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ग़ज़ल ©लवी द्विवेदी 'संज्ञा'

नमन, माँ शारदे  नमन, लेखनी बहर- बहरे मज़ारिअ मुसमन अख़रब मकफूफ़ मकफूफ़ महज़ूफ मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईलु फ़ाइलुन २२१ २१२१ १२२१ २१२ लिक्खा हसीन आसमाँ जब जब कही ग़ज़ल, हमने तो चाँद टाँक के हर दिन बुनी ग़ज़ल। वो जो गए हैं ढूँढने महताब में निशां, खोजें, जमीं पे चाँद ने कितनी लिखी ग़ज़ल? ला 'इल्म, कैसे वो गिने सिक्के नसीब के, शौकत चुरा न ले ये कोई, सोचती ग़ज़ल। ताउम्र कैद में रहे खामोश लफ्ज़ जो, होकर रिहा न कह सके सच, मर गई ग़ज़ल। महफ़िल सजी तो क्या सजी? हों गर जहीन सब, इक सरफिरे अदीब को बस ढूँढती ग़ज़ल। काँटों की फ़ितरतें 'लवी' इस कदर हैं छिपी, फूलों को ना ख़बर हुई कैसे चुभी ग़ज़ल। ©लवी द्विवेदी 'संज्ञा'

तमन्ना करके पछताए ©रेखा खन्ना

नमन, माँ शारदे  नमन, लेखनी  कुछ तमन्नाएं सज़ा होती हैं। पँखों की चाहत होती है पर रिहाई की जगह कैद मिलती है। उड़ान भरने को अथाह अम्बर होता है पर पाँव टिकाने को ज़मीं नहीं होती है। तमन्नाओं का अथाह समंदर तैरने की कला नहीं सिखाता है बस एक दल-दल की भाँति भीतर और भीतर खींचता ही चला जाता है। एक लावा उबलता है दिल के भीतर नाकामी को लेकर फूटता है निराशा का  अंकुर।  उस अंकुर पर कोई हसीन फूल नहीं खिलता है उस पर पनपता है एक जहर जो निगल लेता है सोचने समझने की शक्ति को। तमन्नाओं को भी ज़रा सब्र नहीं है बस एक के बाद एक कुकरमुत्ते की भांति विकसित होती है और  एक मधुमक्खी का छत्ता बन कर दिन रात डंक मारती हैं। डंक मार मार कर दिल को घायल करती हैं और नाकामी का एहसास दिलाती हैं। ख्वाबों का भी हकीकत से दूर तक कोई लेना देना नहीं है वो तो हर रोज़ सज जाते हैं पलकों तले और टीस बन जाते हैं सूरज की पहली किरण के उगते ही। सारा दिन आंँखों में रिडकते रहते हैं कि शायद कोई रास्ता मिल जाए और हकीकत की दुनिया में कदम रख पाएं। हकीकत, हकीकत तो जैसे अपनी ही दुनिया में मगन है। तमन्नाओं और ख्वाबों को अपने सख्त पत्थरों से तोड़ने

गीत- कविता ©दीप्ति सिंह 'दीया'

नमन, माँ शारदे  नमन, लेखनी  जब समसि शब्द को भाव के संग पिरोती है, कविता संवेदनशील तभी होती है । जब जन-जन की पीड़ा पृष्ठों पर बोती है , कविता संवेदनशील तभी होती है । जब अन्न उगाने वाला भूखा सोता है,  और करता जो निर्माण वो बेघर होता है। जब कष्ट देख इन सबके मसि भी रोती है,  कविता संवेदनशील तभी होती है । परिवर्तन संभव है मानस के चिंतन का, आधार रही है कविता जन आंदोलन का, जब जन हितार्थ मसि संकल्पों को ढोती है,  कविता संवेदनशील तभी होती है । ©दीप्ति सिंह 'दीया'

