ही रंग में रंगी हूँ प्रियतम,  बनी हूँ श्यामा न जाने कब से ।  बना दूॅं निधिवन मैं ऑंगना जो तो घर ये वृजधाम तुम बना दो ।।  रहूँगी संग में सदा तुम्हारे,  डगर भले हो कठिन कोई भी ।  रहूँ निछावर सिया सी बनके स्वयं को श्री राम तुम बना दो ।।  ©सरोज गुप्ता

दोहा: माता ©नवल किशोर सिंह

1. चला चाक निर्माण का, माता बनी कुम्हार। माटी कच्ची पाथकर, देती है आकार। ** 2. यह तन बर्तन के सरिस, माता एक कुम्हार। अंतस आँवे में पका, गढ़न करे साकार। * 3. माता ममता मंगला, ईश्वर के अनुरूप। पंचतत्व के योग से, गढ़ती रूप अनूप। * 4. माता निश्छल लेखिका, सृजन सार उरुगाय। अक्षर अर्पण नेह से, रचती नव अध्याय। * 5. माता मेरी साँस में, हाड़-माँस में पैठ। दूर कभी होती नहीं, रही रुधिर में बैठ। -©नवल किशोर सिंह

देना! ©रानी श्री

 मुझे तुम तोहफ़े में एक ख्वाबों का शहर देना, ज़रा सी धड़कनों से इश्क़ की तुम जान भर देना। हज़ारों ख्वाहिशों की मांग रब से क्यों करूं बोलो, तुम्हीं को मांग लेती हूं,कि पूरी मांग कर देना। अभी अपनी नज़र से ये ज़माना देखती हूँ मैं, कि ख़ुद को भी ज़रा देखूं, मुझे अपनी नज़र देना।  कई सारे अधूरे लफ़्ज़ हैं मेरी कलम में यूं, मुझे पूरी ग़ज़ल करने,ज़रा तुम इक बहर देना। कई अब हो चुकी बातें दिमागी खेल की 'रानी' नहीं कुछ सोचना तुम आज,दिल अपना अगर देना। ~©रानी श्री

माँ ©विपिन बहार

 माँ के चरणों में मिलें,मुझकों चारों धाम । माँ ही मेरी है सुबह, माँ ही मेरी शाम ।। नैनों से आसूँ बहे ,जीवन लगता ख़ार । माँ तुझ बिन कुछ भी नही,मेरा यह घर बार ।। तन मेरा तपता रहा,पर माँ सहती घात । माँ तो रोती ही रही,जगकर सारी रात ।। कंधों पर चलता रहा,घर का सारा भार । माँ ही मेरी जीवनी,माँ ही मेरा सार ।।         ©विपिन बहार

नज़्म: उनवान -अलमिया ©हेमा काण्डपाल

 किसी ने क़ैद कर डाला मुझे रंगीं नशेमन में जहाँ के हर दरीचे पर  जहाँ की सब दीवारों पर  बना है एक ही चेहरा  वो चेहरा के वबा ता'मीर की जिसने वही चेहरा सताता है मुझे अब सर्द रातों में वही चेहरा के जिसपर मेरी आँखें हैं मगर वो बंद रहती हैं वो आँखें ओढ़ती हैं धूल मिट्टी की कई शालें वो चेहरा नूर चेहरा है मगर मैं उससे डरती हूँ उसे खाया हुआ है बीच से नोचा है ये किसने सदा पैवंद है जिसपर  मुझे अब इस नशेमन में बहुत आराम मिलता है यहाँ के हर दरीचे पर टंगा है अब भी वो चेहरा जिसे मकड़ी के जालों ने नए आयाम दे डाले जिसे हुगली ने अपनाया जिसे फारस ने  दफ़नाया जिसे तुर्कों ने बेचा था किसी तो पुर्तग़ाली को उसी चेहरे को ले जाने कभी यूरोप आया था उसी चेहरे की ख़ातिर आज भी कुछ लोग आते हैं वही कुछ लोग जो अब क़ैद हैं रंगीं नशेमन में वो चेहरा उस सदी से इस सदी की बात करता है वही चेहरा मुझे रातों को अब आराम देता है  वही चेहरा के जिसकी खाल बिल्कुल मेरे जैसी है कहीं से जल रही है और कहीं जमने लगी देखो के देखो जंग जारी है  के देखो मौत तारी है वो चेहरा एक धोखा है  वो चेहरा इक झरोखा है  वो चेहरा आज भी लाखों घरों में हो रहा र

