संदेश

जुलाई, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

गजल © विपिन बहार

 मौत ये अब खुदा पर टली जा रही । जिंदगी जानलेवा चली जा रही ।। एक ताइर हुई यार यूँ जिंदगी । यूँ कफ़स में कही अब पली जा रही ।। कौन अजमत करें कौन खिदमत करे । दूर तक बस यही खलबली जा रही ।। मखमली दिलरुबा पास आओ जरा । आरजू आस की यूँ जली जा रही ।। देख ले आसमाँ, देख ले कारवाँ । बारिशों में कही मनचली जा रही ।। लोग क्यों मतलबी से लगे है यहाँ । बात मुझको यहीं अब खली जा रही ।। © विपिन"बहार"

कहानी-गिरवी कविताएं ©संजीव शुक्ला

   शहर का कबाड़ी बाज़ार....स्थानीय लोग इसे गुरन्दी बाज़ार के नाम से जानते हैँ, पूरे शहर में गुरन्दी बाजार प्रसिद्ध है इसका नाम बच्चा- बच्चा जानता है l जगह जगह गंदगी,  पुराने बेकार सामान के बिखरे ढेर, कहीं लोहे के जंग लगे गले- अधगले पुराने घरेलू सामान, मशीनों के पुर्जे, नट वोल्ट के ढेर, कहीं लकड़ी का कबाड़ का ढेर, कहीं कांच का सामान तो कहीं प्लास्टिक, कहीं पुरानी क़िताबों की रद्दी के ढेर,  कुल मिलाकर पूरे बाज़ार का लगभग यही दृश्य होता है, लोग यहाँ आकर घर का बेकार सामान कबाड़ियों को बेचकर बदले में बिना हुज़्ज़त किए जो भी पैसा कबाड़ी दे - दे खुशी ख़ुशी  लेकर घर चले जाते हैँ  l लोग कहते हैँ गुरन्दी बाज़ार का यह केवल ऊपर का आवरण है, वास्तव में यह उठाईगीरों की रोजी रोटी का अड्डा है.. शहर भर के चोर उचक्कों का इस बाज़ार से गहरा संबंध है l गुरन्दी में लोगों की जरूरत की हर चीज सामान्य से कम कीमत में मिल जाती है, बस ज़रा खोजना पड़ती है l वैसे तो हमेशा ही गुरन्दी बाजार में ग्राहकों, और कबाड़ी वाले हॉकर्स की भीड़ होती है, लेकिन रविवार का दिन गुरन्दी बाजार में विशेष होता है, रविवार के दिन बाजार में ग्राहकों की भीड़ सा

सावन ©अनिता सुधीर आख्या

 धानी चूनर ओढ़ के,धरा रचाये रास। बागों में झूले पड़े ,सावन है मधुमास ।। कुहू कुहू कोयल करे,वन में नाचे मोर। भीगे सावन रात में,दादुर करते शोर।। बूँदों का संगीत सुन ,मन में है उल्लास। प्रेम अगन में तन जले,साजन आओ पास।। बदरा बरसे  नेह के ,सुनकर राग मल्हार। कजरी सुन हुलसे हिया, मनें तीज त्योहार। धीरे झूलो कामिनी, चूड़ी करती शोर । मन पाखी सा उड़ रहा,पकड़े दूजा छोर।। शंकर आदि अनंत हैं,पावन सावन मास। पूजे सावन सोम जो ,पूरी हो सब आस ।। मंदिर मंदिर सज गये,चलें शम्भु के  द्वार। काँवड़ ले कर चल रहे,श्रद्धा लिये अपार ।। माला साँपों की गले,कर में लिये त्रिशूल। सोहे गंगा शीश पर ,शिव हैं जग के मूल।। डमरू हाथों में लिये,ओढ़े मृग की छाल। करते ताण्डव नृत्य जब,रूप धरें विकराल।। महिमा द्वादश लिंग की ,अद्भुत अपरम्पार। चरणों में शिवशम्भु के,विनती बारम्बार ।। © अनिता सुधीर आख्या