लाड़ली ! ©परमानन्द भट्ट

 तू मेरा दिल जान लाड़ली । मेरे घर की शान लाड़ली । शोख़ फुदकती सोन चिड़ी सी, बगिया की मेहमान लाड़ली । तेरे से ही घर बन पाया, जो था सिर्फ मकान लाड़ली । मेरे घर के वृन्दावन में मीठी मुरली तान लाड़ली । मिट जाती मर्यादा खातिर, रखती घर का मान लाड़ली । साँसों में ख़ुश्बू  भरती हैं तेरी ये मुस्कान लाड़ली । मानस की सुन्दर चौपाई, गालिब़ का दीवान लाड़ली । बेटो को सब रतन समझते, पर रत्नों की ख़ान लाड़ली | शक्ति स्वरुपा तू सबला है तलवारों  को तान लाड़ली । पथ की बाधा से घबराकर, मत करना विषपान लाड़ली । ©परमानन्द भट्ट

गज़ल ©सरोज गुप्ता

आज खामोशियाँ कर रहीं गुफ्तगू ।  आ भी जाओ सनम तुम मेरे रूबरू ।।  आपको इल्म हो या न हो जानेमन ।  मेरी उल्फ़त को है आपकी जुस्तज़ू ।।  मैंने मांगा नहीं आपसे कुछ सनम ।  पूरी कर दो मेरी आज ये आरज़ू ।।  आप मशरूफ़ हैं ये हमें है पता । ऐसी मसरूफ़ियत अब लगे फ़ालतू ।।  वो हंसी खो गई आपकी जानेजाँ ।  जो लुटाती रही प्यार की मुश्कबू ।।  आँख मेरी टिकी देहरी पर सनम ।  आके रख लो सनम इश़्क की आबरू ।।    ©सरोज गुप्ता

कविता रानी ©गुंजित जैन

 शब्दों से है आनाकानी, कहनी हिय की व्यथा पुरानी, वर्षों बीत गए, आ जाओ, क्यों तुम रूठी कविता रानी? प्रेम हमारा नित्य, असीमित, था साहित्य जगत में चर्चित, वृक्ष विशाल ताल छंदों के, पृष्ठों की भू पर थे विसरित, पादप चले गए जीवन से, कैसे होगी पवन सुहानी? वर्षों बीत गए, आ जाओ, क्यों तुम रूठी कविता रानी? भावों का लेकर दिनकर नित, संवेदन-वर्षा से सिंचित, लेकर पोषक पोषण लय का, हुई प्रणय नव-कोंपल विकसित, होती शुष्क प्रेम की कोंपल, वर्षा जब से हुई सियानी, वर्षों बीत गए, आ जाओ, क्यों तुम रूठी कविता रानी? अलंकार से हो आभूषित, रम्य अनेक रसों से लेपित, ललित षोडशी नव-यौवन की, करती रही मधुर स्वर गुंजित, गई अलंकारों की शोभा, रुकी स्वरों की कोमल वानी, वर्षों बीत गए, आ जाओ, क्यों तुम रूठी कविता रानी? ©गुंजित जैन

लावणी छंद - मेरा नवभारत ©सौम्या शर्मा

नमन, मां शारदे नमन, लेखनी मेरा भारत  संस्कारों की,              सर्वोत्तम    परिभाषा है। प्रगतिशील मेरा भारत जो ,          विश्व पटल की   आशा है।।  चन्द्रयान को भेज चांद पर,          फिर  परचम    लहराया है। जी-20की  इस  बैठक को,        सकुशल   संपन्न   कराया है।।  मेरा भारत वह भारत जो,          जग  सिरमौर   बनेगा फिर। मेरा भारत वह भारत जो,       सुखद भविष्य लिखेगा फिर।।  मेरा भारत वह भारत जो,            नींव  सुदृढ़तम  रखता  है। विश्व शांति का पोषक लेकिन,             ध्येय विजय का रखता है।।  मेरा भारत वह भारत जो,            गौरव   का   परिचायक है। मेरा भारत वह भारत जो,            विश्व नीति  का  नायक है।।  भारत अपना योग विश्वगुरु,              वेद   पुराणों   का   दाता। महा मिलन संस्कृतियों का यह,         हित रक्षक सबका सुखदाता।।  वसुधा को मान कुटुम्ब सदा,          वैक्सीन  हमीं ने  दान  दिया। विलग किसी को कब माने हम ,         कभी नहीं  अपमान किया।।  मेरे   भारत   की   यशगाथा,            विश्व   युगों   तक    गायेगा।  सकल विश्व में विजय पताका,             भारत    का     लहराएगा।। ©सौम्

