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ग़ज़ल - चाहत ©प्रशान्त

ख़ुदा से दूर जाना चाहता हूँ । ख़ुदाई आज़माना चाहता हूँ । नई दुनिया बसाना चाहता हूँ । मगर इंसाँ पुराना चाहता हूँ  । चरागों को जलाकर एक दिन मैं, हवाओं में उड़ाना चाहता हूँ । खिलौनों की तरह दिल तोड़ते हो,  ये लो, मैं दिल लगाना चाहता हूँ । सितारों को हटाकर आसमाँ से, वहाँ जुगनूँ बिछाना चाहता हूँ । फ़लक के चाँद-तारों को बुलाकर, उन्हें सूरज दिखाना चाहता हूँ । मुझे अच्छी ग़ज़ल कहनी न आई, ‘ग़ज़ल’ अपनी सुनाना चाहता हूँ । ~ ©प्रशान्त ‘ग़ज़ल’

बिखरे पत्ते ©गुंजित जैन

 शाम का वक्त था, और अक्टूबर का महीना। अक्टूबर से ही अंदाज़ा लग गया होगा कि मौसम पतझड़ का था।  मैं, वहाँ बाग़ में बैठा था, एक बड़े पेड़ की छाँव के नीचे लगी पत्थर की बेंच पर। धीरे-धीरे उस पेड़ के पत्ते गिरकर बिखर रहे थे। कुछ मेरे बालों में उलझे पड़े थे, कुछ बेंच पर गिरे थे, और वो रास्ता तो अपना रंग बदलकर पीला रंग धारण कर ही चुका था। खैर! मैं तो अपने अलग ख़यालों में खोया हुआ था। अचानक ख़यालों के बीच दस्तक देते हुए किसी की आवाज़ आई "सुनो!"। उस पतझड़ के सन्नाटे में, आवाज़ करते सूखे पत्तों के शोर के बीच से, किसी तीर की तरह उन आवाज़ों को छेद कर आगे बढ़ती मेरे कानों तक वो आवाज़ पहुंची। मैं पीछे मुड़ा। लग तो रहा था कि अब भी ख़यालों में हूँ, मगर ख़यालों से निकलकर वो शख़्सियत मेरे सामने खड़ी थी। "क्या हम यहाँ बैठ जाएँ?" वो धीमी-सी आवाज़ में बोली। वो आवाज़ मीठी तो हमेशा से ही थी, धीमे स्वर में और भी मीठी होकर मुझ तक आ रही थी। "हाँ, हाँ ज़रूर" मैं बेंच के बीचों-बीच बैठा था, मगर ये सुनते ही दाहिनी तरफ सरककर बैठ गया। वो बाएं तरफ बैठी। "कैसे हो?" वो उसी धीमे स्वर को बरक़रार रखते हुए, अ

कहानी- "जाने कहाँ मेरा जिगर गया जी" ©शैव्या मिश्रा

नमन, माँ शारदे नमन, लेखनी "जाने कहाँ मेरा जिगर गया जी, अभी तो यहीं था किधर गया जी" निशा ने अपने अलिंगन में बंधे अविनाश के कान में गुनगुनाया। अविनाश ने धीरे से उसके माथे को चूम लिया।  “अवु आज गाना पूरा नहीं करोगे क्या?“ अचानक अविनाश को ख़ुद से अलग करते हूए निशा ने गहरी आवाज़ में पूछा?   "किसी की आदाओं पे मर गया जी, बड़ी बड़ी अंखियों से डर गया जी।" निशा ने हँसते हुए कहा तो अविनाश अचकचा-सा गया। उसने जब निशा को देखा तो उसकी चीख निकल गई और भागते हुए कमरे से बाहर आया, पीछे से उसके कानों में निशा के हँसने की डरावनी आवाज़ आती रही। कमरे से बाहर आकर भी वो चीखा, "ऐसा नहीं हो सकता, ऐसा नहीं हो सकता!" उसकी आवाज़ सुन कर उसके घर वाले भी दौड़कर बाहर आ गये!  शादी का घर था। घर रिश्तादारों से भरा पड़ा था, आज ही निशा और अविनाश की शादी हुई थी। कुछ देर पहले ही विवाहोपरान्त होने वाली सारी रस्में निपटा कर दुल्हन को कमरे में बिठाया गया था। अविनाश भी आज के लिए अति उत्साहित था! हो भी क्यों ना, निशा बिलकुल परियों के जैसी ख़ूबसूरत थी, उसका दूध में केसर-सा घुला गोरा रंग, बड़ी-बड़ी काली

