संदेश

कविता- ग़म तेरे आने का ©सम्प्रीति

नमन मां शारदे, नमन, लेखनी  ना ग़म तेरे आने का है, ना ग़म तेरे जाने का है। गुज़ारे थे जो लम्हें साथ, ग़म तो उनके गुज़र जाने का है। बड़े आराम से गुज़रे शाय़द अब ये ज़िन्दगी, पर ग़म अब तेरे ना सताने का है। रातें भी होंगी शायद अब सुकून भरी, पर ग़म तेरा ख्वाबों में ना आने का है। यादें तो क़ैद हो गई इन आँखों में, पर ग़म नज़रें ना मिल पाने का है। तुम तो आए और आकर चले गए, ग़म तो वक्त के ना ठहर पाने का है। ना ग़म तेरे आने का है, ना ग़म तेरे जाने का है। गुज़ारे थे जो लम्हें साथ, ग़म तो उनके गुज़र जाने है। ©सम्प्रीति

ग़ज़ल © रेखा खन्ना

दर्द सारी रात कराहता रहा अश्कों की भेंट, मैं नींद को चढ़ाता रहा। नीला पड़ा बदन ठंडा होता रहा रूह को तड़पता देख, मैं मौत को पास बुलाता रहा। नासाज़ तबियत से दिल बेचैन होता रहा झूठी तसल्लियों से, मैं दिल को बहलाता रहा। रिश्तों में ग़लतफहमियांँ बेवजह ही पालता रहा आस्तीन के सांँप को मैं रोज़ दूध पिलाता रहा। महक चँदन की थी या रात की रानी महक रही थी रात भर बीन बजा कर मैं नाग को बुलाता रहा। दिल सच्चे प्रेम को दर बदर भटकता ढूँढता रहा रूहानी प्रेम की कहानियांँ, मैं दिल को सुनाता रहा। इबारत लिखी थी किताब में एक इँसान बनने की खुदा की बस्ती में, मैं सच्चा इँसान तलाश करवाता रहा। दिल के एहसास।© रेखा खन्ना

नव संवत्सर ©सूर्यम मिश्र

              जिसके मंगलमय होने का, साक्षी प्रत्यक्ष दिवाकर है। जिसकी शुभता का सत्‌प्रतीक, यह धरा अमर, यह अंबर है।। हम ही सदैव से श्रेष्ठ रहे, यह सम्वत्सर इसका प्रमाण। सप्तपञ्चाशत् संवत आगे,  हो किया सृष्टि का विनिर्माण।। वय द्वयसहस्त्रएकाशीति में, हो सुदीर्घ संस्कृति वितान। मनु सम्मोहक कर वसुंधरा, चूमें द्रुत गति से आसमान।। नित रंग भरे नूतनता का, वह विश्व चित्र का चित्रकार। हो परिपूरित प्रतिएक लक्ष्य, हो उन्नति पथ जग समाहार।। नित ही आत्मा के गह्वर में, उपजे शुचिता,आलोक शुद्ध। हो शमन दनुजता का जग में, हो दुर्विकार मनुसुत प्रबुद्ध।। सत शांति समुज्ज्वलता प्रकर्ष, जिससे हो तिमिरों का विकर्ष। सुस्वागत हो इसका सहर्ष, है यह हम सबका नवल वर्ष।। ©सूर्यम मिश्र  आदि नववर्ष विक्रम संवत २०८१ की अनहद मंगलकामनाओं सहित,....🙏

निराशा ©ऋषभ दिव्येन्द्र

आशा दिखती चूर्ण, दिखे चहुँओर निराशा। भरे हृदय बस आह, लुप्त सारी प्रत्याशा।। उठती कितनी पीर, सुनो जब टूटे सपने। छाये व्यथा अपार, लगे अन्तर्मन तपने।। शिथिल-शिथिल सी श्वास, क्लांत-सी लगती काया। तम का घन अम्बार, त्रास अंतस में छाया।। एकाकी का भाव, समाहित जीवन कण में। नित अनगिन अवरोध, दिखाई दे प्रतिक्षण में।। ©ऋषभ दिव्येन्द्र

ग़ज़ल ©अंशुमान

सो रही दुनिया, अंधेरे में दिल-ए-बेदार लेकर, ढूंढता है दिल किसी को नेमत-ए-दीदार लेकर, जान कल ही ले गया कातिल निगाहों से कोई था , आज फिर से आ गया है इक नया आज़ार लेकर, या करेगी नाम, या बदनाम होगी शायरी अब, आ गए जो महफिलों में एक बादा ख्वार लेकर, जो कभी खुशियां मनाते पत्थरों को देखकर थे, आज देखो रो रहे हैं, गौहर-ए-शहवार लेकर, और सबकी क्या कहें? पाकर नहीं खुश ज़िन्दगी जो, हम मुसलसल हंस रहे हैं मौत के आसार लेकर, एक आधी सी ग़ज़ल इस आस पर आधी रखी है, लौट कर पूरी करोगे तुम, नए अश'आर लेकर!                     _- अंशुमान_

ग़ज़ल ©लवी द्विवेदी

  यकीं तुम करो, हम नहीं दूर जाते। मुक़द्दर से तुमको अगर छीन पाते। सफ़र में नहीं सर्द तन्हाई होती, कहीं से हँसी धूप हम ढूँढ लाते। वो मज़हब को लेकर सुलह जो कराता, कसम से ख़ुदा को ज़मीं पे बुलाते। ये इल्ज़ाम सर जो लगा जा चुके हो, अगर सच पता होता, आ तुम मनाते। वफ़ा की कसक सिर्फ़ तुमको नहीं है, नहीं पास हो वरना गाकर सुनाते। मिला तोहफ़ा है, ख़बर सबको होती, खिली धूप में फूल रख गर सुखाते। सितमगर कहा है तो मालूम होगा, अदब से सितमगर नहीं पेश आते। ©लवी द्विवेदी

छंद -सवैया ©संजीव शुक्ला

 नमन, लेखनी l तिन नैनन गेह सनेह कहाँ, जिन नैनन नीर बहे न बहे l नहिं जानत जो जन के मन की,तिन का मन पीर कहे न कहे ll कबहूँ नहिं हाथ धरे जिन काँधन का तिन संग रहे न रहे l मझधारन छाँड़ि दए बहियाँ, जिन का तिन बाँह गहे न गहे ll मन भीगत नाहिं न भीगत जा तन का रस धार बहे न बहे l जिन के मन पीर न औऱन की,तिन का निज पीर सहे न सहे ll दुख औऱन के नहिं पीरक भे, तिन का नित मोद लहे न लहे l निज संतति संपति नारिहि के, हित जानत ते न महे न महे ll ©संजीव शुक्ला