सफ़र : ज़िंदगी से मुलाकात करने को ©रानी श्री

 तारीख 5 फरवरी सरस्वती पूजा का दिन। जब एक मैसेज आया कि मेरी यूनिवर्सिटी हमारे सेशन की लड़कियों को कैमपस बुला रही है। बस एक मैसेज ने हमारे ग्रुप्स में तहलका मचा दिया। पता चला शाम को उसके लिये एक मीटिंग रखी गयी है। सभी बहुत खुश जैसे न जाने क्या मिल गया हो। शाम को फेकल्टी के साथ मीटिंग हुई और सारे रूल्स और रेगुलेशंस समझा दिये गये। हम सभी बड़े खुश क्योंकि जहाँ उम्मीद नहीं थी कि कभी अपने कॉलेज के दर्शन कर पाएंगे भी या नहीं वहाँ इस मीटिंग का होना हम सबके लिए बहुत मायने रखता था। माँ शारदे की पूजा वाले दिन ही ऐसी खुशखबरी मिलेगी ये तो ख़ैर किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था।


सभी बहुत खुश थे कि अंततः हम एक दूसरे से मिलेंगे। मैं भी खुश थी और शायद सबमें सबसे ज़्यादा खुश थी क्योंकि जहाँ सबके पास कैमपस आने की इकलौती खुशी थी, वहीं मेरे पास दो वजहें थीं खुश होने की। एक तो यही कि चलो अब तो उस कॉलेज के दर्शन होंगे जिसमें पढ़ तो रहे हैं मगर जिसकी शक्ल सूरत नहीं देखी अब तक। और दूसरी ये जो उससे भी खास वजह थी मेरी ना रोके जाने वाली खुशी की,और वो ये कि आख़िर किसी से मिलना हो सकेगा।


कितने दिन से इस दिन का इंतज़ार था मुझे। मन तो हो रहा था कि फोन लगा कर उसे बता दूँ कि यार मैं आ रही इस बारह सौ किलोमीटर की दूरी को महज सत्तर किलोमीटर में बदलने को, मगर मन ने कहा कि नहीं रानी अभी नहीं। और उसे नहीं बताने का एक कारण ये था कि मैं कन्फर्म्ड नहीं थी कि मैं जा सकूंगी या नहीं क्योंकि कैमपस जा कर भी ऑनलाइन क्लास ही चलने वाले थे और जाना किसी भी सूरत में ज़रूरी नहीं था। ये हमारी मर्ज़ी पर था कि हम आएंगे या नहीं। तो अगर उसे बता भी देती तो ये होता कि किसी कारण से जाने को नहीं मिलता तो जो आस बंधा देती उसे , वो भी टूट जाती। तो मैंने सोचा एक बार घर पर पहले बात कर के देख लूं फ़िर ये बात देखी जाएगी कि बताऊं या नहीं।


लेकिन घर पर जब एकदम से मना हो गया तो लगा कि अब तो बता भी नहीं पाऊँगी मिलना तो ख़ैर होने से रहा। मगर थोड़ी रूसा फुली के बाद घर वाले मान गये। फ़िर भी सोचा कि अब बताई जाए ये बात या नहीं तो इसी कशमकश और भयंकर उत्साह में मैंने उसे बता दिया कि मैं कैमपस आ रही। उस वक्त उसके चेहरे की खुशी मुझसे भी कहीं ज़्यादा थी। और तब लग रहा था कि हाँ दो साल का इंतज़ार अब ख़त्म होने वाला है। अब मेरे साथ कोई और भी था जो मेरे आने से बहुत खुश था। मगर उस पल के बाद से हम अपनी हर खुशी को दबाए रहे तब के लिये जब तक हम सामने से मिल न लें। और खुशी हमने इसलिए भी नियंत्रित की क्योंकि उन्हें नज़र लगने की पूरी पूरी संभावना थी सो हम सामान्य थे। 


