संदेश

अक्तूबर, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

प्रेम प्रतीक्षा ©दीप्ति सिंह

 कोरी-कोरी सी कल्पना । आधी अनुरागी अल्पना । हे प्रियतम प्रेम प्रतीक्षा में... सम्प्रेषित यह संवेदना ।   व्याकुल मन में व्याधि बाधा । अंतरमन अनुपस्थित आधा । तुम बिन अपूर्णता जीवन में...  सम्पूर्ण नहीं यह चेतना । हे प्रियतम प्रेम प्रतीक्षा में... सम्प्रेषित यह संवेदना । सान्निध्य रहा संघर्ष सदा । संलग्न वियोगी वर्ष सदा । कर आलोकित मन प्राण दीया... सम्पूर्ण समर्पित साधना । हे प्रियतम प्रेम प्रतीक्षा में... सम्प्रेषित यह संवेदना ।   © दीप्ति सिंह "दीया"

प्रणाम मातु भारती ©संजीव शुक्ला

चित्र
 छंद-पंच चामर चरण -4, मात्रा -24, वर्ण -16 जगण रगण जगण रगण जगण +S प्रणाम मातु भारती (रिक्त प्रवाह से ) नमामि मातृभूमि हे ! सदा गिरा उचारती l नमामि  जन्मदायिनी  सुधा सनेह वारती ll नमो सुगंधिता मृदा अपार सुक्ख कारणीं l नमामि शीतलांचला समूल दुक्ख हारणीं ll हिमादि श्वेत उज्ज्वला सुमेरु भाल शृंखला l तरंग गंग अंचला........ सुगंध वायु चंचला ll अनेक धर्म एकता.......अखंड रूप गर्विता l अनेक वेश भाषिता शुभा, प्रभा, सुवर्णिता ll अथाह सिंधु  ज्वार धार पाद आ पखारती l ज्वलंत सूर्य रश्मि नित्य आ छटा निहारती ll समस्त विश्व वंदना करे...... उतार आरती l प्रणाम 'रिक्त' का सदैव कोटि मातु भारती ll © संजीव शुक्ला 'रिक्त' Click Here For Watch In YouTube  

लेखनी ©संजीव शुक्ला

चित्र
 शुभा प्रभा सुलेखनी, प्रबुद्ध वृन्द पेखनी l विशुद्ध शब्द भाव की पुकार सार लेखनी ll विशिष्ट नेह रूपणीं  सुभाषिनी सुहावनी l सदा समुज्ज्वला छटा अमर्त्य दिव्य पावनी ll समूल भाव वन्दिता... सुवर्णिता सुगंधिता l विभिन्न शब्द, ताल, छंद युक्त रूप गर्विता ll मणिक्य भिन्न-भिन्न एक सूत्र रत्न मेखला l अभूतपूर्व एकता....... पवित्र नेह शृंखला  ll विचार, ज्ञान पुंज कोष निर्विकार निर्मला l  प्रवाह बिंदु संग ले समस्त शुद्ध अंचला  ll अमर्त्य कामना, प्रणाम"रिक्त"कोटि वंदना l नमामि लेखनी नमो समस्त लेखनी मना ll ©संजीव शुक्ला ' रिक़्त'    Click Here For Watch In YouTube                          

आसान नहीं एक बेटी का बाप होना। ©रानी श्री

आसान नहीं एक बेटी का बाप होना।    दुनिया के तानों  का अभिशाप ढोना। आसान नहीं एक बेटी का बाप होना। अधिक प्रेम करने पर भी तंज सहना, कम प्रेम में भी तो सबके रंज सहना। उसके संग खेलना, रूठने पर मनाना, हंसते हुए भी कांटे जैसा कंज सहना। उसके  जन्म से ही  पैसे बचत करना, खिलौनों की जिद का भी जाप ढोना। आसान नहीं एक बेटी का बाप होना। बेटी बड़ी हो रही, उसे सब सिखाना, सभी की बुरी नज़रों से उसे छिपाना। ऊंगली न उठने पाए मान सम्मान पर बिटिया अब तू ही मेरी लाज बचाना। जवान निर्दोष  बेटी से छेड़खानी पर, तब अपनी बदनामी का संताप ढोना। आसान नहीं एक बेटी का बाप होना।  कभी उसे पढ़ाने के लिये यत्न करना, तो कभी शादी के लिये प्रयत्न करना। जिस अनमोल रत्न को नाज से पाला, किसी और को  दान वही रत्न करना। और अगर वो शादी टूट जाए तो फ़िर,  चुपचाप उस अपमान का छाप ढोना। आसान नहीं एक बेटी का बाप होना। डोली  सजाने के लिये अंग अंग देना, आंसुओं से सींचके जीने के ढंग देना। ससुराल में अत्याचार से पीड़ित बेटी जब मर जाए  तो फ़िर क्या रंग देना। आंखों के सामने उसका शव देखकर, जीवनभर उस दुख का विलाप ढोना। आसान नहीं एक बेटी का बाप होन

