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कविता - नव वर्ष ©सरोज गुप्ता

आओ नव-वर्ष मनाएं हम || नई प्रेरणा नव उमंग से ,  नये जोश के नव तरंग से , देश-प्रेम के शुभ प्रसंग से ,  पुलकित मन कर जाएं हम | आओ नव-वर्ष मनाएं हम || आस का दीपक , नेह की बाती ,  हर  घर  दीप  जलाओ  साथी ,  प्रेम के पुष्प , भाव की पाती ,  बंदनवार   लगाएं   हम  | आओ नव-वर्ष मनाएं हम || दीन  दुखी  का  त्राण  लिए ,  मानव  का  कल्याण  लिए ,  निष्प्राणों  के  प्राण  लिए ,  दलितों के भाग्य जगाएं हम | आओ नव-वर्ष मनाएं हम || आप सभी के लिए कामना ,  दुख का ना हो कभी सामना ,  मन  में  हो  उत्साह  भावना ,  देते  शुभ - कामनाएं  हम | आओ नव-वर्ष मनाएं हम || ©सरोज गुप्ता

गीत ©ऋतिका "ऋतु"

नमन,माँ शारदे। नमन,लेखनी। पुनश्च वन्य हो चले सभी किवाड़ भूल में! अतिक्रमण हुआ सुनो कि सावधान हो सभी! विरोधवत विपन्न वन न आक्रमण करे कभी‌। अनेक शाख पालता कपाट काट काँख में, हरीतिमा लटों समेत झाँक-झाँक आँख में उलीचती गई अशेष अश्रुकुंड मूल में। पुनश्च वन्य हो चले सभी किवाड़ भूल में! अधीन जो अधीनता समर्थ की न भूलता, कहो कि भीत से लगा-बँधा सहर्ष फूलता? कटा न जो कुठार से,मरा नहीं प्रहार से विटप वही हठात् चाहता प्रवेश द्वार से। धराशयी किए धुरीण पट धकेल धूल में। पुनश्च वन्य हो चले सभी किवाड़ भूल में! निमेष में निकास नग्नता न खोल दे कहीं। डरो!डरो!मलीन मौन 'क्रांति' बोल दे कहीं। कहीं कुठार काठ का ललाट लौह चीर दे, न भूल ही सको कभी वही विनष्ट पीर दे। लखो अकाल काल ही प्रसून,पत्र,शूल में। पुनश्च वन्य हो चले सभी किवाड़ भूल में! ©ऋतिका 'ऋतु'

गीत- माँ ©सौम्या शर्मा

नमन, माँ शारदे नमन, लेखनी जो हँसती हूँ तो लेती है बलाएं चूम माथे को, कभी जो रो पडूँ तो झट से सीने से लगाती है, कभी थम जाऊँ तो आगे बढ़ाती थाम उँगली को, वो माँ है ना, मुझे हारा हुआ कब देख पाती है? जो मन हो अनमना तो लाड़ लाखों ही लड़ाए वो, वही तो है जो मन की बात होंठों पर ले आई है, वही उत्तर सभी प्रश्नों की, मेरी उलझनों की है, वो रब का रूप ही तो है जो माई, माँ कहाई है। वो मंदिर में वो मस्जिद में दुआएं पढ़ के आती है, वो माँ है ना, मुझे हारा हुआ कब देख पाती है? तलाशें हैं निगाहें उस को ही जब लौट घर आती, उसी गोदी की ठंडक वो सुकूं कैसे, कहाँ पाऊं? मैं माँ की लाडली हूँ सुन के कैसे मैं न इतराऊँ? जो देखूं मैं ख़ुदा को, अक़्स उसका ही वहाँ पाऊं। मुझे पल भर को जब देखे तो फूली ना समाती है, वो माँ है ना, मुझे हारा हुआ कब देख पाती है? मुझे हर दिन लगाती है वो काला सा नजर टीका दुआ उसकी लगे तो है बनाती स्वर्ग जीवन को, सभी गुण अपने बच्चों को वो देती है वसीयत में, बिछड़ जाना करे घायल मेरे तन और इस मन को, वो गुस्सा भी करे तो ऐसे जैसे दिल लुटाती है, वो माँ है ना, मुझे हारा हुआ कब देख पाती है? ©सौम्या शर्मा