ख़ैर मैं लग गयी तैयारियों में। मन होता भी था कि हर दिन खुशी मनाऊं, लेकिन नज़र लग जाने के डर ने मुझे रोके रखा। कितने ही भरसक कोशिशों के बाद मुझे घर से इस कॉलेज में पढ़ाई की अनुमति मिली थी। इस यूनिवर्सिटी में दाखिला लेने का एक ठोस कारण था मेरे पास और वो ये कि जब भी कैमपस जाना होगा, उसका शहर इन दो शहरों के बीच पड़ेगा ही और जब भी जाना होगा मैं किसी न किसी तरम उसके शहर में एक दिन का पड़ाव तो ज़रूर रखूंगी। 


हर दिन हम दिन गिनने लगे। 


मगर आने के बस चार दिन पहले यानी तारीख सत्रह फरवरी को सीढ़ियों से उतरते वक्त मेरा पैर ऐसे फिसला कि मुझे तेज की लगी। पैर में सूजन हो गयी और पैर फूल गया। जिस हिसाब से दर्द था, मुझे तो लगा कि हे भगवान ये क्या हो गया। लो! आख़िर नज़र लग ही गयी। उस वक्त दर्द से ज़्यादा गुस्सा आया और मैं अपनी किस्मत को ताबड़तोड़ कोसने लगी। जब गुस्सा थमा तब ख़्याल आया कि गुस्साने से नहीं ये दर्द आराम करने से और ध्यान रखने से कम होगा। फिर क्या मैं लग गयी अपनी ही सेवा में। 


बात अगर किसी और दिन की होती तो मैं तहलका मचा देती लेकिन यहाँ एक आह निकलती और वहाँ मेरी टिकट कैंसिल हो जाती और उसी दर्द को नज़रअंदाज करने के लिये और ये दिखाने के लिये कि मुझे कुछ नहीं हुआ,  मैंने चाय बना कर सबको पिलाई भी। लेकिन पैर अगली सुबह तक और फूल गया। फ़िर क्या लग गयी मैं काम पर। दिन भर में ख़ुद से चार पांच बार गर्म पानी से सिंकाई, चार बार बर्फ़ से सेंकना, चार बार मलहम लगाना, स्प्रे लगाना, मसाज करना, चलते फिरते रहना और तो और गरम गरम हल्दी चूना भी लगवाना। हर आदमी की अलग अलग हिदायतें मानना। मैं डॉक्टर के पास इस डर से नहीं गयी कि न जाने वो कौन सी हड्डी को टूटी बता दे। ख़ैर तीसरे दिन जाकर मैंने दर्द की दवा ले ली। और ध्यान देती रही कि कम से कम अच्छे से चलने फिरने लग जाऊँ।  


कहाँ तो जाने का उत्साह था कहाँ ये चोट लग गयी। कुछ लोग कह रहे थे कि अब कैसे जाओगी और कुछ लोग कह रहे थे कि तुम तो जा कर रहोगी। और मैं दिल में अपना गुस्सा और दर्द लिये शांत रही। दादी बार बार कहतीं कि बहुत दर्द है इसको और मैं बार बार नकारती रही ये बोल कर कि अगर दर्द होता तो मैं हिल भी नहीं पाती। 


इन्हीं सब के बीच दिन बीता और मैंने आहिस्ता अपने सामान को रखना शुरू कर दिया ताकि सबको बता सकूं कि मैं ठीक हूँ। ( शुक्र है सारी खरीदारी मैंने पहले ही कर ली थी।) और देखते ही देखते आ गयी वो तारीख जिसका मुझे था इंतज़ार कि जिसके लिए दिल था बेकरार, यानी की तारीख इक्कीस फरवरी। मेरा पैर बहुत हद तक सही हो चुका था। उम्मीद नहीं थी कि ऐसा दर्द इतनी तेजी से ठीक होगा।  शायद उससे मिलने की खुशी और जुनून ने मुझसे मेरा ख़्याल भी बहुत अच्छे से रखवा दिया। 