चौपैया छंद - शिवशंकर ©रजनीश सोनी

नमन, माँ शारदे  नमन, लेखनी जय जय शिवशंकर, तुम अभयंकर,                      शरणागत सुखरासी।  आसन बाघंबर, श्रृष्टि सृजनकर,                      जय कैलाश निवासी।।  जय जय  भूतेश्वर, शंभु  महेश्वर,                    जय जय हे अविनाशी।  जय जय घृष्णेश्वर , जय प्रथमेश्वर,                    जय शिवलिंगम काशी।।   भूतादिक  सङ्गा,  भङ्ग  तरङ्गा,                   गण गणाधि सब साजे।  औघड़  बेढंगा,  जस भिखमङ्गा,                     कर  वरदान  निवाजे।।   गलहार  भुजङ्गा,  हर  हर  गङ्गा,                      जटा  मध्य  में  राजें। गिरिजा  वामाङ्गा,  रुचि भस्माङ्गा,                      डम डम डमरू बाजे।।  जय  हो  त्रिपुरारी,  संकट  हारी,                      प्रखर त्रिशूल धरन्ता।  जय ताण्डव कारी, कष्ट विदारी,                      दुख  उन्मूलक  संता।।   जय हो अविकारी, वृषभ सवारी,                     शैल-सुता प्रिय कन्ता।  सु- पिनाक प्रहारी, भव भय हारी,                      कृपा  करो  भगवंता।।  ©रजनीश सोनी

गीत- श्रीकृष्ण ©रानी श्री

नमन, माँ शारदे  नमन, लेखनी  सदा मटकी फोड़ जाए, वस्त्र ग्वालिन के चुराए, गोपियों के संग कान्हा, रास कैसा यह रचाए। रास रचते हैं लुभावन। आ गए हैं देखो मोहन। पंख मस्तक पर लगाए, बाँसुरी सुंदर बजाए, बैठ यमुना के किनारे, श्यामसुंदर मुस्कुराए। हो रही है मधुर गुंजन, आ गए हैं देखो मोहन छुपके-से माखन को खाए, माँ यशोदा को सताए, हैं सभी लीलाएँ नटखट, तभी लीलाधर कहाए। संग ले मासूम बचपन, आ गए देखो हैं मोहन। कंस का वह काल लाए, तर्जनी पर गिरि उठाए, दीनबंधु बने हैं कान्हा, भक्त को दुख से बचाए। बने रक्षक नंदनंदन, आ गए हैं देखो मोहन। आस्था हिय में जगाए, मुख में रखते जग समाए, अति ललित मुस्कान धरकर, राधिका जी संग आए। है प्रफुल्लित देख यह मन, आ गए हैं देखो मोहन। ©रानी श्री

हिन्दी ©लवी द्विवेदी

 है हिंदी नमन प्रथम तुमको।। रस छंद अलंकृत शोभा तुम,  तुम स्वर रामायण गीता हो।  तुम अविरल मधुर मनोहरतम,  वर्णो की प्रथम पुनीता हो। हो चार चरण की प्रतिभा तुम,  दो समतुकांत लयबद्ध गीत। लघु गुरु भाई, सरिता सी यति,  रूपक का जैसे यमक मीत। गति रुष्ठ कभी ना हो पाती,  है ज्ञात रोष में नम तुमको।  है हिंदी नमन प्रथम तुमको।। सोलह मात्रा चौपाई में,  गण आठ गिनाए सुंदरतम। मनभावन दोहा नृत्य गान, सोरठा सुजान मनोहरतम। कुंडलिया छप्पय उल्लाला,  अनुप्रास छटा दर्शाती है। चामर, प्रमाणिका, तोटक लय,  जब सरल सिंधु हो जाती है,  तोमर, भुजंग, कृति नमन करे... ब्रज, खड़ी, बघेली, क्रम तुमको। है हिंदी नमन प्रथम तुमको।।  तुम शिल्प काव्य तुम चंदन सम, तुम शिलालेख तुम पत्र रूप। तुम शब्द समागम सुंदरता हो तुम अजेय अनुपम अनूप। तुम सभ्य शिल्प में रमीं हुई,  तुम रूप अलौकिक माता हो। व्यंजन के क्रम में सधी हुई स्वर की स्नेहिल दाता हो। हे भाषा भाव धारिणी माँ,  मैं मानू श्रेष्ठ परम तुमको।  है हिंदी नमन प्रथम तुमको।।     ©लवी द्विवेदी 'संज्ञा