कविता - साक्ष्य ©लवी द्विवेदी

नमन, माँ शारदे  नमन, लेखनी  दीप्ति निष्ठा सँग प्रवाहित हो रही सत्यार्थ पथ पर,  मौन तज कर प्रज्ज्वलित क्या हो सकेगी गीतिका भी।  आज से आरम्भ हो या अंत अविरल अर्घ का हो,  नित्य नूतन की पिपासा क्या सहेगी? वीथिका भी।  सेतु स्वर्णिम जो हुआ था राम युग में पत्थरों से,  क्या वही सागर सहेगा युग पुनः दृढ़ मेरु पथ को।  सर्व सुरभित सत्य सरिता शब्द के आवागमन में,  क्या महाभारत की गीता दे सकेगी लक्ष्य रथ को।  और क्या होगा प्रवाहित फिर रुधिर उर धमनियों में,  क्या पिपासा विरहिणी अब शांत होगी क्षण वलय में।  शोर खग का क्या पुनः, अम्बर विभा में लीन होगा?  क्या अतिथि सत्कार होगा ?या कसक होगी निलय में।  भूप क्या संघर्ष को ही चेतना का सार देगा,  या निरंकुश हो रहे सनमार्ग को साहस मिलेगा।  क्या शिथिलता सारगर्भित प्रष्ठ पर हँसकर मिलेगी,  क्या प्रशंसा शब्द धारक रोष आशंकित तजेगा।  सर्व बाधित भावनाओं का पुनः पाषाण बनकर,  दृढ़ नियति ने तुंग पथ को सारगर्भित कर दिया है।  हो भले जनहित में शासक संशयों की दीर्घा में,  आज भी गीता वही अरु राम की पावन सिया है।  सैन्य का कौशल कुशल हो दिग्विजय का घोष करता, हो गया प्रारंभ जय

कविता- प्रार्थना ©सूर्यम मिश्र

नमन, माँ शारदे  नमन लेखनी हे देवता स्वामी प्रभो, नित शांति का वरदान दो। छल दंभ मन से दूर कर,  उर को प्रकाशी ज्ञान दो।। नित शक्ति का संचयन हो, हो क्षीण मन से भीरुता। करुणा, दया, तप, त्याग दो, सुचरित्रता का भान दो।।  उन्माद मन के मेट सब, भर दो सुसंयम साधना। सत आचरण हो कार्य में, आराधना का दान दो।। उल्लास लेकर हास का, प्रभु कष्ट को कर लूँ सहन। निःशुल्क देना कुछ नहीं, उद्योग को बस मान दो।। हर वेदना हर लो विधाता, भ्रांत उर को शांत कर। इस दीन जन को हे प्रभो, निज चक्षु में स्थान दो।। ©सूर्यम मिश्र

गीत - प्रियवर ©सौम्या शर्मा

नमन, माँ शारदे नमन, लेखनी तुमको रखकर केन्द्र बिन्दु में, मैंने प्रेम जिया है प्रियवर, जग कहता है निपट बांवरी, मैंने प्रेम किया है प्रियवर। विकट विधाता धैर्य परीक्षा, लेकिन फिर भी धैर्य न जाता, जीवन जितने प्रश्न पूछता, उतने उत्तर मैं ले आता। संघर्षों के प्याले में भी, मैंने प्रेम पिया है प्रियवर। तुमको रखकर केन्द्र बिन्दु में, मैंने प्रेम जिया है प्रियवर। तुमसे जुड़े नेह के धागे, मैंने संभाले रक्खे हैं, मैंने तुमको मन में रक्खा, फिर उस पर ताले रक्खे हैं। कटुता जग को लौटा दी है, मैंने प्रेम लिया है प्रियवर। तुमको रखकर केन्द्र बिन्दु में, मैंने प्रेम जिया है प्रियवर। ©सौम्या शर्मा

ग़ज़ल ©शिवाँगी "सहर"

नमन, माँ शारदे  नमन, लेखनी  बहर- बहरे हज़ज मुसम्मन सालिम 1222 1222 1222 1222 भटक कर ज़िंदगी से मंज़िल अपनी भूल जाती है, कहाँ इसका किनारा है ये कश्ती भूल जाती  है। निकल जाती है इसकी उम्र सब रिश्ते निभाने में, कही किसने थी माँ वो बात कड़वी भूल जाती है। उसे सब याद रहता है मेरी आहट मेरी बोली, मगर हर बार मेरा नाम दादी भूल जाती है। किसी शिकवे के सारा दिन निभाती है ख़ुशी से वो,  बक़ा होती है क्या ख़ुद की ये पत्नी भूल जाती है। दबा लेती है ख्वाहिश देखकर वो मुफ़लिसी आपनी, खिलौने औ किताबें क्या हैं बेटी भूल जाती है। निशाना साध लेती है फ़क़त मासूम लोगों पर, ये दुनिया तैश में तर्ज़-ए-अदाई भूल जाती है। ©शिवाँगी "सहर"