घाट पर(श्मशान घाट) ©विपिन बहार

 आग की तो आतिशे थी घाट-पर । यूँ दफ़न सब ख्वाहिशें थी घाट-पर ।। सोचकर भावुक हमारा रग हुआ । कौन है जो जिंदगी का ठग हुआ ।। चल रहे सब रेल की रफ़्तार में... मोह-माया क्षोभ-काया जग हुआ ।। अंत होती दिख रही थी लालसा... जल रही सब साजिशें थी घाट-पर ।। आग की तो आतिशे थी घाट-पर.. यूँ दफ़न सब ख्वाहिशें थी घाट-पर.. नैन की ये पुतलियाँ अब थक गई । बेरहम ये जिंदगी अब पक गई ।। राख होने को बदन तैयार है.. लकड़ियों में आरजू अब ढक गई ।। कौन अपना है पराया क्या पता... दूर सारी बंदिशे थी घाट-पर ।। आग की तो आतिशे थी घाट- पर ... यूँ दफ़न सब ख्वाहिशें थी घाट-पर... दर्द को अपने समेटें मैं चला । छोड़कर सब यार भेटें मैं चला ।। मोल मेरा तुम लगा लो अब यहाँ ... पाप की गठरी लपेटें मैं चला ।। कर भला तो हो भला की तर्ज़ पर... छोड़ दी जो रंजिशें थी घाट पर ।। आग की तो आतिशे थी घाट पर ... यूँ दफ़न सब ख्वाहिशें थी घाट पर... © विपिन "बहार"           

लिख रही हैं चाँदनी © रेखा खन्ना

 लिख रही हैं चाँदनी  अंँधेरों की दास्तां नई आधी रात की खामोशी आधी रात की बेबसी कि उभर नहीं सकती इस जमीं से आसमां तक है बस फैली हुई। लिख रही है चाँदनी लहरों पर खेलते हुए अपनी इक कहानी कि कैसे चाँद दूर से देखता है और उसे आगोश में भरने को तरसता है कि क्यूँ वो लहरों की  मदमस्त दीवानी हुई। लिख रही हैं चाँदनी मोहब्बत की एक कहानी  तेरे हाथों में मेरा हाथ  देख कर कि कैसे दो दिल मिल रहें हैं रात के अंधियारे में लोगों की बस्ती से दूर समंदर के किनारे और मोहब्बत कैसे ठंडी बयार की चाहत हुईं। लिख रही है चाँदनी तरसते मन की व्यथा कहीं कैसे दो नैना खिड़की से उसे निहारने में लगे हैं और सोच रहें हैं कि  क्यूँ चाँद अपनी चाँदनी के संग संग रहता है और क्यूँ मैं हरपल तन्हा हूँ और मुझमें किसी के साथ की आस है अब तक बसी हुई। लिख रही है चाँदनी किसी की अनकही  ख्वाहिशों को भी वो ख्वाहिशें जो रात के  अंँधेरे में दिल में उभरी तो पर दिन का उजाला होते ही किरणों की तपिश से जल कर राख हुई। लिख रही है चाँदनी  जाने कौन सी कहानी  भागते हुए शहर की और रात के सन्नाटे की जहांँ कुछ रस्तों पर  पसरा है अँधेरा और कुछ रस्तों पर चमकील

जीवन तुमसे गुंजार प्रिये ©नवल किशोर सिंह

 तुम आशा का संचार प्रिये। तुमसे जीवन गुंजार प्रिये।  दूर देश के दो खग प्यारे।  उड़ते योजित पंख सहारे। भावों के बंधन में बँधकर, दो दिल अब एकाकार प्रिये।   दूर गगन का खाली कोना। प्रेम-सितारे उसमें बोना। जुगनू जगमग भर मुठ्ठी में, करती पथ को उजियार प्रिये।  वीरान हृदय था मरुथल-सा।  आना तेरा तब कलकल-सा।  सिकता में ज्यों सार बसाने, सोता कोई रस-धार प्रिये।  कुसुमित पुष्पों से बाग हरा। मधुबन मलयज अनुराग भरा।  पतझड़ के सूने आँगन में, हुलसे अब हरसिंगार प्रिये।  गीत गज़ल फिर छंद बनी तुम।  भावों का मकरंद  बनी  तुम।  छेड़ चली साँसों का सरगम, ले पायल की झंकार प्रिये।  मन खोया तेरे अलकों में।  तुम बसती चातक पलकों में।  घुल जाती हर राग-रंग में, बनके मोहक अभिसार प्रिये।  खिलती है जीवन की क्यारी।  कुसुमित कोमल किल-किलकारी।  गढ़ती फिर से नव-जीवन को, रूप रंग भी निज हार प्रिये।  -©नवल किशोर सिंह

