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शाइरी © रजनी सिंह

  तेरी शहवत से हमें ज़ब बेख़बर रक्खा गया l यानी फिर हर एक शय से मोतबर रक्खा गया l पहले आँखें ज़िस्म-ओ-जाँ को फिर ज़बीन-ए-ख़ास को...  उनके पहलू में हमारा दिल किधर रक्खा गया l उस निग़ाह-ए-नाज़ से याँ तो सभी बेज़ार थे..  दिल यहाँ किसने लगाया दिल मगर रक्खा गया l  कौन सोचे किसने सोचा कौन सोचेगा यहाँ  तुम उधर रक्खे गए हमको इधर रक्खा गया l हम तो उनकी आरज़ू सर आँख पे रखते रहे...  पर वफाओं को हमारी दर-ब-दर रक्खा गया l   जानते हैँ वो न होगी शाइरी उनके बगैर...  इसलिए शाइर हमारा क़ैद कर रक्खा गया l                              ©rajni singh

ग़ज़ल -सीख © आशीष हरीराम नेमा

मौसिकी के हर तरीके आजमाना सीख लो । चाहते हो गर सुकूँ तो गीत गाना सीख लो ।। साथ पाने को किसी का क्यों परेशां हो रहे , यार तुम भी जिंदगी तन्हा बिताना सीख लो ।। चाहिए कुछ भी नहीं बस हाल दिल का जानने ,  सिर्फ दुखती नब्ज़ हौले से दबाना सीख लो ।। दौर आएगा जहाँ से जीत पाने के लिए , दाँव पर रिश्ते लगेंगे हार जाना सीख लो ।। क्या भरोसा कल नयी आफत खड़ी हो दूसरी , आज से ही आदतें अच्छी बनाना सीख लो ।।                     ✍️© आशीष हरीराम नेमा

कौन? ©सौम्या शर्मा

 मेरी जिंदगी की रंगीनियां सबने देखीं हैं! मेरी जिंदगी की गर्दिशें समझ पाया है कौन? लबों ने जो कहा वो सबने सुन लिया लेकिन! मेरी खामोशियों से लफ्ज़ चुन पाया है कौन? तुमने देखीं हैं मुस्कुराहटें खिलखिलाती हुई! कशमकश दिल की मेरे परख पाया है कौन? मेरी खुशियों में शरीक हर वो शख्स लेकिन! मेरे गमों की करने ताकीद यहां आया है कौन? मैं जब पौधा था, मैं तब भी बरगद था यारों! मेरी जड़ों को आज तक हिला पाया है कौन? आईना दिल की हकीकत नहीं दिखाता जनाब! गनीमत है वरना खुद से नजर मिलाया है कौन?                                   ©  सौम्या शर्मा

लेखनी ©गुंजित जैन

क़लम की हर कमाई लेखनी है, शिफ़ा ये है, दवाई लेखनी है। जहां मुझको लगे अब ये कफ़स सा, मिली जो वो रिहाई लेखनी है। ख़यालों में हमेशा ही रहे ये, ज़हन में सिर्फ छाई लेखनी है। अँधेरों में छुपा मेरा जहां है, यहाँ महताब लाई लेखनी है। अधूरा हर्फ़ है गुंजित यहाँ पर, मुक़म्मल सी रुबाई लेखनी है।                   ©गुंजित जैन

ग़ज़ल - तो क्या करें ©रानी श्री

साथ तेरे गुनगुनायें ना अगर,तो क्या करें,  आज हाल-ए-दिल बतायें ना अगर,तो क्या करें । सांस कहती जा रही इस जिस्म को अब अलविदा, रूह अब अपनी जलायें ना अगर,तो क्या करें। इम्तहानों से थके हारे हुए हैं आज हम,  इश्क़ को अब आज़मायें ना अगर,तो क्या करें। है हुआ फ़िर आज कोई ख़ाक परवाना कहीं  उस शमा को भी बुझायें ना अगर,तो क्या करें। खामखां हम हैं परेशां कह रही है ये ज़मीं  आसमां पर हक जमायें ना अगर तो क्या करें। जान ले जाती हमारी हैं अदाएँ हुस्न की, जान तुझपर हम लुटायें ना अगर तो क्या करें। शाम से भी कह दिया है जल्द आने के लिये  देख तुझको मुस्करायें ना अगर,तो क्या करें।   रात भी मेरी तरह ही, आज है इतरा रही, चांद से तुमको छुपायें ना अगर,तो क्या करें। दर्द में लिपटे हुए हैं अश्क ज़ख़्मों को लिये, ज़ख़्म पर मरहम लगायें ना अगर,तो क्या करें । हैं लगे इल्ज़ाम तेरे नाम के हम पर कई, नाम तेरा भी फ़सायें ना अगर,तो क्या करें।  जन्नतें भी नाम कर दे आज 'रानी' के ख़ुदा, फ़िर वहाँ तुझको बुलायें ना अगर,तो क्या करें।                                      ©रानी श्री

