स्त्री ©️रिंकी नेगी

 बेटी की शादी की खातिर, 

प्रबंध महंगे करवाये थे। 

शादी होकर सुसराल विदा हो 

अरमान बहुत सजाये थे। 

जितना भी कर सकते वो, 

हर जतन उन्होंने लगाये थे। 

और 

जब विदा होकर गयी बेटी, 

लगा जिम्मेदारी पूरी हो गयी। 

पर यथार्थ कल्पना से परे

ये शादी दुख लेकर आयी।

रूई में सहजी गयी थी जो अबतक,

उसके जीवन में पीडाओं की लहर आयी। 

कुछ समाज के ठेकेदारों के बीच पड़ी

बेहद दुखद उसने घड़ी पायी।

ना मिला पति का स्नेह उसे,

ना मिला कोई सुखी संसार । 

उलाहनों और यातनाओं के बीच,

उलझ गया उसका घर-संसार ।

करती दिन भर काम अनेक,

रातों को आंसू वो थी बहाती ।

घर के छोटे भी करते अपमान,

वो बिन कुछ बोले सहती जाती।

महीने बीते, बीते साल,

 पर दुःख में कमी ना आयी।

खिलखिलाकर हंसती थी जो अक्सर, 

ग्रीष्म के पुष्प सी वो मुरझायी।

फिर भी ना माने ये लोभी लोग जरा,

ना जाने कितनी आत्मा उसकी दुखायी।

शारीरिक मानसिक सब दर्द दिये,

कोई भी कसर नहीं बचायी।

और आवाज उठती जब दिखी,

मायके में संस्कारों की कमी ही बतायी।

कहते स्त्री ही स्त्री की दुश्मन,

ये कहावत यथार्थ करके दिखायी।

जो दुःख दिये थे जीवन में,

उसकी भरपाई ना हो पायी।

जब इससे भी उससे रिश्ता निभाना ना छोड़ा

तो कोई अन्य औरत

उसके पति के जीवन में आयी।

किसी अन्य के जीवन में आने पर,

उस लड़की की हिम्मत टूट गयी।

खुद का जीवन बचाने को,

उसमें अब हिम्मत नहीं रही।

उसने अंततः चुना जीवन को,

और रिश्ते से बाहर जब निकल गयी।

फिर भी ना छोड़ा समाजिक उलहना ने उसको, 

जो चरित्रहनन पर उसके जुटी रही।

पर ये समाज नहीं दे पायेगा सम्मान,

ये बात वो समझ अब गयी।

अब खुद ही लड़ती और संभलती,

पर कोशिश करती करके रहती सुखी।

-©️रिंकी नेगी

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