नज़्म-उदासी मुझे ओढ़ती है मुसलसल ©हेमा कांडपाल

 पिया तुमसे कहने को जी चाहता है  यूँ सिर को पटकने को जी चाहता है  ये जी चाहता है कि रो लूँ घड़ी भर  तुम्हें कस के भर लूँ मैं बाहों के भीतर मगर सोचती हूँ कहीं मेरी बातें कहीं मेरे आँसू कहीं मेरी आहें न तुमको रुला दें न तुमको सज़ा दें हैं उखड़ी सी साँसें ये पागल सी बातें मैं तुमको बताऊँ तो कैसे बताऊँ कि डरती हूँ तुम कर न पाओ इन्हें हल उदासी मुझे ओढ़ती है मुसलसल  तुम्हें याद हैं क्या वो गर्मी की रातें वो बादल पे बुढ़िया वो बचकानी बातें  तिरे कान में जो मुझे था सुनाना  अभी याद आया वो किस्सा पुराना  ठहाकों की नगरी वो बर्फी का ठेला  गुटर गूँ कबूतर की चिड़ियों का मेला  कहाँ हैं मिरे खट्टे आमों की बगिया वो मुट्ठी में शक्कर वो बातों में गुजिया तरसती हूँ जाना मैं जिसके लिए बस  है तेरा मनाना वो बातों की लड़ियाँ ये किस्से बने आज से जो मिरा कल  उदासी मुझे ओढ़ती है मुसलसल  पिया तुम हो उलझे दुःखों के जहाँ में  न दिखती मोहब्बत मुझे आसमाँ में  वो बादल नदारद वो तारे नदारद  वो बर्फ़ीले नीले से घोड़े नदारद नदारद है एहसास, रातों की बातें  वो नग़्में वो ग़ज़लें वो किस्से नदारद न मंज़िल है कोई, न ही राह-दाँ ही न स

आत्मदर्शन ©रेखा खन्ना

झांँकती हूँ कभी कभी खुद के अंदर भी मैं। पर समझ नहीं पाती हूंँ क्यूंँ कहीं कहीं से गुम हूंँ मैं। दो परछाइयांँ दिखती हैं अक्सर इक सफेद शफाक उजली किरण सी दूजी थोड़ी बुझी-बुझी और और निराशाओं में लिपटी हुई। सोचती हूंँ मैं क्यूंँ दो रंग दिखते हैं खुद के ही अंदर इक खुश क्यूंँ है और दूजी मुरझाईं सी क्यूंँ है। कहीं तो बहुत शांँत दिखती हूंँ और कहीं से बहुत  उथली-पुथली हूंँ। ज़ज्बातों की खदान मेरे अंदर, ना जाने किन लहरों से भरी हूंँ। ऊपर से सदैव खुश दिखने वाली क्यूंँ अंँदर से दुखी दिखती हूंँ। हांँ कहीं कहीं से खुद को जिंदा तो कहीं से मरता हुआ देखती हूंँ। विश्वास जो कर लेती थी किसी पर भी आसानी से आज वही विश्वास मेरे अंँदर मरा पड़ा दिखता हैं। ख्वाबों से नहीं कोई मेरा नाता, हकीकत में जीती हूंँ। पर हांँ बहुत से ख्वाबों की लाशें मेरे अंँदर दफन दिखती हैं। कुछ ख्वाब अब भी आखिरी सांँसें लेते दिखते हैं। जिन पर मैं खुद ही और भी मिट्टी डालती दिखती हूंँ। नहीं सिर्फ अच्छाइयों का ही पुतला नहीं हूंँ। थोड़ा द्वेष भी मन में दिखता हैं। उनके लिए जिन्हें कोई कद्र नहीं इंँसान की जो इंँसान को क्यूंँ इंँसान ही नहीं समझ

