शहरों के सहारे ©परमानन्द भट्ट

 धुंध और कोहरे की चादर ओढ़े

दिन भर दौड़ते,भागते, हांफते

मेरे शहर, 

पल भर को थम, थोड़ा ठहर

और देख जलते हुए टायरों से

निकलते काले धुंँए व आग में

हाथ पैर तपाते उन थके थके

मुरझाये चेहरों को

जो तुम्हारी सड़कों की कालिमा

दिन भर चेहरे पर लगाए

सूरज निकलने से पहले जाग जाते हैं

और तेरे सभ्रांत शहरियों के घरों में

दूध, ब्रेड, सब्जी और अखबार पहुँचाते हैं

धुँए, धुंध और ठंड से बेपरवाह

चाय की थडी़ लगाते, टेम्पो और

रिक्शा चलाते समय पर तेरे

बाशिंदों को बस स्टैंड व बच्चों को

स्कूल पहुँचाते हैं

यह अलग बात है कि इनके बच्चों के

हाथों में बैग नहीं कंधों पर बडे़ थैले होते हैं

और दिन भर सूरज की तरह गलियों

में डोलते फिरते ये नौनिहाल

अपने थैलों में शहर की रद्दी ढोते हैं

इनकी बहू बेटियाँ मुँह अँधेरे

चली जाती हैं उन घरों की ओर

जहाँ नर्म रजाई में दुबके साहब

और मेम साहिबा

इनके आने की बाट देखते हैं

और चाय और अखबार मिलने पर

"उफ्फ बड़ी ठंड है" कहते हुए

रजाई दूर फेंकते हैं

तुम्हारे पास है सुन्दर अतीत

चमचमाता वर्तमान

तथा सपनीला भविष्य

पर इनके पास सिर्फ आज है

थके थके अतीत में लिपटा

साँसों का साज है

यह अलग बात है मेरे शहर

कि तुम्हारा आज और कल

इन्हीं पर निर्भर है

और इनके बगैर तुम्हारी खुशहाल

जिंदगी की कल्पना भी

अत्यंत दुष्कर है।

                 @परमानन्द भट्ट

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