संदेश

अक्तूबर, 2023 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

ग़ज़ल ©प्रशान्त

 वो कहते हैं कुछ भी नया ही नहीं है । उन्हें इश्क़ अब तक हुआ ही नहीं है । लबों ने छुपाई, नज़र ने बताई , सुना दिल ने वो, जो कहा ही नहीं है । अगर मर्ज़ होता, तो ईलाज़ करता, मुहब्बत की कोई दवा ही नहीं है । तुम्हें लग रहा हूँ मैं मिश्री सा मीठा, मुझे तुमने अब तक सुना ही नहीं है । है शाहों सा रुतबा , मेरे बाद मेरा , विरासत मिली बादशाही नहीं है । क़लम अब नए हाथ में है मगर अब, क़लम में पुरानी सियाही नहीं है । समझदार सरकार चुनकर दिखाओ, ‘बला पाँच-साला’ , तिमाही नहीं है । वतन का सिपाही ग़ज़ल लिख रहा है, ‘ग़ज़ल’ बस ग़ज़ल का सिपाही नहीं है । ~ ©प्रशान्त ‘ग़ज़ल’

कोमल ©तुषार पाठक

 वह मेरी कोमल सी सास है,  वह मेरी कोमल अहसास हैं।  उसकी आँखे है कोमल,  और उसका मन है कोमल,  उसका गुस्सा हैं कोमल सा,  उसकी अदाय है कोमल सी उसकी आवाज़ है कोमल सी,  और उसका चेहरा हैं कोमल सा।  उसकी जुल्फे कोमल सी और उसके मुस्कुराहट कोमल सा।  वह कोमल पंख की तरह हैं,  और उसकी आत्मा कोमल पुष्प की तरह,  उसका नाम है कोमल!          © तुषार पाठक

पड़ता ©रजनीश सोनी

 दरपन  उन्हे  दिखाना  पड़ता। खुद से  भी  बतलाना पड़ता II रिश्ते    बने   रहें,   इससे   ही, मोती  सा   सहलाना   पड़ता। शिथिल काय निष्प्राण न होवे, इसीलिए ,   टहलाना   पड़ता। भौतिकता का बोझ न सम्हले, अब  मन को समझना पड़ता। भैंस  खुशी मन   दूध जो  देवे, उसको  भी  नहलाना  पड़ता। उनके  मन  को  ठेस  न पहुंचे, बुद्धू  भी   कहलाना   पड़ता। कुछ   ओछी   चतुराई   करते,  सबक उन्हें सिखलाना  पड़ता I बड़े  हुए, बच्चों की  ख्वाहिश, उनको  भी   बहलाना  पड़ता। अभी   नवांकुर   है,  प्यारे  हैं, उन  पर  छत्र  लगाना  पड़ता। जीवन   के,   झंझावातों   से, डटकर आंख मिलाना पड़ता। टंटपाल   घोड़ा   जो   बिगड़े, उस  पर  ऐड़  लगाना पड़ता। अब "रजनीश"  घिरा है घन में, फिर भी प्रीत  निभाना पड़ता। टंटपाल- उपद्रवी,शरारती, कहा न मानने वाला।                               "©रजनीश "

ग़ज़ल ©गुंजित जैन

 दिलों की कहानी मुहब्बत, हसीं ये बयानी मुहब्बत। जहां में कहाँ पर दिखेगी, मुक़म्मल सुहानी मुहब्बत। रहेगा नहीं एक दिन कुछ, यकीनन गँवानी मुहब्बत। जहां भर के लोगों के दिल में , हमें है बचानी मुहब्बत। बिखरकर कहीं आज फ़िर से, हुई पानी-पानी मुहब्बत। ग़ज़ल, शायरी से ही "गुंजित" सभी को बतानी मुहब्बत। © गुंजित जैन

नज़्म - सच नहीं ©अंशुमान मिश्र

  कि फिर से मैं चला वहांँ जो था तिरा मिरा जहांँ नजाकतों की बारिशें वो हुस्न की नवाजिशें, वो एक मैं, जो था तिरा वो एक तू, जो था मिरा, उन्हें बुला नहीं सका, मैं सब भुला नहीं सका, जो बात थी तेरी मेरी, जो रात थी तेरी मेरी, जो बस अधूरी रह गई, कि थी जरूरी, रह गई घरौंद ख्वाब का जो था महज अजाब का जो था, कि होना जब फना ही था, घरौंद क्यों बना ही था? जो ख्वाब बुन रहे थे हम जो साथ चुन रहे थे हम वो ख्वाब एक जाल था? वो साथ बस खयाल था? जो जाल था, वही सही, खयाल था, वही सही, मुझे उन्हीं में चूर रख, हकीकतों को दूर रख,  इधर निगाह फिर से कर! मुझे तबाह फिर से कर! जो सच न बन सका वही- मैं ख्वाब हूं, मैं सच नहीं, तू ख्वाब है , तू सच नहीं.                     - ©अंशुमान मिश्र

