ग़ज़ल ©रानी श्री

 हर बार सामने तुम्हारे अपना वही टूटा दिल लाती हूँ,

मगर तुम्हें पसंद नहीं है इसलिए तुम्हें नहीं बताती हूँ।


सोचती हूँ तुम्हें लिख दूँ, मगर लिखने को तरसती हूँ,

लिखना सीख लिया मैंने और लिख भी नहीं पाती हूँ।


मुझे मंज़िल  क्या ख़ाक  मिलेगी मेरी ऐसी चाल पर,

दो कदम आगे बढ़ी नहीं और मैं हूँ कि लौट जाती हूँ।


एक तुम हो जो मुझको समझने में ऐसे झिझकते हो,

ये समझती हूँ फ़िर भी मगर ख़ुद को ही समझाती हूँ।


लोग कहते हैं कुछ मुस्कान खरीद लूँ तुम्हारे नाम की

मैं अपने नाम से अश्क किश्तों पर उधार ले आती हूँ।


आस नहीं विश्वास है कि मौत से पहले तुम आओगे,

सो मौत से पहले मैं अपनी कई ज़िंदगियां बचाती हूँ।


तुम्हें लगता होगा के बेवजह रानी खुश क्यों है इतनी,

यकीं मानों वैसी खुश नहीं जैसी ख़ुद को दिखाती हूँ।

©रानी श्री

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