दिन बीता और शाम में घर से स्टेशन की ओर रवाना हुई मैं अपनी मम्मी और बड़े भाई के साथ। पापा छोड़ने आए थे मुझे। पल पल की ख़बर उस बंदर को दिये जा रही थी कि अब घर से निकली, अब स्टेशन पर हूँ, अब गाड़ी आएगी , वगैरह-वगैरह। स्टेशन पर भी समय गुज़रा और शाम चार बजे की ट्रेन में मैं बैठ गयी। पापा से गले लगते वक्त हम दोंनो ही रो पड़े। वो पहली बार था जब मैं घर से और उनसे दूर जा रही थी और वो मेरे लिये रो रहे थे। ट्रेन खुलने का वक्त हुआ और नम आँखों से मैं उस कांच की खिड़की के पार पापा को देखती रही अपने आंखों के सामने से उनके ओझल हो जाने तक। 


ट्रेन खुलते ही लगा कि ज़िंदगी का ज़िंदगी से मिलने का सफ़र शुरू हो चुका है। तब तक वो मेरा ट्रेन नंबर व अन्य जानकारी ले चुका था (शायद स्मार्ट बनने के लिये कि मुझसे बिन पूछे उसे मेरे ट्रेन की जानकारी मिलती रहेगी। हुंह! बड़ा आया।) ख़ैर अब हम दोंनो का काम था बस इंतज़ार करना। 


मन में दबी खुशियाँ अब धीरे धीरे बाहर आ रही थीं। 


ट्रेन का सफ़र शुरू हो चुका था मुझे ज़िंदगी से मिलाने को... 



'अभी अभी इसे लिखते वक्त एक बात याद आई और वो ये कि सुबह सुबह किसी ने पूछा था कि आ रही हो या पैर की दर्द की वजह से नहीं आ पाओगी तो मैंने कहा था आ रही हूँ यार। और वो खुश हो गया।' 


मेरी ट्रेन चाहे कहीं से चलकर कहीं को जाकर रुकती मगर मेरा सफ़र मेरे शहर से लेकर उसके शहर तक का था। चलती ट्रेन के साथ पीछे छूटते जा रहे मेरे शहर को मैं जी भरने तक देख रही थी। ट्रेन को पहुंचने में  सत्ताइस घंटे थे और ये समय मुझे और उसे भी काटना था या यूं कहें कि इतना ही समय और था काटने को। ख़ैर ट्रेन अपनी समय से आगे बढ़ती जा रही थी। और वो महान आत्मा मुझे मेरी ही ट्रेन की जानकारी दिये जा रहे थे कि देखो ट्रेन अब यहाँ है तो अब वहाँ। 


(एक मोड़)


ज़ाहिर है उसकी खुशी भी उतनी ही थी जितनी कि मेरी। मगर हम दोंनो के अलावा कोई और भी था जो हमारे बराबर ही खुश था। मेरे शहर से उसके शहर के बीच एक और ऐसा शहर था जहाँ हम दोंनो की कॉमन ज़िंदगी बसती थी और ये वही ज़िंदगी सी है जो हम दोंनो जितनी ही खुश थी।


एक खुशनसीबी ये थी कि मैं उस बंदर से मिलने जा रही थी और एक गमनसीबी ये कि मैं उस बंदरिया से नहीं मिल पाती क्योंकि उसके शहर में मेरे ट्रेन के पहुंचने का समय रात दस बजे था और उस वक्त उसका आ पाना बिल्कुल नामुमकिन था। फिर भी एक उम्मीद थी कि मैं उससे मिल लूंगी क्योंकि उसके शहर में दो रेलवे स्टेशंस थे। एक तो मेन और दूसरा छावनी पर जो कि बिल्कुल उसके घर से सटकर था। मगर वहाँ ट्रेन का रुकना बिल्कुल संभव नहीं था क्योंकि वो स्टेशन निर्माणाधीन था। हम तैयारी करने के पहले ही दिन से कॉल पर लगे थे कि देखो ऐसे करना ऐसे आना। मगर जहाँ ट्रेन का रुकना मुमकिन था वहाँ उसका आना नामुमकिन था और जहाँ उसका आना मुमकिन था वहाँ ट्रेन का रुकना नामुमकिन। 