यह नर्म नाजुक चेहरों की सच्चाई ©परमानन्द भट्ट

 हरी भरी नर्म मुलायम दूब बिल्कुल तुम्हारे मखमली चेहरे सी नाजुक कोमल तुम्हारे पास नहीं है भदेस अक्खड़पन मेरे गाँव के बरगद जैसा तुमने झुकना सीखा है और मैने टूटना तुम्हारे इस हरे पने के मुखौटे के पीछे छिपी है तुम्हारी समझौता वादी सोच बिल्कुल मेरे आफिस के उस चाटुकार बाबू की तरह जो नहीं पनपते देता  किसी प्रतिभवान  खुद्दार साथी को ए दूब तुम कब पननपे देती हो कोई पौधा अपने आस पास जमीन के भीतर जड़े जमा बढ़ती रहती हो निरन्तर, और छा जाती हो बिल्कुल उस चाटुकार की तरह गाँव में तो हम तुझे खरपतवार कहते हैं और उखाड़ फैकते है जड़ों से मगर शहर नहीं समझ पा रहा तुम्हारे नर्म मुलायम चेहरे के नीचे छुपा तुम्हारा सच ©  परमानन्द भट्ट

गजल ©सौम्या शर्मा

 धड़कनें कुछ यूं सुनाया कीजिए! नाम मेरा गुनगुनाया कीजिए!! जिंदगी कम है गमों के वास्ते, आप खुल के मुस्कुराया कीजिये, नफरतों की उम्र छोटी है बहुत, प्यार लेकर पेश आया कीजिए, रूह को राहत मिलेगी,बस किसी, रो रहे को चुप कराया कीजिए, मंजिलें खुद रास्ता देंगी कभी, हौसले भी आजमाया कीजिए, उस खुदा को याद रखिए हर घड़ी, वो भी इक रिश्ता निभाया कीजिये l       © सौम्या शर्मा

राही तू चलता जा ©सम्प्रीति

 तू चलता जा तू चलता जा, एक पल भी ना तू राह में रुक, रुका है तो थकान मिटा, रुक कर तू पीछे ना मुड़, मुड़ा है तो वापस ना लौट, कदमों को मोड़ मंजिल तक जा, वापस जो तू जाएगा खाली हाथ ही रह जाएगा, लौट के बुद्धु घर को आए कहावत गलत ठहराएगा, घर तुझे कोई ना मिले, अकेला तू रह जाएगा, मेहनत जो तू ना कर पाए, पेट अपना तक ना पाल पाए, ख्वाहिशों की जो झड़ी लगाए, सर उनके आगे झुकाएगा, मेहनत जो तू ना कर पाए, बेरोज़गार ही रह जाएगा, लोगों को ताक ताक कर  जीवन अपना बिताएगा, हर अपने से दूर होकर तू तिल-तिल मरता जाएगा, यथासंभव धरती का बोझ एक दिन जरूर कम कर जाएगा! -© सम्प्रीति

लघुकथा पोशाक ©अनिता सुधीर आख्या

चाय का कप पकड़े आरती किंकर्तव्यविमूढ़ बैठी थी।  वेदना उसके मुख पर स्पष्ट दृष्टिगोचर थी  राजेश! क्या हुआ आरती पत्नी को झकझोरते हुए बोला.. आरती अखबार राजेश की ओर बढ़ाते हुए. किस पर विश्वास करें और सगे भी ? पाँच माह की बच्ची क्या पोशाक पहने ,ये समाज निर्धारित कर दे. कहते हुए बेटी के कमरे की ओर चल दी... © अनिता सुधीर आख्या

उठ ©सूर्यम मिश्र

 पराक्रम से पराजय को पस्त कर  मर ना मन को मोद से मदमस्त कर सर्वदा तू सत्य को स्वीकार कर धमक कर जा धमनियों में धार धर  ये पौरुषी प्रारब्ध का प्रारंभ है अंत है, ये आदि का आरम्भ है कर्म कर से कर के कर कृतकृत्य कर  नवोन्नति से नभ को नत तू नित्य कर  भूख भव की भूल कर तू भोर बन  शिल्प तू शिव का,सृष्टि में शोर बन  प्रवर है ये परीक्षा, प्रण प्राण है  यदि नियति पे नत, समझ निष्प्राण है गौड़ ही गुज़रे हैं जो हैं गिरे ना  विषम ही वासर रहें वो फिरें ना क्रूर कारन काल का तू काट दे बंद पथ को बलाबल से बाँट दे  भगा भय को भाल पर भैरव बिठा कर  अदम हो, आनंद का उत्सव मनाकर  क्यूँ खड़ा है तू कुढ़ा सा?, क्यूँ पड़ा तू मौन? सामना तेरा करे जो, है सबल वह कौन? शत्रु का साहस, तुझे ललकार दे!! श्वान वो, शावक को वो पुचकार दे! मुश्किलों के मर्म को जा चोट दे  हार का उठ कर गला तू घोंट दे    ©  सूर्यम मिश्र

