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गीत-दीपक ©संजीव शुक्ला

 घटा घनघोर है नभ में, बिछा पथ में उजाला है, प्रतीक्षा में कदाचित एक दीपक जल रहा होगा l कठिनतम मार्ग कंटक तालिका है तीक्ष्ण शूलों की, गली सुखमय सुखद प्रत्येक कोमल पर्ण फूलों की l करूँ विश्वास कैसे पथगमन दुष्कर सरल कैसे, कहीं कोई पुहुप चुन पुष्प वन में चल रहा होगा l कठिन संघर्षमय प्रत्येक पल अंगार है जीवन, परम् शीतल मगन पश्चात कैसे मुग्ध अंतर्मन l तनिक आभास मन को उष्णता का क्यों नहीं होता, प्रवाहित प्रेम का झरना कहीं उरतल रहा होगा l अँधेरा है अमावस की निशा है तारिकाऐं हैँ, भयानक श्याम घन अंबर भयातुर कोशिकाऐं हैँ l तिमिर वन में अप्रत्याशित उजाला किस तरह फैला, लिए खद्योत दृग में स्वप्न कोई पल रहा होगा l ©संजीव शुक्ला

गुमशुदा ©सम्प्रीति

 जब-जब तुम्हें याद करुँ तो टिमटिमा देना बस, लगेगा जैसे साथ ही हो तुम बिलकुल मेरे पास, चलो ये भी मान लूँगी कि रात में दिखते हो, दिन भर काम करके रात को ही लौटते होंगे शायद, अच्छा..जब तुम्हें याद करके रोने लगूं, तो रोने मत देना,हाँ पर टूट भी मत जाना, तुम जहाँ हो अब वहाँ से नहीं खोना चाहती तुम्हें, बस एक बार की जगह दो बार टिमटिमा देना, मैं हँस दूँगी,देखकर तुम भी हँस देना, इन्तज़ार दिन भर करती हूँ कहीं बादलों के पीछे छिप ना जाना, मेरे साथ रहकर मेरी हर रात को यादगार बनना, अच्छा सुनो... मैं जब भी तुम्हें याद करुँ तो टिमटिमा देना बस, लगेगा जैसे साथ ही हो तुम बिलकुल मेरे पास। -©सम्प्रीति

लगता है ©अंजलि

 दिल में बसा रूह के करीब लगता है, तेरा दिया  मुझे मेरा नसीब लगता है। भूत-पिशाच, गंधर्व सबसे यारी तेरी, प्यारा तूझे हर निर्धन गरीब लगता है। आया माँ सती को सादापन रास तेरा, पिता को पर्वतवासी बेतरतीब लगता है। शूलपाणी, जटाओं में धारण की है गंगा कंठ बसा वासुकी खुशनसीब लगता है। हर लिया घट-घट में था जो विष भरा, शंकर  तू हर मर्जं का तबीब लगता है। ©अंजलि

गीत - मार्ग तुम छोड़ो नहीं ©अंशुमान मिश्र

 पुष्प की खुशबू से साथी, रास्ते  मोड़ो नहीं कंटकों का मार्ग है पर, मार्ग तुम छोड़ो नहीं ! क्या पता, गंतव्य पहुंचा  दे  यही  रस्ता  कभी, क्या पता, यदि  प्राण ले लें आपदाएं आज ही, क्या पता, विजयी रहोगे, या पराजय है लिखी, हार की चिंता से लेकिन... आस तुम तोड़ो नहीं, कंटकों का मार्ग है पर....  मार्ग तुम छोड़ो नहीं ! पुष्प की खुशबू से साथी...... अभी तो प्रारंभ है, तुम अभी से भय खा रहे, जो परिश्रम कर्म है... तुम उसी से घबरा रहे, इस तरह जिंदा रहे तो वीर... क्या ज़िंदा रहे? कायरों की सारिणी में.. नाम तुम जोड़ो नहीं, कंटकों का मार्ग है पर.. मार्ग तुम छोड़ो नहीं !  पुष्प  की खुशबू से साथी, रास्ते  मोड़ो नहीं,  कंटकों का मार्ग है पर मार्ग तुम छोड़ो नहीं!                           - ©अंशुमान