ट्रेन बढ़ती ही जा रही थी और फिर उसके शहर के बस थोड़ा पहले वह ट्रेन रुकी क्योंकि किसी ने ट्रेन की चेन खींच दी थी। मन में हुआ कि उसकी छावनी पर मैं भी चेन खींच दूँ, पर नियम अपनी जगह पर थे और भावनाएं अपनी जगह पर। ख़ैर उसके घर के बगल से जाते वक्त हम लगातार वीडियो कॉल पर थे, ये सोच कर कि उसके छत पर से ट्रेन तो दिख ही जाएगी, तो हाथ मिलाकर टाटा बाय बाय कर लेंगे। हां ये थोड़ी बचकानी हरकत थी लेकिन एक दूसरे से मिलने की खुशी और उत्साह ने वहाँ हो रही हर चीज़ को नज़रअंदाज कर बचपने को कहीं और भी ज्यादा बढ़ावा दे दिया था। ट्रेन में सब देख रहे थे मुझे। यहां तक कि एक सहयात्री ने ये भी कहा कि 'कितना प्यार है तुम लोगों के बीच और कितने उतावले हो एक दूसरे से मिलने के लिए।' 


और जब ट्रेन उसके घर के बगल से गुजरने लगी तो मैं जाकर ट्रेन के दरवाजे पर खड़ी हो गई, यह सोच कर कि कहीं ना कहीं से तो देख ही लेंगे। अगर मैं नहीं भी देख पाई तो उसको दो हाथ हिलते हुए दिख जाएंगे और वो समझ जाएगी कि हां ये वही है। लेकिन कुछ ऐसा हुआ कि कमबख्त बीच में एक मालगाड़ी आ गई और उसके घर के पास का पूरा क्षेत्र बीत गया और वह मालगाड़ी खत्म ही नहीं हुई। कुछ इस तरीके से हमने एक दूसरे को देखना मिस कर दिया। 


लेकिन उसने वो ट्रेन देख ली थी जिसमें मैं थी। कितने करीब से आकर मैं उसके बगल से गुज़र गयी किसी वक्त की तरह। एक लंबा अफसोस था दिल में मगर क्या ही किया जा सकता था। ट्रेन अब उसके शहर में आ चुकी थी। और समय से ज़्यादा देर तलक रुकी। इस बात ने दिल में मलाल को और भी बढ़ा दिया। 


हमने तो ये भी सोचा था कि अगर वो अपने घर पर होती तो ट्रेन पकड़ कर इस स्टेशन पर उतर जाती जिस शहर में वो अपने घर से दूर पढ़ाई करने को रह रही है। कम से कम एक घंटे तो साथ रह ही लेते मगर ये भी नहीं हो पाया। और तो और हमने ये भी सोचा था कि अगर दिन को ट्रेन उसके शहर में रुकती तो वो मेरे लिये अपने हाथों से बना खाना लाती। और प्लान सी ये भी था कि कोई फ्रेंड होता तो वो उसके साथ आ जाती। तो कुल मिलाकर चार पांच उपाय थे पर काम कोई नहीं आया (होए वही जो राम रचि राखा)। 