गीत - मैं चुका हूं हार तुझको ©अंशुमान मिश्र

   (1) है  नहीं  विश्वास  होता,   मैं  चुका  हूं  हार तु झको, आज तक  इस तप्त हिय को, मेह-झोंके मिल रहे थे, आजकल ही सुमन दो, रति-वृक्ष ऊपर खिल रहे थे, किन्तु फिर कालाग्नि ने बस इक सुमन झुलसा दिया था, शेष जो, वह पुष्प करता है विलाप पुकार  तुझको है  नहीं  विश्वास  होता,   मैं  चुका  हूं  हार तुझको..                           (2) हो रहा  आभास है  अब, मैं चुका हूं  हार तुझको.. पौध है, पर जल नहीं है! तन कहीं पर, मन कहीं है.. रात्रि नीरसता भरी  है! श्वास  है, जीवन  नहीं  है.. प्रेम अब दिखता कहां है? हर दिशा में बस धुआं है.. आस की जलती चिताएं, दे रहीं धिक्कार मुझको! हो रहा  आभास है  अब, मैं चुका हूं  हार तुझको..                          (3) हो  चुका विश्वास  है  अब, मैं  चुका  हूं  हार  तुझको! स्वप्न अगणित ले नयन अब, रात भर जगते  नहीं  हैं, कोयलों के गीत भी  अब, तनिक प्रिय  लगते नहीं हैं, हर  जगह  अब  क्रंदना है, मर चुकी  रति कल्पना है, नाव  भी  चलती  बनी  है, छोड़कर  मझधार मुझको, हो  चुका  विश्वास  है  अब, मैं  चुका  हूं  हार  तुझको!                      - © अंशुमान मिश्र

मैं तुम्हारा, तुम मेरी प्रिय ©तुषार पाठक

  Sabse phele maa sharde ko namam aur saath mai maa lekhni ko namam mai apni rachna padhne ja raha hoo  मैं चंद्रमा की रात-सा, तुम हो मेरी चकोर प्रिये, मैं उड़ती मदमस्त पतंग, तुम ‌हो मेरी डोर प्रिये। मैं शतरंज का राजा, तो तुम हो मेरी रानी प्रिये,  मैं शब्दों की माला तो तुम हो मेरी कहानी प्रिये। मैं कुल्हड़ की चाय, तुम हो कॉफ़ी महकती प्रिये,  मैं स्थिर सा एक पर्वत, तुम हो चिड़िया चहकती प्रिये। मैं मेहनत की बात, तुम हो उसका परिणाम प्रिये, मैं भागता काम-सा, तो तुम हो मेरा आराम प्रिये। मैं होठों की बात, तुम हो आँखों का ख़्वाब प्रिये, मैं उलझा एक सवाल, तुम हो मेरा जवाब प्रिये। मैं खोया इतिहास-सा, तुम मेरी हो भूगोल प्रिये, मैं लबों की ख़ामोशी, तू ही कुछ अब बोल प्रिये। मैं चुभता एक नश्तर-सा, तुम हो मेरी जंग प्रिये,  मैं दिवाली की जगमग तुम हो होली का रंग प्रिये। मैं हूँ एक अंश और तुम हो मेरी ज़िंदगी प्रिये,  मैं चलता कर्म-सा तुम धर्म की हो बंदगी प्रिये। yeh meri kavita ki akhri pakti padhta hoo मैं हूँ एक श्राप और तुम हो मेरा वरदान प्रिये, मैं हूँ तेरी धड़कन और तुम हो मेरी जान प्रिये। dhanyabad

