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सितंबर, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मैं और मेरा दिल ©सम्प्रीति

  चाहा तो नहीं था के कभी लिखूँ तुझे.. पर ऐ मेरे दिल तुझे आज मैं लिखने जा रही हूँ, जब दिमाग की जंग छिड़ी है तो तुने उसे हराया है, और हर बार मुझे सही रास्ते पे लाया है, जाने कितने अहसान‌ किए हैं तुने मुझे पर आज उन्हें गिनाने जा रही हूँ, ऐ मेरे दिल आज तुझे मैं इस कागज पर उतारने जा रही हूँ, जब भी नकारात्मकता ने मुझे घेरा है, तुने हर बार मुझे अपने आप से रुबरू कराया है, आज उन्हें ही बयां करने जा रही हूँ, ऐ मेरे दिल तुझे आज मैं लिखने जा रही हूँ, जब भी दुनिया ने नफरत के रास्ते पे मुझे मोड़ा है, तुने अक्सर खुबसूरत महोब्बत का अहसास मुझे दिलाया है, आज उसी महोब्बत को बरसाने मैं जा रही हूँ, ऐ मेरे दिल तुझे आज मैं इस कागज पर उतारने जा रही हूँ, बाहरी दिखावे ने जब भी मुझे डराया है, तूने आकर हर बार मुझे सहलाया है, उसी सहानुभूति को एक रुप मैं देने जा रही हूँ, ऐ मेरे दिल तुझे आज मैं लिखने जा रही हूँ, अपने परायों के दर्द ने जब भी मुझे रुलाया है, तुने हर बार मुझे प्यार दिखाया है, आज उस प्यार‌ को तेरे करीब ला रही हूँ, ऐ मेरे दिल तुझे आज मैं इन‌ कागज के पन्नों पर उतारने जा रही हूँ, मेरे प्यार‌ का एकलौता हकदा

ग़ज़ल ©हेमा काण्डपाल

 सरसों  के  खेतों  में  अपने  ,  काग़ज़  धानी  करते  करते  ग़ज़लें  सारी  लिक्खी  हमने  ,  ख़ूँ  को  पानी  करते  करते  मजबूरी   के   चावल   भूने   ,   लाचारी   दो   मुट्ठी   डाली  हम  ने  खाया  गम को अपने , फिर  गुड़-धानी करते करते  इस दुनिया में जो भी भाया, उस को हम ने ख़ुद सा समझा इक  अरसा  बीता  है  हम  को ,  ये   नादानी  करते  करते क्यों दरिया भर  मिस्रा-ए-ऊला उसकी मय्यत पर था रोया  जिस शाइर का दम निकला था मिस्रा-ए-सानी करते करते पहले  उनसे  दूरी  रक्खी ,  फिर ख़ुद ही था इज़हार किया ऐसे  दिल  ने  चाहा  उनको  ,  आना - कानी  करते  करते    सब  के  मन की करते करते , जाने बीती  कितनी सदियाँ हमको  तो  जीना था यारो ,  बस  मन-मानी  करते  करते  ग़म के मौसम में क्यों कर ली,  हमने इन  ग़ज़लों से यारी  अब तो  सारी  उम्र  कटेगी,  अश्क-बयानी करते  करते                                     @         हेमा काण्डपाल 'हिया'