मां की स्तुति ©सौम्या शर्मा

 चारों दिशा में गूंजे, जयकारा मां का! भक्तों का है सहारा, जयकारा मां का! कोई दिल से बुलाए तो मैया दौड़ी आए! नमन किसी के भींगे तो मैया कृपा बरसाए! सब जन मिल के लगाएं,जयकारा मां का! भक्तों का है सहारा, जयकारा मां का! दुर्गा,काली,भवानी,तू ही मां कल्याणी! चामुण्डा भी तू ही ,तू ही जग महारानी! हर लेगा दु:ख सारा, जयकारा मां का! भक्तों का है सहारा, जयकारा मां का! चारों दिशा में गूंजे, जयकारा मां का! भक्तों का है सहारा, जयकारा मां का! ©सौम्या शर्मा

ग़ज़ल ©संजीव शुक्ला

 भरोसा है जिन्हे खुद पर,खज़ाने छोड़ देते हैँ l परिंदे पेट भर जाए........तो दाने छोड़ देते हैँ l हवाएं नीम की,आँगन से अक्सर पूछ लेती है... घरों के लोग कैसे घर पुराने छोड़ देते हैँ l वो गलियाँ गाँव की,शादाब बचपन की हसीं यादें.. शहर की चाह मे मौसम सुहाने छोड़ देते हैं l वो जिनके आ चुके हैँ आग की ज़द में कभी दामन.. वो अक्सर दूसरों के घर जलाने छोड़ देते हैँ l कहाँ हैं,ज़िन्दगी में हर कदम जिनकी जरूरत है .... गुज़र जाते हैं दुनियाँ से,फ़साने छोड़ देते हैँ l बुलंदी की हवस में,'रिक्त' मैं हैरान हूँ कैसे ... न जाने लोग क्यूँ गुज़रे जमाने छोड़ देते हैँ l ©रिक्त

मैं, चाँद और रात © रेखा खन्ना

 कुछ सफ़र अकेले ही करने होते हैं कुछ रास्ते अकेले मुसाफ़िर का इंतज़ार करते हैं चाँद भी मेरी तरह तन्हा और अकेला है वो रात भर आसमां में फिरता है और मैं ख्यालों के सफ़र पर अक्सर अकेले निकलती हूँ हमारी राहें अक्सर एक दूसरे से टकराती हैं और नज़रों के मिलते ही दोनों मुस्कुरा एक ही बात कहते हैं कि आज भी संग कोई नहीं है। पता नहीं क्या भाता है हम दोनों को रात का अंधेरा यां फिर अकेलापन यां फिर तन्हा चलते हुए हर रात किसी मोड़ पर एक दूसरे से टकराना और उस मुस्कराहट को दो घड़ी के लिए जी लेना जो एक दूसरे को देख कर हमारे होंठों पर आती है। थका हुआ मन अक्सर पैरों को भी थका देता है और ना चाहते हुए भी मन की चंचलता कहीं खो जाती है वो चंचलता जो और भी शरारती होकर खिलखिलाना चाहती है घड़ी दो घड़ी  पर तन्हा मन सिर्फ रात के अंँधेरों का इंतज़ार नहीं करता है एक अनजान सफ़र पर निकलने के लिए वो तो भरी महफिल में भी तन्हाई को ढूँढ ही लेता है। चाँद, मैं और हमारा अनजान राहों का सफ़र कुछ नहीं माँगता अब  शायद आदत की बात है अब  देखो ना लाखों तारों और बादलों के संग रह कर भी चाँद का कोई नहीं और मैं, मेरे पास अब कुछ कहने को को

नहीं ©परमानन्द भट्ट

 बातें करता अगर वो हवाई नहीं देनी पड़ती उसे फिर सफ़ाई नही नूर उसका बसा जब नयन में मेरे कोई तस्वीर दूजी समाई नहीं अब ख़ुदा  ही करेगा तेरा फैसला झूठी चलती वहाँ पर गवाही नहीं रूठ कर चल दिये मुझसे मेरे सनम बात दिल की जो मैंने बताई नहीं साथ ग़म के  ही मेरा गुजारा हुआ इस ख़ुशी से हुई क्यूँ सगाई नहीं मेरी बातों पे थोड़ा यकीं भी करो  "है वहम की जहाँ में दवाई नहीं"  ये 'परम' तो बसा है नयन में तेरे ये अलग बात देता दिखाई नहीं © परमानन्द भट्ट