ग़ज़ल - मुसाफ़िर ©संजीव शुक्ला

बहृ - बहरे रमल मुसम्मन मशकूल सालिम मज़ाइफ़ [दोगुन] फ़यलात फ़ाइलातुन फ़यलात फ़ाइलातुन वज़्न - 1121 2122 1121 2122 मैं डगर-डगर से गुज़रा मैं शहर-शहर गया हूँ l मैं हूँ रहगुज़र से  वाकिफ हर एक  दर गया हूँ ll मैं क़लम का हूँ मुसाफ़िर,मैं अदम,उदास शा'इर.... अनजान रास्तों पर.......... करता सफ़र गया हूँ ll न करार हूँ ज़िगर का...न मैं नूर हूँ नज़र का....  मैं मलाल हर ज़हन से जो किया कगर गया हूँ ll  न हुआ कभी सवेरा.... मैं सियाह सा अँधेरा...  शब तीरगी की दिल में बन कर उतर गया हूँ ll इक ग़मज़दा तराना.....अगलात का फ़साना.... मैं हरेक रंज़-ओ-ग़म की हद से गुज़र गया हूँ ll बुझता हुआ शरारा.............इक टूटता सितारा...  के धुआँ हुआ फलक पर मैं बिखर-बिखर गया हूँ ll मैं हूँ "रिक्त"अजनबी सा... नाकाम ज़िंदगी सा...  के उठी नज़र सवाली मैं जिधर-जिधर गया हूँ ll © संजीव शुक्ला 'रिक्त' 

माॅं दुर्गा ©सरोज गुप्ता

 जय जय जय महिषासुर मर्दिनी असुर विनाशिनी माता..... नवराता नवरूप धरे माॅं भक्तन की सुख दाता..... पहला रूप शैलपुत्री माॅं आदिशक्ति समरूपा, पाप मिटा के मातु हमारे  स्वच्छ करो मन कूपा..... दूजा रूप ब्रह्मचारिण माॅं हाथ कमण्डल धारे, मन उपजाये दिव्य भावना तम हिरदय का हारे..... तीजा रूप चंद्रघण्टा माॅं रूप शाम्भवी धारी, घन घन घन घण्टा जब बाजे शत्रु हृदय हो भारी..... चौथा रूप मातु कुष्माण्डा तेज पुंज की धाती, करके सृजन मात सृष्टी की अतुलित जीवन दाती..... पाॅंचवाॅं रूप मातु स्कंदा शिवसुत गोद बिठाई, मृत्यु अटल है एक सत्य यह जीवन मरण बताई..... छठवाॅं रूप मातु कात्यायनी ऋषी सुता कहलायी, जागृति आज्ञा चक्र जो धारी ओज, शक्ति फलदायी..... सातवाॅं रूप महाकाली माॅं शुम्भ,निशुम्भ विदारी, रक्तबीज का रक्तपान कर वसुधा को माॅं तारी..... आठवाॅं रूप महागौरी माॅं गिरिजा रूप जो धारा, घोर तपस्या से शिव पाई फिर से मात दुबारा..... नौवाॅं रूप सिद्धिदात्री माॅं आसन कमल विराजे, अष्टसिद्धि की दात्री मैया शंख,चक्र कर साजे..... हम अबोध नहीं ज्ञान हमें माॅं सार अनन्त तुम्हारी, कष्ट हरो हे मात भवानी  विनती करें तुम्हारी..  

क्रिकेट का खेल ©गुंजित जैन

 "कुछ भी हो जाये, आज तो पहले मैं ही खेलूंगा" कहते हुए वो ख़ुद से ही बातें कर रहा था।  दूसरी तरफ़ उसका प्रतिद्वंदी। वैसे तो मित्र, पर खेल में दूसरी टीम का कप्तान, यानि उसका प्रतिद्वंद्वी, बैट घुमाते हुए एक कॉन्फिडेंस के साथ आ रहा था कि बैट मेरा है तो जायज़ सी बात है पहले मैं खेलूंगा।  न चेहरे पर कोई शिकन, न कोई तनाव। उस उम्र में तो स्कूल में आये नंबर भी खास मायने नहीं रखते, और वैसे भी तब तो सभी के नंबर बढ़िया ही आते हैं। आप के भी बेशक अच्छे ही आये होंगे!! उसके बाद जैसे जैसे बड़े होते जाते हैं तब... ख़ैर! छोड़िये वो सब। हाँ तो कहाँ थे हम?? खेल पर! हाँ!! तो बस इन्हीं कश्मकश के बीच वो दोनों मैदान में चले आ रहे थे। एक तरफ़ वो भूरे रंग की अपनी वही पुरानी बारीक चेक वाली शर्ट और एक ढीला निक्कर पहने आ रहा था और दूसरी तरफ़, दूसरी टीम का कप्तान अपनी नारंगी सी टी शर्ट और निक्कर में चला आ रहा था। उस उम्र में ना ही अक्सर दिखावटी पन होता है, न कोई तुलना और न ही किसी को कपड़ों से कम या ज़्यादा आंका जाता है।  पर, केवल कपड़ों से।  बाकि जो ढंग से नहीं खेलता उसे तो तब भी कोई अपनी तरफ़ लेना पसंद नहीं करता था।