मुस्कान ©परमानन्द भट्ट

  लाख छुपाया मुस्कानों में,  अपने दिल का दर्द मगर यह आँख निगोड़ी तुझे देखकर,  आज अचानक भर आई  है | जिस दिन से तुम छोड़ गये थे जीवन पथ पर मुझे अकेला | सूना सूना सा लगता था मुझको इस दुनिया का मेला | यूँ तो पथ पर फूल सजाकर मौसम ने मुझको ललचाया | कोकिल ने भी गीत मिलन का द्वारे आकर खूब सुनाया |  मगर मुझे तो पतझड़ वाली वह सूखी डाली भाती थी | याद तुम्हारी मन प्राणों को रात रात भर अकुलाती थी |  तुम आये तो मन आंगन में नव आशा की जोत जलाने | एक किरण मेरी आँखों में हँसकर आज उतर आई है |  © परमानन्द भट्ट

आत्मिक प्रेम ©सरोज गुप्ता

 आँख से आँख को बात कर लेने दो ,  साँस में साँस को ज़ज़्ब कर लेने दो ।  तुम करो तो यकीं मेरे अहसास पर प्यार से प्यार को प्यार कर लेने दो ।। तेरे भावों से गीतों की माला बुनूँ ,  तेरे धड़कन को मैं अपने दिल में सुनूँ ।  जो तुझे दर्द दे ऐ मेरे हमसफ़र.....  तेरी राहों से मैं हर वो काँटें चुनूँ ।।  जिंदगी का सफ़र यूँ ही चलता रहे ,  नैनों में सुरमई ख्वाब पलता रहे ।  प्रेम का पूर्ण संवाद हो जायेगा.....  मौन गर मौन को यूँ समझता रहे ।। रूप से रूह तक मैं सवारूँ तुम्हें ,  अपने बाहों में लेकर दुलारूँ तुम्हें ।  अंत जीवन का हो तो तेरे सामने....  रहना तुम पास में जो पुकारूँ तुम्हें ।।       © सरोज गुप्ता

मां ©सौम्या शर्मा

 तुम आ जाओ तो फिर से छोटी हो जाऊं मां! तुम्हारी गोद में फिर से कहीं खो‌ जाऊं मां!! बड़े इम्तिहान लेती है जिंदगी मां मैं क्या कहूं! तुमसे लिपटकर चैन की नींद सो जाऊं मां!! बड़ी नासाज दुनिया है कोई अपना नहीं लगता! ढेरों बातें करूं तुमसे थोड़ा सा रो जाऊं मां!! तुम्हारे बाद अपने जज्बात छुपाना सीख लिया! तुम आओ तो दिल में दबा सब कह जाऊं मां!! जानती हूं खुदा की गोद में कहीं महफूज हो तुम मां! बस अब यूं करुं कि तेरी हर याद संजो जाऊं मां!!    © सौम्या शर्मा

रिश्ते ©प्रशान्त

 आज का काम 'ग़ज़ल' कल पे न टाला कीजै l वक़्त अपनों के लिए रोज़ निकाला कीजै ll प्यास अहसास-ए-मुहब्बत से नहीं बुझती है... गुफ्तगू और मुलाक़ात का प्याला कीजै ll आशिक़ी चांद-सितारों में नज़र आएगी..... आसमानों में कभी दिल भी उछाला कीजै ll हाथ से हाथ मिले, दिल से मिले दिल यारों.. जान-पहचान में अरमान भी पाला कीजै ll नफ़रतें और जलन ख़ाक करेंगे सब कुछ... ख़ास रिश्तों में छिपा प्यार खँगाला कीजै ll महफ़िल-ए-इश्क़ सजा करके शमा-परवाने.... कह गए ख़ुद को जला करके उजाला कीजै ll  ~© प्रशान्त 'ग़ज़ल'

ये मौसम ©सुचिता

 ये बारिश का मौसम गुलाबी -गुलाबी  समाँ है  नशीला  , शराबी -शराबी  ।  निगाहें भी तेरी ,सवाली - सवाली … तो चेहरा मिरा भी ,किताबी- किताबी । अदा हाय ! ये शोख़ियाँ तेरी जानाँ .. दिलो में करें हैं , ख़राबी -ख़राबी   । हैं मदहोश सी , ये हवायें - फ़िज़ायें .. अज़ब सी है छाई , खुमारी -खुमारी । छिटकने लगी हैं ये ख़ामोशियाँ भी  तेरा इश्क़ तो है , जवाबी -जवाबी । झुका लो तुम अपनी नशीली निगाहें.. ये दिल हो न जाए , शराबी -शराबी  । फ़साना तो ये इश्क़ -ओ-हुस्न का है  ये दुनिया बहुत है , सवाली- सवाली ।   © सुचिता