गीत- स्वेटर ©ऋषभ दिव्येन्द्र

नमन, माँ शारदे नमन, लेखनी  आधार छंद– हंसगति  ११–९, यति पूर्व त्रिकल और अन्त में २ गुरु अनिवार्य बुनती माँ निज हाथ, प्रेम बरसाती। स्वेटर में भर नेह,  नवल  पहनाती।। झलके सहज ममत्व, चित्त को भाता। कोटि-कोटि से फन्द, धैर्य बतलाता।। रंग-बिरंगे   तन्तु,   सुहावन   सारे। संयम की मधु गाँठ, बड़े ही प्यारे।। अनुपम रूप अनूप, स्वयं इठलाती। स्वेटर में भर नेह,  नवल  पहनाती।। रचती  रोचक  फूल,  खींचती  रेखा। करती विविध प्रयत्न, जोड़ती लेखा।। लिए  सिलाई  हस्त, बुने  वह  ताने। सोचे सुखद भविष्य, बात सब जाने।। चित्र उकेर अनेक, मन्द मुस्काती। स्वेटर में भर नेह,  नवल  पहनाती।। बढ़ता शीत प्रकोप, बहुत दुखदाई। तब स्वेटर रंगीन,  लगे  सुखदाई।। अपनेपन का भाव, समाहित ऐसे। महके हिय का कुंज, पुष्प से जैसे।। उपजे उर आनन्द, छटा बिखराती।। स्वेटर में भर नेह,  नवल  पहनाती।। ©ऋषभ दिव्येन्द्र

लघुकथा-नन्हा परिंदा ©संजीव शुक्ला 'रिक्त'

नमन, माँ शारदे नमन, लेखनी एक चिड़िया का जोड़ा.....एक दिन दोनों मिलकर  बेहद खुश एक छोटा सा घोंसला बनाने लगे ..चिड़िया चोंच में दबा के तिनके बीन के लाती और चिड़ा खूबसूरती से उन तिनकों से घोंसला बनाता .घोंसला तैयार हुआ ..कुछ दिनों बाद एक नन्हा परिंदा घोंसले में आ गया ..जोड़े की दुनिया नन्हे परिंदे की नटखट ची ची ..की आवाज़ों से आबाद थी ..दोनों रोज सुबह दाने की तलाश में दूर उड़ जाते .और शाम को वापस तेज़ी से पंख फड़फड़ाते वापस लौट आते ..अक्सर खाली पेट पर दोनों की चोंच में कुछ दाने नन्हे के लिए जरूर दबे होते ..लौट कर नन्हे को देखते ही थकन भूख सब खो जाती .बारी बारी दोनों अपनी चोंच में छुपा के रखे  दाने  नन्हे की नन्ही चोंच में डालते .. कुछ दिनों बाद नन्हे परिंदे के रूपहले पंख आने लगे ..दोनों उसके पंखो को बढ़ता देख बेहद खुश थे .नन्हा धीरे धीरे फुदकता हुआ घोंसले के बाहर आ जाता ..चलने की कोशिश में लड़खड़ाता तो दोनों का कलेजा मुँह तक आ जाता ..दोनों झपट कर नन्हे को संभालते ..अजीब कश्मकश थी .नन्हे को उड़ता भी जल्द  से जल्द देखना चाहते थे और मन में कही उसे अकेले उड़ने देने से डर भी ..खैर ..वक्त कब रुकता है...      

लिखूँ ©मीनाक्षी

 उठाती हूँ जब भी कलम, सोचती हूँ क्या मैं लिखूँ बीत गयी जो जिंदगी उसकी कहानी लिखूँ  या चल रही जो जिंदगी उसकी रवानी लिखूँ  ग़म के कुछ अनसुलझे से राज लिखूँ  या खूबसूरत लम्हों के कुछ साज लिखूँ  दूसरों की जिंदगी का अफ़साना लिखूँ  या अपनी ही जिंदगी का कोई फ़साना लिखूँ  बिछड गए जो जिंदगी में अपने उनकी निशानी लिखूँ  या हो गए जो पराये से भी अपने उनकी कहानी लिखूँ  सोचते सोचते ही यह बीत जाती है हर शाम क्या मैं लिखूँ  ले आती है सुबह फिर नया पैगाम कि कुछ नया मैं लिखूँ ©मीनाक्षी