ग़ज़ल ©शिवाँगी सहर

 तुम्हें  इतना  समझ  कर  हम   करें   कैसे  मोहब्बत  अब, ख़ुद  अपने आप  को  इतनी  भी कैसे दें अज़िय्यत  अब। किसी   को  रास   न  आये  फ़ज़ा  अपने  शहर  की  जब, तो  ज़बरन  साथ रहने  की  भी  दें  कितनी सहूलत  अब। ज़िंदगी  एक  तोहफ़ा   है  दिया  कुदरत  का  जिसमें  कि, बची  है  मौत  आने  में कुछ  ही पल  की  मसाफ़त  अब। तकल्लुफ़   पूछने  का   क्यूँ  खुला  है   दर  चले   जाओ, किसी की क्या मज़ाल इतनी जो तुमको दे इजाज़त अब। कि जब  तक सरहदों तक  चल रही थी  ठीक  थी लेकिन, यहां  पर  इश्क़  में  भी  कर  रहे  हैं  सब  सियासत  अब। लगा लो  लाख चेहरे औऱ दिखावा  कर  लो  कितना  भी, नहीं  दिखती   कहीं   से  भी  तेरे  अंदर   रिआयत  अब। असर  इतना  किसी  एक  शख़्स  का  ऎसे  हुआ  है  कि, हक़ीक़त  पर  "सहर"  की  कर  रहे  हैं  लोग  हैरत  अब।  ©शिवाँगी "सहर"

गुज़री है ©परमानन्द भट्ट

 हमारे द्वार से दिलक़श  बहार गुज़री है ख़ुशी  के पल हमें देकर उधार गुज़री है चमन में ख़ून से लथपथ परिंदे चीखते हैं हवा भी साथ में लेकर कटार गुज़री  है मिली है  मात तो घबरा के बैठ मत जाना  हमारे साथ तो यह बार बार गुज़री है हमारा मौन भी उनको लगा बग़ावत  सा "वो बात उन को बहुत ना- गवार गुज़री है"    मिलेगी  खाइयाँ कल देखना यहाँ गहरी  घरों के बीच से ऐसी दरार  गुज़री है महक से भर गयी है आज ये गली यारों वो थोड़ा वक्त यहाँ गुज़ार गुज़री है  'परम' के नैन से भी तब छलक गये आँसू ज़मीं  से अब़्र  में कातर पुकार गुज़री है ©परमानन्द भट्ट

प्यार की बदरा ©दीप्ति सिंह

 तेरे प्यार की बदरा बरसे ज़रा  मन भीगे थोड़ा... तरसे ज़रा जज़्बातों की बिजुरी चमके ज़रा  कभी ज्यादा और कभी....थम के ज़रा  आज मौसम की नीयत बेईमान है दिल के अंदर ये कैसा तूफान है  यूँ मुहब्बत की ख़ुशबू महके ज़रा  मन झूमे और तन बहके ज़रा    अब के सावन यूँ ही बीते ना कोई कोना मन का रीते ना आज भीगे तो अरमाँ निकले ज़रा  तेरी बाहों में आके पिघले ज़रा  तेरी उल्फ़त में है डूब जाना मुझे  चाहे दुनियाँ बोले दीवाना मुझे  तेरी चाहत की बारिश कर दे ज़रा  मेरी ख़्वाहिश का दामन भर दे ज़रा  ©दीप्ति सिंह "दीया"

स्वतंत्रता महोत्सव ©प्रशांत

 हरा, सफेद, लाल रंग ले अशोक चक्र संग, राष्ट्र की ध्वजा त्रि-रंग डोलती । हिलोर ले रही तरंग , अंग-अंग अंतरंग, देशप्रेम की उमंग   घोलती । भविष्य, भूत, वर्तमान, लोकतंत्र, संविधान, हिंद आन बान शान चूम के । सुनें वसुंधरा, वितान,  बाल, वृद्ध, नौजवान गा रहे स्व-राष्ट्रगान झूम के । सदैव जो रही अजीत,  ईश की धरा पुनीत, प्रेम-रीत विश्व को सिखा रही । कुबुद्ध युद्ध हार, जीत से अभीत हो विनीत गीत प्रीत के महान गा रही । स्वतंत्र देश के विशेष पर्व का हुआ प्रवेश, देशभक्ति का निवेश कीजिए । 'प्रशांत' हो रहे प्रदेश, लेश-मात्र हो न द्वेष, यों नवीन श्रीगणेश कीजिए। ~©प्रशांत