भाग मुनव्वर ©नवल किशोर सिंह

 नीरस है यह बाग मुनव्वर। चलो कहीं अब भाग मुनव्वर।1 घास फूस पर डाल किरासन, सुलगा दे तब आग मुनव्वर।2 लाल रंग है कुर्बानी का, कहकर खेलो फाग मुनव्वर।3 जन्नत के जिंदा पीरों का, कैसा है यह राग मुनव्वर।4 शायद बोटी पर हैं ताले, बोतल भी बिन झाग मुनव्वर।5 पट्टी डाले सोयी आँखें, धुंध हटाकर जाग मुनव्वर।6 जीनेवाले बन हिंदुस्तानी, रहते नित बेलाग मुनव्वर।7     -©नवल किशोर सिंह

गज़ल ©रानी श्री

 किसी से इश्क़ का इल्ज़ाम लेकर ना बुलाना तुम, मुहब्बत का नया आयाम लेकर ना बुलाना तुम। नशा-ए-जाम में खोकर,कहीं फ़िर होश आने तक, असर जो ना करे वो जाम लेकर ना बुलाना तुम। कलम से गर उतरने को ग़ज़ल कोई मना कर दे, कहीं से भी गज़ल फ़िर आम लेकर ना बुलाना तुम। कुरेदे ज़ख़्म पर मरहम लगे या बाम इस दिल पर, भरे जिसमें नमक वो बाम लेकर ना बुलाना तुम। घिसे हैं हर्फ़ के जज़्बात हाथों से लिखे जिस पर, कि गैरों से वही पैगाम लेकर ना बुलाना तुम।   अगर ख़ुद का समय लेकर मिलन को मान जाओ तो उधारी के समय की शाम लेकर ना बुलाना तुम। नज़र के लफ्ज़ कहते हैं ठहर जा तू अभी 'रानी', कदम जो ये बढ़े तो नाम लेकर ना बुलाना तुम।      © रानी श्री

रत्ती भर आस ©गुंजित जैन

  कभी कभी कोई आस ज़िंदगी भर कायम रह जाती है, चाहे उस आस को रखने की कोई बुनियाद बचे, या न बचे। ऐसी ही मेरी एक आस हो तुम, जो यूँ ही बे-बुनियाद बनी रहती है, और मेरी रचनाओं में से छिपकर मुझे निहारती रहती है। दीवार पर लटकी पौने दस इंच चौड़ी घड़ी और हर रोज़ बदलती तारीखें ये बताती हैं कि वक़्त तो तुम्हारे बिना भी गुज़रता है। मगर, तुम साथ होते तो शायद ये वक़्त और ज्यादा बेहतर गुज़रता, शायद ये बदलती तारीखें मुझे रास आ जाती और शायद इस घड़ी के फ़ीके रंग में भी एक चमक साफ़ देख पाता। इन्हीं शायदों को सोचते सोचते अक़्सर मुस्करा देता हूँ। तुम्हारा मेरी ज़िंदगी में आना, कुछ बेतुकी बातों में तर्क खोजने की तरह है,  जिसमें कोशिशें तो बहुत हैं, मगर परिणाम, कुछ भी नहीं। इन्हीं कोशिशों के बीच रोज़ सुबह का सूरज बढ़ते बढ़ते कब दूसरे छोर पर पहुंच जाता है, मालूम ही नहीं चलता।  भोर की प्रभाती शुरू हो कर, संध्या आरती बन कब ख़त्म हो जाती है, पता नहीं!  शाम का ये आहिस्ते आहिस्ते ढलता सूरज मुझे कुछ खुद सा लगता है। कुछ इसी तरह तुम्हारे बिन मेरा जीवन भी रोज़ धीमी गति से ढलने में लगा रहता है। मगर मैं अकेला नहीं ढलता, मेरे साथ ढलती है कु

