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मानभंग ©नवल किशोर सिंह

चित्र
 लुंचित पड़ी भू पर लुठित, आखेट कोई कर गया । चैतन्य को दल घात से, संताप मन में भर गया । पीड़ा कहर से शीत सी, वो काँपती भयभीत सी, हैवान तेरा कर्म यह, ममता विलज्जित कर गया ॥ सिंगार है खंडित हुआ, चीत्कारती वह ज़ोर से । कल्याण को आया नहीं, कोई किसी भी ओर से । संभालती परिधान को, मर्दित हुये उस मान को, मोहन मगन निज भाव में, अंजान बन उस शोर से॥ यह काल है विकराल सा, संस्कार है लोपित हुआ । भौतिक विषय मदपान से, उजियार फिर गोपित हुआ। अंधेपना में ढूंढते,  कारण पकड़ के मूढ़ते , वो क्यों चली उस ओर थी, आरोप यह रोपित हुआ ॥  माता कहो किस भाव से, संतान को है पालती । यह वेदना कब चूकती, उनके हृदय भी सालती ॥ हम नीव ऐसी ढाल दें , साहस सुता में डाल दें, दुर्गा कहाएँ बेटियाँ, दुष्कर्मनों को बालती ॥ -©नवल किशोर सिंह Click Here For Watch In YouTube

गीत- मन धीर धरो ©संजीव शुक्ला

 (तोटक छंद - आधारित ) चरण - 4, वर्ण - 12,  मात्रा -16, सगण × 4 (llS×4) न अधीर रहो, मन धीर धरो,  निज साहस की अँगुरी पकरो l पथ के परितापन से न डरो,  विजयी हठ ठान हिये निकरो ll बिजुरी,कटु कर्ण पयोद बजे,  नभ ते बरु काल घटा गरजे l पथ भ्रान्ति वृथा उपजे मन में,  निज लक्ष्य धरे, कबहूँ न तजे l मग में विपदा बहु कंटक हो,  धरि धीरज संकट ते उबरो ll गिरि उच्च खड़े मग ज्वाल बरै,   पथ रक्त भरे पद चिन्ह परै l सरि धार प्रसार करे कितनौ,  विजयी पथ से कबहूँ न टरै l विधि संतति सर्व समर्थ सदा,  निज पौरुष रंच विचार करो ll विपदा  नर से न बड़ी कबहूँ,  सब वेद पुरानन सार कहूँ  l निज के अवलम्ब सदा जन जे,  तिन होत सहाँय नरायन हूँ l दृढ़ता लखि मेरु भओ रज सों,  विष कुम्भ भओ घट सोम भरो ll ©संजीव शुक्ला 'रिक्त'

साप्ताहिक कार्यक्रम©विपिन बहार

 कोई भी काव्य-पाठ तभी सफल होता है...जब श्रोता उच्च-कोटि के हो...सच मे गुरुजनों के सामने काव्य-पाठ करना किसी बड़े अनुभव से कम नही है...लेखनी परिवार के सभी गुरुजनों के सामने काव्य-पाठ करने का सुअवसर प्राप्त हुआ...मैं इसका तहेदिल से शुक्रगुजार हूँ... आप सभी का ऐसे ही आशीर्वाद बना रहे है....   © विपिन बहार Video 1:    Video 2: Video 3: Video 4: Video 5: Video 6:   Video 7: Video 8: Video 9: Video 10: Video 11: Video 12:        