गीत-जिंदगी ©संजीव शुक्ला

 तलाश में उम्र जिसकी गुज़री,वो जिंदगी भी न पास आई सभी के हिस्से में आए सागर , हमारे हिस्से में प्यास आई l अज़ब कहानी है तिश्नगी की, हमें भी चाहत थी जिंदगी की l खुदा की मूरत बसा के दिल में, अजीब ख़्वाहिश थी बन्दगी की l वो घर खुदा को न रास आया,न घर को मूरत ही रास आई l ये वादियाँ बाग ये बहारें, हसीं गुलों की खिली कतारें l हवा के ठंडे शरीर झोंके, जवान सावन नरम फुहारें l हसीन रंगत महक गुलों की,पसंद रिमझिम न खास आई l कभी हसीं था जहान सारा, हसीन लगता था हर नज़ारा l हसीन गुलशन जमीन सारी, क़े बाँह में आसमान सारा l मगर ख्यालों की क्यारियों में, न फूल महके न घास आई l खयाल ख्वाबों का वो जहाँ था, हसीन फूलों का आशियाँ था l ये ज़ख्म, राहों में बिखरे काँटे, ये ठोकरों का सफर कहाँ था l सुबह तमन्ना जो हँस के निकली, वो शाम को घर उदास आई l ©रिक्त

नज़्म - कातिल से कुछ ©अंशुमान मिश्र

 कातिल-ए-चैन जो मासूम सी इक सूरत थी! जाने वो तू था, या पत्थर की कोई मूरत थी! मैंने रोका नहीं था, ना ही  तू  रुका, लेकिन, तुझको मालूम  था  मुझको  तेरी  ज़रूरत थी! तूने सुन रक्खे थे पिछले मेरे दर्दों के बयांँ, तूने  देखे  थे  पुराने  मेरे जख्मों के निशाँ, तुझको मालूम थी वो ईंट, जिसे खींचा तो, टूट जाएगा मेरी सब्र'ओ'हिम्मत का मकाँ! तेरी खुदगर्जी या मेरी किस्मत, जो भी हो, गले लग कर'के जान की रुखसत, जो भी हो, इस तरह कत्ल किया तूने रूह का मेरी, फिर से उठने की अब नहीं हिम्मत, जो भी हो, क्या पता तूने भी न चाहा था ये हो जाए, करना  चाहूंँ  यकीन  तो भी कैसे ही आए, तेरी  खुदगर्जी  की  शमशीर  पे मेरा खूंँ है! क्या पता तेरे आंँसुओं से कल ये धुल पाए, मेरे हाफ़िज़, मेरे कातिल, जा तू आबाद रहे! करके  नाशाद  गया, पर  न  तू  नाशाद रहे! कातिल-ए-रूह  मेरे, हो  भला  तिरा लेकिन, मेरा  हर  अश्क  खुदा  गिन रहा है, याद रहे! ये याद रहे!  ये याद रहे!                     ©अंशुमान मिश्र

जैसे बहती है नदी ©रेखा खन्ना

 जैसे बहती है नदी मैं भी बहना चाहती थी हो कर उन्मुक्त लेकिन राह आसान ना थी  क्योंकि रस्मों रिवाजों की बेड़ियों में जकड़ी हुई थी। मेरे बहाव को रोकने के लिए कई अवरोध और ऊँचे बाँध बनाए गए थे। जैसे बहती है नदी और अपना रास्ता खुद बना कर खोज लेती है समंदर को और उसमें विलीन हो जाती है और जिम्मेदारी सौंप देती है समंदर को उसे संभाल कर रखने की मैं कभी उस समंदर तक पहुंँच ना पाई  और ना ही उसमें विलीन हो सकी। मेरा बहाव मुझ तक ही सीमित रह गया और  मैं खुद के भीतर ही एक तूफान का रूप लेती जा रही हूँ अभी तक इस तूफान में सब कुछ तबाह कर के अपनी रास्ता ढूँढ लेने का हौंसला नहीं है पर एक दिन ऐसा जरूर आएगा जब ये तूफान विकराल रूप लेकर सब रिश्ते नातों को पीछे छोड़कर अपनी राह चुन लेगा और निकल पड़ेगा अपने मनचाहे सफ़र को। बहाव जरूरी है लेकिन रोक लगाने वाले इस बात को समझते नहीं है। अपना रास्ता चुन कर उस पर चलते हुए मंजिल तक पहुंँचना जरूरी है। जीवन का सफ़र तभी मुक्कमल होगा जब वो हर अड़चन को दूर करके अपने गंतव्य स्थान तक पहुंँचेगा।  हमारा सफ़र जन्म से लेकर मृत्यु तक का तय है उसे एक नदी की भांति ही बहना है। अवरोध दूर