तन्हाई ©दीप्ति सिंह

 ज़िंदगी आज हमें जाने कहाँ लाई है  हर तरफ़ दर्द है ख़ामोशी है तन्हाई है अजनबी शाम है अंजान सवेरा भी है राह में भी तो उदासी की ही परछाई है हमनें दामन को सजाया था सितारों से भी आग दामन में सितारों नें ही लगवाई है हमको उम्मीद की चाहत है न जाने कब से बस ये उम्मीद हमें लेके यहाँ आई है  जल रही है जो ये दीया तो उजाला होगा अश्क़ उम्मीद की शम्मा न बुझा पाई है ©दीप्ति सिंह "दीया"

गीत-दुर्लभ दर्शन ©संजीव शुक्ला

 अंतराल के बाद कृतार्थ नयन होंगे,  धन्य भाग फिर से दुर्लभ दर्शन होंगे l मंच सजेगा गीत शहीदों के होंगे,  राह ताकते नंगे भूखे जन होंगे ll फिर से नए विदेशी वाहन का जमघट,  राहों से हट जायेगा कूड़ा करकट l मात्र आपके दिव्य रूप के दर्शन से,  कष्ट मिटेंगे कट जाएंगे सब संकट l कलश सजेंगे फूलों से स्वागत होगा,  थाल सजी अक्षत रोली चंदन होंगे ll फिर श्रीमुख से मधुर बोल मुखरित होंगे,  सुंदर शब्द सुगंध सुमन विसरित होंगे l श्वेत शुभ्र परिधान मंद मुस्कान मधुर, छले गए जन फिर से आनंदित होंगे l फिर से झूठे स्वप्न दिखाए जायेंगे,  भाषण में फिर मिथ्या आश्वासन होंगे ll धर्म जाति का राक्षस लाया जायेगा,  सन्मुख संकट छद्म दिखाया जायेगा l रोटी शिक्षा काम बीमारी भूलें जन,  फिर से कुटिल कुचक्र चलाया जायेगा l प्रलय निकट है,कष्ट निवारक एक प्रभू,  मात्र दुखी जन के संकट मोचन होंगे ll धन्य भाग हम अनुगामी कहलायेंगे,  सुन भावुक उद्गार मगन हो जायेंगे l शोषण मँहगाई बेकारी भूल सभी,  फिर से प्रभु की जय जयकार लगाएंगे l शत्रु मान कर द्वेष पड़ोसी से होगा,   संशय मिट जायेंगे सब धन-धन होंगे ll ©संजीव शुक्ला 'रिक्त'

शराबी ©विपिन बहार

  सड़क पर किनारे मचलता शराबी । बिना बात के अब उछलता शराबी ।। किसी की नही है उसे फिक्र अब तो । कदम ही कदम पर बदलता शराबी ।। गमो को उड़ाया नशे में मिलाकर । गमो के सहारे निखरता शराबी ।। पता ही नही मिल रहा है निलय का । इधर से उधर अब भटकता शराबी ।। करे पाँव डगमग अरे यार डगमग । यहाँ से वहाँ जब गुजरता शराबी ।। टिका कौन हैं अब भला यार आगे । खुदी को बड़ा अब समझता शराबी ।। सभी चुप रहे बस वही बोलता है । जरा भी नही अब ठहरता शराबी ।। गजल-गीत गाने लगा यूँ सुहाने । नदी की लहर सा बहकता शराबी ।।           © विपिन बहार