कुदरत का खेल !! ©तुषार पाठक

 किसी ने सही ही कहा है "जब आप के पास सुख है तो दुःख का आना तय है" यह कहानी है एक मध्य वर्ग परिवार की, एक माँ की वह कैसे रहती है, आज से 10-20 साल पूर्व माँ से ससुराल, रिश्तेदार सब को एक पुत्र की इच्छा होती थी। पुत्र न होने पर दुश्मनों से भी ज्यादा बुरा बर्ताव होता था। उस माँ ने एक नहीं 5 पुत्र दुनिया में आते ही चले गए। उस माँ के बारे में सोचिए उस पर क्या बीती होगी , जिसको कागज़  पर उतारना किसी के लिए संभव नही। कहते है ना " ऊपर वाला सब की सुनता है, उसने उस माँ की भी सुन ली। माँ इतनी महान होती है कि क्या बोलू , कि  जब वह अपने बचपन में पापा की यहाँ होती है तो,  वहाँ अपने शौक,सुख अपनी इच्छाये पूरी नही कर पाती है, ताकि उनके पापा का पैसा बच सके। बाद में वह शादी करके अपने पति के पास आ जाती है, तो वहाँ भी वह अपने पति के पैसे बचाती है आने वाले कल के लिए, अपने बच्चो के लिए, उनके अच्छे कल के लिए वह अपने सुख को अधूरा छोड़ देती है। ऐसा नही है कि वह अपने सुख   भोग नही सकती,पर माँ को अपने सुख पर भोग करना तभी अच्छा लगता हैं जब उसका बेटा अपने पैरों पर खड़ा हो, कमाता हो।  तो जब उनके बेटे ने क

बेटियाँ ©सरोज गुप्ता

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  बेटी दिवस के उपलक्ष्य पर दुनियां की सभी बेटियों को हार्दिक शुभकामनाएँ एवं आशीर्वाद 💐💐💐 रंगो की होली में दीप की रंगोली में दुल्हन की डोली में दिखती हैं बेटियाँ ।। बाबुल की थपकी में भइया की हिचकी में पनघट की मटकी में दिखती हैं बेटियाँ ।।                                               तितली की गुनगुन में पायल की रुनझुन में बिछिया की छुनछुन में दिखती हैं बेटियाँ ।                                                                                                                       चन्दा के तारों में नदियाँ के धारों में रिमझिम फुहारों में दिखती हैं बेटियाँ ।। चिड़ियों की चहकन में कलियों की चटकन में चूड़ी की खनखन में दिखती हैं बेटियाँ । मइया की लोरी में राखी की डोरी में पनघट की गोरी में दिखती हैं बेटियाँ ।।                        @सरोज गुप्ता     

माँ.. ©शशिकांत

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 माँ.. जो मुझे मुझसे नौ महीने ज्यादा जानती है।। माँ.. जिसे बना कर वो ईश्वर भी रोया होगा, की अब उसकी पूजा कम होगी इस माँ के सामने।। माँ.. एक ऐसा शब्द जो एक अक्षर का होते हुए भी पूरे ब्रह्मांड को खुद में समा ले।। माँ.. जिसकी आंचल ने ज़िन्दगी के थपेड़ों से बचाया।। माँ.. दूसरों की लाडली होने से लेकर खुद अपने बच्चो पर लाड लुटाने वाली महिला का सफर, माँ कहलाया।।                                                                     @Shashi Kant                                                          

महुआ ©शैव्या मिश्रा

 महुआ ने आज कितनी कोशिश करी थी स्कूल से जल्दी निकलने कि किंतु कापियाँ जांचने मे देर हो गयी! "उफ़ अभी साढ़े 6 ही बजे हैं लेकिन घुप्प अंधियारा हो गया है, कातिक मे मुआ सूरज भी जल्दी छुप जाता है!" महुआ हाथ मे बंधी घड़ी देख कर बड़बड़ाई! महुआ पास के गाँव मे पढ़ाती थी, इतनी मुश्किल से मिली नौकरी छोड़ भी तो नहीं सकती थी, गृहस्थी की गाड़ी, भाई की पढाई और लकवाग्रस्त पिता का इलाज छोटी सी उमर मे ना जाने कितना बोझ था उसके कंधों पे! खुशी की बात ये थी कि भाई की पढाई भी अब पूरी हो चली थी, जल्दी ही उसकी नौकरी लग जायेगी। फ़िर वो भी मधुसूदन से ब्याह कर पायेगी, पिछले तीन साल से उसका इंतज़ार कर रहा, सोचते-सोचते उसके गाल लाल हो उठे!  अपनी सोच मे गुम वो कब घर पहुंची, पता भी ना चला, घर मे पैर रखते ही माँ फट पड़ी, "कहाँ रह गयी थी बिटिया, हम कब से राह देख रहे थे, कान्हे इत्ती देर कर दी? तोहे पता है, आज तो मुई चिरैय्या, हमाए छज्जे पे बोल रही थी, हमार कालेज तब से धुक धुक कर रहा, जाने किसको खाने आई है ये मुई, " उन्होंने घबराये स्वर मे कहा।  "लगता है.. हमार. बुल्लवा ..आया है, खाट पर पड़े पित