ग़ज़ल-अनजान ©संजीव शुक्ला

बहृ - बहरे रमल मुसमन महज़ूफ़ फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन वज़्न - 2122 2122 2122 212 चाँद जो रखता है दिल में हम न वो अरमान हैं l चाँदनी पहचानते हैं पर........ न हम नादान हैं ll हैं चुभे रग-रग में नश्तर.... पारा-पारा है अना....  आपको दिखते हैं जो हम वो न पत्थर जान हैं ll हो चुकीं सदियाँ कभी जो ख़ाक जलकर हो चुका..  इक शरारा रह गया है........... हम नही बेजान हैं ll हमसफ़र अब रास कोई भी हमे आता नहीं....  साथ हमराही हमारे....... राह के तूफ़ान हैं ll मर चुके कब के मगर ये बात मानें तब न हम.. ख्वाहिशें जिन्दा रहीं... चढ़ती गयीं परवान हैं ll छोड़ आये हम न जाने कितने रंगों के महल... खल्वतों में आशियाँ तो  है...मगर वीरान है ll नाम की ख्वाहिश कोई बाक़ी नही है "रिक्त"अब....  चंद लोगों से हमारी......... मुख़्तसर पहचान है ll                      ©संजीव शुक्ला 'रिक्त'

जिंदगी के रंग © सम्प्रीति

 कभी-कभी जी भर कर हँसने का दिल करता है, और कभी-कभी बेवजह ही आँसूओं में डूब जाने का दिल करता है, कभी-कभी दिल कहता है कि क्या करना है जी कर छोड़ इस मतलबी सी दुनिया को मर जाते हैं सुकून से, पर कभी-कभी एक पल में सदियों जीने का दिल करता है, दिल टूटने से डर बहुत लगता है, पर कभी-कभी दिल कहता है कि छोड़ ये फिजूल बातें महोब्बत का जज़्बा एक दफा महसूस तो कर, कभी-कभी हर रिश्ता मतलबी सा लगता है, और कभी-कभी सारी परेशानियों का हल उन्हीं के साथ से मिलता है, कभी-कभी जिंदगी नीरस, फीकी सी लगती है, और कभी-कभी इतनी प्यारी की मधुमेह सा महसूस कराती है, इस हँसने, रोने, प्यार, नफरत अकेलापन और रिश्तेदारों की भीड़ सबको अपनाने का दिल करता है, इस हसीन कभी नीरस तो कभी प्यारी सी जिंदगी को दिल खोल कर जीने का दिल करता है।                                    - © सम्प्रीति

नजर नहीं नजरिया बदले © नवल किशोर सिंह

 मापनी-2122 2122 2122 212 #नजर नहीं नजरिया बदले जोश भर दे जिंदगी में एक जरिया चाहिए। देखना है हाल जग का तो नजरिया चाहिए। है नजर वाले बहुत कुछ ऐनकों के साथ भी, दीद दुल्हन के लिए हटनी झँपरिया चाहिए। चाँद तो निकला गगन में रात लेकर चाँदनी, चाँद का पर भान करने को अँधरिया चाहिए। रेत में भी डूब जाते आँख में बसते सपन, फिर तसल्ली में बहाता धार दरिया चाहिए। पात सारे झड़ चुके हैं शाख भी मुरझा रही, आजमाने छाँह को फिर दोपहरिया चाहिए। (झँपरिया- डोली का ओहार) -© नवल किशोर सिंह