प्रार्थना : माँ शारदे ©प्रशान्त

चित्र
 आधार छन्द - गंगोदक विधान - रगण X ८  शारदे माँ कृपा चाहिये आपकी, लेखनी कर्म-निष्ठा निभाती रहे l श्रेष्ठ शब्दावली,भाव रत्नावली , शिल्प संसर्ग छन्दादि लाती रहे ll    ज्ञान समृद्धशाली रहे सर्वदा, सत्य-मिथ्या विभेदी बने नित्यदा l कामना की करें पूर्ति माँ शारदा, लेखनी शोधकर्ता बनाती रहे ll पारदर्शी महा-सूक्ष्मदर्शी बने, भावना की सदा संस्पर्शी बने  l सज्जनों की करे वन्दना लेखनी, चेतना दुर्जनों में जगाती रहे ll सैनिकों नौजवानों किसानों तथा देशवासी जनों की बने भावना l मुक्त आकाश में शब्द-तारे भरे , लेखनी मातृ-भू को सुहाती रहे ll धर्मवादी रचे, सत्यवादी रचे , राष्ट्रवादी व आदर्शवादी रचे l  काव्य हिन्दी महाक्रान्तिवादी रचे , राष्ट्रभाषा ससम्मान गाती रहे ll काव्य के रूप में मित्र ऐसा मिला , वेदना, हर्ष दोनों सुसंतृप्त हैं l पूर्ण तल्लीन हो लेखनी यूँ चले , शारदे-हस्त आशीष पाती रहे ll       © प्रशान्त       Click Here For Watch In YouTube

माँ और शृंगार ©रेखा खन्ना

 माँ दो वक्त ही शृंगार करती है। एक बार जब वो दुल्हन बनती है तब अपने मनमुताबिक शृंगार करती है और दूसरी बार तब जब वो अर्थी पर चढ़ती है पर तब उसके मनमुताबिक शृंगार नहीं होता है, तब अर्थी के मुताबिक शृंगार किया जाता है उसका।  बीच के बाकी दिनों में वो सिर्फ घर और परिवार के कामों में उलझी रहती है। शृंगार और खुद को सजाने-संवारने को दरकिनार कर के सिर्फ परिवार की चिंता में घुलती रहती है। कभी खाने की चिंता, कभी कपड़ों के धुलने की और सूखने की चिंता, गर्मी में सर्दियों की तैयारी की चिंता तो सर्दियों में गर्मी की चिंता। अगर गौर से देखा जाए तो गृह-प्रवेश के साथ ही जिम्मेदारियों का शृंगार कर लेती है। चाह कर भी इस से उसे मुक्ति नहीं मिलती है। बस अपनी अंतिम घड़ी तक परिवार की चिंता में घुलती ही रहती है।  माँ वो प्राणी होता है घर का जिसे अक्सर नज़रंदाज़ कर दिया जाता है। कितने सास-ससुर, पति यां बच्चे होंगे जो माँ को कहते होंगे की अपना भी ख्याल रखो। अपनी भी इच्छाओं को पूरा करो, कब तक खुद को भूल कर हमारे पीछे दौड़ती रहोगी। घर के हर सदस्य का ख्याल रखती हो पर अपना ख्याल रखना क्यूँ भूल जाती हो? क्या सच में हम

चाय पर ©विपिन बहार

 बारिशो में तुम मिली थी चाय पर । बादलों में तुम खिली थी चाय पर ।। वक्त का मानो पता ही ना चला... बात यारो यूँ चली थी चाय पर ।। हम अकेले ही अकेले रह गए । याद तेरी मखमली थी चाय पर ।। प्यार का दीपक बुझा तुम चल दिए.. आरजू की लौ जली थी चाय पर ।। दो नयन मिलते रहे यूँ मिल गए । मनचला था ,मनचली थी चाय पर ।। भीड़ सब तुमको निहारे दिलरुबा । यार कितनी खलबली थी चाय पर ।। © विपिन"बहार"

गीत - आत्मविश्वास जीवित रखो ©अंशुमान मिश्र

 उठो! आत्मविश्वास जीवित रखो.. समर्थक  विरोधी  बनें कल अगर, लगे अति कठिन और दुर्गम डगर, विदित हो! नगों  पर चढ़े हैं  बहुत.. मगर हैं बहुत कम, छुए जो शिखर! हृदय बीच  उल्लास  जीवित रखो.. रहो  मत  निराशा व अवसाद में, अहंकार  में...  मिथ्य  संवाद  में, कि कोसो नहीं भाग्य को इस तरह.. परिश्रम  प्रथम,  भाग्य  है  बाद में! बुझाओ नहीं.. प्यास जीवित रखो.. उठो! सूर्य से तुम लड़ाओ नयन, निडर हो उड़ो, और छू लो गगन, कि अवसर प्रतीक्षा करो यूं नहीं, उठो और  अवसर बनाओ स्वयं.. बदलेंगे दिन, आस जीवित रखो, उठो! आत्मविश्वास जीवित रखो..                                    © अंशुमान मिश्र__