कोंपले मोहब्बत की ©रेखा खन्ना

 मोहब्बत की कोंपले नहीं फूटती अब दिल के अंदर जाने वाला शख्स दिल की जमीं बंजर कर गया।। कभी बहार ही बहार छाई थी मोहब्बत की अब वीरानों में ना जाने सब कुछ कैसे बदल‌ गया।। जो चहकता था कभी मोहब्बत की चिड़िया के जैसा वो दिल अब गुमसुम और चुपचाप सा हो गया।। यूं तो मोहब्बत में खाई थी साथ जीने मरने की कसमें मुझे मरना सीखा कर वो जिंदगी के दामन से लिपट गया।। आंखों से बहने वाले आंसू अब दिल में ही गिर जाते हैं चेहरे को भीगे हुए अब इक ज़माना बीत गया।। क्यूं मोहब्बत की तासीर इतनी कड़वी हैं जिंदगी जीने की चाहत रखने वाला बेमौत ही मर गया।।                                                                   @ रेखा खन्ना

जज़्बात ©दीप्ति सिंह

 दिल के जज़्बातों को लिक्खे इक ज़माना हो गया  जख़्म जो ताज़ा कभी था अब पुराना हो गया  हम हमारी आरज़ू को बस दबाते रह गये  दूसरों की ख़्वाहिशों का दिल ठिकाना हो गया  काश कोई देखता दिल किस क़दर बेज़ार है ये ज़माने भर की बातों का निशाना हो गया  हम तो अल्फ़ाज़ों की गहरी झील में डूबे रहे पढ़ लिया जो आपने तो ये फ़साना हो गया  रौनकें आबाद थी महफ़िल में जिनके नाम से  वो नहीं तो ख़ामुशी का इक बहाना हो गया  ©दीप्ति सिंह "दिया"

बढ़ते चल ©गोपाल

 चलते रहना ,सीखते रहना हर पल आगे बढ़ते रहना। छाव मिले या न मिलें  हर पल धुप लेते रहना स्नेह से सुखः बाटते रहना  प्यार से दुःख भी बाटते रहना कुछ मान लिए ,कुछ अपमान लिए विष घुट पीते रहना............... परहित में परिश्रम करते रहना, स्वपन राज को साकार करते रहना। "मैं" से "तुम"  मिटाते रहना , परिवार हमारा बनाते रहना। गति रुके नही ,पाँव चलते रहें, इस उज्ज्वलता का दीप जलता रहें। सूरज का तेज लिए ,चाँद का शीतल लिए हर पल आगे बढ़ते रहना...।। पहाड़ सा ह्रदय हो अपना, अम्बर सी छाती हो अपनी .. अपने से पराया न हो , पराया दर्द हो अपना आसमाँ में चमकता रहें ,सितारा हमारा हर पल ,कुछ सीखते रहना ,कुछ स्वीकारते रहना अनुभव से अनुभूति हो.. आवश्यक्ता से अविष्कार हो.. पृथ्वी पर मंगल हो  मंगल बार भारत हो..। चलते रहना ,सीखते रहना हर पल आगे बढ़ते रहना।                                       ©sh_gopal

चाय और यादे ©मानवेन्द्र सिंह

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तेरी यादों को आज शाम बुलाया मैंने चाय उनको भी मेरे साथ पिलाया  मैंने जैसे तुझको मैं परेशान किया करता था बातों बातों में खूब उनको भी सताया मैंने देर का कर के बहाना,उठ के जाने लगीं फंसा के बातों में फिर उनको बिठाया मैंने रूठ गयी वो भी तुम्हारी तरह मुझसे हाथ जोड़कर उनको भी मनाया मैंने क्या करूँ तुम्हारी यादे ही तो बची है  आज फिर उनसे ही काम चलाया मैंने                                                 ©मानवेन्द्र सिंह                                                              Pic credit: सात्विका