ग़ज़ल © संजीव शुक्ला

 अक्स दिखलाते थे जब किरदार दिखलाने लगे l आइने भी सरफिरे .... ..तब से नजर आने लगे l  देख कर इन आईनों की यूं बदलतीं फितरतें....  लोग इनके सामने जाने से .....कतराने लगे l इसलिए शाइर की बातों पर यकीं आता नहीं .. देखिए दिन में सितारे ....आप गिनवाने लगे l हम सुनाना चाहते थे हाल-ए-दिल अपना मगर..  आप फिर अपने........ पुराने मर्सिये गाने लगे l और रिश्ते के लिए इससे ज़ियादा क्या करें.... हम अना पीने लगे हैं...और गम खाने लगे l  छोड़ जाते साथ गर...... नाराज़गी ही थी हुज़ूर... आप तो अब दिल जहन भी छोड़ कर जाने लगे l  रिक्त अब खामोशियों से भी जमाने को गिला.. हिल गए गर लब जरा अल्फाज भी ताने लगे  © संजीव शुक्ला

साँस चलती है.. ©रजनी सिंह

 साँस चलती है.. साँस चलती है..  तेरे नाम से महका है बदन l इस क़दर चलती है दिलबर मेरे दिल की धड़कन ll शाम ए शब साथ तेरे, बीते हमराज मेरे l दाँव पे दाँव दिल के हारी हूँ यार मेरे l हार बैठी हूँ, सही जाए न नज़रों की चुभन ll बर्फ में आग लगे, उनसे ज़ब आँख लगे l लाख अरमान जगे, दिल में तूफान जगे l दिल में तूफान जगे और सुलग जाए मन ll ©रजनी सिंह "अमि"

ग़ज़ल ©परमानन्द भट्ट

 हुई जब सुब्ह तो हिस्सा बना दिल की कहानी का तुम्हारा ख़्वाब था या फूल कोई रातरानी का ज़िगर का खून जब अल्फ़ाज़ में ढलता ग़ज़ल होती महज़ किस्सा नहीं यह आँसुओं की तर्जुमानी का  पिया जब जह्र तो सुकरात ने हँसकर कहा सबसे यही तो हश्र होना था हमारी सच ब़यानी का  जलेगा उम्र भर या तू उसी में डूब जाएगा जिसे सब इश्क़ कहते वो समंदर आग पानी का  शिखर को छोड़ कर बेताब हो वह दौड़ती‌ क्यूँ है समंदर जानता है  राज नदियाँ की रवानी का  हमारे द्वार पर आकर हमेशा लौट जाती वो हमें मौका नहीं देती सफलता मेज़बानी का  खिलाता फूल जो हर दिन, सुखाता भी वही उनको युगों से सिलसिला जारी,'परम' की ब़ागब़ानी  का © परमानन्द भट्ट

मोरे सँवरिया ©सरोज गुप्ता

 मइया से सिकवा करूँगी ना तोरी,  कान्हा करो नाहीं बरजोरी,  रोको नाहीं मोरी डगरिया । छेड़ो नाहीं मोरे सँवरिया ।।  जब भोरहरी में जाऊँ मैं यमुना के तट पर,  तबहीं छेड़े मोहें तुम ओ काहें को गिरधर,  मारे कंकरिया सिर की गगरिया पे नटवर,  फोरे गगरिया, तु जो सँवरिया,  तु जो सँवरिया, फोरे गगरिया,  भीगे मोरी कोरी चुनरिया,  छेड़ो नाहीं मोरे सँवरिया ।।  बैरी प्रीत निगोड़ी सुने नहिं बतिया, काहें चैन चुरा के छुपे मन बसिया,  तेरी याद में बीते न दिन न ये रतिया, तेरी बसुँरिया, सुनूँ सँवरिया,  सुनूँ सँवरिया, तेरी बसुँरिया,  दौड़ी आऊँ तेरी नगरिया, छेड़ो नाहीं मोरे सँवरिया ।।  @सरोज गुप्ता

लम्हों की रेलगाड़ी ©रेखा खन्ना

 लम्हों की रेलगाड़ी किसी स्टेशन पर रूकती नहीं हाथ बढ़ाओ छूने को गर लम्हा कहे मैं हाथ आता नहीं अदृश्य होकर दो कदम आगे चलता मैं चलता उसके पीछे-पीछे। लम्हों की रेलगाड़ी ना छुक-छुक करती, ना ही सीटी मारती बस चुपचाप खिसकती जाती जाने कौन सा स्टेशन होगा आखरी जाने कौन सी साँस होगी आखिरी आखिरी साँस पर लम्हा रूकेगा बस दो घड़ी फिर नवजीवन लेकर किसी के भीतर एक नए स्टेशन से सफ़र शुरू करेगा अपनी। अंतहीन सफ़र का है यात्री  पुराने सफ़र को त्याग कर  करता आग़ाज़ नए सफ़र का ना थकता, ना रूकता कभी  बस फिरता रहता यहाँ वहाँ हर घड़ी समय की सुइयों से बँधा हैं दो घड़ी क्यूँ एक जगह नहीं टिकता हैं लम्हों की रेलगाड़ी दुनियाँ में नहीं सगी किसी की।  ©रेखा खन्ना