श्री नव दुर्गा स्त्रोत ©लवी द्विवेदी

श्लोक-  वर्ण- 15 ऊँ सः दुर्गेश्वरी भवतारिणिं महामयः नौदुर्गे नारायणी नौमि नित्यं नमोऽस्तुते। छंद- गंगोदक सवैया चरण- 4 (समतुकांत)  वर्ण- 24 मात्रा- 40 विधान- SIS×8 शैलजा शाम्भवी माँ नमो रोहिणी, शैलमाता सुभद्रा जया माँ नमो,  कंज पुष्पं प्रदा पल्लवी पुण्यदा, सः त्रिशूलं प्रभा आदया माँ नमो।  साधना वन्दना अग्र आराधना, दिव्यज्योतिर्प्रभा सुभ्रया माँ नमो,  लौ अखण्डं प्रवाहं प्रभुत्वं नमो, नौ नमामी नमः रुद्रया माँ नमो। ब्रह्मदेवी तपस्वी तुषा रूपिणी, सर्वकामी विभा प्रेमजा माँ नमो,  हस्तमालं सुशोभं कृपादायनी, धैर्यदात्री सुधा रूपजा माँ नमो।  ज्ञान वैरागिनी कीर्तिकामी क्रिया, योग माँ अंशिका अंबुजा माँ नमो,  भक्ति भावोदया भक्तया भव्यता, बोधता दायनी त्वं अजा माँ नमो।  चंद्रघंटेश्वरी अर्द्धचंद्रावली, सौम्यता सुभ्रता भावनी माँ नमो,  दिव्यरूपा स्वरूपा गिरा वासिनी, शक्तिदेवी शिखा सावनी माँ नमो।  शस्त्र सोहं दशः त्वं भुजं सर्वदा, पुण्यदा प्राणदा पावनी माँ नमो,  आदिदेवी सुदेवी सती शास्त्रिणी, छत्र छाया छटा छावनी माँ नमो।  माण्डवी स्रष्टि उद्गामिनी नंदिनी, भावरूपेण भूयः रमा माँ नमो,  अष्टदेवी दनूजा महारूप

पुत्र ©सरोज गुप्ता

 पुत्र के भी वेदना को जानिए, कष्ट होता है उसे भी मानिए । मन में चिंतन भाव लेकर वो रहे घावों को उसके भी तो पहचानिए ।। यदि इन्हें हम इक उचित आकार दें, प्रेम औ ....कर्त्तव्य के संस्कार दें । राष्ट्र के आदर्श नायक ये बनेंगे यदि उचित मूल्यों भरा परिवार दें ।। उत्तराधिकारी यदी वो पितृ का, साथ में बोझा लिये दायित्व का । निर्वहन करने की खातिर वो चला छोड़ कर सुख गेह औ अपनत्व का ।। ग्रीष्म, वर्षा, शीत सह हर वेष में प्रेषित न कर वो दुख किसी संदेश में । बस दिखाता है खुशी हर रोज अपनी चाहें दुख लाखों सहे परदेश में ।। भाई है वो बहना का पहरेदार बनकर, बेटा है वो माॅं बाप का पतवार बनकर । जब देश के हित में चला लड़ने लड़ाई माॅं भारती का इक सिपहसालार बनकर ।। होते नहीं हैं पुत्र सारे व्याभिचारी, ये भी होते हैं ..बड़े ही संस्कारी । क्यूॅं भला थोपें सदा हम दोष इन पर इनको गढ़ना है हमारी जिम्मेदारी ।।         ©  सरोज गुप्ता

लेखनी स्थापना दिवस के उपलक्ष्य मेँ काव्य पाठ एवम मिलन समारोह ©लवी द्विवेदी

 सर्वप्रथम मैं लेखनी परिवार के गुरुजन को प्रणाम करती हूँ,  मैं ह्रदयतल से आभार प्रकट करती हूँ कि आपने हमें लेखनी परिवार का हिस्सा बनाया, जो की मात्र लेखनी एक पटल नही अपितु एक परिवार है जिसमें भाई, बहन, पिता, माता, सभी रिश्ते एक दूसरे के भावों से जुड़े हुए है, जिसमें रस छंद अलंकारों की माला इस परिवार को एक दूसरे से जोड़ कर रखती है,  मेरा लेखनी परिवार से जुड़े हुए एक महीना ही हुआ मगर ऐसा प्रतीत होता है मानों सालों से सभी को जानती हूँ।  आप सभी के स्नेह और आशीर्वाद की मैं आभारी हूँ कि आपने मुझे लेखनी परिवार की साहित्य साधना से जोड़ा।  सादर आभार ।🙏 © लवी द्विवेदी Video 1: Video 2:   Video 3:         Video 4:

