पतझड़ के पत्ते ©गुंजित जैन
शाम का वक्त था, और अक्टूबर का महीना। अक्टूबर से ही अंदाज़ा लग गया होगा कि मौसम पतझड़ का था। मैं, वहाँ गार्डन में बैठा था, एक बड़े पेड़ की छाँव के नीचे लगी बेंच पर। धीरे-धीरे उस पेड़ के पत्ते गिरकर बिखर रहे थे। कुछ मेरे बालों में उलझे पड़े थे, कुछ बेंच पर गिरे थे, और वो रास्ता तो अपना रंग बदलकर पीला रंग धारण कर ही चुका था। खैर! मैं तो अपने अलग ख्यालों में खोया हुआ था। अचानक ख्यालों के बीच दस्तक देते हुए किसी की आवाज़ आई। उस पतझड़ के सन्नाटे में, आवाज़ करते सूखे पत्तों के शोर के बीच से, किसी तीर की तरह उन आवाज़ों को छेद कर आगे बढ़ती मेरे कानों तक वो आवाज़ पहुंची। मैं पीछे मुड़ा। लग तो रहा था कि अब भी ख्यालों में हूँ, मगर ख्यालों से निकलकर वो शख्सियत मेरे सामने खड़ी थी। "क्या हम यहाँ बैठ जाएँ?" वो धीमी सी आवाज़ में बोली। वो आवाज़ मीठी तो हमेशा से ही थी, धीमे स्वर में और भी मीठी होकर मुझ तक आ रही थी। "हाँ, हाँ ज़रूर" मैं बेंच के बीचों-बीच बैठा था, मगर ये सुनते ही दाहिनी तरफ सरककर बैठ गया। वो बाएं तरफ बैठी। "कैसे हो?" वो उसी धीमे स्वर को बरक़रार रखते हुए, अपने चेहरे पर आ चुके