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दुखों के कैद खाने से ©परमानन्द भट्ट

 यहाँ अब रोशनी होगी, नया सूरज उगाने से अंधेरा कम नहीं होगा, फ़कत दीपक जलाने से हमें हर बार वो मिलकर, , नये कुछ जख़्म देता है सुकूँ मिलता उसे शायद, हमारा दिल  दुखाने से सजा कर प्यार चेहरे पर, जगाते होठ पर जादू हजारों फूल खिलते तब, तुम्हारे मुस्कुराने से  बजी है सांस में सरगम, महकता मोगरा मन में जले है सैकड़ों दीपक, तुम्हारे लौट आने से हँसी के साथ में थोड़ा, यहाँ रोना जरूरी है खुशी का कर्ज बढ़ता है, महज हँसने हँसाने से  कफ़स अवसाद का सारी, उड़ानें छीन लेता हैं "सुनो अब भी निकल आओ, दु:खों के कैदखाने से" ' परम 'यह प्यास नदियाँ की, मिलाती सिंधु से उसको उसे मिलता मजा सच्चा, सदा खुद को मिटाने से ©परमानन्द भट्ट

अब तुम्हें मैं याद हूँ क्या? ©गुंजित जैन

 हल्के पीले रंग वाला मखमली सा वो दुपट्टा, जो तुम्हें मैंने दिया था, तोहफे में, याद है क्या? उसकी हल्की सिलवटों में, तुम नज़र आती थी मुझको मुस्कुराती, खिलखिलाती,  कुछ नए सपने सजाती। फेंक आई वो दुपट्टा?  या अभी संभाल कर रक्खा हुआ है? धूल से लथपथ किसी कोने में घर के? या पहनती हो उसे अब भी सँवर के? उस दुपट्टे में कहीं पर, अब भी मैं आबाद हूँ क्या? सच बताना, अब तुम्हें मैं, याद हूँ क्या? और वो दो खनखनाती चूड़ियाँ भी, साथ जो बाज़ार से लाए थे दोनों। जब तुम्हारी ये निगाहें जा कहीं पर रुक गईं थीं, मैंने पूछा, तुम मगर ख़ामोश होकर चुप खड़ीं थीं, तब निग़ाहों ने ही रस्ता चूड़ियों का था बताया, और तब जाकर तुम्हें मैं, चूड़ियाँ वो दो ले आया। पास जब आता था मैं तो चूड़ियाँ तुम खनखनाती, चूड़ियों के बीच से ही झाँककर के मुस्कुराती। रख रखी हैं अब भी क्या? या तोड़ दी हैं? अब भी क्या उन चूड़ियों की खनखनाहट में कहीं हूँ? और उस मुस्कान की बुनियाद हूँ क्या? सच बताना, अब तुम्हें मैं, याद हूँ क्या? हर मुलाकातों पे अपनी, हमको हर दम पास आते,  रास्ते जो देखते थे दूर तुमसे आज मैं उन रास्तों पर ही हुआ हूँ। हादसों में ही गुज़रती ज़िन्

परिचय ©अनिता सुधीर

 अपना परिचय लिख रही,दोहों में ही आज । दो अक्टूबर जन्म है,लकी नाम है राज ।। जन्म नवाबों के शहर ,माता शीला नाम । प्रथम सुता रविन्द्र की ,जन्मी उनके धाम ।। अनिता की पहचान है ,विद्यालय का नाम । शास्त्र रसायन से मिला,जीवन को आयाम ।। शोध क्षेत्र औषधि रहा ,शौक रहा विज्ञान । गहराई में डूब के, किया पूर्ण अभियान ।। शुभ बंधन है प्रीत का, पति का नाम सुधीर। दो संतति के रूप में,जीवन रंग अबीर ।। जीवन की जब साँझ में ,लगा व्याधि अरु रोग। पृष्ठ किये रंगीन तब ,मिला कलम का योग ।। ज्ञान नहीं लय शिल्प का,पता न मात्रा भार । छन्द सृजन कैसे करें , नहीं शब्द भंडार।। अल्प आयु की है कलम, आख्या अब उपनाम । यात्रा मंगल दायिनी, आये नहीं विराम ।। साथ मिला साहित्य का, मिला नया परिवार। दोहा लिख सम्मान में, प्रकट करें आभार ।। सत्य मार्ग का अनुसरण, जीवन का सिद्धांत। विद्या उत्तम दान कर, पूर्ण करे वृत्तांत ।। ©अनिता सुधीर आख्या