उलझन ©रेखा खन्ना

मोहब्बत और लगाव, दर्द के सिवा कुछ नहीं दो पल का भी अलगाव, जहर से कम नहीं। धीमे-धीमे चढ़ रहा, कोई दिल में चुपके से दिल में एहसासों का साथ, कहर से कम नहीं। बूंँद बूँद ओस की जैसे मोतियों सी टपक रही पत्तियों की कोरों पर बूँदे, लहर से कम नहीं। गीत जो लिखे दिल से उसे गुनगुनाती रही सुरों को बहने का रस्ता मिल जाए गर, नहर से कम नहीं। तमन्ना मन में उठते ही उचक कर देखती है हकीकत एक एक कर दिल में बसती जाए तो, शहर से कम नहीं। प्रीत को रीत की डोर काटती ही रही सदा रीत भी प्रीत को माने कभी, बाद-ए-सहर से कम नहीं।              © रेखा खन्ना

विद्रोह ©परमानन्द भट्ट

 शासन व्यवस्था के प्रति विद्रोह शिक्षा की अवस्था के प्रति विद्रोह कभी कुरीति के प्रति विद्रोह कभी गलत नीति के प्रति विद्रोह विद्रोह मानव के मन में सनातन काल से बसता आया है भूख, अभाव, शोषण व परम्पराओं के प्रति विद्रोह से होता है नई व्यवस्था के बीज का रोपण कभी गुलामी की जंजीर काटने के लिए कभी असमानता कीखाई  को पाटने के लिए बहुत से कारण है विद्रोह के मगर आदमी जब विद्रोह करता है अपने भीतर कुण्डली मार  बैठे हर विकार से  उसका यह विद्रोह ही सामुहिक विरोध बन चुनौती देता है सड़ी गली धार्मिक मान्यताओं को तब धरती पर नये धर्म का पौधा प्रस्फुटित होता है  वह कभी बुद्ध, महावीर ईसा और मोहम्मद के रूप में प्रकट होता है तो कभी कबीर, मंसूर या दयानंद के रूप में सही अर्थों यह विद्रोह ही शताब्दियों तक धरती पर  मनुष्यता को कायम रखते हैं         ©  परमानन्द भट्ट

तन्हाई ©सरोज गुप्ता

 1222  1222  1222  1222 कभी तन्हाइयों में इस कदर आया नहीं करते । अगर आ ही गये हो तो पलट जाया नहीं करते ।।  ये उठती सी निगाहों को सनम दीदार हो जाये ।  किसी चिलमन के कोने से कभी साया नहीं करते ।।  फ़लक तक फैले चाहत की समन्दर सी ये गहराई ।  किसी दीवाने अपने ही को अज़माया नहीं करते ।।  जो लमहें चंद हैं अपने के आओ गुफ़्तगू कर लें ।  उमर को ऐसे शरमा कर के अब ज़ाया नहीं करते ।।  मुक़म्मल ज़िन्दगी कर लें बिता के तेरे बाहों में ।  अजी मसरूफ़ियत के मर्सिये गाया नहीं करते ।। © सरोज गुप्ता

इश्क ©सौम्या शर्मा

 बस एक तुम हो, बस एक हम हैं! बहुत खूबसूरत मुलाकात है ये!! तुम भी हो खोए,हम भी कहीं गुम! नये इश्क की जैसे शुरुआत है ये!! लबों पे खामोशी, दिलों में मोहब्बत! यकीनन कोई राज‌ की बात है ये!! वो चंदा ये तारे भी फीके लगे हैं! हंसीं हैं बड़े, दिल के जज़्बात हैं ये!! तुम्हें क्या बताएं कि तुम मेरे क्या हो! न पूछो कि क्या दिल के हालात हैं ये!!                  © सौम्या शर्मा