गीत ©संजीव शुक्ला

 मेरे बाद मुझे स्वर देना l आश्वासन यह प्रियवर देना, तुच्छ सोच को आदर देना l मेरे सपनो की उड़ान को, प्रिय तुम विस्तृत अंबर देना l मेरे बाद मुझे स्वर देना ll सागर से कुछ मोती खोजे, लेकिन उनका मोल न पाया l कुछ मुक्ता जगमग देखे पर, सीप बंध को खोल न पाया यत्र-तत्र बिखरे मनकों से,  चुन-चुन स्वर्ण थाल भर देना l मेरे बाद मुझे स्वर देना ll ज़ब मैं था तब समय नहीं था, मैं ही नही समय ज़ब आया l  प्रस्तर खंडों  का जीवन भर,   मैं अज्ञानी ढेर लगाया l अनगढ़ पत्थर गढ़-गढ़ कर सब,  तुम अनमोल रत्न कर देना l मेरे बाद मुझे स्वर देना ll मैंने कब सोचा था मुक्ता, मणि का मैं व्यापार करूँगा l मात्र बावरी अभिलाषा थी, जग-मग सब संसार करूँगा l मेरे बाद मेरे अनिकेतन,  भावों को सुंदर घर देना l मेरे बाद मुझे स्वर देना ll                            ©sanjeevshukla_

साड़ी में नारी ©रमन यादव

 साड़ी में जो नारी है, उसके भी कुछ भाव हैं, कुछ प्रेम है, कुछ क्रोध है, कुछ अटूट लगाव हैं,  छ: मीटर का वस्त्र लपेटे, बच्चा कांधे रखती है, रात दिन वह अपना देकर, परिवार को बांधे रखती है, साड़ी का पल्लू पंखा बनता, जब शिशु शरीर से पसीना टपके, वो पल्लू ही पर्दा बनता , जब भूख से नन्हा बालक तड़पे,  साड़ी में केवल जिस्म नहीं है, एक रूह मकान बनाए बैठी है, जहां पिता का साया, प्रेम पति का,  माँ की छाया रहती है, सौंदर्य उसके मुख पर दिखता, मन के भाव न जाने कोई, साड़ी हुस्न की आग लगाए, चित्त रूदन ना जाने कोई, जिन पाँव बेडियाँ बाँध रखी हैं, उनको अब स्वच्छंद करो,  नजरों से नजर मिलाओ, बदन ताड़ना बंद करो, उदर गोचर सब देखते, मानसिक द्वन्द्व  दिखते ना,  नजर जिस्म के उभार पर रुकती, पर क्षणिक प्रलोभन टिकते ना,  साड़ी नहीं है लोक दिखावा, संस्कृति की पहचान है, जिस्म छरहरे, सुडौल बदन, कुछ दिन के मेहमान हैं,  भोग की वस्तु मान रहे सब, आंचल में उसके झांक रहे सब, मां का दूध याद करो, बनी ममता की साख रहे तब, जिस वक्ष को तुम ताड रहे हो, उसमें भी दिल धड़कता है,  घूरती हजारों नजरों से, पल-पल वो तड़पता है,  आसमान में चा

आज का भारत ©अतुल सैनी

 नाम बदल दिए हमने  पहचान बदल दी हमने इतिहास भी बदले तो लोग कुछ खास भी बदले हमने कभी राजा हुए यहाँ कभी बादशाह भी हुए आयी गुलामी भी कभी कभी ईश्वर हर जगह भी हुए पर ये भारत तो यहीं हैं आज भी यहीं हैं और हमेशा यहीं रहेगा भी फिर ये लोग लड़ किस बात के लिए रहे हैं ये झगड़े कर किस बात के लिए रहे हैं यहाँ राज अब सरकारो का है कुछ गद्दार, कुछ चाटुकारो का है अगर हम विपक्ष में बैठे हैं तो सरकार बस गलती करती है अगर सरकार हमारी है तो सब कुछ सही ही होगा जनता कल भी गुलाम थी आज भी गुलाम है जनता कल भी आम थी आज भी जनता आम है जो कल तक गलियों में बदनाम था यहाँ आज उसी का नाम है और इस भारत देश में कल भी कायर थे कुछ आज भी इस धरती पर चोट के निशान हैं जहाँ हमें फायदा लगता है वहाँ हम समर्थन करते हैं जहाँ लगता है नुकसान होगा वहाँ सड़को पर निकलते हैं तो क्या हम केवल अपने लिए जी रहे हैं इस देश से हमारा कोई नाता नहीं देशभक्ति हर कोई दिखाता है यहाँ फिर देशहित का फैसला क्यों हमें भाता नहीं पर हमें क्या मतलब देश से हमें तो मतलब है अपनी जाति, अपने भेष से बस प्याज और पेट्रोल के दाम अहम है देशभक्ति तो हमारे लिए एक वहम है यहाँ

