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लेखनी परिवार ©सरोज गुप्ता

 लेखनी शब्द है, लेखनी सार है। लेखनी भावनाओं का आकार है। भाव मन के समर्पित करे पृष्ठ को, लेखनी अपने लेखन का आधार है।। छंद दोहा सवैया गज़ल गीत में, शब्द शृंगार कर बोलते प्रीत में। गुनगुनाने लगे शून्य भी श्वास ले भाव सजधज के आये जो संगीत में। मौन को तोड़ कर वार्ता जो करे, ऐसी अभिव्यक्ति का एक संचार है।। सीखते हैं यहाँ और सिखाते भी हैं, भावों को शिल्प से हम सजाते भी हैं। नित नई इक वधू रूपी कविता से हम एक दूजे का परिचय कराते भी हैं। शब्द को पूजते जो यहाँ ईश सम ऐसे ही पूज्य वृंदों का संसार है।। ©सरोज गुप्ता

लेखनी ©गुंजित जैन

 मंच यह लेखन का, साहित्य के वंदन का, कवियों के चिंतन का, एक चारु द्वार है। समसि की कंपन का, कर्णप्रिय गुंजन का,  शब्द, भाव सिंचन का, सुंदर विचार है। गुणवान यौवन का, प्रौढ़ता, संवेदन का,  गीत और गायन का, मिलन साकार है। हर्षण का, क्रंदन का, सृजन की गर्जन का, गुंजित के जीवन का, लेखनी ही सार है। ©गुंजित जैन

ग़ज़ल ©संजीव शुक्ला

 बारिश का आसमाँ है सहाबों में रहेंगे l यूँ चंद आफ़ताब नकाबों में रहेंगे l ज़ज़्बात शाइरी की शक़्ल ले सके अगर...  तहरीर-ए-वफ़ा बन के निसाबों में रहेंगे l सहरा की रेत औऱ अक़्स माहताब का....  हम बस इन्ही हसीन सराबों में रहेंगे l गुलदान में सजें ये मुकद्दर में कहाँ है....  काँटों के साथ सुर्ख गुलाबों में रहेंगे l गर बेखयाल हो के कभी छू गया कोई...  छेड़ेंगे कोई तान रबाबों में रहेंगे l खामोश क़ब्र में जो उतर जाए, हम नहीं...  तहरीर में मिलेंगे........ क़िताबों में रहेंगे l आया करेंगे 'रिक्त'ज़हन में कभी कभी..  बाक़ायदा माज़ी के हिजाबों में रहेंगे l © संजीव शुक्ला रिक्त

ग़ज़ल ©रानी श्री

नमन, माँ शारदे  नमन, लेखनी  बहर - 1222 1222 1222 1222 कहीं पर अर्ज हो जाए,ग़ज़ल की शाम क्या कीजे। मुहब्बत कर्ज हो जाए, तुम्हारे नाम क्या कीजे। कभी इतनी वफा भी मत निभाना जान ले ले जो, मुकदमा दर्ज हो जाए, लगे इल्ज़ाम क्या कीजे। कि जिसपर जान से ज़्यादा भरोसा कर लिया हमने, वही खुदगर्ज हो जाए, मिले अंजाम क्या कीजे। गजल गर चांद पर या रात पर हो इक नशीली सी, बहकता तर्ज हो जाए, छलकता जाम क्या कीजे। छिपाते रह रहे ख़ुद को कि ज़िम्मेदार बनने से, निभाना फर्ज हो जाए, तो दूजा काम क्या कीजे। दुआ में घोलकर सारा ज़हर हमको दगा मत दो, दवा ही मर्ज हो जाए, कहीं आराम क्या कीजे। लिखे थे प्यार के वो ख़त,कभी जो प्यार से 'रानी', अगर वो हर्ज हो जाए, लिखा पैगाम क्या कीजे। ©रानी श्री 

ग़ज़ल ©दीप्ति सिंह 'दीया'

राधेश्याम  नमन,माँ शारदे नमन, लेखनी बहर -122  122  122  122 तेरी नेमतों से शिकायत नहीं है, मगर ख़ुश रहें ये भी हालत नहीं है।   सज़ा बेक़सूरों को भी मिल रही है , जो उनपे तुम्हारी इनायत नहीं है।  है महरूम इंसानियत आदमी से, कि अब आदमी  से मुहब्बत नहीं है।   शिकायत तुम्हारी कहाँ लेके जाएँ , कि तुमसे बड़ी तो अदालत नहीं है ।  सदा रौशनी हो जो "दीया" जलेगी, कि ये तीरगी दिल की फितरत नहीं है।   ©दीप्ति सिंह 'दीया'