तुम ©प्रशान्त

 बहरे मज़ारिअ मुसम्मन मक्फ़ूफ़ मक्फ़ूफ़ मुख़न्नक मक़्सूर मफ़ऊलु फ़ाइलातुन मफ़ऊलु फ़ाइलातुन 221 2122 221 2122 मुश्किल सवाल हूं मैं , हाज़िर जवाब हो तुम l तुमको गुलाब क्या दूँ,  ख़ुद ही गुलाब हो तुम ll मदहोशियां बढ़ातीं हर शाम दो निगाहें..... मदमस्त मैकदे की महंगी शराब हो तुम ll हो दर्द भी, दवा भी, तुम मर्ज़ भी, शिफ़ा भी... हर ज़ख्म जो छिपा दे ऐसा नक़ाब हो तुम ll चैन-ओ-अमन हमारे दिल का चुरा लिया है.. फिर मुस्कुरा रही हो कितनी ख़राब हो तुम ll हर चीज़ कैद करती ये गुफ्तगू तुम्हारी.... आज़ाद हसरतों का इक इंकलाब हो तुम ll सारा जहान जिसकी तारीफ़ कर रहा है.... कोई 'ग़ज़ल' नहीं है, बस बेहिसाब हो तुम ll             ©प्रशान्त 'ग़ज़ल'

एकदा ©रानी श्री

 एकदा मेरी भी कविताओं के शीर्षक बन जाओ तुम। तुम्हें प्राप्त कर मेरी कविता ना कदापि लज्जित हो,  वरन् तुमसे स्वयं को अलंकृत कर मेरी कविता सुसज्जित हो, तत्पश्चात उसकी आकृति के, प्रकृति व प्रवृत्ति के, संपूर्ण रूपेण एकमात्र  आलोचक बन जाओ तुम,  एकदा मेरी भी कविताओं के शीर्षक बन जाओ तुम। रुधिर कणिकाओं की भांति  प्रत्येक शब्द में समाहित होकर, रक्त की स्याही बन उसके  अंग-अंग में निरंतर प्रवाहित होकर, मेरी कविताओं का भेष बनकर, युगांतर तक उनमें शेष रहकर, स्वच्छंद प्रकार के एक  मुक्तक बन जाओ तुम, एकदा मेरी भी कविताओं के शीर्षक बन जाओ तुम। प्रत्येक कविता के केवल तुम ही पात्र रहो, व प्रत्येक कविता में  तुम ही मात्र रहो, धरा पर अल्पना की भांति,  हिय में उत्पन्न कल्पना की भांति, प्रत्येक कविता के केवल एक वाचक बन जाओ तुम, एकदा मेरी भी कविताओं के  शीर्षक बन जाओ तुम। तब ये तन नहीं कलुषित हो ना सीमाओं में ना कहीं अनंत में, व मन भी ना ये दूषित हो ना आरंभ में ना कहीं अंत में, मस्तिष्क नहीं हृदय से निर्णय कर, इस जोगिन संग प्रेम-प्रसंग तय कर, यहाँ से वहाँ तक आकर्षण में आकर्षक बन जाओ तुम,  एकदा मेरी भी कविताओ

बँधी कलम ©नवल किशोर सिंह

 कलम बँधी है जंजीरों में, कैसे फिर उद्गार लिखें? सूखी स्याही मसिधानी में, कैसे विषय विचार लिखें? शब्द बिखरते कंकड़ पत्थर, भावों का सूना आँगन, तप्त बालुका में पग रखकर, स्वामी की जयकार लिखें। धूप खिली है सन्नाटे की, छाया में बोली बहरी, अधरों पर बस मौन सजाकर, प्रीतम का अभिसार लिखें। मानस-मिट्टी खोद-खोद कर, नागफनी बोते केवल, पुष्प बबूलों के तब खिलते, उनका ही आभार लिखें। एक छलावा सोत उमड़ता, दम्भ हृदय धर सरिता का, उठी उर्मियाँ कंकड़-कृत जो, उनको कैसे  ज्वार लिखें? -©नवल किशोर सिंह

इम्तिहाँ ©सुचिता

 यही  है इम्तिहाँ  तो इब्तिदा  क्या  है  तुम्हीं  बतलाओ  अब  ये माज़रा क्या है । दिलो में  जब  नहीं  है  क़ोई  भी  दूरी …… तो बतलाओ मियाँ , ये फ़ासला क्या है । बहुत नख़रे हैं ज़ालिम ज़िंदगी तेरे .. दुआ भी काम ना आई , दवा क्या है । लहू अश्को का दरिया बन के निकला है .. बता  मेरे  खुदा  तेरी  रज़ा  क्या  है  । अना के शाख़ पर कलियाँ मुहब्बत की .. यूँ ही गर सूख जाये , सोचना क्या है ।  बज़ा क्या है, ख़ता क्या है , सजा क्या है  सफ़र-ए-ज़िंदगी  तुझमें  बचा  क्या है |          ©सुचिता