बेटी दिल का एक कोना © माधुरी मिश्रा

 इतना आसान कहाँ इस दुनिया में तनया होना, बारहा रिक्त रह जाए बेटी दिल का एक कोना! कभी रिश्तों की ओट में तो कभी समाज के नाम, ख़्वाहिशों को ताक पर टाँग दें हर बेटी अभिराम। आसान कहाँ है यारों बेटी-सा त्याग कर पाना, परिणय सुत्र में बंधकर पीहर से विदा हो जाना! सच होने से पहले ही सपने को हृदय में सुलाना, स्पर्श नहीं कर पाए कोई बेटी दिल का वह कोना। प्रेम, स्नेह के संग-संग नित नई नसीहत ओढ़, कितनी बार बढ़े बेटी दोराहे निज इच्छा छोड़।  अपनों की ख़ातिर स्वाधिकारों को अर्पण करना, बिन तिल और चावल ही बेटी का तर्पण करना। आँखों से बहता उसके तपकर पिघलता सोना, बंद तिजोरी-सा रहता बेटी दिल का एक कोना।                                ©  श्रीमती माधुरी मिश्रा 'मधु' 

आदमी ©विपिन बहार

 गजल वज्न-(2122,2122,2122,212) कर्म कैसे कर दिए हैं आँकता हैं आदमी । आज घर मे छुप-छुपाकर झाँकता हैं आदमी ।। रोजगारी का दिवाला अब निकलता ही गया । मोर बनकर देहरी पर नाचता हैं आदमी ।। पाप सारे अब यही पर भर विदा होंना सुनों । खुद हकीकत से अभी भी भागता हैं आदमी ।। दौर ऐसा आजतक ना ही कभी देखा गया । डर रहे हैं देख अब- जब खाँसता हैं आदमी ।। मौन होकर सब तमाशा देखते हैं आज तो । मौत से जब हर घड़ी वो काँपता हैं आदमी ।। रोग ने तो संग साथी दूर देखो कर दिया । दूर से ही अब कफ़न तो नापता हैं आदमी ।।                         ©विपिन"बहार"

विरह ©अभी मिश्रा

  बेरंग   थीं   उस   रोज़    फिज़ाएं,  उस  रोज़  सुहानी  शाम  ना   थी l एक    लम्हा    ऐसा    ना    बीता,  जिस पल को घड़ी बदनाम ना थी l वो   पास   था   मेरे   इस   लम्हे, अगले   लम्हे    में     ना    होता l ऐसे    हालातों      में     आख़िर, मैं  करता  क्या   जो   ना   रोता। उस  रोज़  को   मैंने   सजदे   में, बरसों  तक  रब   से   माँगा   था l एक  चेहरे   की    तस्वीरों    को, दिल - ओ - दीवार  पे  टांगा  था। तब  वक्त  जो   दौड़ा  जाता   था, तुझ बिन  अब   जैसे   ठहरा   है l मदमस्त  हुआ  सा   फिरता   था, उस  वक्त  पर  जैसे    पहरा   है। उस  रोज़  को   कहता   मैं   तुमसे, अपने  इस दिल  का   हाल,  मगर l मैं   दोहरा   दूंगा   फ़िर   वो    पल, हम फ़िर जो मिले इस साल  अगर।                  ©अभी मिश्रा

ग़ज़ल - बारिशें ©गुंजित जैन

हवाओं में समाएं बारिशें ये, जहां को हैं सजाएं बारिशें ये। यहाँ पर जिस्म तो हर भीग जाते, मिरे दिल को भिगाएं बारिशें ये। कहीं पर ढूंढता इनमें तुम्हें मैं, तुम्हारी याद लाएं बारिशें ये। दिखे इनमें तुम्हारा अक़्स मुझको, मुझे अक्सर सताएं बारिशें ये। चमकती है यहाँ हर बूँद गुंजित, मुसलसल मुस्कराएं बारिशें ये।                     ©गुंजित जैन

जीवन के रंग ©सरोज गुप्ता

 विस्तृत नीले दूर क्षितिज पे बादल को घिरते देखी हूँ...  स्वच्छ शुभ्र उज्जवल पर्वत पर बूंदों में परिवर्तित होकर प्रिय को अपने आलिंगित कर प्रीता को झरते देखी हूँ....  बादल को घिरते देखी हूँ....  ऋतु बसंत का सुप्रभात वो रवि की शीतलता का भास जो मंद पवन मुस्का कर आया उपवन की कलियों को जगाया छुअन प्रेम से फिर अपने वो आलिंगन से पुष्प खिलाया सकुचाई सी सुरभित होकर प्रीत भाव से पल्वित कोंपल मंजरी को खिलते देखी हूँ... बादल को घिरते देखी हूँ....  नव यौवन से भरी रूपसी चाल से जिसके उठे हूंँक सी रूपराशि छलकाते ऐसे धन कुबेर भी माटी लागे मटमैली वो पुष्प कमल सी जैसे पावन गंगा जल सी चंचल चितवन मृगनयनी वो निज सुंगध से अंजानी को कस्तूरी फिरते देखी हूँ...  बादल को घिरते देखी हूँ...  ठंड की हाड़ कंपाती रातें गीली सीली सी बरसातें उमस भरी दुपहरी जेठ की रोज कमा रोटी वो पेट की सांझ ढले जब  घर  को आए बच्चों के चेहरे खिल जाए अर्धांगिनी दे लोटा पानी दिन प्रतिदिन की यही कहानी शाश्वत प्रेम झोपड़ी में भी सूखी रोटी चटनी में भी प्रेम को यूँ जीते देखी हूँ...  बादल को घिरते देखी हूँ....          @सरोज गुप्ता