"उस बात को"

 हाथों पर हाथ रखे तुम्हारे, जन्मदिन वाली उस रात को । हा एक अरसा बिता, अब उस बात को ।। इस भागमभाग की ज़िन्दगी में, फुरसत नहीं, ख़्वाब में भी मुलाकात को । तुम्हारी ख़्वाहिशो, मेरी मजबूरीयों, या दोष दू, हालात को ।। हा एक अरसा बिता, अब उस बात को ।।                                   @ alok kumar shaw

विज्ञान ©अनिता सुधीर

रहना था कितना आसान ,पढ़े नहीं थे जब विज्ञान । दिन भर धक्का दें दीवार ,फिर भी करते सब बेगार। हुआ अँधेरा,पढ़ा प्रकाश,विद्युत करता सब कुछ नाश। भौतिक की ये है पहचान ,बने इसी से मंगल यान। रहना था कितना आसान ,पढ़े नहीं थे जब विज्ञान । कमी आयतन,बढ़ता दाब,इसे बढ़ायें ,चढ़ता ताप । समीकरण में अटके प्राण,जितने बंधन उतना त्राण। भेद रसायन है अनजान ,नोबल पाते फिर विद्वान । रहना था कितना आसान ,पढ़े नहीं थे जब विज्ञान । ज्या कोज्या करता परिहास,ब्याज क्षेत्र से लगती आस । रेखा बोती ऐसे बीज ,अंक भला फिर क्या है चीज, संख्याओं में लटकी जान,  करे समन्वय अब हैरान । रहना था कितना आसान ,पढ़े नहीं थे जब विज्ञान । जीव जंतु के अद्भुत नाम ,वायरस से जीना हराम। उलझा बोस जी का बयान,पौधों में होते हैं प्रान डार्विन पर दुनिया गतिमान,प्राणि तंत्र से निकले जान। रहना था कितना आसान ,पढ़े नहीं थे जब विज्ञान । पढ़ा ध्यान से अब विज्ञान, तकनीकी का अद्भुत ज्ञान  सही करो इसका उपयोग, होगा जन जन का कल्यान। जुड़ा योग संग जब  विज्ञान, भारत विश्व गुरू पहचान ।। रहना था कितना आसान ,पढ़े नहीं थे जब विज्ञान ।।                                        

चम्पई ख़्वाब-नज़्म ©हेमा काण्डपाल

 लेवेंडर के फूल से, चम्पई कुछ ख़्वाब थे  मख़मली सी रात थी, दिन में माहताब थे जिनकी सुर्ख़ रौशनी से चाँदनी जा मिले जिनकी सियाह गोद में सब सितारे आ खिलें सुरमई सी आँख ,जिसकी चमक थी सीमाब सी  देख के जिसका छब खु़र्शीद ख़ुद बुझे जले जुगनू सब मुतरिब बने गा रहे थे राग में  गुलमोहर खिल रहे थे रागिनी के बाग़ में  जा-ब-जा यही बात थी यही शोर था जा-ब-जा  गुम-गश्ता दो लोग जो ,जल रहे थे आग में  उस आग से रौशन हुए, चिराग़ प्रेम के वो सब  जिनको पड़े बिछड़ना ,हवा से न जाने कब  ए'तिमाद था हमें दस्त-ए-क़ातिल पर बहुत  सो हुदूद सब ख़ुशी ख़ुशी उसके हाथ रख दिए माज़ूर हम थे हो गए और वो उठ के चल दिए मुस्तक़बिल मेरा कहीं, माज़ी में अपने खो गया  मुख़्तसर मंज़र सा वो, वारफ़्ता हो गया वास्ता, था न अब, उसको मेरे काज से और मैं थी लड़ रही ,ख़ुद ही अपने आज से अाई ऐसी तीरगी के रातरानी खिल गई तर्क-ए-मोहब्बत की घड़ी, इक ख़लिश से मिल गई तब था पहना ज़र्द सा , खोखला मैंने कफ़न रीत इक मख़मूर सी, कामराँ फिर हो गई                                                           @हेमा काण्डपाल 'हिया'

