दुखों के कैद खाने से ©परमानन्द भट्ट
यहाँ अब रोशनी होगी, नया सूरज उगाने से अंधेरा कम नहीं होगा, फ़कत दीपक जलाने से हमें हर बार वो मिलकर, , नये कुछ जख़्म देता है सुकूँ मिलता उसे शायद, हमारा दिल दुखाने से सजा कर प्यार चेहरे पर, जगाते होठ पर जादू हजारों फूल खिलते तब, तुम्हारे मुस्कुराने से बजी है सांस में सरगम, महकता मोगरा मन में जले है सैकड़ों दीपक, तुम्हारे लौट आने से हँसी के साथ में थोड़ा, यहाँ रोना जरूरी है खुशी का कर्ज बढ़ता है, महज हँसने हँसाने से कफ़स अवसाद का सारी, उड़ानें छीन लेता हैं "सुनो अब भी निकल आओ, दु:खों के कैदखाने से" ' परम 'यह प्यास नदियाँ की, मिलाती सिंधु से उसको उसे मिलता मजा सच्चा, सदा खुद को मिटाने से ©परमानन्द भट्ट