प्रतीक्षारत ©लवी द्विवेदी

 


प्रतिदिन की प्रेम पिपासा,

निज की निज को अवगत है।

मन म्लान हृदय की पीड़ा,

कल थी आहत, आहत है।

 

तटबंध तोड़ आती नित,

लहरे उछाह भरती हैं। 

क्रंदन निष्ठुर तृष्णा की, 

हिय ओर छोर फिरती हैं।


एकांत निलय में निशदिन, 

भरती हुँकार प्रत्याशा। 

अधरों की स्मित डोले,

खेले नैनों में आशा। 


हैं किन्तु बाण भेदी सर, 

बहु चले हुए वर्षों के। 

नासूर हुए तन-मन सब,

हैं छले हुए वर्षों के। 


पर, प्रेम लुटाते आए,

चाहे हो लुटिया फूटी।

पर का जूठन व्यंजन है,

निज की मचिया, पर टूटी। 


निज जब परहित की आशा, 

निज ही चाहे, निज मरकर। 

निज स्वार्थ दिखेगा पर को, 

चाहे जाएँ तन तजकर।


हैं किन्तु प्रेम जिन निज के,

निज ना होकर परहित ही।

क्षण क्षण तोड़ेंगे आशा, 

परहित के हित निश्चित ही।


निज मान स्वयं का खोकर,

अपमान घृणा घट पाए।

वो क्यों संगम अब चाहें,

जो संयम रख मर जाए।


जो हृदय प्रहत वर्षों से,

आशा नित ले संतत हैं।

वो नैन प्रतीक्षारत थे,

वो नैन प्रतीक्षारत हैं।

©लवी द्विवेदी 'संज्ञा'

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