फिर कहो परिणाम क्या हो? ©अंशुमान मिश्र

 चेतना जब मर रही हो, कष्ट की आकर रही हो, रुग्ण उर की हर शिरा में, वेदना  घर कर रही हो! नित नियति की मार सहकर, आस जब बस शांत रह कर, फिर नवल सा स्वप्न बुनती, ‘एक अंतिम बार’ कहकर.. इस  व्यथा  इस  वेदना  से, फिर कहो  विश्राम क्या हो? फिर कहो परिणाम क्या हो? फिर कहो परिणाम क्या हो?          ------- एक  तारा  टूटता  है, पर्ण तरु से छूटता है, किन्तु नभ फिर भी चमकता, वृक्ष भी कब रूठता है? किन्तु तारा मर गया ना, पर्ण का भी घर गया ना, वृक्ष, नभ, दोनों कुशल हैं, एक जीवन, पर गया ना, इस छिपी करुणा-कथा का, फिर कहो, आयाम क्या हो? फिर कहो परिणाम क्या हो? फिर कहो परिणाम क्या हो?                     - ©अंशुमान मिश्र

ग़ज़ल ©संजीव शुक्ला

 गलतियाँ कोई करे हम ही खतावार रहे l हम कहानी में फ़क़त नाम के किरदार रहे l उनके हालात से वाकिफ नहीं है बस हम ही.. जिनकी खबरों से भरे मुल्क के अख़बार रहे l वो खुदा है कोई पत्थर है या कोई बुत है.... उम्र भर जिस की इनायत का इंतज़ार रहे l कीमती वक़्त कभी ज़ब हमें दिया अपना.... या वो मशरूफ रहे या कभी बीमार रहे l बेरुखी ज़िल्लतें इल्ज़ाम हमारे सर हैँ... औऱ हम सिर्फ तबस्सुम के तलबगार रहे l यूँ मुहब्बत में खसारों का कारोबार हुआ.. फुरकतें हैँ नगद ख़ुशी के पल उधार रहे l गैर के वास्ते हमसे खफ़ा रहे हरदम.... इस तरह 'रिक्त' हमारे वो वफ़ादार रहे l ©संजीव शुक्ला

माफी अजन्में बच्चे से ©रेखा खन्ना

 कुछ धोखे जीने की वजह ही खत्म कर देते हैं। तब अनकही इच्छाओं का वजूद भी खत्म हो जाता है। वो इच्छाएंँ पूर्ण होने के लिए अगले जन्म के इंतजार की सूली पर चढ़ा दी जाती है। बहुत कुछ मर जाता है भीतर ही भीतर और साथ में मर जाते हैं वो सब भी जो जुड़े होते हैं उस एक इंसान से। मोहब्बत जब छोड़ कर चली जाती है तब मोहब्बत सिर्फ दुःख, तन्हाई, आँसूओं का तोहफा ही नहीं देती है और भी बहुत कुछ देती है। देखो ना तुम्हारी मोहब्बत ने मुझे क्या दिया, वो सपना जो मैं दिन रात देखा करती थी उसे पूरा करने के लिए अगले जन्म तक का इंतज़ार दिया। अक्सर तुम्हारे संग जिंदगी गुजारने का ख्वाब देखते देखते, रोज़ तुम्हारी मोहब्बत में डूबते हुए कुछ ख्वाब सजाने लग गई थी आंँखें और उन अनगिनत ख्वाबों में एक ख्वाब था माँ बनना। अपनी मोहब्बत की निशानी को अपने अंदर महसूस करना। अपने अंदर उसकी हलचल को और उसे बड़ा होते हुए महसूस करना। जब वो इस दुनिया में पहला कदम रखे तो उसे देख कर खुशी में झूम उठना, पहली बार उस नन्ही सी जान को बांँहों में भर कर कैसा महसूस होता है वो महसूस करना। देखो ना कितना कुछ था जीने के लिए। कितने सपने आंँखों में साँँसें ल

