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पतझड़ के पत्ते ©गुंजित जैन

 शाम का वक्त था, और अक्टूबर का महीना। अक्टूबर से ही अंदाज़ा लग गया होगा कि मौसम पतझड़ का था।  मैं, वहाँ गार्डन में बैठा था, एक बड़े पेड़ की छाँव के नीचे लगी बेंच पर। धीरे-धीरे उस पेड़ के पत्ते गिरकर बिखर रहे थे। कुछ मेरे बालों में उलझे पड़े थे, कुछ बेंच पर गिरे थे, और वो रास्ता तो अपना रंग बदलकर पीला रंग धारण कर ही चुका था। खैर! मैं तो अपने अलग ख्यालों में खोया हुआ था। अचानक ख्यालों के बीच दस्तक देते हुए किसी की आवाज़ आई। उस पतझड़ के सन्नाटे में, आवाज़ करते सूखे पत्तों के शोर के बीच से, किसी तीर की तरह उन आवाज़ों को छेद कर आगे बढ़ती मेरे कानों तक वो आवाज़ पहुंची। मैं पीछे मुड़ा। लग तो रहा था कि अब भी ख्यालों में हूँ, मगर ख्यालों से निकलकर वो शख्सियत मेरे सामने खड़ी थी। "क्या हम यहाँ बैठ जाएँ?" वो धीमी सी आवाज़ में बोली। वो आवाज़ मीठी तो हमेशा से ही थी, धीमे स्वर में और भी मीठी होकर मुझ तक आ रही थी। "हाँ, हाँ ज़रूर" मैं बेंच के बीचों-बीच बैठा था, मगर ये सुनते ही दाहिनी तरफ सरककर बैठ गया। वो बाएं तरफ बैठी। "कैसे हो?" वो उसी धीमे स्वर को बरक़रार रखते हुए, अपने चेहरे पर आ चुके

भारतवर्ष ©लवी द्विवेदी

 किरीट सवैया छंद चरण- 4 (चार चरण समतुकांत)  विधान- भगण × 8 SII SII SII SII SII SII SII SII पंथ परस्पर प्रेम प्रतीति पिरो पुनि पावस वारि प्रवाहन,  गर्वित शौर्य सुजान सुमान निदान विधान विधा बहु गायन।  भारतवर्ष नवोदय भानु नवोदित पर्ण सुवर्ण पुरातन,  नेति उवाच विभिन्न विभा बहु कौशल शिल्प प्रधान प्रजाजन।  एकल अंबु धरा दिग चार विचार अचार सुचार प्रवाहित,  कर्म कलांतर उच्च विनोद प्रमोद अमोद पयोद सुशोभित।  नित्य निहार नितान्त महा जयघोष निरन्तर नाद स्वरा चित,  धन्य धरा कण पर्ण स्वरा तृण धन्य विहान विवर्तन आसित।  चाप प्रवीण कछार नवीन शिला रिपु भूपति एकहि वाचन,  धर्म जिहाँ सतकर्म अनेक विवेक अशोक अलोपहि सावन।  हे रज धन्य प्रभू जिँह राम नरायण कृष्ण उमा महि तारन,  पूज्य पुरातन ग्रंथ विधान तड़ाग नदीश सुसज्जित आँगन।  धन्य जवान किसान पुनर्यशगान स्वरंजित तोरण आदिक,  द्वार महाधुनि दुंदुभि बाजि उठी रसना लयकार  स्वभौमिक ।  ओज विहार प्रवाहित धार कृपाण सुप्राण तजै तन सैनिक,  माँ ऋण भार अपार तिरोहित भाव त्वमेव  जया जय माँ विक ।  ©लवी द्विवेदी

वीणा वादिनी माँ ©सुचिता

 जय हे वीणा वादिनी माँ ! जय हे किरपा दायिनी माँ !    ज्ञान-अंजन मल नयन में . ज्ञान भर दे बुद्धि मन में । हर ले तम , तम नाशिनी माँ । जय हे , वीणा वादिनी माँ  । ताल-लय छंदो की रानी .. तू तो माँ वेदों की ज्ञानी । स्वर दे , सुर नव रागिनी माँ। जय हे , वीणा वादिनी माँ। चेतना दीपक जला कर .. शूद्र मानव का भला कर । शुभ्र-छवि हंस वाहिनी माँ । जय हे , वीणा वादिनी माँ ।   ©सुचिता