ग़ज़ल-ज़िंदगानी ©प्रशान्त

बहृ - बहरे रमल मुसम्मन महज़ूफ़ फ़ाइलातुन  फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन वज़्न -2122 2122 2122 212 मंज़िलों तक रास्तों की आगवानी चाहिये  | किस्मतों को मेहनतों की इम्तिहानी चाहिये  || ज़ाम पीकर रिंद बोले ज़िन्दगी क्या खूब है...  होश में आए तो चीखे मौत आनी चाहिये  || खो गया सबका बुढ़ापा याद कर क्यूँ बचपना...  मौत के पहले जरा सी जिन्दगानी चाहिये  || दो पहर की भूख सारे दिन को कच्चा खा गयी...  शाम होते आदमी को रात-रानी चाहिये || ज़िन्दगी  जब हादसों का दम-ब-दम तूफान हो...  ताकतें तब क़श्तियों की आज़मानी चाहिये  || अश्क़ तेरे दर्द पर कोई बहाये क्यूँ 'ग़ज़ल'......  आदमी को कहकहे, किस्से, कहानी चाहिये ||                                    ©प्रशान्त 'ग़ज़ल'

छंद - लेखनी की गर्जना ©प्रशान्त

 हर्ष हो या वेदना हो , वन्दना, आलोचना हो l कामना है सर्वव्यापी , लेखनी की गर्जना हो ll लालसा औचित्य की हो, रौशनी आदित्य की हो l हो यही उद्देश्य पूजा , साधना साहित्य की हो ll सूक्ष्मदर्शी भावनायें , दूरदर्शी चेतना हो ll कामना है सर्वव्यापी , लेखनी की गर्जना हो ll लेखनी ऊर्जा जगाए, छन्द लिक्खे, गीत गाए l लेख , किस्से या कहानी, भावना के संग आए ll लेखनी के साथ सोना, लेखनी ले जागना हो ll कामना है सर्वव्यापी , लेखनी की गर्जना हो ll हास्य का श्रंगार भाता , क्रोध सारा शांत पाता l वीरता, वात्सल्य में भी लेखनी से तेज आता ll भिन्नता में एकता की , पारदर्शी लोचना हो ll कामना है सर्वव्यापी , लेखनी की गर्जना हो ll डूबता संसार सारा, लेखनी ही है सहारा l हौसलें हों लौह रूपी, पास आता है किनारा ll ईश की ऐसी कृपा हो, पूर्ण सारी कामना हो ll कामना है सर्वव्यापी , लेखनी की गर्जना हो ll                                         ©प्रशान्त 'ग़ज़ल

पत्थर © रमन यादव

 दिए प्रीत के दो दिलों में, लहू तेल से जलते हों, पर प्रेम के संबंध सारे, सकल जगत को खलते हों, लोक-दिखावा, झूठी इज्जत,  बीज विरह के बोता है, बर्बादी ये देख देख कर, इंसाँ पत्थर होता है। पुत्री के मन चाहे को, जाति पर धुत्कार कर, जाति धर्म की व्यवस्था में, पिता समाज से हार कर, अजनबी संग प्रिय सुता का, मिथ्या संबंध जोता है, बर्बादी ये देख देख कर, इंसाँ पत्थर होता है। मेहंदी बेटी के हाथों पर, प्रीत जला रंगवाई हो, दहेज असुर ने फिर बेटी, जीते जी जलाई हो, पिता अदालत के दर पर, बेसुध हो कर रोता है, बर्बादी ये देख देख कर, इंसाँ पत्थर होता है।                 © रमन यादव