इश्क़ ©प्रशान्त

मुझसे मेरी जान इतनी दूर तुम होना नहीं। गैर के शाने पे रखकर सर कभी रोना नहीं। एक ख़्वाहिश की ख़ुदा से जो मुकम्मल हो गई, पा चुका हूँ साथ तेरा और अब खोना नहीं । खूब फलती-फूलती है इश्क़ में दिल की ज़मीं, ये गुज़ारिश है गलतफ़हमी वहाँ बोना नहीं । दाग दामन पे लगाना इस जहाँ का तौर है, पाक़ है परहन मुहब्बत का, इसे धोना नहीं । उस ज़हां के वास्ते भी कुछ खरीदारी करो, रूह लेकर जाएगी... कपड़ा नहीं, सोना नहीं । बात इतनी सी बताने के लिए है ये 'ग़जल' इश्क़ को बाहों में भरना, इश्क़ को ढोना नहीं। ©प्रशान्त ‘ग़ज़ल’

आवाज़ें और गहराईयांँ ©रेखा खन्ना

जो आवाज़ें गहराइयों में उतर कर खो जाती है उनकी ध्वनि उथले पानी में सुनाई नहीं देती हैं उन्हें सुनने के लिए उसी गहराई में खुद को डुबाना होगा पर क्या डूबने के बाद उस ध्वनि की तरंगें हमारे इंतज़ार में रूकी मिलेंगी यां फिर पानी से मिल कर एक साज़िश रच लेंगी कि जैसे ही ये शख्स अंदर आने की कोशिश करें तभी इसके फेफड़ों में भर जाना और घोंट देना दम ताकि फिर कभी गहराइयों को छोड़कर बाहर ना निकल सके। कभी कभी ऊपर से शांत दिखने वाला पानी अंदर ही अंदर कई साजिशें रच कर बैठा होता है कि जैसे ही कोई उनमें उतरने की कोशिश करे, उसे अंदर ही अंदर तक खींच ले ताकि वो भी अपने अकेलेपन का जहर कहीं तो उतार सके। जाने ऊपर से शांत दिखने वाला पानी अपने अंदर कितनी कहानियां, वेदनाएं और गुमनाम लाशों का बोझ समेटे हुए है और कहना चाहता है पर अफसोस उसकी दास्तान सुनने वाला कोई नहीं है। कभी बैठना किसी पोखर यां तालाब के किनारे और गौर से देखना पानी को टकटकी लगाकर, बिना पलकों को झपकाए। स्थिर पानी में हलचल होगी और तरंगे बीच में से उठ कर किनारे की ओर बढ़ेगी ऐसे जैसे वो बात करने के आ रही हैं। कभी उनसे बातें कर के देखना वो शांत हो जाएं

ग़ज़ल ©सूर्यम मिश्र

मेरा दिल वो दुखाएगी, उसे थी ये ग़लतफहमी। मेरा सर वो झुकाएगी, उसे थी ये ग़लतफहमी।। खुदाया यार खरबूजे_हुए हैं हम बिना उसके। छुआरे सा सुखाएगी__उसे थी ये ग़लतफहमी।। हमारे कान कौवे से,___हमारी आंख गिद्धों सी। वो हमसे सब छुपाएगी,उसे थी ये ग़लतफहमी।। उसे मालूम ना सूर्यम कलम फ़न है तुम्हारा जो। कहानी वो सुनाएगी,__उसे थी ये गलतफहमी।। कसम से एक टॉफी भी,_नहीं हमने खरीदी है। वो हमसे भोज खाएगी,उसे थी ये ग़लतफ़हमी।।                    ©सूर्यम मिश्र