एक लेखक जानता है ©रेखा खन्ना

 एक लेखक जानता है कि कैसे उसे अपने शब्दों के बीजों को बो कर एक लहलहाती फसल को तैयार करना है। वो अपने ख्याल, ख्वाब, विचार, तर्क, वितर्क, आशाएँ, निराशाएंँ, भावनाएँ इत्यादि इत्यादि के बीज काग़ज़ रूपी खेत पर रोंपता है और अपनी कलम के सहारे धीरे धीरे इस फसल को तैयार करता है। " एक लेखक जानता है " एक लेखक जानता है कैसे ज़ख्मों को शब्दों में ढालना है स्याही बन दर्द सिसकता है पन्नों पर हर पन्ना दिल की कहानी कहता है। एक लेखक जानता है कैसे दर्द को सुन्दरता का कवच पहनाना है सीलता है घाव अपने, कलम में पिरो कर कच्चे धागे वो ताउम्र उस एहसास को जिन्दा रखता है जो भी उसका दिल जलाता है। एक लेखक जानता है कैसे यादों को पन्नों में संजोना है कभी कड़वाहट तो कभी हंसी को बिखेर कर हर पन्ने पर जीवित रखना है कि जब भी पढ़ो तो लगे अरे! ये तो कल की ही बात थी। एक लेखक जानता है  कैसे तारों को आसमान से तोड़ कर सजनी की चुनरी में सजाना है कैसे चाँदनी को शब्दों में कैद कर के चाँद का रात भर जी जलाना है। एक लेखक जानता है अपने संग संग दूसरों के मन की स्थिति वो यहाँ वहाँ नजरें गड़ाए कुछ ना कुछ खोज ही लाता है अपने मतलब

गीत- प्रतीक्षा ©प्रशान्त

 कष्टकारी , क्षोभदायी ,  दीर्घकालिक वेदना l रुग्ण तन, भयग्रस्त मानस, रक्तरंजित चेतना ll शब्द तज नि:शब्द होती , लेखनी संतप्त है l आर्तनादों में प्रकट यह यातना अभिशप्त है ll काल-कवलित लुप्त वंशज, शोकमय परिवारजन , जग सकल निर्वात-सम है, मौन वाणी सुप्त है ll ईश! रक्षा प्रियजनों की , मन समर्पित प्रार्थना l रुग्ण तन, भयग्रस्त मानस, रक्तरंजित चेतना ll सूक्ष्म विषधर जीव जिनसे , है जगत संताप में l काल हाहाकार करता ,  रोष एकालाप में ll प्राकृतिक अज्ञात कारण, क्यूँ मिली संसार को , सृष्टि की विध्वंशकारी आपदा अभिशाप में ll चीत्कारों के श्रवण में , क्या करें आराधना ? रुग्ण तन, भयग्रस्त मानस, रक्तरंजित चेतना ll यह परीक्षा का समय है , ईश‌ पर विश्वास हो l उग्र परिवर्तन समय का , शांति से गृहवास हो ll त्याग सामंजस्य मानव ,भीष्म-प्रण का यह समय, क्या असम्भव है प्रतीक्षा , मृत्यु यदि आभास हो ? जान‌ लो कुछ ही समय अब शेष है यह यातना l  रुग्ण तन, भयग्रस्त मानस, रक्तरंजित चेतना ll ~ © प्रशांत

मृत्यु ©अंशुमान मिश्र

 इस  धरती  पर  यूं  आकर के, इस मनुज योनि को पाकर के, अपना   कर्तव्य  निभाकर  के, बस चलना  है  अविराम  सखे! यह  मृत्यु  मात्र  विश्राम  सखे.. यह  नयन  दीप बुझ जाएगा, जब   काल  बुलावा  लाएगा, उसको निज  गले लगाकर तब, जाना  होगा  पर - धाम  सखे! यह  मृत्यु  मात्र  विश्राम  सखे.. चाहे  धनाढ्य,  चाहे  निर्धन, सुंदर-कुरूप, दुर्जन-सज्जन, निष्पक्ष  मृत्यु  करती  प्रदान.. सबको समान  परिणाम  सखे, यह  मृत्यु  मात्र  विश्राम  सखे.. है अजय, अटल,  है क्रूर  मृत्यु, रावण  मद  करती   चूर  मृत्यु, इस जीवन  से  उस जीवन के.. है  मध्य  मार्ग  का  नाम  सखे, यह  मृत्यु  मात्र  विश्राम  सखे.. यह  मृत्यु  मात्र  विश्राम  सखे..                    -©अंशुमान मिश्र