जब तुम मिले ©सम्प्रीति

नमन, माँ शारदे  नमन, लेखनी  चाँद भी फीका लगता है, पता चला  जब तुम मिले, रोशनी से ज्यादा कोई चमकता है, पता चला जब तुम मिले, तुम मिले तो पता चला मन ही मन मुस्कुराना क्या होता है, खुद में शर्माना भी कुछ होता है, प्यार से भी प्यारा कोई होता है, पता चला जब तुम मिले, तुम मिले तो समझ आया बैठे बैठे ख्वाबों में खो जाना क्या होता है, खुद ही खुद से बतियाना क्या होता है, अंधेरे भी खुबसूरत होते हैं, अहसास हुआ जब तुम मिले, हवाओं में संगीत होता है, पता चला जब तुम मिले, तुम मिले तो पता चला संगीत में किसी का झलक जाना क्या होता है, किसी में किसी का चेहरा भी नज़र आता है, किसी को पल भर देखना भी सुकून होता है,पता चला जब तुम मिले, तुम मिले तो पता चला इंतज़ार का भी एक अलग मजा होता है, किसी से दूर रहना भी सजा होता है, बेवजह बहाने बनाना भी कुछ होता है, पता चला जब तुम मिले, तुम मिले तो पता चला आंखों आंखों में भी बहुत कुछ होता है, फिर शरमा कर नज़रें झुकाना भी कुछ होता है, खुद में किसी का अहसास बसता है, पता चला जब तुम मिले, जब तुम मिले तो पता चला किसी में बेपनाह डूब जाना क्या होता है, इश्क सा गहरा दरिया भी कुछ हो

गीत - श्रीकृष्ण © हेमा काण्डपाल 'हिया'

नमन, माँ शारदे  नमन, लेखनी  आधार छंद - विधाता  मात्रा - 28,  १ली , ८वीं, १५ वीं, २२ वीं मात्रा लघु अनिवार्य   १४, १४ पर यति  मुकुल,पल्लव, कुसुम, भौरे, परस्पर मुस्कुराते हैं, अलौकिक तेज ऐसा के, सितारे झिलमिलाते हैं। बनाया वेश वामन का, त्रिविक्रम रूप दिखलाया, 'बली' तुम दंभ को त्यागो, यही संदेश पहुँचाया, रखा पग दम्भ में वामन, बली पाताल पहुँचाए, हुई नभ गर्जना सुनकर, सभी जन थरथराते हैं। पढ़ाया सार द्वापर में, मदन कौंतेय को गीता, धनुष त्रेता धरा कर में, छुड़ाई राम ने सीता, कहे मीरा तुम्हें गिरधर, तुम्ही राधा-रमण कान्हा, तुम्हारी ज्योति से तारे व सूरज जगमगाते हैं। बनूँ मैं श्याम की प्यारी, उन्हीं का नाम मैं ध्याऊँ, निरंतर कृष्ण लीला का, मनन करती चली जाऊँ, वही मुरलीमनोहर हैं, वही माधव वही मोहन, उन्हीं से गीत हैं मुखरित, गगनचर चहचहाते हैं। © हेमा काण्डपाल 'हिया'