वीर जवान ©वन्दना नामदेव

  (वीर रस)  सरहद पर डट के खड़े, प्रहरी सजग जवान।  मातृभूमि की आन पर, वीर सदा कुर्बान।।  पवन वेग से जो बढ़े, दुश्मन को दे चीर ।  शौर्य, धीर ,गंभीर हैं, नमन देश के वीर।।  त्याग वीर घर द्वार सब, रहते सरहद पार।  न्यौछावर हैं राष्ट्र पर,आते घर दिन चार।।  सिंहों के साम्राज्य में, चले न गीदड़ चाल ।  सैनिक के ललकार से, हर दुश्मन बेहाल।।  भारत माँ की आन पर, जो भी करे प्रहार।  शौर्य सजग प्रहरी सदा, करते अरि संहार।।  -© वन्दना नामदेव

बरखा रानी ©️रिंकी नेगी

तपती धरा की प्यास बुझाने  अपना मधुर संगीत सुनाने  सबके मन को शीतलता पहुँचाने ये घटा सुहानी लायी होगी  हौले-हौले छम-छम करती  बरखा रानी आयी होगी  सूखी डालियों को फूलदार बनाने सूखी सरिताओं को पुनर्जीवन दिलवाने ये घटा सुहानी लायी होगी  हौले-हौले छम-छम करती  बरखा रानी आयी होगी  अब हर जगह हरियाली होगी किसानों के मुखमण्डल पर लाली होगी  प्रेमियों के दिल में प्रेम की ज्योत जगाने  सबके मन को आनंदित कर जाने  ये घटा सुहानी लायी होगी  हौले-हौले छम-छम करती  बरखा रानी आयी होगी  मयूर के नृत्य से मोहित होकर  जीवन में नव संगीत भर जाने  सूर्य के तेज से बचाने  मानव जीवन को राहत पहुँचाने मन को माटी की सुगंध का एहसास दिलाने  चातक पक्षी की प्यास बुझाने  ये घटा सुहानी लायी होगी  हौले-हौले छम-छम करती  बरखा रानी आयी होगी  अब घरों के आस-पास जल स्त्रोत भर जायेंगे छोटे-छोटे नन्हें हाथ  कागज की कश्ती तैरायेंगे  गर्मी की उमस के बाद  पुनः पुष्प सुगन्धित आएंगे  जिसे देखकर पक्षी सारे मधुर ध्वनि सुनाएंगे  सावन के झूले होंगे डालों पर सभी मिल गीत मधुर गाएंगे  वर्षा ऋतु के आगमन पर सब अपने मन की व्यथा भूल कर प्रकृति के सौंद

इश्क़ ©दीप्ति सिंह

 वज़्न-2122 2122 212 इस क़दर मत आज़माया कीजिए  इश्क़ शिद्दत से निभाया कीजिए   उम्रभर ये रूह भी महका करे  इस तरह पहलू में आया कीजिए  आपके जाने से जाँ भी जा रही  इस तरह उठ के न जाया कीजिए  हम सुकूँ से आपको देखा करें  वक़्त इतना साथ लाया कीजिए  आज 'दीया' हो गई है कीमती  बस यूँ ही दिल में बसाया कीजिए   ©दीप्ति सिंह "दीया"