ग़ज़ल- क्या चीज़ है ©रानी श्री

 2122 2122 2122 212 गीत लिखने के हुनर को, मौसिकी क्या चीज़ है, बेवफ़ाई को समझ क्या, आशिकी क्या चीज़ है। फ़र्क क्या है इश्क दोबारा अगर हो जो कभी,  इश्क तो है इश्क़ पहला, आख़िरी क्या चीज़ है। वो करे जो तंज हर पल, बिन समझ हर शेर पर, अब उसे हम क्या बताएं, शायरी क्या चीज़ है। अनकही कोई कहानी, कह रही है खामुशी, कब समझ होगी उसे ये, बेरुखी क्या चीज़ है।  जो फ़िदा हैँ खूबसूरत, हुस्न के अंदाज़ पर, आज उनको हम दिखा दें, सादगी क्या चीज़ है। दर्द उनको क्या पता हो, प्यार के हर वार का, दिल लगा कर देख लें वो, दिल्लगी क्या चीज़ है। प्यार काली रात से बस, दाग जिनके चांद में, कौन उनको ये दिखाए, चांदनी क्या चीज़ है। है ख़ुदा भी हार बैठा, इश्क की हर जंग में, जब ख़ुदा भी ना बचा तो, आदमी क्या चीज़ है। आज रानी क्यों लगे सब, कुछ तुझे भी बेवजह, गर सभी कुछ बेवजह तो, लाज़मी क्या चीज़ है। ~©रानी श्री

बालिका दिवस ©परमानन्द भट्ट

 तुम बिन यह अंगनाई बेटी गुमसुम सी पथराई बेटी रातों में रोया करती है याद तुझे कर माई बेटी बाबा भी गुमसुम से सोते दिन भर ओढ़ रजाई बेटी   तुम बिन भूल गया है छोटू झगड़ा और लडा़ई बेटी   इस घर के कोने कोने में तेरी याद समाई बेटी गुस्सा दादी को आया था जिस दिन माँ ने जाई बेटी दो दो आंगन महकाने को होती हाय पराई बेटी  सोच समझ कर मिलना जुलना यह दुनिया हरजाई बेटी तेरी भी है ब्याही बेटी फिर क्यूँ बोल सताई बेटी संग संग अपने साजन के अब रहना बन परछाईं बेटी  कब आयेगी पूछ रहे हैं नानी दादी ताई बेटी  मोबाइल पर मां खांसी तो बेहद ही घबराई बेटी  यादें तेरी रोज' परम 'के  मन आंगन में छाई बेटी ©परमानन्द भट्ट

दोहावली - जाड़ा ©सरोज गुप्ता

 शीत लहर ये कर रही, जीना अब दुश्वार ।  जीव जंतु इंसान पर, घातक किये प्रहार ।।  दुबके दुबके हैं नगर, सिकुड़े सिकुड़े गाँव ।  मिलती राहत धूप में, चुभती है अब छाॅंव ।।  पौधे भी अकड़े पड़े, मचा हुआ कुहराम । चंदा तारों के सहित, रवि को हुआ जुकाम ।।  ओढ़े कंबल धुंध की, प्रकृति खड़ी चुपचाप ।  माफ करो हे शीत जी, अब जाओ घर आप ।।  दिन बीते ये फुर्र से, खिंचती जाती रात ।  गिरती आँगन ओस यूँ, जैसे हो बरसात ।।  ठहरो थोड़ा धूप जी, जाड़ा जाये भाग ।  धरा गगन के बीच में, छिड़े बसंती राग ।।  ©सरोज गुप्ता

बड़ा आसान होता है ©दीप्ति सिंह

हज़ज मुसम्मन सालिम वज़्न- 1222 1222 1222 1222 मफ़ाईलुन/मफ़ाईलुन/मफ़ाईलुन/ मफ़ाईलुन  किसी का दिल दुखा देना.. बड़ा आसान होता है । ख़ता कर के भुला देना .. बड़ा आसान होता है । बड़ी मुश्किल से लम्हे चंद खुशियाँ लेके आते हैं .. इन्हें पल में मिटा देना.. बड़ा आसान होता है । हज़ारों कोशिशें करते हैं.. तो दिल मुस्कुराता है .. मगर दिल को रुला देना.. बड़ा आसान होता है । मयस्सर ख़्वाब में होती.. नहीं दुनिया हक़ीक़त की... मगर ख़्वाहिश जगा देना.. बड़ा आसान होता है । कभी सरहद की पथरीली.. ज़मीं पे आके वो देखें... जो कहते हैं कि जाँ देना.. बड़ा आसान होता है । ज़माने बीत जाते हैं.. भरोसे को निभाने में .... भरोसा को दग़ा देना.. बड़ा आसान होता है । अगर हम माफ़ कर पाते.. तो बेहतर आदमी होते.. ख़तावर को सज़ा देना.. बड़ा आसान होता है । ©दीप्ति सिंह "दीया"