मैं और मेरा दिल ©सम्प्रीति

 चाहा तो नहीं था के कभी लिखूं तुझे..  पर ऐ मेरे दिल तुझे आज मैं लिखने जा रही हूं,  जब छिड़ी है जंग कभी दिमाग की तुने उसे हराया है,  और हर बार मुझे सही रास्ते पे लाया है,  जाने कितने अहसान किए हैं तुने मुझे पर,  आज उन्हें गिनाने जा रही हूं, ऐ मेरे दिल आज तुझे मैं इस कागज पर उतारने जा रही हूं,  जब भी नकारात्मकता ने मुझे घेरा है,  तुने हर बार मुझे खुद से रुबरू कराया है,  आज उन्हें ही बयां करने जा रही हूं,  ऐ मेरे दिल तुझे आज मैं लिखने जा रही हूं,  जब भी दुनिया ने नफरत के रास्ते पे मुझे मोड़ा है, तूने अक्सर खुबसूरत महोब्बत का अहसास मुझसे जोड़ा है, आज उसी महोब्बत को बरसाने मैं जा रही हूं,  ऐ मेरे दिल तुझे आज मैं इस कागज पर उतारने जा रही हूं,  बाहरी दिखावे ने जब भी मुझे डराया है, तूने आकर हर बार मुझे सहलाया है,  उसी सहानुभूति को एक रुप मैं देने जा रही हूं, ऐ मेरे दिल तुझे आज मैं लिखने जा रही हूं, अपने परायों के दर्द ने जब भी मुझे रुलाया है, तुने हर बार मुझे प्यार दिखाया है, आज उस प्यार को तेरे करीब ला रही हूं, ऐ मेरे दिल तुझे आज मैं इन पन्नों पर उतारने जा रही हूं,  मेरे प्यार का एकलौता हकदार

गज़ल ©दीप्ति सिंह

आजकल सुनता नहीं दिल क्या करें । शायरी लिखना है मुश्किल क्या करें ।  है ज़हन ख़ाली मेरा अल्फ़ाज़ से... और उलझन भी है शामिल क्या करें । आपसे कैसे करें चाहत बयाँ...  जब नहीँ अल्फ़ाज़ काबिल क्या करें । आप तो रहते हैं सबकी रूह में...  बस नहीं होते हैं हासिल, क्या करें । आपकी खुशबू नहीं जिस साँस में... लग रही वो साँस कातिल क्या करें ।  आपका चर्चा नहीं होता जहाँ... है बड़ी मनहूस महफ़िल क्या करें । आपकी 'दीया' में कुछ बाक़ी नहीं,  दे चुके जब आपको दिल क्या करें । ©दीप्ति सिंह "दीया"

इश्क़ ©प्रशान्त

मैं अक़्सर सोचता हूँ,  इश्क़ क्या है ? ख़ुदा है , बंदग़ी है, या ख़ता है ll तकल्लुफ़ से मुख़ातिब जो नहीं है, ज़माने से अलग दुनिया कहीं है l गुमाँ है इश्क़ या कोई हक़ीक़त, अधूरी या मुकम्मल है मुहब्बत l कोई माँ-बाप को दिल में बसाए, कोई औलाद पे जाँ तक लुटाए l बहन का हाथ थामे ज़िंदगी भर, कलाई से बँधी राखी कहीं पर l सुख़न ने रूह को जैसे छुआ है, मैं अक़्सर सोचता हूँ,  इश्क़ क्या है ? गया बचपन जवानी पास आई, फ़िजाओं की रवानी पास आई l नज़ारे देखते जब आह निकली ? उमड़ते बादलों के बीच बिजली l मुसलसल करवटों में शब गुज़ारे, सुहाने ख़्वाब, जिनमें चांद-तारे l सनम का दिल लुभाती आज़माइश , मुहब्बत के लिए होती नुमाइश l निग़ाहें मिल रहीं , दिल खो गया है l मैं अक़्सर सोचता हूँ,  इश्क़ क्या है ? अभी तक इश्क़ अच्छा लग रहा था, सुहाना और सच्चा लग रहा था l मगर अब दर्द क्यूँ होने लगा है ? मुहब्बत में मज़ा खोने लगा है l जुदाई अब सहन होती नहीं है, रहाइश एक पल की भी नहीं है l दुआओं में सनम की ख़्वाहिशें हैं , मगर मजबूरियों की आतिशें हैं ll ख़याल-ए-हमसफ़र मुश्किल हुआ है , मैं अक़्सर सोचता हूँ,  इश्क़ क्या है ? वफ़ा-ए-