आल्हा छन्द ©अनिता सुधीर

 तिथि तृतीय बैशाख मास की, पक्ष उजाला शुभ दिन मान। हरि लक्ष्मी पूजन फलदायी,विधि विधान से करिये दान।। पावन मनभावन शुभ दिन है, अक्षय तृतीय का त्योहार। जन्मोत्सव भृगुनन्दन का है,अक्षत हो जग घर परिवार।। त्रेता युग में ऋषि घर जन्में, पीताम्बर के छठ अवतार। परशुराम हर युग में आए ,करने मानव का उद्धार। ब्राह्मण कुल में जन्म लिए थे,कर्म किये क्षत्रिय अनुसार। अस्त्र परशु शंकर का रख कर,करते दुष्टों का संहार।। शास्त्र निपुण थे राम अनंतर,पाए अक्षय का वरदान। भार्गव कुल के आज्ञाकारी, कहलाये ऋषि मुनि भगवान।। रक्त शिराओं में धधका था,करने अन्यायी का नाश। वैदिक संस्कृति चारो दिश हो,फैले भू पर ज्ञान प्रकाश।। सत्य सनातन के थे रक्षक,कब सहते थे वो अपमान। ध्वज वाहक बन आरम्भ किया,नारी जागृति का अभियान।। त्रेता द्वापर हर युग में थे,अब कलयुग में लें अवतार। शास्त्र ज्ञान जन जन को दें अब,जग का मिट जाए अँधियार।।                                          ©अनिता सुधीर आख्या

मुबारक, ईद,आखा तीज! ©परमानन्द भट्ट

 ईद मुबारक, तीज मुबारक  हर मन भावन दीद मुबारक आँखों में आशा के मोती जीवन में उम्मीद मुबारक पूरे हो मन के सब सपने मन चाही हर चीज मुबारक कोरोना के क्रूर समय में शासन की ताकीद मुबारक  मानवता को सद्भावों का चिर अक्षय यह बीज मुबारक                           ©परमानन्द भट्ट

ग़ज़ल - नज़र ©संजीव शुक्ला

 बहृ - बहरे रमल मुसम्मन मख़बून महज़ूफ़ फ़ाइलातुन फ़यलातुन फ़यलातुन फ़ेलुन वज़्न - 2122 1122 1122 22 आखिरी शेर नज़र कर के... चला जाऊँगा l पेश कुछ और हुनर कर के चला जाऊँगा ll महफ़िलें,बज़्म ये सजती रहेंगी रोज़ाना....  मैं कतारों से कगर कर के चला जाऊँगा ll जाग कर रात  गुज़ारी हैं  खुली आँखों में....  नींद में सख्त ज़िगर कर के चला जाऊँगा ll दर-ब-दर राह में भटका हुँ...थका हूँ बेहद......  ख़ाक हूँ सिर्फ बिखर कर के चला जाऊँगा ll खोज लेना मुझे अश'आर में जब भी चाहो.....  हर्फ़-दर-हर्फ़ बसर कर के... चला जाऊँगा ll जब कभी बज़्म सजे याद....मुझे कर लेना.....  बस दुआओं में असर कर के चला जाऊँगा ll हो चुके अश्क़ फ़ना चश्म से बादल बन कर......  फ़िर निगाहों  को बहर कर के चला जाऊँगा ll                                         ©संजीव शुक्ला 'रिक्त'

प्रेम ©रमन यादव

प्रेम   में   जान   न   दे  जान  लगा  जीने   में, छोड़   परहेज   सभी    प्रेम    सुरा   पीने   में, रूठ   महबूब  अगर  आज   जरा   भी   जाए, कल  नहीं  आज   मना  और  बसा  सीने  में। प्यार  का  नाम  न  लें  प्यार  अगर  झूठा  हो, प्यार  का  नाम  अगर  प्यार  ने'  ही  लूटा  हो, वो सनम ख़ाक सनम हाथ से' जिसके पल में, हाथ  माशूक  का'  बिन बात  झगड़ छूटा  हो। जानते  प्रेम  की  क्यों  आज   बुरी  हालत  है, प्रेम अब स्वार्थ जनित  जो की बुरी आफत है, काम की चाह को  जब  नाम दिया चाहत का, धारणा  प्रेम  की'  यह  प्रेम  ही'  पर लानत है। इश्क़  क्या  इश्क़  भला इश्क़ अकेला तन का हाल   बेहाल  न   हो  इश्क़   में'  डूबे  मन का, तन  ज़रा आज  नहीं  होगा' अगर,   हो  कल, बिन तड़प मन में' उठे इश्क़ दृश्य हो  वन  का। प्रेम   कमजोर   न   हो   साल  महीने  भर  में, साथ मजबूत लगे  नित, न  विरह  के   डर  में, जब  लगे  दूर  चला  साथ  मिरा  हर  पल  का, थाम  लो  हाथ  सदा  प्यार  से' अपने  कर  में।                                             ©  रमन यादव