अस्तित्व ©संजीव शुक्ला

 अपरिमित धार बहता संग क्षण-क्षण l असीमित सिंधु का अणुवत तुहिन कण l नगण अस्तित्व रज कण के सदृश मैं, सुगंधित वाटिका में तुच्छतम तृण l हृदय में कामना अनगिन समेटे l समसि को वर्जनाओं में लपेटे l प्लवन कर भाव पारावार में भी, रहे चिर चिन्ह अंतर के अमेटे l शिला खण्डों की लिपि में मैं नहीं हूँ l दबा आधार प्रस्तर मैं कहीं हूँ l नहीं हूँ दृष्टि में किंचित किसी की, तिरोहित हो सदा मैं भी यहीं हूँ l रहे निर्वाक जो वह स्वर मुखर हों l तिमिर गुह दीप की किरनें प्रखर हों l युगों से कामना है व्यग्र मन में, मरुस्थल में कभी शतदल,भ्रमर हों l सुना है क्षीण द्युति का स्त्रोत हूँ मैं l तिमिर परिवेश में खद्योत हूँ मैं l कदाचित मैं नहीं.. वह तुम स्वयं हो, परम् कृश क्षीण प्रतिपल ज्योत हूँ मैं l ©संजीव शुक्ला 'रिक्त'

गजल ©विपिन बहार

 सुकूँ से तोड़ के डाली,जहालत मौज लेती है । लड़ाकर धर्म से देखों, सियासत मौज लेती है ।। हमें उड़ते परिंदे ही मियाँ अच्छे बहुत लगते.. परिंदे कैद करके तो,शराफत मौज लेती है ।। मिली तारीख पर तारीख फिर भी आस क़ायम है.. कटा कर रोज यूँ चक्कर,अदालत मौज लेती है ।। ख़ुदा ने यार सब कुछ छोड़कर उसको बनाया है... हमारा दिल वहाँ लट्टू,इबादत मौज लेती है । सभी के साथ रहने से इमारत की बुलंदी है... हुआ जब घर में बँटवारा,अदावत मौज लेती है ।। हमारे शेर सुनकर के सुनों तारीफ कम करना.. अजी तारीफ ज्यादा हो,इनायत मौज लेती है ।। © विपिन"बहार"        

कागज वाली नाव ©नवल किशोर सिंह

कागज वाली नाव चली है, ढोल बोल की लिए पिटारी। सहमी सरिता पानी कम हैं। पतवारों की आँखें नम हैं। करवाने में भान भगीरथ, भाट हुए जाते बेदम हैं। माँझी जाल लिए हाथों में, ढूँढ़ रहा है मीन-सवारी। चमक-दमक है लिए किनारा। मृग-तृष्णा बन बहती धारा। घाट कहाँ बस भँवर दूर तक, नाव यही बस एक सहारा। शुल्क नहीं सुविधा का कोई, महज वोट की है घटवारी। नाव मचल जब चली धार में। जाकर फँसती बीच ज्वार में। प्रत्यावर्तन गुण भाटों का, खेना दुर्वह सिंधु-सार में। परनाले का दिए भरोसा, रेतों से तब करते यारी। देख उधर रेतों के टीले। अपने ही हैं कुटुमकबीले। निकल नहीं वे रहे वहाँ से, दलदल होते बड़े रसीले। स्रोत कहाँ सागर में मीठा? खारे जल का वह अधिकारी। खेतों में भी रेती बोना। रेतों में ही फलता सोना। जल की चिंता छोड़ सनेही, जल देगा घड़ियाली रोना। बीत चुनावी जाता सावन, कहो किधर फिर नाव उतारी? -©नवल किशोर सिंह