गीत ©सरोज गुप्ता

 जय जय जय महिषासुर मर्दिनी रूप अनूप देखाई ।  कइस बखान करुअ मैं मूरख सबद मिलत नहिं माई ।।   कंचन वरन, नयन अनुरंजित ओंठ पुहुप मुस्काई,  कानन कुंडल, नथ नकुनन मा मांग सिंदूर लगाई ।।  शंख गदा तिरसूल लिए माँ घातक बन ललकारी,  सिंह चढ़े रजनीचर मारे कोप भरहिं फुफकारी ।।  वासर रयन दिवस पखवाड़े विनती करूँ तोहारी,  करहुँ कृपा अब मात भवानी, कष्ट हरो महतारी ।।     ©सरोज गुप्ता

प्रतीक्षारत ©लवी द्विवेदी

  प्रतिदिन की प्रेम पिपासा, निज की निज को अवगत है। मन म्लान हृदय की पीड़ा, कल थी आहत, आहत है।   तटबंध तोड़ आती नित, लहरे उछाह भरती हैं।  क्रंदन निष्ठुर तृष्णा की,  हिय ओर छोर फिरती हैं। एकांत निलय में निशदिन,  भरती हुँकार प्रत्याशा।  अधरों की स्मित डोले, खेले नैनों में आशा।  हैं किन्तु बाण भेदी सर,  बहु चले हुए वर्षों के।  नासूर हुए तन-मन सब, हैं छले हुए वर्षों के।  पर, प्रेम लुटाते आए, चाहे हो लुटिया फूटी। पर का जूठन व्यंजन है, निज की मचिया, पर टूटी।  निज जब परहित की आशा,  निज ही चाहे, निज मरकर।  निज स्वार्थ दिखेगा पर को,  चाहे जाएँ तन तजकर। हैं किन्तु प्रेम जिन निज के, निज ना होकर परहित ही। क्षण क्षण तोड़ेंगे आशा,  परहित के हित निश्चित ही। निज मान स्वयं का खोकर, अपमान घृणा घट पाए। वो क्यों संगम अब चाहें, जो संयम रख मर जाए। जो हृदय प्रहत वर्षों से, आशा नित ले संतत हैं। वो नैन प्रतीक्षारत थे, वो नैन प्रतीक्षारत हैं। ©लवी द्विवेदी 'संज्ञा'

शिव ©अंजलि

 जचे विकराल रूप भयानक जचे रूप मनहर में, जचे है भस्म सर्प चंदा जचे कैलाशी बाघंबर में। जटाओं में सजी है गंगा ,त्रिशूल सदैव रहे कर में, तेज़ मुख पर उतना जितना साथ सौ दिनकर में। रीझे आक धतुर श्रीफल पर पिए भांग खप्पर में, भाव शिव का रहे एक सा दरिद्र धनी के अंतर में। महाकाल बन रहे उज्जैन,रहे ऊंचे कैलाश सुंदर में, रहे वहांँ जहाँ मिले भक्ती प्रेम वास बना ले खंडर में। बसे शिव में है सब इकाई, हर शून्य बसे शंकर में, बसे 'जीआ' की हर श्वास में,बसे हर कण कंकर में। ©अंजलि

सम्पूर्णता ©रजनी सिंह

  जैसे दो समानांतर रेखा आपस में कभी नहीं मिलती मगर साथ साथ चलती हैं ठीक उसी तरह हमदोनों के विचार हैं,,अलग अलग किन्तु साथ साथ। ऐसी मान्यता है की समानांतर रेखाएँ अनंत पर मिल जाती हैं तो किसी ना किसी छोर पर हमारे विश्वास और विचार एक होते होंगे l जैसे दिन का रात से ना मिलना, मगर साँझ को देखने  से प्रतीत होता है कि दिन और रात अपने अपने अस्तित्व को खोकर एक हो गए हों ,,एक होने और भिन्न होने में बस विचारों का खेल है,जैसे ही विचार समाप्त होते हैं ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है,,जहां न तुम होते हो ना हम होते हैं होता है तो केवल और केवल संपूर्ण सत्य l ©रजनी सिंह "अमि"