ग़ज़ल ©रानी श्री

 हर बार सामने तुम्हारे अपना वही टूटा दिल लाती हूँ, मगर तुम्हें पसंद नहीं है इसलिए तुम्हें नहीं बताती हूँ। सोचती हूँ तुम्हें लिख दूँ, मगर लिखने को तरसती हूँ, लिखना सीख लिया मैंने और लिख भी नहीं पाती हूँ। मुझे मंज़िल  क्या ख़ाक  मिलेगी मेरी ऐसी चाल पर, दो कदम आगे बढ़ी नहीं और मैं हूँ कि लौट जाती हूँ। एक तुम हो जो मुझको समझने में ऐसे झिझकते हो, ये समझती हूँ फ़िर भी मगर ख़ुद को ही समझाती हूँ। लोग कहते हैं कुछ मुस्कान खरीद लूँ तुम्हारे नाम की मैं अपने नाम से अश्क किश्तों पर उधार ले आती हूँ। आस नहीं विश्वास है कि मौत से पहले तुम आओगे, सो मौत से पहले मैं अपनी कई ज़िंदगियां बचाती हूँ। तुम्हें लगता होगा के बेवजह रानी खुश क्यों है इतनी, यकीं मानों वैसी खुश नहीं जैसी ख़ुद को दिखाती हूँ। ©रानी श्री

पहला प्यार©परमानन्द भट्ट

 एक मुद्दत के बाद दिल के दरवाजे पर जानी पहचानी दस्तक हुई उसने घबरा कर  अन्दर साँकल लगा दी बंद कर दी सारी खिडकियाँ मगर यह क्या वह तो हवा का झोंका बन साधिकार दाखिल हो गया झिर्री के रास्ते सीधे कमरे के भीतर उसने आँखें बंद कर ली मगर तब तक वह दाखिल हो चुका था उसके वजूद में उसने कहा क्या चाहते हो वह बोला अपने अकेले पन का इलाज वह बोली न तुम अकेले न हम अकेले फिर कैसा अकेलापन वह बोला मै तुम्हारे प्यार का प्रथम अहसास हूँ एक भीगा हुआ नाजुक लम्हा हूँ मैं जब भी चाहूंगा, चला आऊंगा मुझे रोक नहीं पाओगी तुम मगर हम क्यूँ, और कौन है कमरे में यह तुम्हारे बदन से अलग सी महक  क्यूँ आ रही है पहले तो यह नहीं थी वह कहना चाहती थी  तुम भी बदन की महक में अटके हुए हो दुनिया की तरह काश रूह की खुशबू को महसूस कर पाते तुम मगर खामोश रही वह जैसे झील में कंकर फैकते ही गोल गोल लहर पूरी झील को घेर लेती है वैसे ही घिरा हुआ पा रही थी वह अपने आप को झील के तो उपर लहरें उठती है भीतर होती है गहन शान्ति मगर वह उपर ही उपर मुस्कुरा रही थी दुनिया की तरह और भीतर थी जानलेवा बेचैनी जिसे वह बाँटने की कोशिश कर रही थी अपने अकेले पन के साथी

साप्ताहिक कार्यक्रम©सूर्यम मिश्र

 मेरी अत्यंत अप्रौढ़ रचनाओं को सुनकर,उनमें आवश्यक संशोधन करने के लिए मुझे प्रेरित करके,शब्द साधक बनने में मेरा सहयोग कर रहे लेखनी परिवार के सभी सदस्यों का हृदय से आभार। आप समस्त के साथ काव्य पाठ का अनुभव अत्यधिक प्रेरणा-प्रद एवं शानदार रहा। मुझे यह अवसर प्रदान करने के लिए "लेखनी परिवार" को बहुत-बहुत धन्यवाद।  ©  सूर्यम मिश्र Video1: Video2: Video 3:  Video 4: Video 5: Video 6: Video 7: Video 8: Video 9:

मृत्यु एक सत्य©सरोज गुप्ता

 सारगर्भित सत्य मानुष,  स्वीकार नहीं कर पाया है ।  झूठी तृष्णा सा जीवन ये क्षणभंगुर सी काया है ।।  मिथ्या सम संबंध सभी हैं यहाँ कभी अमरत्व नहीं है,  चिरनिद्रा में सब सोयेंगे यह मानुष तन सब खोयेंगे,  यह सब लिखा लिखाया है । क्षणभंगुर ये काया है ।।  जन्म मरण बस चक्र मात्र इक सारे सुख साधन हैं भौतिक,  गीता का संपूर्ण तथ्य है जीवन मिथ्या मृत्यु सत्य है,  फिर मानव क्यूँ भरमाया है ।  क्षणभंगुर ये काया है ।।  ©सरोज गुप्ता