बचपन ©श्वेता सिंह

 मुझे लौटा दो मेरे हिस्से  का बचपन छोड़ आईं मैं तो मां के आंगन वो छोटी सी रातों में नानी की  लम्बी कहानी वो सुना  सा झुला वो आमों का बगिया बाबा के कंधे  की सवारी पल भर में रूठना-मनाना मुझे लौटा दो मेरे हिस्से का बचपन वो बारिश की कस्ती वो आंगन का पानी गुड्डे गुड़ियों की शादी में मैं अल्हड़ दिवानी चाहें ले लोग मेरी जवानी मुझे लौटा दो मेरी कहानी संग सहेलियों के हंसी ठिठोली  करती थी मैं अपनी मनमानी मुझे लौटा दो मेरे वो खेल खिलौने चाहें दिला दो वो गिट्टी और कबड्डी का आंगन वो गर्मी की छुट्टियों में नानी घर  की उघम चौकड़ी याद है मुझको सब बातें हुई पुरानी थकी हुई है आज मेरी कहानी लादे है मुझपे बड़ी परेशानी फुर्सत के पल की बात है पुरानी दुर्लभ जिवन की बहुत हैं कहानी छुटा है बचपन रूठा है जवानी मुझे लौटा दो मेरी अपनी कहानी।                                                               @श्वेता सिंह

ग़ज़ल ©हिमाद्रि वर्मा हिमा

 चुभती हैं आँखें पर नमी मिलती नहीं  ग़ुम है कहीं अब जिंदगी मिलती नहीं  भटके हुए ग़म लौट आते हैं मगर खोई हुई ख़ुशियाँ कभी मिलती नहीं राहत-फ़ज़ा राहें तो जर्जर हो गई  मंज़िल कहीं पर आख़िरी मिलती नहीं  अब दौर बदला क़ाफ़िया-पैमाई का  मिलते हैं मिसरे शाइरी मिलती नहीं  ज़ब भी कहूँ ऐसा 'हिमा' में क्या दिखा कहते हैं तुम सी सादगी मिलती नहीं                                               @ हिमाद्रि वर्मा हिमा

ग़ज़ल ©वाणी

 जागे   से   कितने   घर   देखे    रात   की   ख़ामुशी  में दीवार   पे   साए   ही   तो   थे    रात   की  ख़ामुशी  में गुल-बूटे औ' बाग़  जब  सो  जाते  हैं  ख़्वाबों  को  ओढ़े तब   रात-रानी   ही   ख़ुशबू   दे   रात  की  ख़ामुशी  में दिन भर ख़ुद अपनी लगाई आतिश में दिल जल रहा था  अब  शम्'अ' सा  बुझ  रहा  है  ये  रात  की  ख़ामुशी  में तन्हाई  में  चुभते  हैं  जब  यादों  के  नश्तर  से  अक्सर  गोशे  में   हम  रोते   हैं   खुल  के  रात  की  ख़ामुशी  में गर नींद  है तो  फिर इन  जलती आँखों  में  तू  उतर आ गर  मौत  है  तो  ले  चल  याँ   से  रात  की  ख़ामुशी  में काटी   नहीं   जाती  अब   मुझसे  हिज्र  की  लंबी  रातें कोई   मिरे   दिल  को  बहला  दे   रात  की  ख़ामुशी  में हो   झील  में  चाँद  उतरा  या  ख़्वाब  में   खोई  'वाणी' सब  अपने  ही  अश्क़  से  भीगे   रात  की  ख़ामुशी  में                                                                       ©वाणी