कविता - थोड़ा तुम मुझ-सा हो जाना! ©अंशुमान मिश्र

नमन, माँ शारदे  नमन, लेखनी जब मेरी आदत के चलते मैं कमीज़ पर दाल गिरा दूंँ, चाय अगर तुमसे बनवा-बनवा कर, तुमको खूब थका दूंँ।  जब  मेरे  दफ्तर  से  वापस  आने  में देरी  होने  पर, मैजिस्टिक टॉकिज में हम पहुंचें पिक्चर पूरी होने पर।  जब मेरा चश्मा सर पर रखकर मैं उसको घर भर खोजूंँ, बाल तुम्हारे गुंँथकर जब  मस्ती में उनको जी भर नोचूंँ।  नए  तुम्हारे  शैंपू  से  जब  मैं अपनी  गाड़ी धुल  डालूंँ, या फिर जब आलस के चलते अपना तकिया तुम्हें बना लूंँ। जब जीवन के क्रूर क्षणों में, मैं अपना सब संबल खो दूंँ, और  तुम्हारे  पूछे  जाने  पर  मैं बुरी  तरह  से  रो  दूंँ।  जब मैं खुद निर्दोष रहूंँ, पर जग मुझको दोषी ठहराए, हृदय वेदना रहे अपरिमित, पर शब्दों में कही न जाए।  तब तुम मुझसे गुस्सा मत होना, मुझको समझा लेना, मेरी  नादानी  की  आदी  बन  मुझको  अपना  लेना।  “मेरे  आंँसू  गिरें अगर  तो  सिर्फ  तुम्हारे  आंँचल पर, मेरे  हर  निर्णय  में सदा  तुम्हारा  हो  विश्वास  अमर।” मेरी  आंँखो  के  हर  आंँसू  के  भावों को  पढ़ना तुम, मेरे  जीवन  की  खुशियों के  रिक्त घड़े को भरना तुम।  फिर जीवन के अंत क्षणों में कभी कि

कविता- विहीन ©लवी द्विवेदी

नमन, माँ शारदे   नमन लेखनी  छंद -पद्धरि छंद (सम मात्रिक ) चरण - चार, मात्रा -१६ यति १०,६ या ८ ,८  चरणांत जगण( । ऽ ।  ) हिय पीर करे, कब तक विहार।। आकाश द्रवित रुग्णित समीर, घन करुण नाद हिय कर्ण भीर। तारक गण क्षण क्षण हों अधीर,  शशि का वियोग दे हृदय चीर।  आभा कुरूप संयम कुठार,  दामिनी व्यग्र करती प्रहार। पीड़ा कठोर दे अंधकार, भीरुता कौन देखे अपार। हिय पीर करे कब तक विहार।। तम वक्ष दीप्ति बिन है विहीन, घृत शुष्क मौन बाती महीन।  पीड़ा अभिलाषा में विलीन,  हो कब विहान प्रात: नवीन। मस्तक रेखाएं द्वार द्वार,  बन भिक्षु लगाती हैं गुहार,  प्रिय प्राण दीप रह गृह बिसार,  दीपक प्रशमन करते बयार। हिय पीर करे कब तक विहार।। रुग्णित धमनी में रक्त व्यग्र  प्राणों की प्रत्याशा समग्र।  केंद्रित होकर एकांत अग्र,  मन ले विचार दे छोड़ नग्र। हिय के समीप जन के विचार,  यदि प्रेम समर्पण दें नकार।  कर देय तिरस्कृत पिय पुकार। निश्चित है अंतिम संस्कार।  हिय पीर करे कब तक विहार।। ©लवी द्विवेदी 

ग़ज़ल ©परमानन्द भट्ट

नमन, माँ शारदे  नमन, लेखनी    गाँव हर शहर में सूरज का रिसाला जाये, भोर होने को है अब दौर ये काला जाये।  आँख खुलते ही जो हर रोज़ बिखर जाता है, आज से आँखों में वो ख़्वाब न पाला जाये ।  जिनके गीतों में महकती है वतन की ख़ुशबू, उनके कंधों पे अदब का ये दुशाला जाये।  पेड़ पर बैठे परिंदे का भी हक है फल पर, अब यहाँ से कोई पत्थर न उछाला जाये ।  है बहुत काम भले ही हमें दफ़्तर घर के, बाप के साथ भी कुछ वक्त निकाला जाये।  आज सूरज से खुलेआम कहेंगे हम सब, "गाँव के आखिरी घर तक भी उजाला जाये"।  ये 'परम' प्यार की गंगा है बचा लो इसको, कोई कूड़ा यहाँ नफ़रत का न डाला जाये।  ©परमानन्द भट्ट

ग़ज़ल ©शिवांगी सहर

नमन, माँ शारदे  नमन, लेखनी  छुपा  लेता   है  कुछ  कहता  नहीं  है, बुरा   है   दिल  मगर  इतना  नहीं  है। किसी से कह के क्या तअर्रुफ़ कराएं, ये  मुझसे  बात  ही  करता  नहीं   है। तुम्हें   कैसे   कहें   अपना   मुसाहिब,  हमारे   बीच   जब   रिश्ता  नहीं    है। भला  कैसे  भरें   अपनी  ख़ला   को, कोई  भी  दुख  मेरे   सुनता  नहीं  है। मेरे   मुर्शिद    मुझे   तू   फ़लसफ़ा  दे, मेरा  मन क्यों  कहीं  लगता  नहीं है। अजब  सी  कश्मकश  में  ज़िंदगी  है, है अच्छा और क्या अच्छा नहीं है। ख़लिश सी हो गयी ग़ज़लों से मुझको, "सहर" लिक्खा कोई पढ़ता  नहीं है। ©शिवांगी सहर