और क्या है ©शिवाँगी सहर

 कहा  है   जो   सही  है  और   क्या  है, यहाँ   तेरी   कमी   है   और  क्या   है। कोई   पूछे   तो   कह  देते   हैं  इतना, वो  मेरी   ज़िंदगी   है   और  क्या   है। यकीं करते हो जिन बातों को सुनकर, सभी  कुछ  अनकही है और क्या  है। अना   में   है  कोई   उसको   बताओ, तुझे   बस  चाहती  है   और  क्या  है। मोहब्बत  जो न  समझे उनसे  कहना, महज़  एक   दोस्ती  है  और  क्या  है। है  नाचे  जिसकी  धुन पर राधिका यूं, किशन  की  बाँसुरी  है  और  क्या है। समझ  कर  आग  जिससे भागते  हो, सुनो   बस  रोशनी   है  और  क्या  है। न   समझे  हाल  जो  अहबाब  कैसा, यकीनन  अजनबी  है  और  क्या  है। कभी  तो  शोर था  लहरों  में  उसकी, बची  अब  ख़ामुशी  है  और  क्या  है। ©शिवाँगी सहर

भ्रमर दोहे ©प्रशान्त

 मगण तगण गुरु मगण तगण SSS SSI S SSS SSI पाला-पोसा प्राण दे, माता ने संसार l हे देवी माँ! आपकी, पूजा बारम्बार l छाया देते वृक्ष-सी , झेलें झंझावात l ऐसी मेधा धन्य है, जै जै जै श्री तात l भाई जैसी मित्रता, दीदी जैसा प्यार l दूजा होता ही नहीं,  ढूँढे लाखों द्वार l नारी में नारायणी , नारी ही उत्थान l भार्या के सम्मान से, भर्ता आयुष्मान l संतानों के रूप में , आता है उल्लास l आरोगी संतान से , आनंदी आवास l सत्याग्राही विश्व को, देते जो सद्-ज्ञान l रिश्तों से ऊँचे गुरू, शिष्यों के सम्मान l © प्रशांत

प्रेम परिहार ©लवी द्विवेदी

 शैल सुता छंद चरण- 4 (दो-दो पद समतुकांत)  विधान- IIII + भगण (6) + गुरु IIII SII SII SII SII SII SII  +S सहज रहा मन पीर सुनी हिय सन्मुख साहस आस परे,  नहि हिय अश्रु अटाय जबै दृग दारुण दैहिक हास करे।  अविरल तीव्र प्रवाह अरू घट कालहि रूप निहार रही,  मरघट जे हिय आँखर सुप्त निशा सुधि त्याग प्रहार  रही।  शशि लघु रूप छटा तिह नाहि बिसारि सकूँ दुइ नैनन ते,  प्रिय परिचारि नही हिय तोर प्रभाव इहाँ किह कारन ते।  सरस सुधारस नाहि प्रमाण दयो जन जाहि विचारन जे,  शिथिल शिला जस एकटकी तिह होत प्रपंच दुशासन जे।  लखि परिहार विहार मनै मन अंकुश नाहि शिखी जिय मा,  तजि हिय आस विलास भई पिकि जे स्वर जानि जुरे हिय मा।  मन नहि शांति अशांति विभा लखि छद्म सुसज्जित सार सखी,  अलक महावर पैंजनि ते हिय पावस मंजुल हार सखी।  ©लवी द्विवेदी

उड़ान ©गुंजित जैन

 दूर क्षितिज तक लंबी कोई, हम सब उड़ान भरते हैं। मार्ग कठिन यह लगता हमको, लक्ष्य दिखे अब पास नहीं, तीव्र हवाओं को भी देखो, उड़ना होता रास नहीं, पर हर काँटे, कठिनाई को, सरल सुगम हम करते हैं, दूर क्षितिज तक लंबी कोई, हम सब उड़ान भरते हैं। स्वप्नों के आकाश तले अब, हम दुख सभी भुलाते हैं, पंख हमारे जो चंचल हैं, चलो! इन्हें फैलाते हैं, पंख पसारे नील गगन में, खग-सा चलो विहरते हैं, दूर क्षितिज तक लंबी कोई, हम सब उड़ान भरते हैं। छूनी सभी बुलंदी हैं अब, पैर धरा पर रखकर ही, जोश नहीं थोड़ा भी खोना, रहना सदैव तत्पर ही, है जज़्बा, है जोश रगों में, इनसे नहीं मुकरते हैं, दूर क्षितिज तक लंबी कोई, हम सब उड़ान भरते हैं। ©गुंजित जैन