कविता ©सूर्यम् मिश्र

 निलय भर भीरुता अनहद, व्यथित अनुनाद अंतस में। निराशा पूर्ण अवरोधी, व्यथा का वास नस-नस में ।। प्रवर्धन भाग्य का किंचित, सदा दुर्भाग्य हावी है। अकिंचित चेतना अभिमत, प्रखरता रक्त स्रावी है।। सुनो हे! अग्नि के पोषक, कहाँ, क्या, कौन हो? सोचो। विफलता घूर कर देखे, उठो उसके नयन नोचो।। करो निश्चय अटल यदि तुम, रहेगा शक्ति का मेला। पिपासा शांत कर देगी, महासंग्राम की बेला।। पवन के पंख धारण कर, गगन को भूमि पर लाओ। शिराओं में भरो विद्युत, भुवन में गड़गड़ा जाओ।। मनुज तुम मौन मत बैठो, दहाड़ो सिंह से बढ़कर। लगा दो पाँव की रज को, नियति के वक्ष पर चढ़कर।। धमकते आ रहे तम को, उठो पथभ्रष्ट ही कर दो।  कराओ काल नतमस्तक, "नहीं" को नष्ट ही कर दो।। समय का चक्र मोड़ो तुम, न सीधी चाल हो पाए। हथेली भींच कर मारो, धरा पाताल हो जाए।। ©सूर्यम् मिश्र

ग़ज़ल ©गुंजित जैन

 आँखों में खंज़र देखने का ख़्वाब है, तुमको नज़र भर देखने का ख़्वाब है। काजल लगाऊँ मैं इजाज़त हो अगर? सजकर, सँवरकर देखने का ख़्वाब है शायद कभी तुम हाथ पकड़े ना चलो, ऐसा सफ़र, पर देखने का ख़्वाब है। मीठा अगर खारा बना, कैसे बना? दरिया-समंदर देखने का ख़्वाब है। "गुंजित" जहाँ सब साथ दें ऐसा कोई, ख़्वाबों भरा घर देखने का ख़्वाब है। ©गुंजित जैन

आसान नहीं है पिता होना ©तुषार पाठक

 अपने लिए नहीं अपने परिवार के लिए जीना,  अपनी हर मुश्किलों से खुद ही लड़ना,  परिवार के हर संकट पर खुद अकेले जूझना।  वाकई आसान नहीं है, एक पिता होना।  अपने भविष्य के लिए नहीं अपने बच्चों के भविष्य के बारे में सोचना।  खुद के शौक पूरे करने से पहले अपने बच्चो के शौक पूरे करना।  अपने से अपने बच्चो को दूर रखना, वाकई आसान नहीं है पिता होना।  पिता के साथ एक बेटे और पति का भी फ़र्ज़ निभाना।  हर समस्या को शांति से, हँस कर हल कर देना,  और किसी समस्या को किसी को न कहना बस खुद में समेट लेना, वाकई आसान नहीं हैं पिता होना। ©तुषार पाठक

ग़ज़ल ©प्रशांत 'ग़ज़ल'

नमन, माँ शारदे  नमन, लेखनी    अगर ज़ज्बात ज़ाहिर हो तो शाइर हो । अगर कहने में माहिर हो तो शाइर हो । मुहब्बत क्या, सियासत क्या, हुकूमत क्या ? हक़ीक़त के मुसाफिर हो तो शाइर हो। जहाँ-भर की ख़बर रखकर अगर फिर भी, जहाँ‌ से ग़ैरहाज़िर हो तो शाइर हो। बड़ा शातिर‌ ज़माना है‌ , मिटा देगा, अगर तुम और शातिर हो तो शाइर हो। किसी के दर्द की हद तक कभी पहुंचो, महज़ हर्फ़ों के साहिर हो तो शाइर हो ? 'ग़ज़ल' तुम कह नहीं पाए, नहीं कुछ गम, अगर औलाद शाइर हो, तो शाइर हो।  ©प्रशांत शर्मा 'ग़ज़ल'

कविता- दुविधा ©सौम्या शर्मा

नमन, माँ शारदे  नमन, लेखनी  अंतर्मन की दुविधा का मैं क्या बतलाऊं हाल सखी! कैसे रिश्तों को संजोऊँ , कैसे रखूं संभाल सखी? ले कोरा मन श्वेत पत्र , संबंध निभाती आई हूं! पर यह जटिल स्वरूप जगत का, अब तक समझ न पाई हूं! आवश्यकता पर हैं केंद्रित,सबके मृदु संबंध यहां! बाहर दिखे प्रशंसा पर भीतर पलते हैं द्वन्द यहां! ऐसे दोमुख आनन पर,सर्वस्व लुटाती आई हूं! पर यह जटिल स्वरूप जगत का,अब तक समझ न पाई हूं! मैं जिनके सँग पली बढ़ी हूं,खेली कूदी आंगन में! उन्हें बदलता कैसे देखूं, कैसे पीर सहूं  मन में? मन सबका रखने को मैं निज मन बहलाती आई हूं! पर यह जटिल स्वरूप जगत का अब तक समझ न पाई हूं! कहां लुप्त है वह पवित्रता, जीवन का आधार रही ! मन का निर्मल सुख औ भावों का पावन आगार रही ! लेकर दृग में नीर सदा मुस्कान लुटाती आई हूं! पर यह जटिल स्वरूप जगत का,अब तक समझ न पाई हूं! ©सौम्या शर्मा