ग़ज़ल ©गुंजित जैन

नमन, माँ शारदे  नमन, लेखनी   ये तिनके, पत्तियाँ क्या हम ही रख लें? शजर में आशियाँ क्या हम ही रख लें? ख़ुशी तो दे नहीं पाए हमें तुम, मगर, ये सिसकियाँ क्या हम ही रख लें? तुम्हें बेताब आँखें ढूँढती पर, उठी बेताबियाँ क्या हम ही रख लें? महल अश्क़ों का हमको दे दिया है, ख़ुशी की खिड़कियाँ क्या हम ही रख लें? बड़ा होने की इस जद्दोजहद में, बची नादानियाँ क्या हम ही रख लें? तुम्हारे होंठ को छूकर गईं जो, वो महकी तितलियाँ क्या हम ही रख लें? हुनर 'गुंजित' ज़रा तुम भी तो रक्खो, ये सारी खूबियाँ क्या हम ही रख लें? ©गुंजित जैन

कविता- शिव संस्थापन ©सूर्यम् मिश्र

नमन, माँ शारदे  नमन, लेखनी    लंका पर विजय कामना से। रावण-वध प्रबल भावना से ।। श्री राम उदधि के कूलों पर। थे सत्य साधना मूलों पर ।। तब मन में एक विचार हुआ। यूँ भक्ति भाव विस्तार हुआ।। निकला हूँ विजय साधने जब। शिव संस्थापित हो जाएँ तब।। यह सोच राम विदुजन समक्ष। आए रखने यह दक्ष पक्ष।। यह मत विद्वानों को भाया। सबका मन इससे हर्षाया ।। बोले प्रभु है यह कार्य उचित। हो शीघ्र कार्य संसार विदित।। शिव सफल करेंगे मत निश्चय। प्रमुदित हो बोले सब जय जय।। शिवलिँग स्थापित करवाएँ। आकर उसमें शिव बस जाएँ।। धारें प्रभु अब वेदादि मर्म। संपन्न करें यज्ञादि कर्म।। सत कोटि सुमंगल दायक है। यह कार्य हृदय हर्षायक है।। आचार्य धार, कर विधि-विधान। पूरा कर दें यह अनुष्ठान।। आचार्य सुशोभित हो वैसा।  जो वैष्णव हो शिव के जैसा।। जो कर्म कांड का ज्ञाता हो। वैदिक,प्रकांड आध्याता हो।। सबने सबका मस्तक देखा। खिँच उठी रंज रंजित रेखा।। आचार्य कहाँ से लाएँ अब। गुण जिसमें यह भर जाएँ सब।। चिर मौन सभा भर में छाया। श्री जामवंत मन कुछ आया।। वह बोले विसरित शंका में।  है वैष्णव ऐसा लंका में।। है व्यक्ति किंतु लंकेश वही। जो कर सकता यह

मुझे नहीं बनना है © रेखा खन्ना

 कहने को देवी है और पूजी जाती है लेकिन अगर हो जाए कहीं लड़ाई तो मां बहन की गाली बन जाती है। त्याग की मूर्ति घोषित की गई है, वात्सल्य से भरी बताई गई है। अपने भीतर अनेक दर्दों के बीजों को बोए रखती है माँ बनने का दर्द सहती है पर बहुत बार कठिनाई के कारण बच्चे का मुंह देखे बगैर ही स्वर्ग सिधार जाती है। औलाद ना हो तो बांझ कहलाने का दर्द सहती है पर पुरुष अगर बाप बनने की काबिलियत ना रखता हो तो उसे बांझ ना कह कर उसके हिस्से का दोष भी स्त्री के माथे मढ़ दिया जाता और बेटी को जन्म दे दे तो बेटा ना देने का ताना सहती है अधिकांश समय बेटी होने का ताना सुनती है और बेटी पैदा करने पर मार दी जाती है। गरीब मां-बाप के घर दहेज़ की समस्या बन पैदा होती है और लालची ससुराल में केरोसिन और कुकर फटने की घटना की भेंट चढ़ जाती है। कभी कभी लगता है जैसे स्त्री एक ना‌ खत्म होने वाली परीक्षा लेकर पैदा होती है। परीक्षा, खुद के अस्तित्व को साबित करने की और बीमार मानसिकता वाले लोगों से अपनी अस्मिता की रक्षा करने की पर एक वरदान भी लेकर आती है, वरदान सृजन का। अक्सर सोचती हूँ कि प्रकृति ने सिर्फ औरत को ही अधिकार दिया है सृजन क