सफ़र : ज़िंदगी से मुलाकात करने को ©रानी श्री

 तारीख 5 फरवरी सरस्वती पूजा का दिन। जब एक मैसेज आया कि मेरी यूनिवर्सिटी हमारे सेशन की लड़कियों को कैमपस बुला रही है। बस एक मैसेज ने हमारे ग्रुप्स में तहलका मचा दिया। पता चला शाम को उसके लिये एक मीटिंग रखी गयी है। सभी बहुत खुश जैसे न जाने क्या मिल गया हो। शाम को फेकल्टी के साथ मीटिंग हुई और सारे रूल्स और रेगुलेशंस समझा दिये गये। हम सभी बड़े खुश क्योंकि जहाँ उम्मीद नहीं थी कि कभी अपने कॉलेज के दर्शन कर पाएंगे भी या नहीं वहाँ इस मीटिंग का होना हम सबके लिए बहुत मायने रखता था। माँ शारदे की पूजा वाले दिन ही ऐसी खुशखबरी मिलेगी ये तो ख़ैर किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था। सभी बहुत खुश थे कि अंततः हम एक दूसरे से मिलेंगे। मैं भी खुश थी और शायद सबमें सबसे ज़्यादा खुश थी क्योंकि जहाँ सबके पास कैमपस आने की इकलौती खुशी थी, वहीं मेरे पास दो वजहें थीं खुश होने की। एक तो यही कि चलो अब तो उस कॉलेज के दर्शन होंगे जिसमें पढ़ तो रहे हैं मगर जिसकी शक्ल सूरत नहीं देखी अब तक। और दूसरी ये जो उससे भी खास वजह थी मेरी ना रोके जाने वाली खुशी की,और वो ये कि आख़िर किसी से मिलना हो सकेगा। कितने दिन से इस दिन का इंतज़

अनायास ©लवी द्विवेदी

 निशि अँधियारी घनघोर निखर जब आती है।  क्यों भावों की धारा प्रगाढ़ हो जाती है।  कुछ क्षणिक विषैले पोखर सम कस्तूरी दृग।  हो व्याकुल विह्वल शांति पिपासा को हरते।  कुछ गहन विशाल प्रणय वाले अल्हड़ पंछी,  नभ छूकर भी रुग्णित तृष्णा के घट भरते।  कुछ तृष्णा मिटी, मिला पर ना अह्लादित मन,  उस पल अभिलाषा अनायास मुस्काती है।  क्यों भावों की धारा प्रगाढ़ हो जाती है।  विकराल अविस्मरणीय निरर्थक आतुर मन,  घनघोर प्रशंसा का आदी निष्ठुर होता।  क्षण मिले हुए शब्दों से खुश, पर एक विकल,  वह कवि ही है या कवि होकर भी उर होता।  इस क्षणिक अवधि की रसना का रुचिकार स्वयं,  हो वृद्ध, विदारक श्वास पिपासा गाती है।  क्यों भावों की धारा प्रगाढ़ हो जाती है।  सुंदर आनन अत्यंत कटीले कुटिल भाव,  है प्रेम किंतु भयभीत अधर की कटुता है।  कुछ क्षणिक विषादी औसत वाला विह्वल मन,  क्षण रूठी आशा है या अविरल सविता है।  कलियों की शोभा शीघ्र एक निश्चित पल में,  करके प्रसन्न हर आनन को मुरझाती है।  क्यों भावों की धारा प्रगाढ़ हो जाती है। ©लवी द्विवेदी

खालीपन ©विपिन बहार

आसूँ में पत्थर लेकर भी,जीवन चले रवानी में । चाहत,धोखा,खालीपन है, शायरों की कहानी में  ।। आँसू को तो हमने पोछा,छुप-छुप कभी रजाई में । शादी उसकी होती देखी,भीगीं हुई जुलाई में ।। मंडप में जलते सपने थे,प्रेयसी राजधानी में । चाहत, धोखा,खालीपन है, शायरों की कहानी में  ।। नजरों की खामोशी में तो,यारा बहुत बवंडर था । हल्दी के लेपन में उसके,उर का हाल भयंकर था ।। फेरो में जो सपने टूटे,काँपे बदन बयानी में । चाहत,धोखा,खालीपन है, शायरों की कहानी में  ।। नाचे,झूमे,बाराती को,देखे खड़े किनारे में । सखियाँ तेरी बैठे गुपचुप,अंतर करे हमारे में ।। यादे तेरी गंगाजल है,हमकों मिली निशानी में । चाहत,धोखा,खालीपन है, शायरों की कहानी में ।। ©विपिन"बहार"          