कवि विहंग ©लवी द्विवेदी

 अक्षर भी साथ नयन की ज्योति तूलिका,  आ बैठ बिछा नव शब्दों के आसन को।  कछु निरख कछुक पुनि भाव लिये गगरी में,  उर कवि विहंग बन चला प्रकृति दर्शन को।  हो घोर तिमिर अल्हण भावुक रजनी से वो घूमा हास्य मधुप मदिरा के मद में,  थे ठाठ कहीं था रुदन अकिंचन विस्तृत,  देखा जग में लघु दीर्घ विचारक पद में।  वो बैठ अकेले पकड़ शांति प्रिय कोना,  हो लिया कभी बृह्मण्ड कभी धरणी पर।  हो बाग-बाग दौड़ा पोखर सागर क्षण,  आ लौट गिरा कछु व्यथित व्यग्र करणी पर।  ले प्रश्न परस्पर प्रीत भरे उत्तर हों,  थी खूब कल्पना प्रभु का वर्णन कीन्हा।  कछु बिछरे आंगन डोल गए कछु आसित,  कछु दारुण दुख कर्तव्य विमुख कर दीन्हा।  भावों की भेंट अनन्य रूप शब्दों से,  पर तनिक विचारे हो का भ्रांति  निराशा।  थे मिले बहुत संगी पर संगिनि कविता,  है एक कवी क्या कुल उसका क्या आशा।  ©लवी द्विवेदी 'संज्ञा'

गीत - हे माधव! संसार बचा लो! ©अंशुमान मिश्र

 धधक धधक धरती जलती है, धरती  का  श्रृंगार   बचा  लो, हे  माधव!  संसार  बचा  लो! घेर चुकी मुझको भव माया, सत्य रूप पहचान न पाया, डूब  रहा  मझधार,  मुझे दे- निज संबल पतवार, बचा लो, हे माधव संसार बचा लो! दारुण  दुख  देखो  दीनों का, असहायों,  आश्रयहीनों  का, निर्धन नयन नीर  पर करके- करुणा का उपकार, बचा लो, हे  माधव!  संसार  बचा  लो! फिर द्रौपदि की लाज बचाओ, केशव, अपना वचन निभाओ, कलयुग के कौरव कुल द्वारा, पांडव जन  की  हार बचा लो, हे  माधव!  संसार  बचा  लो! हे  माधव!  संसार  बचा  लो!                     - ©अंशुमान मिश्र

हिंदी ©गुंजित जैन

 हिंदी का पूजन करें, कर हिंदी का त्राण। हिंदी से ही प्राण हैं, हिंदी बिन निष्प्राण।। हिंदी से हैं हम सभी... हिंदी ही पहचान। हिंदी से मसि यह चले, हिंदी बिन वीरान।। घटती हिंदी देश से, इसका करें बचाव। हिंदी प्रतिदिन छोड़ती , मन पर अमिट प्रभाव।। लुप्त न हो जाए कहीं,  इसको रखो सँभाल। हिंदी की रक्षा करो, बना समसि को ढाल।। हिंदी को जीवित करें , मिलकर करें विचार। गुंजित जीवन प्राण का,  हिंदी ही आधार।।      ©गुंजित जैन

ग़ज़ल - कद्रदाँ ©संजीव शुक्ला

बहृ - बहरे हज़ज मुसम्मन सालिम मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन वज़्न - 1222 1222 1222 1222 न हो ग़र कद्रदाँ तो शायरी का फायदा क्या है l अज़ी तन्हाइयों में  शेर कहने का मज़ा क्या है ll न हों ग़र तालियाँ इरशाद की.. आवाज़ फरमाइश..  न हों ग़र दाद तो अश'आर में आखिर रखा क्या है ll सुखनवर है सुखनवर आपकी ज़र्रा नवाज़ी से.... बढ़ाएं हौसला यारो सभी... इससे बजा क्या है ll वज़ह हो ग़र किसी के हौसले की तालियाँ दादें..  बजा देने में खुल के तालियाँ बोलो बुरा क्या है ll हमारी अपनी महफ़िल है हमें कहना हमें सुनना .. हमी हम हैं हमारी महफिलों में.... दूसरा क्या है ll हमारी इल्तिज़ा है खुल के शिरकत कीजिये साहिब..  कहाँ हों कल न जाने वक्त का किसको पता क्या है ll ©संजीव शुक्ला 'रिक्त '

गजल ©हेमा काण्डपाल "हिया"

नमन, माँ शारदे  नमन, लेखनी  तुम झूठ ही कहते हो हुनर ढूँढ रहे थे, हम मिल न तुम्हें जाते अगर ढूँढ रहे थे। ढूँढा था उसे झील में तारों में कली में, रक्खा ही नहीं था वो जिधर ढूँढ रहे थे। जब देख रहे थे न सभी पाँव के छाले, हम पाँव में कोई तो कसर ढूँढ रहे थे। इसमें है ख़ता उसकी या फिर दोष है मेरा, वो पास ही बैठा था मगर ढूँढ रहे थे। ये लोग उसे बेच के ले आएं हैं रोटी, तुम लोग क़िताबों में हुनर ढूँढ रहे थे। दुनिया की नई भीड़ में हम क़ैद परिंदे, कई साल से अपना ही शहर ढूँढ रहे थे। सब लोग थे ढकने में लगे चेहरा कफ़न से, हम मूँद के आँखों को सफ़र ढूँढ रहे थे। ©हेमा काण्डपाल "हिया"