लेखनी स्थापना दिवस त्रिदिवसीय कार्यक्रम

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प्रभु श्री कृष्ण एवं माँ वीणापाणि के आशीर्वाद से लेखनी स्थापना दिवस के उपलक्ष्य में रखा गया त्रिदिवसीय आयोजन, सकुशल सम्पन्न हुआ। लेखनी परिवार में देश के विभिन्न भागों से सदस्य उपस्थित हैं, जिनकी उत्कृष्ट कृतियाँ सुनने मिलीं। तीनों दिन वातावरण काव्य-रस से तर रहा। प्रथम दिवस :- यूट्यूब (भाग 1) यूट्यूब (भाग 2) फेसबुक द्वितीय दिवस:- यूट्यूब फेसबुक तृतीय दिवस:- यूट्यूब फेसबुक ऐसे ही और साहित्यिक-रस से सराबोर होने के लिए जुड़ें लेखनी से अन्य पटलों के माध्यम से:- लेखनी फेसबुक पटल लेखनी यूट्यूब पटल __लेखनी परिवार__

मृत्यु ©️रिंकी नेगी

 शरीर त्यागने के बाद, मुझे नहलाया जा रहा था |  जीवनपर्यन्त ना दिए दो जोड़ कपड़े किसी ने, अब नया कपड़ा, मोल कर लाया जा रहा था |  रो रहे थे वो लोग भी जो कारण रहे मेरे कष्ट का, जीते जी जो चल ना पाए साथ, आज वो हर व्यक्ति मृत शरीर को मेरे, दाह करने साथ जा रहा था | जीवन था तो भूख-प्यास थी मुझे, तब ना पूछा किसी ने मगर अब काक को भी नाम से, मेरे भोजन कराया जा रहा था |  मेरी आत्मा परेशान ना करे परिजनों को, इस डर से हर प्रथा का निर्वाहन  उनसे कराया जा रहा था |   जीवित रहते ना सुनी व्यथा किसी ने, पर हर कोई मुझको अपना बता रहा था | कोई ऑफिस की छुट्टी कोई सहानुभूति के लिए  मेरे किस्से सुना रहा था |  अधूरी कुछ जिम्मेदारियां, और अपनों के विचलित हृदय देखकर  मैं वापस लौट आना चाह रहा था |  पर आत्मा त्याग चुकी थी शरीर को, और मैं भी हर पल सांसारिक मोह से दूर जा रहा था | - ©️। रिंकी नेगी

ग़ज़ल ©परमानन्द भट्ट

नमन, माँ शारदे  नमन, लेखनी  कहानी मुख्तसर लिख तू मगर कुछ खूबसूरत हो, भले छोटा सा हो लेकिन सफर कुछ खूबसूरत हो।  कभी माँगे नहीं तुमसे गुलों की काफिले मैंने, जरा सी छांव दे ताकि डगर कुछ खूबसूरत हो।   सभी को आँख दी है तो सलीका भी सिखा जिससे, निगाहें हो सलोनी सब, नज़र कुछ खूबसूरत हो।  मिलें जब भी किसी से हम, हमेशा याद वो रक्खे, हमारी बात का उस पर, असर कुछ खूबसूरत हो।  महल सड़कें बढाने से, यहाँ पर कुछ नहीं होगा, मुहब्बत भी बढ़ा  जिससे, नगर कुछ खूबसूरत हो।  कभी आ के मिलो मुझसे  भले ही ख्वाब में जिससे, अजाने शहर  में मेरा , बसर कुछ खूबसूरत हो।  इधर तो कुछ नहीं ऐसा, 'परम' सुंदर कहें जिसको, चलो उस पार चलते हैं, उधर कुछ खूबसूरत हो।  ©परमानन्द भट्ट