नमो वासु देवायः ©संजीव शुक्ला

चित्र
 छंद - भुजंग-प्रयात  चरण - 4  मात्रा -20  वर्ण - 12 lSS × 4(यगण 4 आवृत्ति) नमो वासुदेवाय  श्यामं कृपालं l नमो प्रेमलीलावतारं दयालं  ll नमो द्वारिकानाथ श्री नंदलालं l  नमो पार्थमित्राय कंसादि कालं ll सुपिच्छं लसद्भाल हे वेणुधारी l नमो केशवं माधवं श्री मुरारी ll नमो राधिकाकंत कल्याण कारी l नमामीश सृष्टीश मोहापहारी ll जगन्नाथ श्रीनाथ सः पूर्ण कामी l पराज्ञान गोतीत सर्वज्ञ बामी ll नमो पद्मपादाय कोटिः नमामी l नमो देवकीनन्दनं"रिक्त"स्वामी ll ©संजीव शुक्ला 'रिक्त'                       Click Here For Watch In YouTube

आलोचना महामानव की... ©सूर्यम मिश्र

 गाल पे हाथ लगाए अरि  ऐसी वो माँ का लाल नही  क्षमा किंतु हे राष्ट्रपुत्र अब  वैसा कोई गाल नही  क्यों एक चौरा-चौरी पे था  असहयोग को रोंक दिया? खुद लेकर आगे आए फ़िर  आग में सबको झोंक दिया? भगत सिंह लटके फाँसी पे  क्यूँ कुछ भी ना कर पाए? भारत माँ के अमर मान का  समझौता करके आए? और बताने लगूँ अगर तो,  घोर रात हो जाएगी छोटा मुँह है कुछ भी बोलूँ  बड़ी बात हो जाएगी शांतिपूर्ण जीवन की आशा  में अब कौन नही होता?  पर प्रश्नों का उत्तर गाँधी  केवल मौन नही होता गीदड़ जब गजराजों का  संबोधन करने लगते हैं श्वान सिंह के सिर पर चढ़  उद्बोधन करने लगते हैं  जब सब गर्दे मिलकर  हाटक राख बताने लगते हैं  पटबिजने सब मिलकर रवि को  आँख दिखाने लगते हैं  लहू से सींची गई भूमि जब  परती जोती जाती है  माता के आँचल पर जब भी  कालिख पोती जाती है  तब-तब हे गाँधी जी हिय में  शक्ति जुटाना पड़ता है  जब धर्म-युद्ध ही हो जाए तब  शस्त्र उठाना पड़ता है   © सूर्यम मिश्र

दो अक्टूबर ©अनिता सुधीर

 रेख बड़ी हो या छोटी हो, रखती दोनों अलग महत्व।  आजादी के आंदोलन में, सबका अपना है अमरत्व।।  गांधी व्यक्ति नहीं था कोई, गांधी था तब एक विचार।  लाल बहादुर साथ खड़े थे,जनता को देने अधिकार।। दो अक्टूबर धन्य रहा है, जन्में भारत के दो लाल। इतिहास गवाह सदैव रहा, इनके जैसी नहीं मिसाल।।  इन अमर सपूतों के कारण, भारत देश हुआ आजाद। त्याग समर्पण रग-रग में भर, करते वंदे माँ का नाद।।  असहयोग में गांधी कहते,करो मरो से कर लो प्रीति।  मरो नहीं तुम मारोगे अब, लाल बहादुर की थी रीति।। वर्षों का संघर्ष रहा था, देश हुआ था तब आजाद।  और विभाजन बनी त्रासदी, सपनों को करती बर्बाद।। रामराज्य का सपना देखे, गाँधी ने जब त्यागे प्राण। लाल! जवान किसान लिए फिर, करते भारत नव निर्माण।। ऋणी रहेंगे भारत वासी, जिनके कारण दिन ये आज। उच्च विचार रहा जो जीवन, लाभान्वित हो नित्य समाज।। लाठी चश्मा और सादगी, आज माँगती है उपहार। पूर्ण करो आजाद स्वप्न को, रामराज्य पर कर अधिकार।। -© अनिता सुधीर आख्या

बेटियां ©सौम्या शर्मा

 सच कहूं प्यार की हैं डगर बेटियां! खुशनसीबी का कोई शजर बेटियां!! आंसू पीकर हमेशा हंसीं मायके! मां- पिता की उतारें नजर बेटियां!! क्या लगाएगी दुनिया भला मोल ये! मीठे संगीत का कोई स्वर बेटियां!! ठीक हो या ग़लत सब ही ये झेलतीं! रख रहीं कौन सा ये जिगर बेटियां!! शुक्र तेरा खुदा मेरी झोली में दी! लाख रातों की कोई सहर बेटियां!!                   ©  सौम्या शर्मा