कविता- रामचन्द्र ©अंशुमान मिश्र

नमन, माँ शारदे  नमन, लेखनी  जय  जय   मर्यादा  पुरुषोत्तम , जय हे सीतापति! नमामि त्वम, जय    दशरथनंदन   अवधेश्वर, हे राम ! नमामि नमामि  नमम्।। तुमने  मानव   अवतार  लिया, प्रभु कितनों का उद्धार किया। मानव जीवन परिभाषित कर, इस भवसागर से  पार किया।। हे  कौशल्या  के लाल सुनो, हे दश आनन के काल सुनो।  हे  जग अधिपति अन्तर्यामी, हे सौम्यचारित्र, विशाल सुनो।।  हो  गई  धरा  दूषित  सबको, आसुरी  भाव   ही   भाए  हैं । इस घृणित जगत में प्रभु कोई ना  अपना, सभी   पराए  हैं ।। मानवता  के  सब नियमों की, हर दिन अब अरथी उठती है । लज्जा, दया, क्षमा, अब  सब बस रोतीं, पल पल घुटती हैं।। सो   सुनो   धनुर्धारी   प्रचंड, है समय बुरा यह ,करो अंत!! जय जय जय जय हे शंकरेश, जय रामचन्द्र जय रामचन्द्र!! जय रामचन्द्र जय रामचन्द्र!!! जय रामचन्द्र जय रामचन्द्र!!! ©अंशुमान मिश्र 

उद्घोष कविता- समर ©रजनीश सोनी

नमन, माँ शारदे  नमन, लेखनी                1 समर निंद्य,यह बात सत्य है, किन्तु शान्ति वह कब तक ? कुटिल पडो़सी की मर्जी औ" कृपा दृष्टि हो तब तक।।                  2 अनय करे कोई हम पर, औ'- उलटे धौंस जमाये। ऐसे  मुल्क  पडो़सी जाने, कब विपदा आ जाये।                   3 भीख कृपा ही मिल सकती है, करुण राग यदि गाओ। शीश झुकाना नहीं सोहता, वीर राग अपनाओ।।                        4 विष के कारण ही विषधर से, हर कोई डरता है। वहीं भला विषहीन सर्प से, कौन डरा करता है।।                         5 अगर बाहुबल और बुद्धि बल, नहीं साथ में होगा। हमको खुद पर हुये अनय को, सहना ही तो होगा।।                          6 जिन्दा  रहते  इतिहासों  में, समर-सूर, उपकारी। धिक्कारे जाते, जीवन भर, कायर औ" व्यभिचारी।।                      7 तरुणों! अपने जीवन में तुम, पौरुष भी अपनाओ। नशा नाश करता जीवन धन, इससे मुक्ती पाओ।।                          8 काम क्रोध मद लोभ मोह छल- छद्म कुटिल का घेरा। तोड़ इन्हें जो बाहर निकला, वह है कुशल चितेरा।।                       9 जागी तरुणाई ही देश की, दिशा बदल सकती है। अगर दिशा ह

कविता-पथ परिवर्तन ©संजीव शुक्ला 'रिक़्त'

नमन, माँ शारदे  नमन, लेखनी  नूतन किसलय निश्छल को,  इस मृदु लता सुकोमल को l नव विकसित शिशु कोपल को,या अबोध पल्लव दल को, तज... कर लूँ पथ परिवर्तन?  किंचित स्लथ, जीर्ण नहीं,  जरठ, किन्तु हूँ शीर्ण नहीं l कर्षण कर निज संबल को, निरवलम्ब कर निर्बल को, तज..कर लूँ पथ परिवर्तन ? निज सुख़ की प्रत्याशा में,  विस्तृत घोर निराशा में l सघन तिमिर में पल पल को,कातर लोचन के जल को, तज...कर लूँ पथ परिवर्तन? माना घोर अमावश है, विधि की भाषा कर्कश है l मर्दन कर के करतल को,बल दे भावी के छल को, तज... कर लूँ पथ परिवर्तन?? ©संजीव शुक्ला 'रिक़्त'