गीत- माँ ©सौम्या शर्मा

नमन, माँ शारदे

नमन, लेखनी


जो हँसती हूँ तो लेती है बलाएं चूम माथे को,

कभी जो रो पडूँ तो झट से सीने से लगाती है,

कभी थम जाऊँ तो आगे बढ़ाती थाम उँगली को,

वो माँ है ना, मुझे हारा हुआ कब देख पाती है?


जो मन हो अनमना तो लाड़ लाखों ही लड़ाए वो,

वही तो है जो मन की बात होंठों पर ले आई है,

वही उत्तर सभी प्रश्नों की, मेरी उलझनों की है,

वो रब का रूप ही तो है जो माई, माँ कहाई है।

वो मंदिर में वो मस्जिद में दुआएं पढ़ के आती है,

वो माँ है ना, मुझे हारा हुआ कब देख पाती है?


तलाशें हैं निगाहें उस को ही जब लौट घर आती,

उसी गोदी की ठंडक वो सुकूं कैसे, कहाँ पाऊं?

मैं माँ की लाडली हूँ सुन के कैसे मैं न इतराऊँ?

जो देखूं मैं ख़ुदा को, अक़्स उसका ही वहाँ पाऊं।

मुझे पल भर को जब देखे तो फूली ना समाती है,

वो माँ है ना, मुझे हारा हुआ कब देख पाती है?


मुझे हर दिन लगाती है वो काला सा नजर टीका

दुआ उसकी लगे तो है बनाती स्वर्ग जीवन को,

सभी गुण अपने बच्चों को वो देती है वसीयत में,

बिछड़ जाना करे घायल मेरे तन और इस मन को,

वो गुस्सा भी करे तो ऐसे जैसे दिल लुटाती है,

वो माँ है ना, मुझे हारा हुआ कब देख पाती है?

©सौम्या शर्मा

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