ग़ज़ल ©गुंजित जैन
नमन, माँ शारदे
नमन, लेखनी
ये तिनके, पत्तियाँ क्या हम ही रख लें?
शजर में आशियाँ क्या हम ही रख लें?
ख़ुशी तो दे नहीं पाए हमें तुम,
मगर, ये सिसकियाँ क्या हम ही रख लें?
तुम्हें बेताब आँखें ढूँढती पर,
उठी बेताबियाँ क्या हम ही रख लें?
महल अश्क़ों का हमको दे दिया है,
ख़ुशी की खिड़कियाँ क्या हम ही रख लें?
बड़ा होने की इस जद्दोजहद में,
बची नादानियाँ क्या हम ही रख लें?
तुम्हारे होंठ को छूकर गईं जो,
वो महकी तितलियाँ क्या हम ही रख लें?
हुनर 'गुंजित' ज़रा तुम भी तो रक्खो,
ये सारी खूबियाँ क्या हम ही रख लें?
©गुंजित जैन
मगर, ये सिसकियाँ क्या हम ही रख लें...अहा...
जवाब देंहटाएंउठी बेताबियाँ क्या हम ही रख लें....
वाहहहह वाहहहह वाहहहह 🙏🏻🍃
सादर आभार 🙏
हटाएंबेहतरीन बेबाक़ गज़ल 💐
जवाब देंहटाएंसादर आभार मैम🙏
हटाएंबेहतरीन ग़ज़ल … वाऽऽऽऽऽऽऽऽऽह 💕💕💕💕💕💕💕💕💕💕❤️❤️❤️❤️❤️❤️❤️❤️❤️❤️❤️❤️❤️❤️
जवाब देंहटाएं- प्रशान्त
सादर आभार भाई जी🙏
हटाएंबेहद ही खूबसूरत ग़ज़ल बेटा हर शेर लाजवाब 👌👌🌺🌺
जवाब देंहटाएंमगर ये सिसकियां क्या यह ही रख लें 👏👏👏❤️❤️❤️❤️ वाह क्या बात है 👌👌👌
सादर आभार मैम🙏
हटाएंक्या कमाल ग़ज़ल हुई है भाई, हर एक शेर अपने आप में मुकम्मल और लाजवाब है, विशेषकर दूसरा और छठवां, ज़बरदस्त ज़िंदाबाद 👏❤
जवाब देंहटाएंसादर आभार भाई जी🙏
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