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गज़ल ©दीप्ति सिंह

बह़्र -  मुतदारिक मुसम्मन सालिम अरकान-फ़ाइलुन/फ़ाईलुन/फ़ाइलुन/फ़ाइलुन   वज़्न-    212   212   212  212   साँवरे जबसे तुमसे मुहब्बत हुई  ज़िंदगी और भी ख़ूबसूरत हुई दिल धड़कता है अब तो तेरे नाम से  ये इबादत भी दिल की जरूरत हुई   तेरी आँखों में है ज़िंदगी का नशा  मंद मुस्कान उसपर क़यामत हुई  बाँसुरी मेरे कानों में बजती रहे  दीद हो जाए बस इतनी हसरत हुई   नाम जपती हूँ जब साँस लेती हूँ मैं  तुझमें रहना मगन मेरी आदत हुई  आख़िरी साँस में बस तेरा नाम हो दिल में हर बार पैदा ये मन्नत हुई   आज 'दीया' है रौशन तेरे नाम से  तेरे दम से ही आबाद किस्मत हुई ©दीप्ति सिंह 'दीया'

स्त्री ©️रिंकी नेगी

 बेटी की शादी की खातिर,  प्रबंध महंगे करवाये थे।  शादी होकर सुसराल विदा हो  अरमान बहुत सजाये थे।  जितना भी कर सकते वो,  हर जतन उन्होंने लगाये थे।  और  जब विदा होकर गयी बेटी,  लगा जिम्मेदारी पूरी हो गयी।  पर यथार्थ कल्पना से परे ये शादी दुख लेकर आयी। रूई में सहजी गयी थी जो अबतक, उसके जीवन में पीडाओं की लहर आयी।  कुछ समाज के ठेकेदारों के बीच पड़ी बेहद दुखद उसने घड़ी पायी। ना मिला पति का स्नेह उसे, ना मिला कोई सुखी संसार ।  उलाहनों और यातनाओं के बीच, उलझ गया उसका घर-संसार । करती दिन भर काम अनेक, रातों को आंसू वो थी बहाती । घर के छोटे भी करते अपमान, वो बिन कुछ बोले सहती जाती। महीने बीते, बीते साल,  पर दुःख में कमी ना आयी। खिलखिलाकर हंसती थी जो अक्सर,  ग्रीष्म के पुष्प सी वो मुरझायी। फिर भी ना माने ये लोभी लोग जरा, ना जाने कितनी आत्मा उसकी दुखायी। शारीरिक मानसिक सब दर्द दिये, कोई भी कसर नहीं बचायी। और आवाज उठती जब दिखी, मायके में संस्कारों की कमी ही बतायी। कहते स्त्री ही स्त्री की दुश्मन, ये कहावत यथार्थ करके दिखायी। जो दुःख दिये थे जीवन में, उसकी भरपाई ना हो पायी। जब इससे भी उससे रिश्ता नि

नई नई है! ©परमानन्द भट्ट

 आँखों में आज उनके रंगत नई नई है सपने नये नये यह चाहत नई नई है पहले मिलन की ख़ुशबू, नस नस मे भर रही जब दीवाना सोचता यह शिद्दत नई नई है दो अज़नबी  मिले फिर हमराह बन गये वो जीवन के रास्ते  में, संगत नई नई है  कैसी कसक है दिल में, कैसा नशा ये छाया इस मयक़शी  की उनको , आदत नई नई है  रक्तिम हुई है आँखे, लब हो गये गुलाबी कुछ जुस्तज़ू नई है हसरत नई नई है  यारी ग़मों  से अपनी, टूटी नहीं है अब तक ख़ुशियों  के संग मेरी, निस्बत नई नई है  उनको 'परम' से मिलकर, कुछ ऐसा लग रहा है जैसे जगी ये उनकी, क़िस्मत  नई नई है   ©परमानन्द भट्ट

ग़ज़ल ©लवी द्विवेदी

बहर बहरे रमल मुसम्मन सालिम फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन  2122 2122 2122 2122  आस मुज़रिम यार हो जब ख़्वाहिशे भी रूठती है,  कोशिशों के दौर में याँ ज़िंदगी भी लूटती है।  हम नही क़ाबिल, हमारी हैसियत क्या आज जानें,  आख़िरी उम्मीद भी होकर अना घर ढूँढती है।  जिक्र है, बे-रब्त है, फिर भी यकीं बेज़ार है क्यों?  रम्ज़ अक्सर रार सहकर बेतहाशा कोसती है।  लुत्फ़ इशरत का फ़रेबी, खैर जाने दो यहाँ से,  हम तकल्लुफ़ क्यूँ उठाए, बेकरारी रोकती है।  आज हम नादाँ नहीं जो बंदिशों को आजमा लें,  फ़िर यहाँ पर कैद हो क्यों आजिजी गम जोहती है।  देख ये राहत, किताबें पढ़ रही जो आब हैं क्या?  इल्म है फिर भी गुमाँ है, जख़्म हैं वो शरबती है।  ©लवी द्विवेदी

