ग़ज़ल ©प्रशान्त
वो कहते हैं कुछ भी नया ही नहीं है । उन्हें इश्क़ अब तक हुआ ही नहीं है । लबों ने छुपाई, नज़र ने बताई , सुना दिल ने वो, जो कहा ही नहीं है । अगर मर्ज़ होता, तो ईलाज़ करता, मुहब्बत की कोई दवा ही नहीं है । तुम्हें लग रहा हूँ मैं मिश्री सा मीठा, मुझे तुमने अब तक सुना ही नहीं है । है शाहों सा रुतबा , मेरे बाद मेरा , विरासत मिली बादशाही नहीं है । क़लम अब नए हाथ में है मगर अब, क़लम में पुरानी सियाही नहीं है । समझदार सरकार चुनकर दिखाओ, ‘बला पाँच-साला’ , तिमाही नहीं है । वतन का सिपाही ग़ज़ल लिख रहा है, ‘ग़ज़ल’ बस ग़ज़ल का सिपाही नहीं है । ~ ©प्रशान्त ‘ग़ज़ल’