गीत- कदम ©परमानन्द भट्ट

नमन, माँ शारदे  नमन, लेखनी    आगे बढ़ना हो तो पहले कदम बढ़ाने पड़ते हैं, संकल्पों के पर्वत अपने शीश उठाने पड़ते हैं। धूप छाँव की आँख मिचोली, आँसू, आहें, हँसी-ठिठोली, जिसको हम सब सुख कहते हैं, सच में वह दुख का हमजोली, सुख के पथ पर पीड़ाओं के कई ठिकाने पड़ते हैं, आगे बढ़ना हो तो पहले कदम बढ़ाने पड़ते हैं। भटक रहा मन का मछुआरा, जर्जर नैया दूर किनारा, गीत अधूरा रहता सबका, कहता सांसों का इकतारा, कसकर मन की इस वीणा के तार बजाने पड़ते हैं, आगे बढ़ना हो तो पहले कदम बढ़ाने पड़ते हैं। आँखों में आकाश सजाकर, मन में नव विश्वास सजाकर, और भुलाकर कल की पीड़ा, आँगन अपने आज सजाकर, नैन नगर में जाने कितने अश्क छुपाने पड़ते‌ हैं, आगे बढ़ना हो तो पहले कदम बढ़ाने पड़ते हैं। बीत गई अब बात गई वो, भूलो, काली रात गई वो, चाँद गगन में हँसकर कहता, तारों की बारात, गई वो, कुछ लम्हे ऐसे होते हैं जो बिसराने पड़ते हैं, आगे बढ़ना हो तो पहले कदम बढ़ाने पड़ते हैं। ©परमानन्द भट्ट

गद्य - तेरा आना ©सम्प्रीति

नमन, माँ शारदे  नमन, लेखनी    रेगिस्तान की धूप में शीतल जल-सा तेरा आना, अक्ष तेरा बनता हो जैसे मेरा ही आईना,  देखकर जिसे अक्सर ही भटक जाता हूं मैं, ऐसी सुंदर सी तुम एक मृगतृष्णा। देखो यूँ हंसा ना करो  अधरों को बंद ही रखो तो अच्छा, जो गालों पर गड्ढे हैं कयामत ढाते हैं, ठहर जाता हूं वहीं बनकर तेरा दीवाना, अक्ष तेरा बनता हो जैसे मेरा ही आईना। यूँ नज़रें मिलाकर मुस्कुराया ना करो धड़कनें ठहर जाती हैं अचानक ही, ये जो आँखें हैं जादू चलाती हैं बहक जाता हूँ मैं बनकर कोई परवाना, रेगिस्तान की धूप में शीतल जल-सा तेरा आना, कोई पूछे अगर मुझसे तेरा फ़साना याद आज भी आता है भीड़ से छिपकर हमारा अकेले मिल जाना, ज़िक्र तेरा अब भी करता है मुझे सबसे बेगाना, देखकर जिसे अक्सर ही भटक जाता हूं मैं ऐसी सुंदर सी तुम एक मृगतृष्णा। रेगिस्तान की धूप में शीतल जल-सा तेरा आना, अक्ष तेरा बनता हो जैसे मेरा ही आईना। ©सम्प्रीति

नज़्म- वहशी दरिंदा © सूर्यम् मिश्रा

नमन, माँ शारदे नमन, लेखनी देख इक वहशी दरिंदा,  भीड़ मुर्दा हो गयी थी। एक वो वहशी दरिंदा, खा गया इक फूल को जो। नोच कर कलियाँ वो सारी, रौंद डाला पैर से सब।। चीखते उस फूल का पर, दर्द कम तो हो ना पाया। लाश उसकी जा रही थी, फूल के नज़दीक से तब।। फूल अब वो पूछता है, क्या थी उसकी गलतियाँ तब। मालियों से पूँछता वो, क्या कहीं तुम मर गए थे?  पर वो माली कह रहा है,  यार बगिया सो गयी थी। देख इक वहशी दरिंदा, भीड़ मुर्दा हो गयी थी।। आदमी जो था वहाँ पर, था लहू जिसका वो गंदा, खून बहता देख करके,  वो बहुत खुश हो रहा था। पर मेरा है प्रश्न उनसे,  पास से जो जा रहे थे। और भारी प्रश्न उससे,  जिसने उस मंजर को पूरा  देख कर, देखा खुशी से। ना जगा पौरुष भी उसका, फाड़ कर रख दे उसे वो। बाद में चाहे कि वो फ़िर, झूल फाँसी पर ही जाए। हाँ मगर अब याद आया, सब के सब मुर्दे ही थे ना। लाश थे सब जा रहे थे, क्यूँकि उनकी कुछ नहीं थी, जो कि नोची जा रही थी। ना ही थी उनकी बहन वो, ना ही बेटी और पत्नी भी नहीं थी। थी मगर ऐसी कड़ी वो, चेन की उस जा रही जो,  उनकी बहनों बेटियों से। खैर छोड़ो और लिख दो, लाइनें कुछ मौत पे उस। हाँ मगर दो चार वो सब औ