ईश्वर से जिसका नाता है ©रजनीश सोनी

 ईश्वर से  जिसका  नाता  है ******(गीत)  दाना पानी  लिखा जहाँ का, लिखा जहाँ का  दाना पानी,  भाग्य  हमें  लेकर  आता  है. लिखा योग है जहाँ मृत्यु का,  जहाँ मृत्यु का योग लिखा है,  काल खींचकर  ले आता  है. जोर किसी का  नहीं चलेगा,  नहीं चलेगा  जोर किसी का,  नाहक  बन्दे  भय  खाता  है. ईश्वर  से  जिसका  नाता  है,  नाता  है  जिसका  ईश्वर  से,  कभी  नहीं  वह  घबराता है. माया ठगिनी   मन को  मोहे,  मन  को  मोहे  माया ठगिनी,  आखिर अंत   ठगा  जाता है. झंझावातों   से    जीवन  के,  जीवन   के    झंझावातों  से,  प्राणी  क्योंकर   घबराता  है. लेखा जोखा  हानि लाभ का,  हानि लाभ का  लेखा जोखा,  सब कुछ छोड़ यहीं, जाता है.                    @रजनीश

लालच ©शैव्या मिश्रा

 "रात के दो बजे कौन फोन कर रहा, श्यामली ने गुस्से से बड़ बड़ाते हुए अपने मोबाइल की स्क्रीन पे देखा, " "मृणालिनी दी", तमाम आशंकाओं से उसका दिल तेज़ी से धड़क उठा, पता नही क्या बात हो..  फोन कट चुका था, श्यामली ने भगवान को याद करते हुए फोन मिलाया.  " हैलो, श्यामली सो गयी थी क्या? " "और रात को तीन बजे क्या करूँगी दी, " श्यामली ने संयत स्वर मे कहा, दी की आवाज़ से उसे लगा नहीं कोई अनहोनी हुई हो. "सॉरी श्यामली, अभी तक मुझे अमेरिका और इंडिया के टाइम का अंतर याद नहीं रहता, पर बात ही कुछ ऐसी है कि मुझे तुझे फोन करना ही पड़ा, सुन तुझे माया आंटी याद हैं? " "माया आंटी, हाँ उन्हे हम कैसे भूल सकते हैं, क्या हुआ उन्हे? " मैंने पूछा. श्यामली माया आंटी की तबियत काफी खराब है, शायद बस एक या दो दिन की मेहमान हैं, तुझे याद कर रही." दी ने रुक रुक कर कहा. "मुझे क्यों याद कर रहीं इतने सालों बाद, उनका मुझसे क्या लेना दी? "मैंने थोड़ा हैरान होते हुए कहा. " श्यामली, तुझे याद नहीं बचपन वो तुझे कितना चाहती थी? और माँ के मना करने पर भी,

माता ©नवल किशोर सिंह

 माता की अस्थियाँ हाथ में, मन के प्रश्न साथ में। इसे कहाँ विसर्जित करूँ? कैसे विसर्जित करूँ? और क्यों विसर्जित करूँ? क्या ये गंगा में बह जाएगी? किन्तु,वो अस्थियाँ जो माता ने हमें दी है, वो तो यहीं रह जाएगी। हमारे शरीर में, यह भस्म-भूत नहीं, एक चेतन है। मातृ-अंश-कण है। मरती है क्या माता? महज राख क्षार बहने से। नहीं,माता कभी मरती नहीं, लोगों के कहने से। सत्ता अदृश्य में लीन हुई। या,परम पद आसीन हुई। अरे,माता,जीवन का पर्याय। सृष्टि का सबल अभिप्राय। पालन,पोषण औ जीवन-दान। जग में यहीं कहीं विद्यमान। हम में,तुम में,सब में सदैव रहेगी विराजमान। माता,सार्वकालिक है,अनश्वर है । माता, अपर रूप ईश्वर है।              -©नवल किशोर सिंह