मैदान कभी छोड़ना नहीं ©तुषार पाठक

 तुम मैदान छोड़ के मत जाना, हर निराशा में आशा ढूँढना, अर्जुन जैसे अपना लक्ष्य रखना, तो कर्ण के जैसे योद्धा बनना की भगवान को तुम्हारे लिए मैदान में आना पड़े, और वीर अभिमन्यु की तरह कभी खुद को कमज़ोर समझना नहीं, वहीं राम के जैसे शांत रहना, बस अपने पर विश्वास रखना। हर हार के बाद अपने आपको संभाले रखना, क्योंकि हर लड़ाई आख़िरी नहीं, आख़िरी लड़ाई वही है जहाँ आपने मैदान छोड़ दिया, और जहाँ हार निश्चित हो वहाँ लड़ना ज़रूर क्योंकि वहाँ जीतने का मज़ा ही अलग है, और हर हाल मे मुस्कुराते रहना, कह देना सभी से आज नहीं तो कल मै जीत के ही जाऊँगा। ©तुषार पाठक

ना उछल जाये ©रजनीश सोनी

देख नैनो का ये जादू न तुम पे चल जाये।  हो कयामत न कहीं जान ही निकल जाये। कोई तरकीब नहीं काम की दिखा करती,  कैसे देखे बिना बेचैन दिल बहल जाये। प्यार शक्कर की तरह दूध में घुला होता,  ये अलग हो नहीं सकता भले उबल जाये।   जो कभी नैन को भाया समा गया दिल में,  याद रहता हैं भले ये शरीर ढल जाये।  लोग कहते नही उनकी तरफ से हम कहते,  डर है मेरा भी कहीं नाम ना उछल जाये।  रोज मिटती हैं इबारत ये श्यामपट वाली,  हो शिला-लेख तो कैसे कहो बदल जाये।  संग-दिल हो न मगर "नेह" संग-मरमर हो,  मोम दिल क्या की जरा धूप पा पिघल जाये।  ©रजनीश सोनी "नेह"

मोहन की मीरा ©सरोज गुप्ता

   मीरा के बस कृष्ण कन्हाई मान ली वर मोहन मूरत को माँ ने जो समझाई || मीरा के बस कृष्ण कन्हाई.....  बालकाल छवि मन बैठाई,  रूठी उनसे, उन्हें मनाई | कृष्णमयी जब हुई सयानी, शुरू हुई इक प्रेम कहानी | अपने हिय की बात वो अपने कान्हा को बतलाई || मीरा के बस कृष्ण कन्हाई.....  ब्याह के जो वो सासर आई,  अपने कान्हा को संग लाई | पति का साथ उसे ना भाया,  वो तो थी मोहन की छाया | लोकलाज की चिंता तज के प्रेम की अलख जगाई || मीरा के बस कृष्ण कन्हाई.....  ठाठ राजसी तज बावरिया,  कान्हा जूँ की बन जोगनिया | सांस ली अंतिम मोहन द्वारे,  प्रीत सिखाई जग को सारे | मन की प्रीत लिए हिय में वो कान्हा में ही समाई || मीरा के बस कृष्ण कन्हाई..... ©सरोज गुप्ता

ग़ज़ल ©गुंजित जैन

  शोख़ हवा में महका-महका संदल होता जाता है, तुमको छूकर कपड़ा-कपड़ा, मख़मल होता जाता है। जाने कितने खंज़र इन दो पैनी नज़रों में होंगे, जो भी तुमको देखता है बस घायल होता जाता है। इतनी मेहनत से कागज़ पर हर्फ़-हर्फ़ मैं लिखता हूँ, हर्फ़ निकल हर कागज़ से पर पागल होता जाता है। चमक माँगता रहता है शब का अंधेरा तारों की, फिर उस से मिलकर आँखों का काजल होता जाता है। जाने कब तुम आओगे ये सोच-सोचकर मेरा दिन, शामों में ढल जाता है और फ़िर कल होता जाता है। याद तुम्हारी आती है तब मेरी आँखों का जोड़ा, ख़ुश्क ज़मीं पर बारिश करता बादल होता जाता है। दूर तलक मुझको इसकी झनकार सुनाई देती है, नाम तुम्हारा कोई खनकती पायल होता जाता है। इसके हिस्से-हिस्से को पलकों पे सजाकर रखते हैं, यार तुम्हारा हर इक नखरा काजल होता जाता है। मेरे बाद मेरे इन अशआरों का क्या होगा गुंजित? यही सोचकर बेसुध मेरा पल-पल होता जाता है। ©गुंजित जैन