सूर्य ©सौम्या शर्मा

 सूर्य रक्तिम लालिमा का, खिल उठा देखो गगन में । नित्य अँधियारी निशा में, अनवरत श्रमदान करता । शांत रहकर वह निरन्तर, लक्ष्य हित संधान करता। आज देखो जगमगाता, वह ज्वलित हो निज अगन में । सौम्य पग को कंटकों ने , रक्तरंजित कर दिया था । किंतु था चट्टान सा वह, पूर्ण प्रण उसने किया था। है असम्भव कार्य सम्भव, यदि पिपासा हो लगन में । थी लगन उसकी अनोखी, यह स्वयं उसने किया था। लक्ष्य हित तन-मन समर्पित  , लक्ष्य हित जीवन जिया था । यज्ञ जीवन को समझकर, प्राण अर्पित हो हवन में । आज देखो खिलखिलाता, तेज से चमका सुआनन । स्वेद जिसको शुष्क करते, कर द्रवित सकते न पाहन! वह नहीं रोता नियति पर , जो नहीं सोता भवन में । सूर्य रक्तिम लालिमा का! खिल उठा देखो गगन में! ©सौम्या शर्मा

लम्हा था, लम्हा बन गुज़र गया ©रेखा खन्ना

खुशी का एक लम्हा होंठों पर ठहर ना सका ग़मों की बारात ऐसी सजी दिल तन्हाई का आशिक़ हो गया लम्हा जाने कब गुजर गया खुशी का एहसास बस लम्हों की कैद में बस गया दास्तां, में खुशियों का जिक्र नहीं दिल ग़मों को ग़ज़ल बना लिख गया खुशी का एक लम्हा खुशी को तरस गया लम्हा था, लम्हा बन गुज़र गया। ©रेखा खन्ना

दिवस ©लवी द्विवेदी

 निष्ठुर भी होते हैं, दारुण होते हैं। दया, कुशलता, निश दिन ढांढस ढोते हैं। किन्तु हृदय की असहनीय पीड़ा लेकर, दिवस विवश एकांत निलय में रोते हैं। संघर्षों की माला नित दृष्टांत नवल, नित नूतन क्यारी मृदु युक्त पुष्प कोमल। किन्तु विलग रस हीन पुष्प उच्छिन्न प्राय, याम व्याल संग लिपटे ज्यों शीतल संदल। असमंजस अध्यात्म हृदय के कण कण में, विह्वल श्वास अरण्य सघन उत्तर प्रण में। विषधर व्याप्त शीत चंदन उर यमुना यदि, वार मृत्यु को पाते दंश उरग रण में। शील हुए निर्मोही भी दिन बहु भ्रामक, निरख निरख अन्याय, विलग दुविधा कारक। श्वेत वर्ण के सुख दुख अधम छद्म रण में, विजय पताका किंतु संग रक्तिम सायक। ये कैसा पर्याय नियति के आँगन में, सरगम है यदि, नहीं श्वास क्षमता तन में। दिन प्रतिदिन ही ज्ञात अपरिचित होते है, मित्र कुशल दारुण, गुण अवगुण जीवन में। © लवी द्विवेदी

तेरी याद ©सरोज गुप्ता

 यार जब तुझको याद करते हैं,  तेरे जलवों की झलक हर तरफ़ बिखरते हैं । जान देते हैं आज भी तुम पर, जाने जां बात यही कहते हुए डरते हैं । मेरी आदत नहींं गई अब तक,  तुझसे ख़्वाबों में रोज शामों-सहर मिलते हैं ।  ज़िक्र जब भी तेरा कहीं होता,  बीते लम्हों से हम-ख़्याल हो गुज़रते हैं ।  दिल में तुम अब भी मुस्कुराते हो,  अश़्क पलकों पे सनम अब नहींं ठहरते हैं ।  तेरी यादों में लिखने बैठूँ जो,  लफ़्ज़ फ़ूलों की तरह बेशुमार झड़ते हैं । ©सरोज गुप्ता