ग़ज़ल ©शिवाँगी सहर
तुम्हें इतना समझ कर हम करें कैसे मोहब्बत अब,
ख़ुद अपने आप को इतनी भी कैसे दें अज़िय्यत अब।
किसी को रास न आये फ़ज़ा अपने शहर की जब,
तो ज़बरन साथ रहने की भी दें कितनी सहूलत अब।
ज़िंदगी एक तोहफ़ा है दिया कुदरत का जिसमें कि,
बची है मौत आने में कुछ ही पल की मसाफ़त अब।
तकल्लुफ़ पूछने का क्यूँ खुला है दर चले जाओ,
किसी की क्या मज़ाल इतनी जो तुमको दे इजाज़त अब।
कि जब तक सरहदों तक चल रही थी ठीक थी लेकिन,
यहां पर इश्क़ में भी कर रहे हैं सब सियासत अब।
लगा लो लाख चेहरे औऱ दिखावा कर लो कितना भी,
नहीं दिखती कहीं से भी तेरे अंदर रिआयत अब।
असर इतना किसी एक शख़्स का ऎसे हुआ है कि,
हक़ीक़त पर "सहर" की कर रहे हैं लोग हैरत अब।
©शिवाँगी "सहर"
बेहद खूबसूरत गजल 💐💐💐💐💐
जवाब देंहटाएंबेहतरीन गज़ल डियर 👏👏👏🌺🌺
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर ग़ज़ल हुई है मैम💜✨🙏
जवाब देंहटाएंबेहद खूबसूरत बेहद भावपूर्ण गज़ल 💐💐💐
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