स्टेशन पर मन हो रहा था ट्रेन से कूदकर उससे मिलने उसके घर चली जाऊँ पर ख़ैर.. हम लगातार विडियो कॉल पर थे। आंखों में बेबसी और दिल में मलाल लिये। और फिर ट्रेन खुल गयी। और उसका शहर भी पीछे छूटने लगा। मैंने उसे उस वक्त के लिए अलविदा कहा, अगली बार किसी भी तरीके से दिन के वक्त उसके शहर से गुज़रने का वादा कर के। 


ट्रेन बढ़ रही थी और नींद थी कि आने का नाम नहीं ले रही थी। थोड़े अफसोस और थोड़े दर्द ने उस रात कुछ यूँ दस्तक दी थी। 


इसी तरह बढ़ते हुए आ गयी तारीख बाईस फरवरी और ट्रेन अपनी रफ्तार से आगे बढ़ते जा रही थी और समय को पीछे छोड़ती आगे बढ़ रही थी। दिन भर काटना जैसे पहाड़ तोड़ने जैसा था। इस बीच मैंने वो कविता कई बार पढ़ी जो उसने मेरे लिये लिखी थी कि जिसमें हर उन अरमानों का ज़िक्र था जो हमारे दिल में थे।


 जैसे तैसे शाम हुई मगर ट्रेन थोड़ी लेट हो गई। बड़ा गुस्सा आया मुझे। एक तो पिछले सत्ताइस घंटे से मैं ट्रेन में बैठ कर बोर हो रही हूं और यह ट्रेन है कि और लेट किए जा रही है। उस पर से वह महानुभाव हर शहर के बाद मुझे कहते बस इतनी देर है और इतनी देर। और फिर ये कि उसके शहर आने में आठ या नौ बज सकते हैं। लेकिन भगवान की कृपा हुई कि उसके शहर में पहुंचने से पहले ही गाड़ी अपने सही वक्त पर आ गई और लगभग सात बजे के आसपास उसके शहर में प्रवेश कर चुकी थी। और जब मैंने उसे बताया कि मैं जयपुर आ चुकी तो उसने पूछा- 'मुझे महसूस कर पा रहे?' मैंने कहा - 'नहीं।' और उसका मुँह बन गया।


फिर भी मैं ट्रेन के दरवाजे पर खड़ी उस शहर में एक जाना पहचाना अहसास महसूस करने लगी। मेरे 'अबाउट टू अराइव' वाले मैसेज ने दिलों की धड़कन और बढ़ा दी। ऐसा लगा ही नहीं कि पहली बार उस शहर में आई हूँ। साढ़े सात बजे ट्रेन से उतरते ही मैंने उसे मैसेज किया। जवाब में तुरंत ही 'वेलकम टू जयपुर' आया। होठों पर एक लंबी मुस्कराहट और दिल में अलग ही किस्म के सुकून को लिये मैं खुश थी। आख़िर पहली बार उसके शहर की में कदम रखा था मैंने।


मैंने कहा - अब महसूस हो रहा कि कोई तो यहाँ है। बिल्कुल वैसा महसूस हो रहा जैसा उस पगली के शहर में हुआ था। ये बहुत सच है कि आपका कोई खास किसी और शहर से हो तो उस शहर से भी आपका एक अलग ही नाता जुड़ जाता है और किस्मत से अगर आप उस शहर को छू के गुज़र जाओ तो लगता है उसे छू कर गुज़र रहे हो। आँखों में सितारे लिये मैं स्टेशन से बाहर आई। होटल पहुंच कर उसे अपना लोकेशन भेजा। बारह सौ किलोमीटर अब बारह किलोमीटर में तब्दील हो चुके थे। उसके घर और मेरे होटल में बस इतनी ही दूरी रह गयी थी।


मेरा तो मन हुआ खुशी से रो पड़ूँ पर हर जज़्बाती घोड़े पर मैंने लगाम लगाई। हम मैसेज में लगातार बने हुए थे। वो तो रात काफ़ी हो गयी थी नहीं तो मैं उसे बुला ही लेती। 


