कविता - साक्ष्य ©लवी द्विवेदी

नमन, माँ शारदे 

नमन, लेखनी 



दीप्ति निष्ठा सँग प्रवाहित हो रही सत्यार्थ पथ पर, 

मौन तज कर प्रज्ज्वलित क्या हो सकेगी गीतिका भी। 

आज से आरम्भ हो या अंत अविरल अर्घ का हो, 

नित्य नूतन की पिपासा क्या सहेगी? वीथिका भी। 


सेतु स्वर्णिम जो हुआ था राम युग में पत्थरों से, 

क्या वही सागर सहेगा युग पुनः दृढ़ मेरु पथ को। 

सर्व सुरभित सत्य सरिता शब्द के आवागमन में, 

क्या महाभारत की गीता दे सकेगी लक्ष्य रथ को। 


और क्या होगा प्रवाहित फिर रुधिर उर धमनियों में, 

क्या पिपासा विरहिणी अब शांत होगी क्षण वलय में। 

शोर खग का क्या पुनः, अम्बर विभा में लीन होगा? 

क्या अतिथि सत्कार होगा ?या कसक होगी निलय में। 


भूप क्या संघर्ष को ही चेतना का सार देगा, 

या निरंकुश हो रहे सनमार्ग को साहस मिलेगा। 

क्या शिथिलता सारगर्भित प्रष्ठ पर हँसकर मिलेगी, 

क्या प्रशंसा शब्द धारक रोष आशंकित तजेगा। 


सर्व बाधित भावनाओं का पुनः पाषाण बनकर, 

दृढ़ नियति ने तुंग पथ को सारगर्भित कर दिया है। 

हो भले जनहित में शासक संशयों की दीर्घा में, 

आज भी गीता वही अरु राम की पावन सिया है। 


सैन्य का कौशल कुशल हो दिग्विजय का घोष करता,

हो गया प्रारंभ जय का, भूमि अम्बुज साक्ष्य युग है। 

ना सरल आबंध के पथ, ना सहज चीत्कार करुणा, 

ज्ञान वैरागी जहाँ अध्यात्मता का भाग्य युग है। 

©लवी द्विवेदी 'संज्ञा'

टिप्पणियाँ

  1. सेतु स्वर्णिम जो हुआ था राम युग में पत्थरों से,
    क्या वही सागर सहेगा युग पुनः दृढ़ मेरु पथ को।
    सर्व सुरभित सत्य सरिता शब्द के आवागमन में,
    क्या महाभारत की गीता दे सकेगी लक्ष्य रथ को... वाहहहहह
    क्या भाव हैं, अद्भुत कविता।

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  2. अत्यंत उत्कृष्ट एवं संवेदनशील कविता 💐नमन है ।

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  3. अत्यंत उत्कृष्ट कविता सृजन बेटा 🌺🌺🙏 सरोज गुप्ता

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