छंद पंच चामर ©संजीव शुक्ला

 दिया जले दिशा दिशा प्रकाश का प्रसार हो l अनेक ज्योति पुंज एक भावना विचार हो ll समस्त शक्ति राष्ट्र भक्ति संग जो अपार हो l अवश्य राष्ट्र मुक्त... कष्ट से सभी प्रकार हो ll सवाम सप्त कोटि कंठ वीरता हुँकार हो l समूह शंखनाद.....विश्व भेदती पुकार हो ll विभिन्न वेश जाति किंतु एक संसकार हो l समस्त शक्ति साध लक्ष्य में कड़ा प्रहार हो l विपत्ति आपदा विलुप्त हो व्यथा सँहार हो l विनष्ट वेदना...... समूल आपदा निवार हो l विलुप्त मेघ कष्ट के ....उछाह द्वार-द्वार हो l मयंक राहु मुक्त हो.... विलुप्त अंधकार हो ll © संजीव शुक्ला रिक्त

कुछ दोस्त बहुत याद आते हैं ©सरोज गुप्ता

 यादों की खिड़की खोलूॅं तो, कुछ दोस्त बहुत याद आते हैं। बचपन की बातें बोलूॅं तो कुछ दोस्त बहुत याद आते हैं।। वो बातें बड़ी निराली थीं, नटखट सी प्यारी प्यारी थीं, स्कूल की राहें लम्बी थीं पर आज भी मन को भाते हैं। कुछ दोस्त बहुत याद आते हैं।। इमली कमरख और कैथों का, वो तेल से भरे अचारों का, बॅंटवारा करते खानों का, सौहार्द का पाठ पढ़ाते हैं। कुछ दोस्त बहुत याद आते हैं।। एक दूजे के घर आ जाना, घंटों बैठे बस बतियाना, फिर लौट के बुद्धू घर आना, वो सोच सोच मुस्काते हैं। कुछ दोस्त बहुत याद आते हैं।। @सरोज गुप्ता

ग़ज़ल ©रानी श्री

नमन, माँ शारदे  नमन लेखनी 2122 2122 212  ज़िंदगी का इक मज़ा दे दे मुझे, गर गलत हूँ तो सज़ा दे दे  मुझे। नज़्म कुछ लिख दूं तुम्हारे नाम के, लिखने की थोड़ी रज़ा दे दे मुझे। मेरे हिस्से ज़िंदगी गर हो नहीं, कत्ल कर मेरी कज़ा दे दे मुझे। पेश करती हूँ लिखे कुछ शेर मैं  तू ज़रा बस हब्बज़ा दे दे मुझे। तोड़ कर ख़ामोशियां कुछ बोल दे, कह रही मैं, तू जज़ा दे दे मुझे। है ज़रा से हौंसले मुझमें अभी, हिज़्र में कोई अज़ा दे दे मुझे। जोश में चिंगार है कि अब जले, तू कहीं से भी फ़ज़ा दे दे मुझे। इश्क़ का दे इल्म रानी जो तुझे  मुकतज़ा वो मुर्तज़ा दे दे मुझे। ©रानी श्री

ग़ज़ल ©प्रशांत 'ग़ज़ल'

नमन, माँ शारदे  नमन, लेखनी   दिल पे पत्थर रख लिया , हालात बेहतर कर दिए , आस्तीनें खोल दीं, कुछ सांप बे-घर कर दिए ।  इश्क़ ढाई अक्षरों का साल ढाई तक पढ़ा, बेवफ़ा ने अश्क़ के फिर ढाई अक्षर कर दिए।  क्या जरूरी है बनाता ताज जैसा इक महल, फर्श, छत, दीवार, दर सब संगेमरमर कर दिए।  कर रहा था हाथ पीले बेटियों के जब जहाँ, बेटियों ने थाम परचम ख़ुद मुक़द्दर कर दिए।  दिल के हर ज़ज्बात को रक्खा छिपाकर आजतक,  पर 'ग़ज़ल' तेरी कलम ने सब उज़ागर कर दिए।  ©प्रशांत 'ग़ज़ल'

