अस्तित्व ©संजीव शुक्ला

 अपरिमित धार बहता संग क्षण-क्षण l

असीमित सिंधु का अणुवत तुहिन कण l

नगण अस्तित्व रज कण के सदृश मैं,

सुगंधित वाटिका में तुच्छतम तृण l


हृदय में कामना अनगिन समेटे l

समसि को वर्जनाओं में लपेटे l

प्लवन कर भाव पारावार में भी,

रहे चिर चिन्ह अंतर के अमेटे l


शिला खण्डों की लिपि में मैं नहीं हूँ l

दबा आधार प्रस्तर मैं कहीं हूँ l

नहीं हूँ दृष्टि में किंचित किसी की,

तिरोहित हो सदा मैं भी यहीं हूँ l


रहे निर्वाक जो वह स्वर मुखर हों l

तिमिर गुह दीप की किरनें प्रखर हों l

युगों से कामना है व्यग्र मन में,

मरुस्थल में कभी शतदल,भ्रमर हों l


सुना है क्षीण द्युति का स्त्रोत हूँ मैं l

तिमिर परिवेश में खद्योत हूँ मैं l

कदाचित मैं नहीं.. वह तुम स्वयं हो,

परम् कृश क्षीण प्रतिपल ज्योत हूँ मैं l

©संजीव शुक्ला 'रिक्त'

टिप्पणियाँ

  1. वाह्ह्ह्ह अद्भुत अप्रतिम छंदबद्ध कविता सर जी। नमन 🙏

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  2. अत्यंत उत्कृष्ट एवं ओजपूर्ण सृजन 💐💐💐🙏🏼

    जवाब देंहटाएं
  3. अत्यंत सुंदर सार्थक सृजन है सर...मन आनंदित हो गया 🙏🙏🙏🙏🙏

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  4. अद्भुत अतुलनीय उत्कृष्ट कविता सर🙏

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  5. उत्तर
    1. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  6. अत्यंत उत्कृष्ट भावपूर्ण सृजन 🙏🙏🙏💐💐

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