ग़ज़ल©गुंजित जैन

 सफ़र के दरमियाँ ही एक मंज़िल हार जाता हूँ, मैं अक़्सर बंद कमरे में ही महफ़िल हार जाता हूँ। निगाहों को झपकने का सुनो जब खेल होता है, वो मुझसे हारती है और मैं दिल हार जाता हूँ। मिरे हर्फ़ों, ग़ज़ल, शेरों में वो जब साथ होती है, ज़हन में दब रही हर एक मुश्किल हार जाता हूँ। किनारे से मिरी महबूब जब सजकर गुज़रती है, ज़मीं होकर भी कश्ती से, मैं साहिल हार जाता हूँ। खुली ज़ुल्फ़ों के आगे और "गुंजित" कुछ नहीं बचता, वो मुझको जीत लेती है, मैं क़ामिल हार जाता हूँ। ©गुंजित जैन

रोटियां ©सौम्या शर्मा

 भूख को फिर मुंह चिढ़ाती रोटियां! क्यूं नहीं ये बाज आती रोटियां!! हर तरह के कर्म हों इनके लिए ! फिर कभी,ना हाथ आती रोटियां!! बेबसी का वो नजारा क्या कहें! खूं से पटरी पर नहाती रोटियां!! ए खुदा मेहनतकशों को दे सुकूं! दे उन्हें इज्जत कमाती रोटियां!! जब भी देना,नीयतों को तौल कर! यूं ही अब हमको सुहाती रोटियां!! खा लिया है, पेट भर ही जाएगा! अब कहां मां है,खिलाती रोटियां!! मन की पीड़ा अब कहें किससे यहां! जाने क्या क्या हैं कराती रोटियां!!      © सौम्या शर्मा

तुम्हारे मुस्कुराने से © दीप्ति सिंह

तुम्हारे मुस्कुराने से ये धड़कन मुस्कुराती है  दिलों में छेड़ कर नग़मा कोई धुन गुनगुनाती है  निगाहें यूँ मिलाने से मेरी नज़रें लजाती हैं  तुम्हारी झील सी आँखें मुझे गहरे डुबाती हैं  तुम्हारे पास आने से सुकूँ ये रूह पाती है  ज़रा ठहरो न यूँ जाओ हमारी जान जाती है  ये उल्फ़त आज़माने से ख़लिश दिल की बढ़ाती है  यक़ीं हो ग़र मुहब्बत का ख़िजा भी लौट जाती है  तुम्हारा ज़िक्र आने से उम्मीदें झिलमिलाती हैं    तुम्हें महसूस करते ही 'दीया' भी जगमगाती है    ©  दीप्ति सिंह "दीया"

ग़ज़ल© संजय मिश्रा

  मेरा इश्क है मेरी ज़िंदगी ,इसको मिटाऐं  किस तरह l तेरी ज़ुस्तज़ू लिए जी रहे, तुझे भूल जाऐं किस तरह । यूँ ही बीत जाए दिन ब दिन, तेरे नाम हमने उम्र की..  इस बेहिसाब सी ज़िन्दगी,का हिसाब पाएँ किस तरह। की गुज़र रही है हदों से जो , ये अज़ब तङप मेरे दिल की है... ये ईनाम हैं जो ये ज़ख्म हैं, की इन्हे छिपायें किस तरह। तेरे दर पे झुकती रहे यूँ ही, सज़दे में मेरी ज़वाँ नज़र..   तू ख़ुदा है मेरा ख़फ़ा है क्यूँ , की तुझे मनायें किस तरह। मेरी साँस चलती रहे कभी , तेरी ख़ुशबुएँ भी जुदा न हो...  मेरी धड़कनें तेरे नाम हैं , तुझे लब पे लाएँ  किस तरह l यूँ ही लाख मुझ पे सितम करो, तेरे ज़ुल्म मुझको  क़ुबूल हैँ....  मुझे दर्द देना अदा तेरी, न कहूँ अदाएँ  किस तरह । © संजय मिश्रा

