काश कभी तुम्हारी कविता का शीर्षक बन जाऊं मैं। हो मंद सुगन्धित शीतल पवन खुद में जिसे समाविष्ट करो तुम, स्थिर गिरी के समीप कहीं पर चंचलता हिय में भरो तुम, उस समय कहीं से आकर, प्रकृति को हृदय में बसाकर, तुम्हारी स्मित का एक मात्र दर्शक बन जाऊं मैं, काश कभी तुम्हारी कविता का शीर्षक बन जाऊं मैं। शिथिलता लिए झरोखे के किनारे बैठूं खोने लगूँ जीवन के चाव को, विचारों के मध्य उलझकर स्तब्ध हो जाऊं प्रेम स्मरण कर तब लिखूं प्रेम-भाव को, स्याही को तुम्हारी ओर कर, श्रृंगार रस में सराबोर कर, तुम्हें अपनी रचना का अलंकार बना लेखक बन जाऊं मैं, काश कभी तुम्हारी कविता का शीर्षक बन जाऊं मैं। तुम्हारे आंगन के तरु के कोपल तक जीवन रखूं सिमटा हुआ, बिलखता, सिहरता, तुम्हारा स्मरण करता तुम्हारे आँचल में लिपटा हुआ, चिंताओं, पीड़ाओं से मुक्त, केवल प्रणय भाव युक्त, पल में हर्षित, पल में रुदित बालक बन जाऊं मैं, काश कभी तुम्हारी कविता का शीर्षक बन जाऊं मैं। गीतों के अंतरों में शोभित मधुरता तुम कोई आनंदमय हो, मैं आराधना करूँ, मैं उपासना करूँ, तुम ईश्वर हो या देवालय हो, अपने प्रेम में कहीं जूझता दिखूं, दिन-रैन तुम्हे