ग़ज़ल ©सुचिता

कोई तस्वीर हर्फ़ों में उभरती है । महक फूलों की पन्नो में उतरती है । चमकते हैं कई जुगनू इन आँखो में.. शबे-ग़म यूँ ही  अश्क़ो से सँवरती है | उतरता है ज़मीं पर अक्स जब मह का .. नमी पलकों की कोई ख़्वाब बुनती है | मुसलसल रूठ जाना हो शग़ल जिनका .. वो क्या जाने दिलों पे क्या गुजरती है | कोई ख़ामोश है कुछ इस तरह लोगो .. पहेली और भी दिल की उलझती है | तुझी को ढूँढते हैं तुझ में गुम होकर .. शमा हर पल यूँ सुब्हो -शाम जलती है | कोई सदियों का बाबस्ता था तुझसे..जो.. मेरी  राहें  तेरे  दर  से  गुजरती  हैं   ।                                  ©सुचिता वर्धन 'सूचि'

गजल ©अनिता सुधीर

 काफिया    ऐ रदीफ़       भी  खूब थे  रतजगे वो इश्क़ के भी खूब थे  दिलजलों के अनकहे भी खूब थे ख़्वाब पलकों पर सजाते जो रहे इश्क़ तेरे फ़लसफ़े भी खूब थे  अश्क आँखो से बहे थे उन दिनों अब्र क्यों तब बरसते भी खूब थे  कब तलक हम साथ यों रहते यहाँ दरमियाँ ये फासले भी खूब थे । जी रहे तन्हाई में हम क्यों यहाँ आप के तो कहकहे भी खूब थे                  @अनिता सुधीर आख्या

मुहब्बत ©दीप्ति सिंह

 आपसे जबसे मुहब्बत हो गई । देखिये क्या दिल की हालत हो गई ।। चैन दिल का हो गया है गुमशुदा .. और राहत दिल से रुख़सत हो गई ।। इस क़दर है आपने जादू किया .. हर तरफ आबाद जन्नत हो गई ।। अब नज़र में आपका ही नूर है .. आपकी जबसे इनायत हो गई ।। दिल मुहब्बत के नशे में चूर है .. आपने चाहा ये किस्मत हो गई ।। रश्क़ हमसे चाँद को होने लगा .. चाँदनी को भी शिकायत हो गई ।। आप की नज़रों से खुद को देख के .. ये 'दिया' भी खूबसूरत हो गई ।।                                @दीप्ति सिंह "दीया"

अवसाद ! ©मानवेन्द्र सिंह

क्या है अवसाद,  मन की पीड़ा,  या फिर,  कुछ मन का न हो पाने की तड़प,  क्या है अवसाद,  ज्ञान का अभाव,  या जल्द हार मान लेने की समस्या,  क्या है अवसाद,  हर काम को चुटकियों में सफल बनाने की ललक,  या फिर,  मैं ही श्रेष्ठ का दम्भ,  हार को स्वीकार न कर पाना,  क्या ये है अवसाद,  अवसाद मन की कोई वेदना है, या  शारीरिक हार्मोन का कोई खेल जिसे इंसान समझ नही पाता, और उलझ जाता है एक गहरे भँवर में  उसी में ही फँस जाता है,जैसे कोई मकड़ी जालबुन कर,अपने शिकार को मार देती है।। जरूरत है आपको संवाद की,  अंतरात्मा से वाद विवाद की,  एक हार से विचलित न होने की,  अध्यात्म से आत्मसात होने की,  अवसाद स्वयं से दर्शन का साधन है, जरूरत है जीवन का,  अकेले में रहकर,  स्वयं को सम्पूर्ण करने का,  अवसाद में ही तो भाव प्रकट होते है,  इंसान सबकुछ पन्नो पर उगल कर,  मन की पीड़ा को शांत कर लेता है,  और एक नए खोज में निकल कर,   अपने को पुनर्जीवित कर लेता है।।                      ©मानवेन्द्र सिंह