बन जाऊं मैं ©गुंजित जैन

 काश कभी तुम्हारी कविता का शीर्षक बन जाऊं मैं। हो मंद सुगन्धित शीतल पवन  खुद में जिसे समाविष्ट करो तुम, स्थिर गिरी के समीप कहीं पर चंचलता हिय में भरो तुम, उस समय कहीं से आकर, प्रकृति को हृदय में बसाकर, तुम्हारी स्मित का एक मात्र दर्शक बन जाऊं मैं, काश कभी तुम्हारी कविता का  शीर्षक बन जाऊं मैं। शिथिलता लिए झरोखे के किनारे बैठूं खोने लगूँ जीवन के चाव को, विचारों के मध्य उलझकर स्तब्ध हो जाऊं प्रेम स्मरण कर तब लिखूं प्रेम-भाव को, स्याही को तुम्हारी ओर कर, श्रृंगार रस में सराबोर कर, तुम्हें अपनी रचना का अलंकार बना लेखक बन जाऊं मैं, काश कभी तुम्हारी कविता का  शीर्षक बन जाऊं मैं। तुम्हारे आंगन के तरु के कोपल तक जीवन रखूं सिमटा हुआ, बिलखता, सिहरता, तुम्हारा स्मरण करता तुम्हारे आँचल में लिपटा हुआ, चिंताओं, पीड़ाओं से मुक्त, केवल प्रणय भाव युक्त, पल में हर्षित, पल में रुदित बालक बन जाऊं मैं, काश कभी तुम्हारी कविता का  शीर्षक बन जाऊं मैं। गीतों के अंतरों में शोभित  मधुरता तुम कोई आनंदमय हो, मैं आराधना करूँ, मैं उपासना करूँ, तुम ईश्वर हो या देवालय हो, अपने प्रेम में कहीं जूझता दिखूं, दिन-रैन तुम्हे

द्रौपदी स्वयंवर ©संजीव शुक्ला

 पांचाल भूप का संदेशा आया था l सम्पूर्ण राज्य भऱ में उत्सव छाया था l शृंगार साज नगरी का घर-घर जगमग,  सज राज भवन का कण-कण हर्षाया था l आयोजित किया द्रुपद ने भव्य स्वयंवर,  दे राज सुता को वर चुनाव का अवसर l सब भांति रूप गुण शील राशि कन्या वह,  थी द्रुपद अजिर का जगमग दिव्य दिवाकर l आमंत्रित थे युवराज, भूप बलशाली,  प्रत्येक हृदय का आकर्षण पांचाली l वह सुकृत कंठ है कौन विशाल सभा में.....  वरमाल शुशोभित होगी जहाँ निराली l प्रति दिशा मनोहर मंगलमय कोलाहल,  निर्मित था अद्भुत लक्ष्य स्वयंवर स्थल l वृत मार्ग त्वरित गतिमान मत्स्य की आकृति,  झष बिम्ब प्रदर्शित पात्र मध्य संचित जल l था नृप का यह आदेश, सुनें सब धनुधर, सब वीर उपस्थित लक्ष्य भेद को तत्पर l जो शायक भेदे मीन नेत्र लख जल में,  वह होगा यज्ञ सुता पांचाली का वर l दुर्लभ असाध्य वह लक्ष्य भेद ना पाए,  असमर्थ वीर, रण कौशल काम न आए l सब देश-देश से आए अतुलित योधा,  बैठे थक कर सब राजा शीश झुकाए l चिंतित पांचाल नरेश सकोप उचारे,  धिक् है युवराज, नरेश धनुर्धर सारे l है शेष धनुषधारी धरनी पर कोई, झष नेत्र साध कर लक्ष्य, बाण जो मारे l अति कटुक वचन सुन क