दोहा ©दीप्ति सिंह

 रे मन मन को मार के, बने न कोई काज । सबही भूल बिसार के, सुंदर बनता आज ।। जीवन सुख दुख से बना, ये जीवन आधार । धीरज मन में राखिये, करिये सब स्वीकार ।।  मन की निर्मलता रहे, बचे न कोई काँट । सुख दुख जो प्रभु से मिले, दीजै सबमें बाँट ।। सुख में सब साथी बनें, दुख में छोड़ें हाथ  । रहिये प्रभु के आसरे,  सदा रहेंगे साथ  ।। उर आनंद बसाइये, लीजै प्रभु का नाम । प्रभु के ही गुण गाइये, पूरन होंगे काम ।। © दीप्ति सिंह ' दीया'

रोशनी ©गुंजित जैन

 "पर्स रख लिया, बैग रख लिया और टिफ़िन, वो भी रख लिया। कुछ रह तो नहीं गया...! घड़ी। हाँ घड़ी रह गयी।" अपनी सूनी कलाई देखते हुए मैं बोला। वही घड़ी जो शादी की दूसरी सालगिरह पर तुमने मुझे दी थी, उपहार के तौर पर। उस दिन को अब 8 साल हो गए हैं।  उस घड़ी का वो सुनहरा फ्रेम आज भी वैसा ही है। हाँ, कुछ जगहों से उसकी सुनहरी परत उतर गई है और घड़ी का पट्टा भी मैंने बदलवा लिया है। दुकान वाले ने तो कहा था 'साहब पुरानी घड़ी को सही करवाकर क्या करोगे, नई लेलो', मगर इस से तुम्हारी यादें जुड़ीं थीं, तो कैसे जाने देता! तुम्हारा दिया आख़िरी तोहफ़ा जो था। वैसे तुम्हारे उपहार देने का कारण भी मैं जानता हूँ।  मैं शुरू से ही समय का पक्का नहीं था। हमेशा देर से उठना, देर से तैयार होना। जायज़ सी बात है, दफ्तर के लिए भी अक्सर देर हो ही जाती थी। तुमने इस घड़ी को 15 मिनट आगे भी किया था, ताकि मैं समय पर दफ्तर के लिए निकल जाऊँ। फिर भी कई बार मैं लेट हो जाता था। तुम हर बार खीझकर कहती थी   "ओफ़्फ़ो, आज फिर लेट। क्या करूँ मैं तुम्हारा!" और मैं अतरंगी सी शक्लें बनाने लगता था। सच कहूँ तो इस पुरानी घड़ी की 'टि

ग़ज़ल ©सौम्या शर्मा

आज याद आ गया मुस्कुराना तेरा।  मुस्कुराकर मेरा दिल चुराना तेरा।  बस ज़रा सी झलक देखने को मेरी, जाने कितने बहाने बनाना तेरा।  सर्द मौसम हो या गर्म हो दोपहर, रोज मेरी गली आना- जाना तेरा।  रूठ जाऊं कभी तो मनाने मुझे, मुस्कुरा हक जताकर मनाना तेरा।   मैं ये कैसे कहूँ पास तू था नहीं, मेरे दिल में रहा है ठिकाना तेरा।  खो भी जाऊं कभी, ढूंढ लाना मुझे, फ़र्ज़ है मुझको, मुझसे मिलाना,तेरा।  तू सहर है मेरी तू ही शब है मेरी, वास्ता मुझसे है कुछ पुराना तेरा।  याद आता है सिरहाने पर बैठना, बैठकर सारी बातें सुनाना तेरा।  वो मेरा देखना एकटक सा तुझे, मेरी आंखों से आंखें मिलाना तेरा।  है तेरा शुक्रिया सुन ऐ मेरे खुदा, नेमतों का जो बरसा खजाना तेरा।  ©सौम्या शर्मा 