कर्म ©प्रशान्त

 ढह जाता है जब रेणु-भवन , आधार बचा रह जाता है l नित दिनकर तम हरने आए , रजनीचर शीतल कर जाए l नव पल्लव, पुष्प सुगंध भरे , खग कलरव नित उर हरषाए l निष्प्राण-पवन परिमार्जित हो, नित श्वाँस सुधारस बन जाती,  भोजन नित शान्त बुभुक्षा कर , नव ऊर्जा अन्तर भर जाए l है शाश्वत चक्र समय का ज्यों, त्यों सत्य, अटल है नश्वरता,  मिल जाता है माटी में तन , संसार बचा रह जाता है l ढह जाता है जब रेणु-भवन , आधार बचा रह जाता है l उल्लेख नहीं होता जिसका, वह लेख नियति नित लिख लेती l मानव संचय करता रहता , यह व्यय का कारण दे देती l धन-धान्य तथा यश-अपयश सब, विधि के कर की कठपुतली हैं,  भव सागर पार तभी होता जब कर्म-तरणि नर को खेती l कर्मठता फल तब ही देगी , जब मानव धर्म निभाएगा ,  जीवन-पय मंथन से उपजा दधिसार बचा रह जाता है l ढह जाता है जब रेणु-भवन , आधार बचा रह जाता है l यह मानव देह अलौकिक है, मिट जाना ध्येय नहीं इस का l परिवार गठन, एकाकीपन, ऐसा मर्दित तन-मन किसका ?  चिरकाल वही जीवित रहता, जिसने सत्कार कमाए हों,  परहित हित जो निस्वार्थ जिए , सम्मान करे नर-कुल जिसका l व्यवहार सदा तय करते हैं, पशु नर-सम या नर पशु-सम है, 

अक्सर भूल जाते हैं ©दीप्ति सिंह

 वज़्न- 1222 1222 1222 1222 अजी हम भी सुख़नवर हैं... ये अक्सर भूल जाते हैं ।  लिखे अल्फ़ाज़ दिल पर हैं...ये अक्सर भूल जाते हैं । हमीं नें क़ैद रक्खा है...ज़हन में याद को अपनी, अजी यादें भी नश़्तर हैं...ये अक्सर भूल जाते हैं । ख़ताएँ याद कर अपनी...ये दिल नाशाद रहता है,  मगर हालात बेहतर हैं...ये अक्सर भूल जाते हैं । भले ही उम्र ढल जाए...मगर बचपन नहीं जाता, हज़ारों ख़्वाब भीतर हैं...ये अक्सर भूल जाते हैं । हमें इंसान ही रहने... दिया जाए तो बेहतर हो, जो ख़ुश देवी बनाकर हैं...ये अक्सर भूल जाते हैं । हज़ारों ख़्वाहिशें औरत... दफ़न करती है सीने में, के उसके हक़ बराबर हैं...ये अक्सर भूल जाते हैं । मुहब्बत है अगर दिल में ...तो इज़्जत हो निगाहों में,  जो ख़ुश रिश्ते निभाकर हैं...ये अक्सर भूल जाते हैं । हमारे चैन की ख़ातिर... सुक़ूँ मिलता नहीं जिनको, खड़े सरहद पे डटकर हैं... ये अक्सर भूल जाते हैं । मुनासिब तो नहीं होता...किसी को दर्द दे देना, छुपे लफ़्ज़ों में ख़ंज़र हैं...ये अक्सर भूल जाते हैं । लगाते हैं बड़े ही शौक़...से इल्ज़ाम ग़ैरों पर, नज़र उनकी भी हमपर हैं...ये अक्सर भूल जाते हैं । अगर हो