ख़्वाबों के दरख़्त ©रेखा खन्ना

 रात ख्वाबों के बीज बोए थे पलकों तले दरख़्त उग आए थे।। फूलों के खिलने से पहले ही सूरज की किरणों ने सारे दख़्त जलाए थे।। स्वप्न, सत्य के धरातल पर कहीं टिक ना पाए थे सत्य के पत्थरों ने स्वप्न सारे चिटकाए थे।। कुछ नुकीले तीर भी जुबां-ए-तरकश से निकल आए थे शूल, दिल में यूं गड़े कि हम मन ही मार आए थे।।  ©रेखा खन्ना

गीत - कल कदाचित मैं रहूंँ या ना रहूंँ! ©अंशुमान मिश्र

 कल  कदाचित  मैं रहूंँ या  ना रहूंँ! चक्षु  में प्रेमाश्रुओं  की  धार जो, बन  रही  तेरा  नवल  श्रृंगार  जो, लाख रुकने के विफल संघर्ष कर, गिर रही फिर भी, तनिक छूकर अधर, आज  बहने  दे इसी में, क्या पता.. कल कदाचित बह सकूंँ, या ना बहूंँ! कल  कदाचित  मैं रहूंँ या ना रहूंँ.. मैं कि  तेरे  बिन  यहांँ एकल रहा, और एकल किस तरह, वंचन सहा! उन सहस्त्रों यातनाओं  की  व्यथा, और  तेरे  बाद  की  मेरी  कथा! आज मुझको बोलने दे, क्या  पता.. कल कदाचित कह सकूंँ, या ना कहूंँ! कल  कदाचित  मैं रहूंँ या  ना रहूंँ.. भाग्य से कंगाल, हूंँ आशा रहित, आज हूंँ एकल, नियति से हूंँ छलित, आज दे दे कष्ट जितना हो सके, दृग युगल ना सो सके, ना रो सके, सह रहा हूंँ आज सब, पर क्या पता, कल कदाचित सह सकूंँ, या ना सहूँ! कल  कदाचित  मैं रहूंँ या  ना रहूंँ.. कल  कदाचित  मैं रहूंँ या  ना रहूंँ!                           - ©अंशुमान मिश्र 

ग़ज़ल ©गुंजित जैन

 मुहब्बत का ग़मगीन अंजाम करके, अधूरी मिरी हर सहर-शाम करके। वफ़ा की हवा अब महकती नहीं है, शज़र जा चुका ख़ल्क़ बेनाम करके। गया छोड़कर यूँ अकेला मुझे वो, मिरे नाम हर एक इल्ज़ाम करके। जहां में कमाई रक़म खूब उसने, मुझे रोज़ महफ़िल में नीलाम करके। तलाशे उसी को ज़माने में गुंजित, मगर नाम अपना यूँ गुमनाम करके। ©गुंजित जैन

गीत-तमन्ना ©संजीव शुक्ला

 कलियों को महक लुटाने दो,भँवरोँ को गुन-गुन गाने दो l झुक के क़दमों में शाखों को, राहों में फूल बिछाने दो l नदिया के तीर बुलाते हैँ,  कल कल आवाज़ लगाते हैँ l चंचल झरनों के संदेशे,  ठंडे झोंके ले आते हैँ l रेशम, चम्पा के पाँव ज़रा,लहरोँ को आज भिगाने दो l इन खिलते चाँद सितारों में,  जगमग फानूस कतारों में l घर रौशन कर पाएँ मेरा,  वो बात कहाँ उजियारों में l चेहरे से हटा दोजुल्फों को,थोड़ा सा उजाला आने दो l ये हुस्न असर करता जाए,  रग-रग में नशा भरता जाए l अंगूरी झीलों का आलम,  बेखुद करता बढ़ता जाए l ढलते सूरज को गेसू में, सोने के रँग भऱ जाने दो l झुक के क़दमों में शाखों को, राहों में फूल बिछाने दो l ©संजीव शुक्ला 'रिक़्त'