पग धूल ©लवी द्विवेदी

 भटककर आ रही हूँ द्वार तेरे हरि शरण दे दो। मुझे बस चाहिए पग धूल, मृण में आवरण दे दो।। मुझे ना श्वास की आशा न आशा आत्म तर्पण की,  न तुझसे चाहिए ऐश्वर्य, वैभव, डोर तोरण की।  पखारूँ अश्रुओं से पग प्रभू अपने चरण दे दो।  मुझे बस चाहिए पग धूल, मृण में आवरण दे दो।। कृपालू श्वास मेरी रुँध रही वातावरण कैसा?  मुझे पहचानने में देर क्यूँ इसमें कृपण कैसा?  प्रभू इतना करो बस व्यय प्रणय के आभरण दे दो।  मुझे बस चाहिए पग धूल, मृण में आवरण दे दो।।  विदारण भक्ति होती जा रही जीवन मरण रण में,  तुम्हारी वेणु के स्वर कर्ण तक आते न विचरण में।  प्रभू मेरे दृगों को हरि दरश के जागरण दे दो। मुझे बस चाहिए पग धूल, मृण में आवरण दे दो।। ©लवी द्विवेदी 'संज्ञा'

लघुकथा - प्यार दोस्ती है ©शैव्या मिश्रा

नमन, माँ शारदे  नमन, लेखनी   प्यार दोस्ती है, अक्सर मेरी इन तन्हा रातों को तुम्हारी कही हुई ये बात और भी तनहा करती है रेहान। यूँ तो तुमसे जुड़ी हर बात मेरे ज़ेहन किसी फ़िल्म के फ़्लैशबैक जैसी चलती ही रहती है मगर एक जगह जहाँ आकर मेरी रील अटक जाती है जब तुमने अपनी मुहब्बत का इज़हार किया था, तुमने मेरे माथे को चूमते हुए मुझसे वादा किया था कि एक दिन तुम मुझे हमेशा के लिए अपना बना लोगे!  पर अफ़सोस रेहान ये वादा तो वादा ही रह गया। मैं तुमको क़सूरवार ठहराने से पहले ये साफ़ कर देना चाहती हूँ, मैंने जिस दिन से तुम्हें चाहा था, उस दिन से ये भी जाना था, मेरा और तुम्हारा मिलना, एक हो जाना केवल दुनिया में तमाम तरह की रुसवाइयाँ ही लाता, ये भी कि ये जो तुम्हारी और मेरी हैसियत का फ़ासला था उसे नाप पाना हमारी मुहब्बत के लिए लगभग नामुमकिन था।  कहाँ मैं खान इंडस्ट्रीज के मालिक राशिद ख़ान की इकलौती बेटी कहाँ तुम एक मुलज़िम के बेटे। ये सब जानते हुए भी मुझे तुमसे इश्क़ हो गया। मेरे वालिद को भी तुम्हारे हुनर, तुम्हारी क़ाबिलियत का अन्दाज़ा था, इसीलिए बचपन से ही उन्होंने तुम्हें हमारे साथ पढ़ाया था! तुम क्लास

गीत - सुधियाँ ©संजीव शुक्ला

 सुधियाँ परछाईंहोती हैँ, आजीवन पीछा करतीं हैँ l अमर सदा रहती हैँ मन में कभी नहीं मरतीं हैँ l बादल बन कर नील गगन में,  पल पल में आकार बदलतीं l कभी भोर का उजियारा फिर ,  शाम सुनहरी बन कर ढलतीं l कभी ज्योत्सना जगमग शशि की,कभी अमा निशि बन डरतीं हैँ l धूल बनी बिखरी मरुथल में,  रजकण बनी कभी सागर तट l कभी अधर पर स्मित ज़ब-ज़ब   सुधियाँ मुखर हुईं मानस पट l कातर नयनों के निर्झर से,बनकर अश्रु कभी झरतीं हैँ l श्रावण में दामिनि कि द्युति बन,  सहसा चमक उठीं अंबर पर l सरि की कल-कल जलधारा में,  डोलें डगमग नौका बन कर l स्मृति नभ के इंद्र धनुष में, रंग अनेक कभी भरतीं हैँ l बनकर सर-सर मंद झकोरे,  पत्तों से गाथा कहतीं हैँ l भूले बिसरे गीत सुनातीं,  स्वर लहरी बनकर बहतीं हैँ l एकाकी मन की संगिनि बन,विविध रूप सुधियाँ धरतीं हैँ l वेद ऋचा बन वर्ण-वर्ण से,  ज्ञान शाश्वत दे जाती हैँ l शांत सरोवर निर्मल मन में, कभी लहर बन लहराती हैँ l सुधियाँ पीड़ा हुईं कभी तो,औषधि बनीं पीर हरतीं हैँ l ©संजीव शुक्ला 'रिक़्त'