हम होटल पर अपना सबकुछ एडजस्ट कर के बाहर आ गये खाने को और तब तक उसके साथ यही बहस चल रही थी मेरी कि मिलना कैसे है। पहले से ही कह रखा था कि खबरदार अगर उस दिन कहीं और का प्लान बनाया तो। और फिर काफ़ी लंबे डिस्कशन के बाद मैंने मम्मी से कहा कि मम्मी कल गुंजित की बहन का इधर ही एक काम है तो उससे मिलोगी? चूंकि मम्मी को पहले से गुंजित के बारे में बातें पता थीं तो उसने कहा कि ठीक है देख लो। तो मैंने कहा कि उसको कॉल लगाती हूँ तुम बात कर लो। मम्मी ने कहा ठीक है। 


बहुत डर लग रहा था और बिन उसको बताए कि मम्मी बात करेंगी मैंने फोन लगा दिया और फिर जो हुआ उसकी उम्मीद बिल्कुल नहीं थी।



तो हुआ यूँ कि घर में किसी को पता नहीं था कि मेरी उससे फोन पर बात होती है। तो मैंने मम्मी के सामने उसे फोन लगाया तो ऐसा दिखाया जैसे कि मैं उससे पहली बार बात कर रही हूँ। मैंने औपचारिकतावश उससे हाल चाल पूछा और कहा मैं जयपुर में हूँ। कसम से हंसी तो आ रही थी मगर उसे रोकना मजबूरी थी। और फिर कुछ देर बाद मैंने कहा लो मम्मी बात करेंगी।  मम्मी और उसकी बातें जब मैंने बाद में सुनीं तो मुझे इतनी हंसी आई कि मैं क्या बोलूं। मेरी मम्मी का दिल कुछ यूँ जीता जब इन महाशय ने कहा क्या मैं आपको मां बुला सकता हूं? मेरी मम्मी हंसते हुए बोली- 'अरे हां हां क्यों नहीं?' बस फिर क्या था मम्मी का दिल वहीं जीत लिया उसने। लाजमी है एक शायर के लिए आसान होता है ये कि वो तो शब्दों को घुमा फिरा कर लोगों के दिल जीत लेता है और यह खूबी उसमें बखूबी थी।


बात ख़त्म होते ही हम दोनो मैसेज में बात करने लगे। खाना खाकर हम होटल वापस आए और तब मम्मी से मैंने पूछा कि जयपुर घूमने का क्या प्लान है तो मम्मी ने बताया कि किसी भी हालत में आठ बजे घूमने निकल जाएंगे। मुझे चिंता घेरने लगी कि अगर सच में आठ बजे ही निकल गये तो उसके लिये मुश्किल हो जाएगा मुझे खोजना और मुझसे मिलना क्योंकि जब तक मैं उसे एक जगह का हवाला दूंगी और वो वहाँ आएगा तब तक तो दूसरे जगह के लिये निकल लेंगे हम। और दिक्कत ये थी कि नई जगह होने के कारण ये नहीं पता था कि कब कहाँ जाना है। इसलिये मैंने सोचा कि कम से कम होटल ही आकर वह मिल ले तो ठीक हो। मगर बात ये थी कि वो आठ बजे से पहले पहुंचेगा या नहीं। मैं उसे लंबी लंबी हिदायतें देने लगी। 


उसे कई कई बार बताया कि देख इतने बजे आ जाना और आ ही जाना। सबकुछ छोड़कर कर आना क्योंकि इससे अच्छा मौका नहीं मिलेगा कि जब फैमिली से तुम्हें मिला कर थोड़ी दूरी और अंजानापन कम कर लूँ। कितनी लंबी बात चली हमारी और मैंने कूट कूट कर ज्ञान दिया था उस बंदर को। फ़िर ऐषा हुआ कि मैं सो गयी।