बनना चाहता हूँ ©तुषार पाठक

 मैं खुद को तुझे आँखो में उतार कर मोह्ब्बत का नशा करना चाहता हूँ, मै तेरी ज़िन्दगी की किताब का अच्छा किरदार बनना चाहता हूँ! मैं दुनिया को जीत कर तेरे प्यार में हारना चाहता हूँ! मैं ख़ुशी में तेरे चहरे की मुस्कराहट बनना चाहता हूँ,  और तेरे दुःख में तेरे आँखो का अश्क़ बनना चाहता हूँ! मैं तेरे अधूरे सपने की आख़री मंज़िल बनना चाहता हूँ। मैं तेरे कोमल हाथों की लक़ीर बनना चाहता हूँ! मैं तेरे ज़िन्दगी  के सफ़र में हमसफ़र बनना चाहता हूँ! मैं तेरे साथ बिताए हर पल को कैद करके कैदी बनना चाहता हूँ! मै तेरे संघर्ष में ख़ामोशी के वक़्त का शोर बनना चाहता हूँ! yeh meri kavikta ki akhri pakti padhta hoo मैं तेरी हर बात की चर्चा बनना चाहता हूँ! मैं तेरे हर दर्द की दवा बनना चाहता हूँ l      ©  तुषार पाठक

कागज वाली नाव ©नवल किशोर सिंह

 कागज वाली नाव चली है, बोल-वचन की लिए पिटारी। सहमी सरिता पानी कम है। पतवारों की आँखें नम है। करवाने में भान भगीरथ, भाट हुआ जाता बेदम है। माँझी जाल लिए हाथों में, ढूँढ़ रहा है मीन-सवारी। चमक-दमक है लिए किनारा। मृग-तृष्णा बन बहती धारा। भीट कहाँ बस भँवर दूर तक, नाव यही बस एक सहारा। शुल्क नहीं सुविधा का कोई, महज वोट की है घटवारी। नाव मचल जब चली धार में। जाकर फँसती बीच ज्वार में। प्रत्यावर्तन गुण भाटों का, खेना दुर्वह सिंधु-सार में। परनाले का दिए भरोसा, रेतों से तब करते यारी। देख उधर रेतों के टीले। अपने ही हैं कुटुमकबीले। निकल नहीं वे रहे वहाँ से, दलदल होते बड़े रसीले। स्रोत कहाँ सागर में मीठा? खारे जल का वह अधिकारी। खेतों में भी रेती बोना। रेतों में ही फलता सोना। जल की चिंता छोड़ सनेही, जल देगा घड़ियाली रोना। बीत चुनावी जाता सावन, किसने फिर उस पार उतारी? -©नवल किशोर सिंह

मन-सरोवर ©विपिन बहार

वज्न -2122,2122 विधा-गीत  ताप तन का बढ़ रहा है । मन सरोवर सूखता है ।। तोड़ डाला खास ने अब । साथ छोड़ा आस ने अब ।। पीर तन की भाँपता हूँ । कब मरूँगा आँकता हूँ ।। रात-भर बस कँपकपी है.. ज्वार-भाटा फूटता है ।। मन सरोवर सूखता है.. भावनाएँ खार लगती । जिंदगी अब भार लगती ।। चित रहा अब विचलनों में । झूठ सच के उलझनों में ।। ये धरा भी खूब रोती.. आदमी जब टूटता है ।। मन सरोवर सूखता है... जिंदगी की ये कहानी । फूल बिन बस बागवानी ।। कह रही अब शायरी है ।  अब सफर बस आख़िरी है ।। साँस से है अब लड़ाई । यार जीवन छूटता है ।। मन सरोवर सूखता है...   ©विपिन बहार