गद्य - मैं और बारिशें ©रेखा खन्ना

नमन, माँ शारदे  नमन, लेखनी  कभी कभी बारिश की बूंँदें भी कम पड़ जाती है सूखे पड़े हुए मन को भिगा देने में। यूं तो बारिशों का मौसम बहुत सुहाना लगता है पर मन, मन को तो एक बूंँद भी स्पर्श ना कर सकी कभी। सूखापन कुछ इस कदर हावी हो चुका है शायद बारिश की बूंँदें भी नमी ना दे सकी रती भर भी। कुछ ख़्वाब जो धीरे-धीरे आँखों में दरख़्त बनने की चाह लिए उगने लगे थे वो सब के सब दफ़न हो गए बेमौसम के पतझड़ के स्पर्श से। ख़्वाब, ख़्वाब भी तो बेशर्म है जब देखो आँखों में और दिल में उगने लगते हैं जबकि वे बखूबी जानते हैं कि पूरा ना होने पर उन्हें जिंदा ही दफ़न हो जाना है दिल के कोने में पड़े हुए शुष्क ज़मीं के टुकड़ों में। वो शुष्क ज़मीं जिसे फिर कभी कोई नमी ना छू सकी। जिस पर फिर कभी कुछ ना उग सका। ना आस उगी, ना मोहब्बत उगी और ना ही जज़्बातों की फ़सल उग सकी। वो ज़मीं जो खुद ही एहसासों की नमी को सोखने से मना कर देती है।  बंजर मन और बंजर जिंदगी को क्या कभी कोई बारिश छू कर हरा-भरा कर सकेगी? शायद नहीं क्योंकि बंजर मन पर बूँदे गिरेंगी तो सही पर छूते ही जज्ब होने की जगह हवा में विलीन हो जाएंगी और ज़मीं  फिर किसी नम

पञ्चचामर छंद - महादेव ©रानी श्री

नमन, माँ शारदे  नमन, लेखनी   छंद - पञ्च चामर  चरण - 4 (दो दो चरण समतुकांत) वर्ण - 16 मात्रा - 24 जगण रगण जगण रगण जगण गुरु महेश्वरं शिवं भवः शिवा पतिं कृपानिधिं, जटाधरं कठोर भैरवं प्रजापतिं विधिं। गिरीश वीरभद्र भर्ग सोम चारुविक्रमः, दिगंबरं हविं अनीश्वरं अजः नमो नमः। सदाशिवं भुजंगभूषणं च नीललोहितं, मृडं हरिं हरं अनंत सः वृषांक मोहितं। सहस्त्र पाद शाश्वतं त्रिकाल सर्व तारकं, सदा शिवं कपालि श्री महामुनिं  त्रियंबकं। गणादि नाथ व्योमकेश भर्ग देव अव्ययं, अनादि आदि शुद्धविग्रहं विभा भजं वयं। नमामि वैद्यनाथ मल्लिकार्जुनं त्रिलोचनं, भजामि विश्वनाथ सोमनाथ पांशुचंदनं। उमेश कालकंठ कल्पवृक्ष कालभैरवं, अमोघ अंबरीश पिंगलाक्ष शेखरं भवं।  कलाधरं पुरंदरं प्रभाकरं दिगंबरं, कपालपाणि एकलिंग भूतनाथ ईश्वरं।  अतीव सुंदरं दृगं, ललाट चक्षु शोभितं, सुनासिका प्रकाशमान भांति चंद्र लोभितं। कपोल शोभनं शिवस्य ओष्ठ भांति पाटलं, समान दंत दाड़िमं कपाल भांति उत्पलं। ललाट भस्म साज संग कंठ रूद्र भावनी, त्रिशूल हस्त वस्त्र व्याघ्र छाल पाद पावनी । नदीश्वरी जटा सुसज्जितं शशांक मस्तके, शिलादनंदनं सदा शिवस्य भक्त मानके। महेश्वर

लघुकथा - भूख ©सौम्या शर्मा

नमन, मां शारदे नमन, लेखनी सुबह की चाय के साथ लाॅन में बैठे हुए सिन्हा जी अपने कुत्तों, चार्ली और शैडो को रोटियां डाल ही रहे थे कि तभी मेनगेट पर एक आर्त स्वर सुनाई दिया l "बाबूजी कुछ खाने को दे दीजिए!" सिन्हा जी के हाथ में रोटियों के टुकड़े देखकर अनायास ही उस भिखारी की आंखों में चमक सी आ गई l "पर यह रोटियां तो कुत्तों के लिए हैं!" सिन्हा जी ने लगभग टालते हुए कहा l कुछ क्षण को मौन पसर गया, मानों उस भिखारी ने स्वयं से ही मौन संवाद किया हो, "काश! मैं भी कुत्ता होता!" "बाबूजी कुछ तो दे दो... दो दिन से कुछ भी नहीं मिला !" उसकी आंखों से डबडबा कर गिरने को आतुर अश्रु अब धैर्य की हर सीमा को लांघ, बहने को आतुर थे l इसी बीच अचानक न जाने कब भूख के निरक्षर मनोविज्ञान ने उसे उदर पूर्ति का उपाय सुझाया और अकस्मात ही वह घुटने टेककर जमीन पर कुत्तों की भांति ही बैठ गया l "वो बाबू जी! अब तो मैं भी कुत्ता बन गया! अब तो रोटी देंगे ना?" सिन्हा जी निःशब्द और अवाक खड़े थे l पता नहीं यह भूख की जीत थी या मनुष्यता की हार! सोचिएगा अवश्य! ©सौम्या शर्मा