जिंदगी का नशा ©रेखा खन्ना

 जिंदगी को जीने का नशा हवाओं में घुलते ज़हर पर  भारी पड़ गया मरते मरते भी देखो मैं कैसे जी गया। हर आती जाती धीमी सांस पर मेरा हौसला बुलंद हो उठा ना मन हारने दिया  ना मन को थकने ही दिया हर जाती सांस को वापस लौटने पर मजबूर कर  देखो मैं कैसे जी गया। जिस्म हार मान कर  थकता जब भी दिखा जिस्म को झिंझोड़कर उठने को सख्ती से कह दिया मरता क्या ना करता धीरे धीरे ही सही पर  जिस्म में एक तरंग भरता गया। माना अभी नाज़ुक है  सांसों की डोर ज़रा पर मैं भी ठान कर बैठा हूँ इसे फिर सामान्य कर मैं फिर से जी जाऊंँगा। वक्त मुझ पर जब भी हंँसता हुआ दिखता है मैं जोर से सांँसें भर  सीना फुलाकर उसे हताश कर देता हूंँ फिर मैं अपनी  जहरीली मुस्कान से वक्त का हौंसला पस्त  कर अपनी जीत  का जश्न मनाता हूँ। हवाओं के जहर को मैं अपनी जहरीली मुस्कान से नित दिन मात दे रहा हूंँ जहर को जहर ही काटेगा ये सोच कर मैं  कुछ सांसें और जी गया।                @ दिल के एहसास। रेखा खन्ना

शहरों के सहारे ©परमानन्द भट्ट

 धुंध और कोहरे की चादर ओढ़े दिन भर दौड़ते,भागते, हांफते मेरे शहर,  पल भर को थम, थोड़ा ठहर और देख जलते हुए टायरों से निकलते काले धुंँए व आग में हाथ पैर तपाते उन थके थके मुरझाये चेहरों को जो तुम्हारी सड़कों की कालिमा दिन भर चेहरे पर लगाए सूरज निकलने से पहले जाग जाते हैं और तेरे सभ्रांत शहरियों के घरों में दूध, ब्रेड, सब्जी और अखबार  पहुँचाते हैं धुँए, धुंध और ठंड से बेपरवाह चाय की थडी़ लगाते, टेम्पो और रिक्शा चलाते समय पर तेरे बाशिंदों को बस स्टैंड व बच्चों को स्कूल पहुँचाते हैं यह अलग बात है कि इनके बच्चों के हाथों में बैग नहीं कंधों पर बडे़ थैले  होते हैं और दिन भर सूरज की तरह गलियों में डोलते फिरते ये नौनिहाल अपने थैलों में शहर की रद्दी ढोते हैं इनकी बहू बेटियाँ मुँह अँधेरे चली जाती हैं उन घरों की ओर जहाँ नर्म रजाई में दुबके साहब और मेम साहिबा इनके आने की बाट देखते हैं और चाय और अखबार मिलने पर "उफ्फ बड़ी ठंड है" कहते हुए रजाई दूर फेंकते हैं तुम्हारे पास है सुन्दर अतीत चमचमाता वर्तमान तथा सपनीला भविष्य पर इनके पास सिर्फ आज है थके थके अतीत में लिपटा साँसों का साज है यह अलग बात

मजदूर दिवस ©रजनीश सोनी

 श्रमिक खडा़ क्या सोच रहा है? मन को तू क्यों कोस रहा है? तेरी ही मेहनत का प्रतिफल, यह रौशन संसार, तेरे श्रम पर सब कुछ निर्भर, तू सबका आधार। तूने मंदिर,भवन बनाये, ताज महल औ' शहर बसाये, सड़क तुम्हारी मेहनत का फल, दौडे़ सर सर कार। तेरे श्रम पर सब कुछ निर्भर, तू सबका आधार। नहर बाँध और ये बिजलीघर, आयुध निर्माणी,पुतलीघर, यह इस्पात कारखाना भी मेहनत की ही बलिवेदी पर। तेरे श्रम की ही पटरी पर, रेल की यह रफ्तार। तेरे श्रम पर सब कुछ निर्भर, तू सब का आधार। तेरे हाथ न रुकने वाले, श्रृजन निरंतर करने वाले, वायुयान जलयान बनाये। भूतल क्या भूगर्भ भेदकर, खनिज,कोयला लाने वाले। तेरे श्रम पर ही आधारित , कोयला   कारोबार। तेरे श्रम पर सब कुछ निर्भर, तू सबका आधार। उथल पुथल धरती पर कितने- हुए युगों से कौन ये जाने। लेकिन हर युग का होता है, श्रमिक ही श्रृजनहार। तेरे श्रम पर सब कुछ निर्भर, तू सब का आधार। तेरे श्रम के शंखनाद से, हो जाते उद्योग स्थापित। तेरे श्रम के हूँकार से, हो जाते पर्वत विस्थापित। तू चाहे तो अपने श्रम से, बदले,  नदी की धार। श्रमिक तुम्हारा श्रम ही तो है, रचना का आधार। तेरे श्रम पर सब कुछ निर्