ग़ज़ल-अमन ©संजीव शुक्ला

जो मिलें ख़ुलूस के काफ़िये...तो अमन की कोई ग़ज़ल कहूँ  l जो उगा रही हैँ सियासतें....उन्हें नफ़रतों की फ़सल कहूँ l के करोगे माज़ी के नाम कब तक औऱ खुद की  ख़ामियाँ...  जो गुज़र रहा है वो आज है, जो गुज़र चुका उसे कल कहूँ l न तो ईद में वो मुहब्बतें.......  न दिवालियों में वो रौशनी.....  कहीं खो रहीं हैँ जो रौनकें,तो सियासतों का फ़ज़ल कहूँ l ये जो मज़हबों का खुमार है.... ये अजीब वक्ती बुखार है...  इसे फ़िक्र कह दूँ मैं कौम की...,या मुनाफिकों का शग़ल कहूँ l ये हैँ सात रंग की वादियाँ,..... ये धनक ये ज़न्नत सा जहाँ......  के मिसाल इस तहज़ीब पर.. है सियाहियों का दखल कहूँ l मैं तलाशता हूँ प्रसाद, लाल.............. उसूल वाले सियासती...  दिखे खुदनिगर की ज़मात में....कोई अक़्स जिसको अटल कहूँ l ©संजीव शुक्ला 'रिक्त'

छठ©अनिता सुधीर

 करें सूर्य आराधना, आया छठ का पर्व। समरसता के भाव में, करे विरासत गर्व।। कार्तिक मास सदा उर भाए।       त्योहारों में मन हर्षाए।।  शुक्ल पक्ष की षष्ठी आई।        महापर्व की खुशियाँ छाई।।  सूर्य उपासन आराधन का।       पर्व रहा संस्कृति गायन का।।  छिति जल पावक गगन समीरा।           पंच तत्व को पूज अधीरा।। जुड़े धरा से सबको रहना।         यही पर्व छठ का है कहना।।  सूप लिए जब चले सुहागन।          प्रकृति समूची लगे लुभावन।।  ईखों से जब छत्र सजे हैं।          अंतर्मन के दीप जले हैं।। सूरज डूबा जब जाएगा।           नवल भोर ले फिर आएगा।। अर्थ निकलता त्योहारों से।            जुड़े रहे सब परिवारों से।। परंपरा की नींव में,जीवन का है सार। गूढ़ अर्थ समझे सभी,मना रहे त्योहार।। ©अनिता सुधीर आख्या

वो दौर ©सूर्यम मिश्र

हे प्रिय सच में बड़ा गज़ब था, मुझे देख कर वो छिप जाना  सबसे बच कर छत पे आना  आ कर जाना जा कर आना  किसी तरह यदि आँख मिले तो  दाँत दिखा कर मुझे चिढ़ाना  फ़िर खिड़की के उस पर्दे में जिसमें कि सूरज चित्रित था  अधर मध्य में उसे दबाकर   घर में निकला चाँद छिपाना  जीवन का वो दौर अजब था  हे प्रिय सच में बड़ा गजब था  विद्यालय में पहले आकर  कोने-कोने धाक ज़माना  कहीं सीट पर जमीं धूल में  वो गुलाब के फूल बनाना  मेरी वाली सीट साफ़ कर  मुझे देख कर वो मुस्काना देख सभी को सब सा रहना  मुझे देख कर हम हो जाना  जीवन का वो दौर अजब था  हे प्रिय सच में बड़ा गजब था लाल दुपट्टा चूनर वाला,जो  लाया था मैं मेले से, वो छल्ले पे नाम लिखाकर, एक जनवरी को लाया था  वो काला खट्टा चूरन औ इमली  खाना खुब भाया था  पक्के कैथे,करौंद खट्टी,अहा  बताऊँ क्या लगते थे!! नमक छिपाकर तुम लाती थी आम तोड़ कर लाता था मैं बिन छिलके का तुम खाती थी छिलके वाला मैं खाता था जीवन का वो दौर अजब था हे प्रिय सच में बड़ा गजब था.. ©सूर्यम मिश्र