ग़ज़ल ©अंशुमान मिश्र

नमन, माँ शारदे  नमन, लेखनी ज़रा  बेचैन  हूंँ, कोई  निशानी  छोड़  आया  हूंँ, कहीं  पीछे  अधूरी - सी कहानी  छोड़ आया हूंँ।  समेटी ज़िन्दगी मैंने बहर में औ' ग़ज़ल कह दी, कि मिसरों में फकत यादें पुरानी छोड़ आया हूंँ।  बुढ़ापे के सभी आज़ार मकते में लिखे मैंने, कि मतले में महकती सी जवानी छोड़ आया हूंँ।  कलम से गर्दनें हर्फों की कर डाली कलम मैंने, तड़पते काफ़ियों में खूंँ फिशानी छोड़ आया हूंँ।  किसी मासूम राही से, बदल सामान मैं अपना, ज़हर  लेकर के उसके पास पानी छोड़ आया हूंँ।  ©अंशुमान मिश्र

गीत ©रानी श्री

  मैं कहीं पर भी जाऊँ,  ख़ुद में ही तुझको पाऊँ। तुझे ख़्वाबों में बसा कर, तुझमें फना हो जाऊँ। ये लबों की मुस्कराहट, मेरी जां निकालती हैं । के वफ़ा की ये अदाएं, मुझको संभालती हैं। तू जो सामने खड़ा है,  मेरे होश मैं गवाऊँ। तुझे ख़्वाबों में बसा कर,  तुझमें फना हो जाऊँ। है सहर सा मेरे दिल के,  शब स्याह का सनम तू। मेरे साथ जीने मरने, की जो ले ले ये कसम तू। तुझे पलकों पे सजाऊँ,  तुझे रूह में बसाऊँ। तुझे ख़्वाबों में बसा कर , तुझमें फना हो जाऊँ। ©रानी श्री

ग़ज़ल ©सरोज गुप्ता

नमन माँ शारदे  नमन लेखनी  जुदाई में किसी को डूब करके याद करना क्या,  उदासी की घटाओं को निगाहों में उतरना क्या ।  दिखे जो आइना हमको तो पूछे सौ सवालों को,  न हो दीदार दिलबर का तो फिर सजना सँवरना क्या ।  भरें हो अश़्क आँखों में, बहा दो खुद-ब-खुद इनको,  वगरना डूब कर इनमें अजी फिर रोज़ मरना क्या ।  मोहब्बत की खुशी चेहरे पे दिखती नूर बन करके, सजावट के हज़ारों दाँव पेंचो से निखरना क्या ।  ये मुश्को-इश्क छिप सकती नहीं यारों छुपाने से, गुले-गुलशन को गुलफामों से दूरी अब ये करना क्या ।  परिंदे घोंसले में लौट आते...... शाम होने पर, बिना मकसद गली की धूल कदमों से बिथरना क्या ।  ©सरोज गुप्ता

गज़ल ©दीप्ति सिंह

 इस क़दर मुहब्बत कर जाओ,कि जिस्म समंदर हो जाए । मैं तेरे अंदर खो जाऊँ, तू मेरे अंदर खो जाए। ये ख़ुशियाँ कुछ पल की भी हों,तो भी है ये मंज़ूर मुझे,  बस लम्हा इतना क़ाबिल हो,कि ख़ास वो मंज़र हो जाए । पहलू में इतने पास रहो,कि साँसों में साँस घुल जाए, और इन साँसों की गर्मी से, हर ख़्वाहिश बंजर हो जाए । जब-जब ये नज़रें मिलती हैं, तू रूह मेरी छू लेता है, नज़रों के यूँ ही मिलने से, हर ग़म छूमंतर हो जाए । ये हवा तुम्हें जब छूती है, महसूस मुझे हो जाता है,  जो छूले मुझको ग़र यूँ ही, तो आज बवंडर हो जाए । तू आज मयस्सर हो न हो, तू साथ उमर भर हो न हो,  बस नाम हो तेरा साँसों में, और साँसे पत्थर हो जाए । मन प्यासा है मन काला है, बिन तेरे कहाँ उजाला है,  जो तू बस जाए रग-रग में, तो 'दीया' बेहतर हो जाए । ©दीया