ग़ज़ल ©गुंजित जैन

 आशिक़ी की वो इंतिहा दो मुझे, इश्क़ के बोझ में दबा दो मुझे। ख़्वाब का आशियाँ हैं ये पलकें, दरमियाँ इनके आसरा दो मुझे। जिसपे लिक्खी ख़ुशी की क़ीमत हो, टुकड़ा उस इश्तिहार का दो मुझे। इश्क़ करने की मैंने चाहत की, जब ख़ता मेरी है, सज़ा दो मुझे। आज कल दर-ब-दर भटकता हूँ, आपके दिल का रास्ता दो मुझे। कब तलक गुफ़्तगू ज़ुबाँ से करूँ, अब निग़ाहों का भी पता दो मुझे। छोड़कर मुझको जा रहे हैं सब, आप कब जाओगे, बता दो मुझे। हूँ परिंदा मैं आसमाँ का अगर, आसमाँ तो खुला-खुला दो मुझे। इश्क़ तो कोई खेल है 'गुंजित', जीतना है? चलो हरा दो मुझे। ©गुंजित जैन

मइया की लीला ©सरोज गुप्ता

 छवि माँ की अद्भुत पलक ना समाय ।  मइया की लीला सुनाई न जाय ।।  महिष यातना से, हुआ विश्व आहत,  मनुज, देव सारे किये माँ से मन्नत ।  किया युद्ध माता ने,नौ दिन निरंतर, हुए रक्त रंजित धरा और अंबर ।  महिष मर्दिनी अम्बिका माँ कहाय ।।  मइया की लीला सुनाई न जाय ।। रकतबीज का रक्त पी खड्गवाली,  किया नाश अरि का बनी मात काली ।  निशुम्भ-शुम्भ संहार, चंड मुंड मारी,  असुर का किया वध, जगत मात तारी । जगत तार जगदम्ब लीला दिखाय ।।  मइया की लीला सुनाई न जाय ।। नवल रात्रि में नित्य जो भक्त ध्याता, सभी सुख जगत के सहज व्यक्ति पाता । सभी कष्ट बाधा मेरी मात हरती, मनोकामना पूर्ण सब मात करती । सदा अपनी छाया में रखती छुपाय ।।  मइया की लीला सुनाई न जाय ।।  ©सरोज गुप्ता

सँभलते-सँभलते ©परमानन्द भट्ट

नज़र को झुकाए सँभलते सँभलते तेरे दर पे आये  सँभलते सँभलते छुपाकर गमों को, हँसे भी थे हम पर नयन डबडबाए सँभलते सँभलते जमाने से नज़रें बचाते हुए वो मेरे पास आए सँभलते सँभलते कलेजा कटा था विदा के क्षणों में  मगर मुस्कराये  सँभलते सँभलते चले जा रहे हम तेरे दर से गम की ये गठरी उठाये सँभलते सँभलते बहुत चाहा हमने रहें होश में पर कदम लड़खडाए  सँभलते सँभलते  हकीकत जो जानी तो दैर-ओ- हरम से 'परम ' लौट आये सँभलते सँभलते ©परमानन्द भट्ट

किरदार ©नवल किशोर सिंह

 हार जो पाया नहीं तलवार से। जीत उसको ले गए तब प्यार से। प्रेम-पल्लव हीन मुंडित पेड़ पर, पुष्प भी विकसित हुआ मनुहार से। देखकर वीभत्स आँगन युद्ध का, बुद्ध विचलित हो उठे संसार से। वेग जब देती तरंगित ऊर्मियाँ, पार पाती नाव भी मँझधार से। लूट का चरखा भला क्यों टूटता, पूछते वंचक वजह सरकार से। प्रात की किरणें ठहरती शाम को, मोल लेकिन पूछतीं अखबार से। झट मुखौटे को बदलना भी कठिन, तंग है खुद आदमी किरदार से। -©नवल किशोर सिंह