रघुनंदन ©सौम्या शर्मा

 मर्यादा को जब भी समझा, होते हैं परिभाषित राम। नगर अयोध्या के जन-जन के, मन में सहज सुवासित राम! लेशमात्र संदेह न मन में, मुस्काते वन जाते राम। पराकाष्ठा मूल्यों की हैं, उत्तम तभी कहाते राम। वानर,भालू,की सेना ले, सकल‌ विश्व के नायक राम। केवट को उतराई देते। समता के परिचायक राम। राम वही जो मां शबरी के, झूठे बेर प्रेम से खाते। राम वही जो भ्राता की मूर्च्छा, पर विह्वल अश्रु बहाते। मानवता के केन्द्र बिन्दु हैं, हनुमत हृदय सुशोभित राम। उच्चकोटि आदर्श जगत में, करते हैं स्थापित राम।      © सौम्या शर्मा

कविता-कविता ©संजीव शुक्ला

 नमन, लेखनी  कविता कवि का..अंतर्मन द्वार बनी l दृग से बहकर निकली जलधार बनी ll अति दुसह वेदना.... रक्त प्रवाह बनी,  ज़ब रुधिर शिरा में कण-कण बहतीं हैँ l कुछ कष्ट पराये,....दुख कुछअपनों के,  ज़ब हृदय तंत्रिका..... दुर्बल सहतीं हैँ l आघात अदृश्य असंख्य शूल मन पर, पीड़ा दायक क्षण-क्षण जीवन दुष्कर l हो व्याप्त व्यथा,..ज़ब प्राण,चेतना में ,  विष दंश गड़ाए हों.... लाखों विषधर l ज़ब कालकूट का... काट न हो कोई,  कविता अस्फुट स्वर का आधार बनी ll ज़ब प्राण वायु में हो-होकर मिश्रित,  नित पीर स्वास बन,हृदय प्रवेश करे l प्रति स्पंदन अस्फुट मर्मर ध्वनि कर,   संताप हृदय में..... नित्य निवेश करे l अभिव्यक्ति द्वार पट पर लटके ताले, घन घोर मेघ.... उर-नभ छाये काले l ज़ब गिरा क्षीण हो, शब्दहीन निर्बल,  व्याकुल करते मन, भाव प्रलय वाले l मसि समसि सहारा मात्र शेष हो ज़ब,  पृष्ठों पर भावों का....... विस्तार बनी ll कविता कवि का..अंतर्मन द्वार बनी l दृग से बहकर निकली जलधार बनी ll ©संजीव शुक्ला 'रिक्त'

ग़ज़ल ©परमानन्द भट्ट

  सूने रहे हैं रात भर रस्ते दयार के फिर कौन जगमगा गया दीपक मज़ार के रोते रहे जो उम्र भर हम ग़ैर के लिए लगता है अब वो थे सभी आँसू उधार के आया नहीं वो रात भर जिसकी तलाश थी गुज़रा था तन्हा चांद भी शब को गुज़ार के  जब भी बना मैं बोझ तो उसने सहा नहीं  फैंका था एक पल में ही रिश्ता उतार के  थे और लोग मर गये जो इंतज़ार में अब कौन बाट देखता रस्ता बुहार के उस पालकी के भाग्य में क्या है लिखा हुआ हासिल हुए नहीं जिसे कंधे कहार के जब वो हमारे साथ थे मौसम था ख़ुशनुमा अब भी 'परम' को याद है दिन वो ख़ुमार के ©परमानन्द भट्ट

ग़ज़ल ©प्रशान्त

वज़्न- १२२२ १२२२ १२२२ कहीं जाती नहीं राह-ए-तलब मेरी । यही बस एक आदत है अजब मेरी । तुम्हारे इश्क़ में हूँ बा-अदब तुमसे, वगरना शख़्सियत है बे-अदब मेरी । ये मुर्दा पूछता था, जब वो ज़िंदा था, बुझेगी प्यास कैसे और कब मेरी ? करो! नफ़रत करो मुझसे, मगर सुन लो, मुहब्बत और नफ़रत है ग़ज़ब मेरी । हर-इक इंसान की गफ़लत यही तो है , ये दुनिया कल किसी की थी, है अब मेरी । ‘ग़ज़ल’ इस ज़िंदगानी का सबब क्या है ? चली ये जाएगी क्या बे-सबब मेरी ? © प्रशांत ‘ग़ज़ल’