रात ने पर फैलाए ©रेखा खन्ना

 रात ने पर फैलाए आसमां में तारे जगमगाए कुछ जूग्नू हाथ में लेकर अंधेरी बलाओं के दिल जलाए। रात ने पर फैलाए लोगों ने चराग जलाए कुछ पतंगें रौशनी पर मंडराए अंत में अपनी जान गंवाए। रात ने पर फैलाए झींगुरों ने साज बजाए अंधेरे जंगल में  संगीत सजाए कुछ परिंदों के पँख फड़फड़ाए। रात ने पर फैलाए नैनों में सपने उतर आए नींद में भी होठ मुस्काए जब जब पिया गले लगाए। रात ने पर फैलाए कुछ दरिंदें सड़क पर आए यहाँ वहाँ नजरें गड़ाए ढूँढे किस कली को अब मसला जाए। रात ने पर फैलाए चाँद मेरी खिड़की पर आए देख मुझे सोता ना जाने क्यूंँ मुस्काए गुपचुप मेरा पता फिर साजन को दे आए। रात ने पर फैलाए चाँद तारों की बारात सजाए चाँदनी लहरों पर उतर आए नीले समंदर को चांदी के रंग में रंग जाए। रात ने पर फैलाए दिन खत्म होने की आवाज़ लगाए पंँछी भी लौट घर को आए अंधेरे में अब कहाँ उड़ने जाए। © रेखा खन्ना

ग़ज़ल ©प्रशान्त

 आज सुबहा भूल जाओ , जो सुनी कल रात को l और हाँ! देखो नफा हो तो पकड़ लो बात को ll जिंदगी है या बना लो चार दिन की चाँदनी.... या सजा लो चार-चाँदों से हरिक लम्हात को ll झूठ सच क्या था न जानूं, पर कहानी खूब थी....  जिन्न आदम ढूँढते थे , आदमी जिन्नात को ll आँख पे पट्टी बँधी , काले लिबासों में जिरह....  जुल्म है! ऐसी अदालत सुन रही ज़ुल्मात को ll अब वतन में बम-धमाके बारहा होते नहीं.....  इस तरह भी देख लेना आज के हालात को ll कल शहादत हो गई तो काम ये करना 'ग़ज़ल'...  इक तिरंगा भेज देना कानपुर देहात को ll © प्रशान्त

बहते अहसास ©सम्प्रीति

 मेरे बागीचे में एक गुलाब है तुम सा, जो  नाराज होकर मुरझा जाता है, खुश हो तो खिल के दिखाता है, गुस्सा हो तो बिखर जाता है, बिखर कर एक हफ्ते तक नहीं आता बिल्कुल तुम्हारी तरह, पर मैं हर रोज़ जाती हूँ, उससे ना सही उसके पत्तों से बतियाती हूँ, जैसे तेरे इंतज़ार में खुद को तस्वीरों से बहलाती हूँ, हाँ बिल्कुल तुम सा है वो, तेरे इतने दूर होने के बावजूद तेरे साथ का अहसास कराता है। -© सम्प्रीति

शार्दुल विक्रीड़ित©लवी द्विवेदी

 छंद- शार्दुल विक्रीड़ित चरण- 4 (दो-दो वर्ण या चारों चरण समतुकांत)  12, 7 यति ( वर्ण) अनिवार्य मगण सगण जगण सगण तगण तगण गुरू SSS IIS ISI IIS SSI SSI S  रामे राम रमें मणिः मुख शशी, रामेति वर्णं प्रभा,  रामं राम पदारविंद शरणं, रामेश सर्वं शुभा।  रामं धार्य धनुर्धरं रवि मुखं, भूपेण वामेश्वरम् रामायं रम रोम रोम रमणा, रूपेण रामेश्वरम्।  श्री सौमित्र सुपुत्र शेष सहितं, भ्रातेति रामं प्रियं,  भार्या मातु रमे प्रियेन क्षितिजा, रोहेण रामं सियं।  भक्तं सः हनुमंत संत पवनं, श्री केसरी नंदनं,  दीनानाथ दयानिधिं कुसुमितं, वन्दे सिया वंदनं। रामं आगमनः पुनीत  कुशलं, राज्ये दीप मोदते,  कौशल्ये दृग नीर वक्ष प्रणयं, मोहं गृहे शोभते।  भ्राता भाव उदार प्रीत भरतम्, दृष्टेन अश्रुः लहे,  मर्यादा पुरुषोत्तमे भवपतिं, वन्दे सुशोभा गहे। पुण्यं प्रेम पुनीत पंकज पतिः, पाथोज पद्मासिनः,  वन्दे वृन्द विशेश्वरम् विमल त्वं, वक्षस्थलं वासिनः। कौमार्यं सुत सूर्यवंश अजयं, सृष्टेन सः आगरं,  नाना नेति च नौमि नौमि नवलं, नाथाय नौ नागरं।  रामे नौमि नमामि नाथ हरणं, दुखं नमो रामयं,  रामे नौमि नमामि नेह करणं, सुखं नमो रामयं। रामे नौ