अगली सुबह मम्मी ने छह बजे से ही जगाना शुरू कर दिया पर होते होते मैं साढ़े सात बजे जाग गयी। मैंने फोन को फ्लाइट मोड पर डाल कर रख दिया और नहाने चली गयी। जब मैं नहा के आई तो मम्मी और भाई दोनो रिसेप्शन पर चले गये थे। हमारा कमरा ग्राऊंड फ्लोर पर ही था। और कमरे के गेट से मेन गेट एकदम सामने था। मुझे मेन गेट के बाहर एक लड़का दिखा लेकिन मैंने ध्यान नहीं दिया। आठ बज कर चार मिनट हुए होंगे मैंने फोन को फ्लाइट मोड से हटाया तो देखा कि उसके कई मिस्ड कॉल्स थे। और तुरंत मैसेज आया कि मैं आ गया। मैंने फोन किया तो उसने कहा कि बाहर देखो और जब मैंने देखा तो सामने वो ही था जिसे कुछ पल पहले मैंने देखा और कोई और समझ कर नज़रअंदाज कर दिया था। 


मैं ज़ोर से उसका नाम चिल्लाई तब तक वो बाहर निकल गया। मैं उसके पीछे गयी। और उसे छूकर देखा तो यकीं हुआ कि हाँ ये वही है जिसको दो साल से मैं बस विडियो कॉल पर देखती आ रही हूँ। (ट्रेन में बैठकर मैंने सोशल मीडिया पर अपडेट किया था कि मैं उसके शहर जा रही। और किसी ने मेरे बारे में कुछ नहीं कहा। एक भी रिप्लाई मेरे लिये नहीं था, हर किसी का यही सवाल था कि क्या मैं उससे मिलने जा रही हूँ? और जवाब में मैं बस दिल थामे रहती थी।) 


मगर अब दिल थाम पाना मुश्किल था क्योंकि सामने वो था। मैं  हाथ पकड़कर उसे अंदर ले आई। और मम्मी और भाई से मिलवाया। 


और फिर मैं उसे कमरे में लेकर आ गयी और जितने ज़ोर से हो सकता था, मैंने उसे गले से लगा लिया। कितनी खुशी रही होगी मन में ये हम ही जानते हैं। ये लिखते वक्त भी मुझे अलग ही गुदगुदी सी हो रही है। और फिर मैंने उसे बिठाया। उस वक्त उसके माथे को चूमना मेरे लिये सबसे प्यारा पल था। फिर हमने उस बंदरिया को विडियो कॉल किया और उस वक़्त उसकी खुशी देखने लायक थी। फिर मम्मी अंदर आ गयी और उससे पूछा कि तुम्हें दिक्कत तो नहीं हुई आने में? बताओ तो तुम इतनी दूर आए। इसपर उन महाशय का जवाब भी बड़ा अनोखा ही आया - "जब आप बारह सौ किलोमीटर दूरी तय कर के आ सकते हैं तो मैं बारह किलोमीटर भी नहीं आ सकता क्या?" बस फिर क्या मम्मी वहाँ भी खुश।


तभी हम दोंनो को याद आया कि ज़रा सबको बता दें कि हम मिले हैं और हमनें बाहर जाकर फोटो ले कर जहाँ जहाँ लगा वहाँ भेज दिया।  सभी की खुशी से भरी प्रतिक्रियाएँ देखकर अलग ही खुशी हो रही थी। और तब मुझे याद आया कि दो साल पहले उसके नाम की खरीदी हुई राखी मैं लेकर आई थी। मैंने राखी निकाली और उसे बांध दी और तब जाकर लगा कि अब वाकई वो भाई है क्योंकि अब मैंने उसे राखी के बंधन में भी बांध दिया था। मैं फिर उसे अंदर ले गयी और तब तक मम्मी ने उसे अपने हाथ का बना गाजर का हलवा खिलाया। 