ग़ज़ल ©सरोज गुप्ता

नमन, माँ शारदे  नमन लेखनी बहरे हज़ज मुसम्मन सालिम मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन 1222 1222 1222 1222 मुझे वो खूबसूरत सा, फ़साना याद आता है ।  मिरी ख़ातिर तुम्हारा गुनगुनाना याद आता है ।।  वो मुझसे प्यार का इज़हार, करने के इरादे से ।  मिरे घर का तेरा चक्कर लगाना याद आता है ।।  दिलाई थी कभी चूड़ी जो तुमने लाल रंगों की ।  खुशी से चूड़ियों का, खनखनाना याद आता है ।।  खुले गेसूँ से मेरे खेलना औ उंगलियाँ करना । उन्हीं गेसूँ में तेरा जग भुलाना याद आता है ।।  महकते से ख़तों में इक, खुमारी साथ रहती थी ।  ख़तों को वो क़िताबों में, छुपाना याद आता है ।।  कभी रूठे अगर तुमसे, हमारी दिल्लगी थी वो ।  मनाना वो तेरा, अपना सताना याद आता है ।।  न भूली हूँ न भूलूँगी, वो वादे, वो मुलाकातें ।  मुझे मंज़र जवानी का, सुहाना याद आता है ।।  ©सरोज गुप्ता

दोहाग़ज़ल - गुरु ©संजीव शुक्ला

नमन, माँ शारदे  नमन, लेखनी  गुरू कृपा से ज्ञान है,     आशिष शुभ वरदान l प्रथम पूज्य गुरु पद कमल,सदा राखिये ध्यान ll बुद्धि, ज्ञान, सत्कर्म पथ, सद्गति का संकाय, सदा शरण में राखिए ,गुरुवर कृपा निधान ll लोभ, मोह, छल, छिद्र, तम, पथ भ्रम जीवन मार्ग, गुरू कृपा से हों सकल, कष्ट तिमिर अवसान ll गुरुवर की आशिष सघन, कल्पवृक्ष की छाँव, गुरू कृपा रक्षा कवच,    जननी अंक समान ll इष्टदेव, गुरुदेव तव,        कृपा बिना यदुनाथ, परम् मूढ़ मतिमंद जड़, 'रिक्त' ग्रसित अज्ञान ll ©संजीव शुक्ला 'रिक्त'

पञ्चचामर छंद ©लवी द्विवेदी

 नमन, माँ शारदे नमन, लेखनी  छंद- पञ्चचामर चरण- 4( समतुकांत)  वर्ण- 16 मात्रा- 24 जगण रगण जगण रगण जगण+S ISI SIS ISI SIS ISI S प्रभू किशोरचंद्र वृंद वन्दना करूँ हरे,  नमामि राधिका नमामि नंदना करूँ हरे।  सुवर्ण भाँवती समेत कल्पना करूँ हरे,  शिरोमणी हरी प्रणाम अर्चना करूँ हरे। सुधा स्वरूप रूप श्याम वेणुधारि वृंद हैं,  वही सुकाम नंदलाल व्योम प्रेम नंद हैं। सनेह माधुरी वही प्रभा शुभा प्रकंद हैं,  वही विराट शैल, वो प्रवाह मंद मंद हैं।  नमामि वल्लभं नमामि माधवं हरी नमो,  नमामि नंदनं नमामि केशवं हरी नमो।  नमामि कृष्णकांत रूप राघवं हरी नमो, नमामि प्रेमवृन्द श्याम अल्पवं हरी नमो। ©लवी द्विवेदी 'संज्ञा'

ग़ज़ल ©प्रशांत

नमन, माँ शारदे नमन, लेखनी बहरे खफ़ीफ मुसद्दस मख़बून फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन 2122 1212 22 वक़्त लेते नहीं गिराने में, बे-रहम लोग हैं ज़माने में। आप रिश्ता नया बनाते हैं, क्या नफ़ा अब नहीं पुराने में? जान झोंकी कभी कहाँ किसने, एक रिश्ता यहाँ निभाने में ? ज़िन्दगी सिर्फ़ चार दिन‌ की थी, उम्र गुज़री ये जान पाने में। आशियाँ फ़िर किसी परिंदे का, छिन गया है मकाँ बनाने में। हाथ था हर दफ़ा सियासत का, आपसी फ़ासले बढ़ाने में। ज़िन्दगी रोज ख़र्च करते हैं, हम महज़ ज़िन्दगी कमाने में। शेर मारो 'ग़ज़ल' मगर सुन लो, तीर जाकर लगे निशाने में। ©प्रशांत "ग़ज़ल"