चातक ©लवी द्विवेदी

छंद- कनक मंजरी (वार्णिक)   चरण- 4 (दो-दो चरण समतुकांत)  विधान- IIII + भगण (6) + गुरु  (13,10 यति)  IIII SII SII SII, SII SII SII S ****** समय विवर्तन चातक याचक, साधक एक अधीर सुधा, दिवस व मास दिगंत विलोकत, तिक्त विवेक विरुद्ध क्षुधा।  विकल निकुंज तृषा मनसा उर, रम्य फुहार प्रसून खिले,  घिर यदि पावस स्वाति विनोदित, बूँद तृषा जिँह कूप मिले।  इत उत डोलत सारन क्रंदन ,ज्यों भय भृङ्ग विरुद्ध गती पथ अवलोकत मेघ नवोदित, नूतन वारि विभा हरती।  सरद निदाघ बसंत गए बहु, माह विभूषित एक दिवा, खग दुविधा प्रभुता नित खोजत, मेघ सुनृत्य विरंचि शिवा।    निशमन नाद प्रभंजन चातक, ज्यों नभ तोयद हार गए, अविरल आहत क्रन्दन सारन, देखि सुवर्ण वितान लए।  हतप्रभ स्वाति तृषा अवनी उर , वंदन वारिद व्यग्र भए।  घन घिर मेघ प्रभा बरसे क्षण, वृन्द विनोद कछार नए। मृदुल मृदंग उमंग प्रभाकर, चातक तृप्त तृषा सकुची,  अरु क्षण शुक्ति भई शुचि शुक्तिज, बूँद पयोधि प्रभा पहुँची।  किसलय कोमल पर्ण सुवासित, चातक ज्यों समता रखिये,  सरस प्रभाव सुमेरु प्रभा रुचि, धैर्य विभा क्षमता रखिये।  ©लवी द्विवेदी

तुम आना... © तुषार पाठक

Sabse phele maa sharde ko namam aur saath mai maa lekhni ko namam mai apni rachna padhne ja raha hoo  तुम आना, पूरा करने मेरी अधूरी सी तस्वीर को, तुम आना, बदलने मेरी बदनसीब तक़दीर को। तुम आना मेरी ज़िंदगी का आख़िरी ख़्वाब बनकर,  मोहब्बत के शब्दों से लिखी कोई किताब बनकर। तुम आना, वो सुंदर चाँद बनकर जो रात की जगह, सुबह दिखाई देता हो, तुम आना, मेरे इतना क़रीब जहाँ तुम्हारी धड़कनों का शोर सुनाई देता हो। तुम मेरी ज़िंदगी के सफ़र में आकर, हमसफ़र बन जाना, मेरे भटके रास्तों पर तुम मंज़िल, तुम ही डगर बन जाना। मैं बहुत भटका हूँ ,तुम मुझको अपने दिल का पता बताना, मेरी ज़िन्दगी में आकर, ज़िन्दगी का नया अर्थ जोड़ जाना। चाँदनी से ढँके तुम्हारे चेहरे पर, सितारों जैसे आँसू लिए, तुमको मुसल सल सि सकते देखा है, सुना था आसमान में सिर्फ़ तारे टूटते हैं, पर आज तो मैंने खुद चाँद को भी टूटकर सिहरते देखा है! हाँ, तुम्हें खोने के डर से मैं अक़्सर रो देता हूँ,  तुम्हारी बाहों में, अपनी ज़िंदगी पिरो देता हूँ। तुम्हारे परिवार की सबसे बेशकीमती चीज़, 'तुम्हें' माँगना है, दिल से दिल तक मोहब्बत के मखमली धागे को बाँधना है।