ग़ज़ल ©अंशुमान मिश्र

 सो रही दुनिया, अंधेरे में दिल'ए बेदार लेकर, ढूंढता हूं मैं तुम्हें यूं,  नेमत'ए दीदार लेकर, जान कल ही ले गया कातिल निगाहों से कोई था , आज फिर से आ गया है इक नया आज़ार लेकर.. या करेगी नाम, या बदनाम होगी शायरी अब, आ गए जो महफिलों में एक बादा ख्वार लेकर.. जो कभी खुशियां मनाते पत्थरों को देखकर थे, आज देखो रो रहे हैं, गौहर'ए शहवार  लेकर.. और सबकी क्या कहें, पाकर नहीं खुश ज़िन्दगी जो, हम  मुसलसल  हंस  रहे हैं  मौत के आसार  लेकर.. एक आधी सी ग़ज़ल इस आस पर आधी रखी है, लौट कर पूरा  करोगे  तुम, नए  अश'आर  लेकर..                    -©अंशुमान मिश्र

नहीं आते! ©सौम्या शर्मा

 कैद करना तस्वीरों में वो सुहाने पल सभी! लौटकर फिर वो बीते जमाने नहीं आते!! दूर से ही खैरियत सबकी पूछ लेते हैं अक्सर! रिश्ते नये जमाने के आंख मिलाने नहीं आते!! छूट जाते हैं कभी जब सफर-ए- जिंदगी में! कांधे पर रखने हाथ वो दोस्त पुराने नहीं आते!! लाख कोशिशें कर लेना, फिर बताना हमें यारों! क्यों इश्क में कभी होश‌ ठिकाने नहीं आते!! अंदर ही घुटते हैं,मौत से पहले ही मर जाते हैं! वो लोग दिल के राज जिनको बताने नहीं आते!! हमसे मुहब्बत करना गर तो सच्ची सी कर लेना! आजमाइशों वाले हमको  तो तराने नहीं आते!! मात यूं भी खा गए हम रिश्तों की कशमकश में! हमको इल्जाम किसी पर भी लगाने नहीं आते! दिल को इस कदर मेरे साफगोई की आदत है! हां या ना के बीच के कोई बहाने नहीं आते!! सहेजकर रखना उन अजीज यादों को दोस्त! लौटकर वो बचपन वाले दिन सुहाने नहीं आते!! आज के दौर में रिश्तों की आजमाइश मत करना! दूर हो जाते हैं लोग, गलतफहमी मिटाने नहीं आते!! ©सौम्या शर्मा

बोलेंगे ©परमानन्द भट्ट

 जब हम नारे बोलेंगे गूँगे सारे बोलेंगे होठों की हर चुप्पी को नैन हमारे बोलेंगे अंगारों की बोली में आँसू खारे बोलेंगे अम्नो सुकूँ  हो बस्ती में यह हत्यारे बोलेंगे जिनके मन में धोखा हो प्यारे प्यारे बोलेंगे अँधियारे से आँख मिला जुगनू तारे बोलेंगे प्यार परम' गुड़ गूँगे का क्या बेचारे बोलेंगे ©परमानन्द भट्ट

गीत-सावन ©संजीव शुक्ला

 फिर आईं तपती रैना दिन पाहन के l बीते दिन मनभावन झरझर सावन के l बरसातें तन मन महकाती बीत चलीं,  पावस की ऋतुऐं मदमाती बीत चलीं l बीत चले दिन शीतल मधुर फुहारों के,  रिमझिम रातें रस बरसाती बीत चलीं l उड़ परदेशी बादल अपने देश चले,  लौट चले घर झुण्ड साँवरे मेघन के l व्याकुल विरहन प्यासी धरती की अँखियाँ, मिलकर पंथ निहारेंगी दोनों सखियाँ l फिर आशा के ताल तलैया सूख चले,  फिर मुरझाईं हरियाली खिलतीं बगियाँ l फिर से कुम्हलाई तुलसी घर आँगन की,  सूख चले बाड़ी के बिरवा चंदन के l मोहक रातें, मधुमासी दिन बीत गए ,  पंख लगाए सुंदर पल छिन बीत गए  l मधुर मिलन की रैना पल भऱ में बीती,  प्यास जगाकर रिमझिम सावन बीत गए l फिर से पलकें निश दिन पंथ बुहारेंगी,  फिर बदरा बरसेंगे प्यासे नैनन के l ©संजीव शुक्ला 'रिक्त'