इन सबके बीच नौ बज गये और ड्राइवर आ गया तो हुआ कि अब निकलना है। मम्मी को लगा कि वो क्या करेगा तो विचार हुआ कि उसके साथ ही जयपुर घूम लेते हैं। फिर हम बैठे कार में और चल दिये साथ ही जयपुर घूमने। सबसे पहले हम मंदिर गये और वहीं पर पता नहीं कब उसने खरीद कर मुझे मेरे ईष्ट महाकाल की एक चाभी रिंग दी। मैंने मना किया तो उसने कहा कि ये राखी का तोहफा है और ये सोच के रखो कि आपके इस महाकाल (मैं उसे अपने महाकाल का रूप मानती हूँ।) ने आपको आपका ही महाकाल गिफ्ट में दिया है। तो फिर मैंने वो रिंग रख ली ( मन में इस संकल्प के साथ कि उसे कभी ख़ुद से खोने नहीं दूंगी। 


आगे बढ़ते हुए हमने हल्का फुल्का नाश्ता किया। और फिर बागों में जाकर हमने फोटो लिये। महानुभाव ने कैमरामैन का रोल अच्छे से निभाया। जो जो हमारे ख़्वाब थे कि हाथ में हाथ डालकर घूमेंगे वो भी पूरे हुए। किसी पेड़ की छांव में बैठेंगे वो भी पूरे हुए। साथ खाएंगे पियेंगे मौज मस्ती करेंगे वो भी पूरे हुए। हर जगह उसने भाई का फर्ज़ बखूबी निभाया। कितने हसते गाते हुए हम पूरा जयपुर घूमे। कितने ही फोटो लिये हमनें हर जगह हर पोज में, सबके साथ भी और अकेले भी। कुछ फनी पोज भी हमनें कैमरे में कैद कर लिये। जयपुर के कई प्रसिद्ध जगहों के दर्शन किये। हल्का फुल्का खाकर खिलाकर हम बढ़ते रहे। 


हमें उम्मीद न थी कि हम पल भर के लिये भी मिल पाएंगे। कितनी ही प्लानिंग्स कर रखी थी हमने कि ये नहीं तो वो करेंगे पर मिलकर रहेंगे। हमनें ये भी सोचा था कि मैं या तो उसके घर की ओर घूमने की ज़िद कर दूंगी और तब मिलेंगे या मैं जहाँ जाऊंगी उसे वहीं बुलाकर देख लूंगी। और किसी तरह छू कर ये यकीन भी कर लूंगी कि हाँ तुम, तुम हो और मैं , मैं हूँ। कहाँ तो दो मिनट मिलने की उम्मीद न थी कहाँ दस घंटे हम साथ रहे वो भी परिवार के साथ। वो पल मेरे जीवन के सबसे बेहतरीन पलों में से एक थे।


फिर शाम हो गयी और उससे विदा लेने का वक्त आ गया। वो गाड़ी से उतरा और हमने हाथ मिलाया और आँखों से ओझल होने तक मैं उसे देखती रही। होटल आकर उसके शांतिप्रिय स्वभाव व बर्ताव की हर जगह प्रशंसा सुनकर मन ही में खुश हो रही थी। पर मन में एक डर था कि घर के बड़े लोग गुस्सा न जाएं लेकिन उन्होंने ही सुझाव भी दिया कि उसे अगले दिन भी अपने संग घुमाने ले जाएं तो बाकी बचा डर भी जाता रहा। लेकिन मैंने ही उसकी परीक्षा का हवाला देकर बात काट दी। 


अगले दिन मैं जयपुर से निकल गयी मन में फिर दोबारा मिलने की कामना कर के...


~©रानी श्री।

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

कविता- ग़म तेरे आने का ©सम्प्रीति

ग़ज़ल ©अंजलि

ग़ज़ल ©गुंजित जैन

पञ्च-चामर छंद- श्रमिक ©संजीव शुक्ला 'रिक्त'