कार्तिक की निर्मल उजियास ©सरोज गुप्ता

 कुछ प्रकाश के पुंजों के संग ,  प्रज्ज्वलित ये मन में वास है ।  अद्भुत निर्मल उजियास है ।।  धरती से अम्बर तक फैले जैसे छोटे बड़े सितारे,  आज अमावस रात बन गई जैसे पूनम के उजियारे,  काली चादर पर छिटके ज्यों स्वर्ण नक्षत्र का भास है ।  अद्भुत निर्मल उजियास है ।।  कार्तिक मास सुहाना लागे, घर,ऑंगन,ड्योढ़ी है साजे, तुलसी की बिरवा भी देखो चौरे पर क्या खूब विराजे,  मंगल स्वर में भजन गीत के लगता नित अरदास है ।  अद्भुत निर्मल उजियास है ।। उत्सव भरा मास ये आया धनतेरस बाजार सजाया, तैय्यारी चौदस करवाये दीपोत्सव क्या धूम मचाये, गोवर्धन और दूज भाई की लाया मन में उल्लास है ।  अद्भुत निर्मल उजियास है ।।    © सरोज गुप्ता

हमारी दीपावली ©गुंजित जैन

 शहर के पुराने बाज़ार की एक सँकरी गली की कई दुकानों में रफ़ीक़ खाँ साहब की चूड़ियों की एक छोटी सी दुकान हुआ करती थी। छोटी वो केवल नाम की ही थी, वरना वहाँ छोटी-बड़ी, तरह तरह की सुंदर सुंदर चूड़ियों की भरमार थी। दूर दूर से लोग उस गली में उनकी दुकान की उन छोटी गोलाकार अद्भुत कलाकारी, अर्थात चूड़ियों को खरीदने आते थे। रफ़ीक़ साहब आस-पास के सभी दुकानदारों में ख़ुदको सबसे अधिक भाग्यशाली माना करते थे। भाग्यशाली मानने की वजह उनकी प्रसिद्धि को न समझा जाए, इसकी असल वजह थे उनकी दुकान में काम करने वाले दोनों कारीगर। वे स्वयं को दुनिया के दो सबसे बेहतरीन कारीगरों से घिरा मानते थे। उनकी इस बात से उनके सभी साथी दुकानदार भी सहमत थे। वाकई, अल्लाह ने रफ़ीक़ साहब को दो चुनिंदा हीरों से नवाज़ा था। एक का नाम था मुकेश, और दूसरा रफ़ीक़ साहब के दूर के रिश्तेदार का लड़का, अली।  आने वाले हर ग्राहक से रफ़ीक़ साहब इन दोनों की तारीफ़ करने में कभी नहीं चूकते थे। जैसे ही किसी ग्राहक को कोई चूड़ी पसंद आई, वैसे ही उसको बनाने वाले के गुणगान शुरू, "अल्लाह का रहम है, हमें कारीगरों की शक़्ल में खरा सोना बख़्शा है!" और उनके दोनों कारी

ग़ज़ल ©हेमा कांंडपाल

 ख़ामुशी होंटों की ज़ीनत बन गई और   तन्हाई  ज़रूरत  बन  गई  हमने बस बादल को उल्टा कर दिया आसमाँ   पर   तेरी   सूरत  बन  गई  एक  पुतले  को  तपाया आग में और मिट्टी पक के औरत बन गई  दूध मॉं का छक के पीते बाल को ओढ़नी की छाव जन्नत बन गई  हाल दिल का जान जाते हैं सभी शायरी भी इक मुसीबत बन गई  बेबसी को देख कर हक़ बात की झूठ कहना मेरी आदत बन गई  ©हेमा कांंडपाल 'हिया '