लेखनी दिवस निमंत्रण ©सम्प्रीति

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 ‘लेखनी’ ग्रुप कवि/ कवयित्रियों का सिर्फ एक समूह ही नहीं अपितु एक परिवार है, जो एक दूसरे को साहित्य के साथ-साथ स्नेह के बंधन से भी जोड़े हुए है। यह परिवार ना सिर्फ साहित्य का पाठ पढ़ाता है बल्कि जीवन से जुड़े पहलुओं को भी सिखाता है। यहां वरिष्ठ जनों से लेकर कनिष्ठ से भी सभी एक दूसरे का सम्मान करते हैं तथा उनकी बातों को, उनके सुझावों को हमेशा मान देते हैं व सर्वोपरि रखते हैं। ईश्वर हमारे इस लेखनी परिवार को हमेशा आगे बढ़ने का आशीर्वाद प्रदान करें । धन्यवाद! ©सम्प्रीति

कविता धन ©रजनीश सोनी

 गुण-ग्राहक से  मिले  प्रसंसा,  सजती  और  सुघर  होती है।  सतत  सहेजे    साहुकार  सा,  कवि का धन कविता होती है।।  विविध विधा के होते नग-धन,  हर  नग  की  आभा  होती  है।  शब्द  नगीने  सा कवि  जड़ता,  जेवर  सी    कीमत   होती  है।  सतत   सहेजे    साहुकार  सा,  कवि का धन कविता होती है।।  याद नहीं   धन   जमा डायरी वक्त  पड़े   तड़पन   होती  है।  कवि कंठस्थ रखे जब कविता,  तब  ही   जेब  गरम  होती  है।  सतत   सहेजे    साहुकार  सा,  कवि का धन कविता होती है।।  कुछ  गम्भीर  बड़ी नोटों  सी,  कुछ में  ही  प्रचलन  दोती है।  धमा चौकड़ी  खूब  करें कुछ,  सिक्कों सी खन खन होती है।  सतत   सहेजे    साहुकार  सा,  कवि का धन कविता होती है।।  कवि श्रम करते कलम चलाते,  तब  पूँजी   अर्जित   होती  है।  बिन श्रम ही  कुछ जेब कतरते,  कवि  धन  भी  चोरी  होती  है। सतत   सहेजे    साहुकार   सा,  कवि का धन  कविता होती है।। चोर चतुर  पर  नहीं  समझता,  कवि-कवि फिर चर्चा होती है।  कभी  मंच  में  जब  पढ़ जाये,  तब  उसकी   निन्दा  होती  है।  सतत   सहेजे    साहुकार  सा,  कवि का धन कविता होती है।। ©रजनीश सोनी 

श्री महाकाल स्तुति ©सूर्यम मिश्र

 नमामीश शंभू ......त्रिकालं नमामी l महाकाल कालं,.....कृपालं नमामी l महेश्वर, सुरेश्वर...... कु-संतापहारी। प्रभो चंद्रशेखर........भुजंगेशधारी। त्रयंतापहारी...........जटाजूट शंभो, दिगंबर दिशाधिप,.....प्रणम्यं पुरारी।  पिनाकी, त्रिलोकी, विशालं नमामी l महाकाल कालं,.....कृपालं नमामी l। ललाटाक्ष मोहक कृपानिधि जटाधर। परमवीरभद्रं......कपर्दी......धराधर। महादेव_मृत्युंजयं_आदिदेवं, स्वयं शून्यनंतं,__,स्वयंभू  चराचर। परशुहस्त,_गंगालभालं__,नमामी। महाकाल कालं,.....कृपालं नमामी।। नमो चारुविक्रम,..जगद्व्याप्त शंकर । सुखं सृष्टि मूलं,......सुपर्याप्त शंकर । अनघरूप,अव्यक्त,_आसक्तिहीनं ,  सदा शक्ति,..शाश्वत समनुरक्त शंकर । गिरीशं नमो,......चंद्र भालं नमामी l महाकाल कालं,.....कृपालं नमामी l। ©सूर्यम मिश्र