गीत-सीता ©संजीव शुक्ला

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 त्रेता से रघुकुल गाथा जन-जन की सुनी सुनाई है l कालांतर से किन्तु जानकी की छवि बदल न पाई है l युगों युगों से सिया वही संत्रास वही हैँ त्राण वही l सदा अस्मिता की रक्षा में सीता के प्रण प्राण वही l वही समर्पण मात्र राम पर प्राण हृदय जीवन अर्पण, हृदय वेधते दिशा-दिशा से तीक्ष्ण विषैले बाण वही l भूमि सुता पर सदा तर्जनी जग ने सहज उठाई है l मन प्राणों में श्वास शिराओं में केवल श्रीराम रहे l विरह व्यथा के अश्रु नयन से आजीवन अविराम बहे l आजीवन पावन पवित्रता का प्रमाण देती आई, जनकनंदनी जगदम्बा ने जग के कठिन प्रहार सहे l अहो! युगों की अग्नि परीक्षा भीषण पीड़ादाई है l ढूंढा है प्रत्येक पुरुष में...... अंश राम का नहीं मिला l युगों-युगोंसे पुरुषोचितअभिमान जहाँ था वहीं मिला l सहज समर्पित मर्यादा पुरुषोत्तम को ज़ब ज़ब खोजा, मिथ्या दम्भ,कहीं पौरुष,शंका का रावण कहीं मिला l किन्तु जानकी पूर्ण समर्पित सहज दृष्टि में आई है l ©संजीव शुक्ला 'रिक्त' Click Here For Watch In YouTube

हमारा नववर्ष ©सूर्यम मिश्र

 जिसके मंगलमय होने का, साक्षी प्रत्यक्ष दिवाकर है। जिसकी शुभता का सत्‌प्रतीक, यह धरा अमर, यह अंबर है।। हम ही सदैव से श्रेष्ठ रहे, यह सम्वत्सर इसका प्रमाण। सप्तपञ्चाशत् संवत आगे,  हो किया सृष्टि का विनिर्माण।। वय द्वयसहस्त्रएकोनशीति में, हो सुदीर्घ संस्कृति वितान। मनु सम्मोहक कर वसुंधरा, चूमें द्रुत गति से आसमान।। नित रंग भरे नूतनता का, वह विश्व चित्र का चित्रकार। हो परिपूरित प्रतिएक लक्ष्य, हो उन्नति पथ जग समाहार।। नित ही आत्मा के गह्वर में, उपजे शुचिता,आलोक शुद्ध। हो शमन दनुजता का जग में, हो दुर्विकार मनुसुत प्रबुद्ध।। सत शांति समुज्ज्वलता प्रकर्ष, जिससे हो तिमिरों का विकर्ष। सुस्वागत हो इसका सहर्ष, है यह हम सबका नवल वर्ष।। ©सूर्यम मिश्र  आदि नववर्ष विक्रम संवत २०७९ की अनहद मंगलकामनाओं सहित,....🙏

मेरा साया ©दीप्ति सिंह

 वज़्न -  2122  1212   22 वक़्त ये ऐसा आज है आया । मुझसे है दूर मेरा ही साया । तुमको सीने से लगाकर रो लें... दिल में हर-बार ये ख़याल आया । हम नहीं ज़ार- ज़ार रो सकते... इसलिए ख़ुद को हमनें समझाया । तेरी ख़ुशियों की बस तमन्ना है... दिल यही सोच कर है मुस्काया । तुम धड़कती हो मेरे सीने में... जिंदगी का हो तुम ही सरमाया ।  ©दीप्ति सिंह 'दीया'