गज़ल :- आसमां से कहो ©अर्चना तिवारी तनुजा

 आसमां से कहो अब घटा चाहिए, खूबसूरत हमें इक छटा चाहिए।१। आग सी है जलन वादियों मे घुली, गंग की धार बहती जटा चाहिए।२। दौर ये मुश्किलों का हमें बदलना, बा-असर हो अजीयत हटा चाहिए।३। सोच कर मै बहुत हूँ परेशान ये, मुल्क़ मेरा न टुकड़ों बटा चाहिए।४। काफ़िला है जवानों का जय घोष हो, नारा जय हिंद सब को रटा चाहिए।५। शान है ये तिरंगा हमारी जहाँ, अब तो दुश्मन जब़ी ही कटा चाहिए।६। वालिदा है हमारी वतन की ज़मी, ढाल फौलाद सा तू डटा चाहिए।७। कर शहादत को तनुजा नमन देख ले, हिंद का सीना न ज़ख्मों फटा चाहिए।८।                                                    @अर्चना तिवारी तनुजा

कवि धर्म ©विपिन बहार

 लय-छंद उन्मुक्त हुए,शब्दों का तांडव जारी हैं, कुचल दिए गए कुसुम सारे,अब पल्लव की पारी है, मैं बैठा अबोध शिशु सा, खुद की पराजय देखता हूँ, मैं खुद की काया से विमुख,खुद की विजय देखता हूँ, ये अनल आज क्षितिज से ऐसे अंगार दिखाता हैं, भूखे,नंगे,प्यासों पर वो अपना वार दिखाता हैं, उसके घर न नौकरी,एक माँ के सर पे टोकरी, रह रहा वो फुटपाथ पे,उसके सर पे न झोपड़ी, ऐ माँ वीणा!मैं ख़ुद को अंदर ही अंदर बहुत कोसता हूँ, क्या लिखा,क्या रह गया मैं अंदर का कवि खोजता हूँ, स्वप्न उड़ा रही आँधी है,जीवन बन के रहा समाधि हैं, दरिद्रता ऐसे फैली हुई,चहुँ दिशा व्याधि ही व्याधि हैं, मैं लोलुपता, प्रलोभन,प्रसिद्धि के चरण मे पड़ा रहा, यहाँ देखा एक दींन खुद के जीवन-मरण में पड़ा रहा, जली हुई एक बेटी है,परिवार की लाश शैय्या पे लेटी हैं, विलाप में कह रहा गाँव,नही जन्माओ कोई अब बेटी हैं, मैं अपने उर को बैठ के आज खूब नोचता-खरोचता हूँ, ऐ माँ वीणा!मैं ख़ुद को अंदर ही अंदर बहुत कोसता हूँ, क्या लिखा,क्या रह गया मैं अंदर का कवि खोजता हूँ, किसी को नही अनुशासन हैं,सभी के हस्त में हुताशन हैं, किससे बचें अब ये अबला,सभी बन गए यहां दुस्सासन

ग़ज़ल ©सुचिता

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 ख़ुद को इतना भी ना तुम सताया करो  बेवजह भी कभी मुस्कुराया करो  हिज्र की शब हो या वस्ल के वसवसे  यूँ गुहर अश्क़ के ना लुटाया करो  धड़कनो में करे रक़्स जज़्बात जब  लिक्खो कोई ग़ज़ल गुनगुनाया करो बर्क़ सी यूँ दरकती है दिल में कहीं  यूँ ना आ -आ के यादों सताया करो  रोज़ मिलते हैं शम्सो-कमर यूँ कहाँ आबले पा के ना तुम दिखाया करो  छोड़, हर वक्त ये वक्त का मर्सिया आईने से ना ख़ुद को छिपाया करो  चाय, मौसम ये बारिश यूँ भी हो कभी  शाम रंगी धनक से चुराया करो                                                                       @Suchita                                           

अधूरा इश्क़ ©अंजलि

 पाक-सा शक्स मिला एक अफसाने में, खोला जो खुद का ये दिल अनजाने में। मैं नहीं जानती थी सुकून उसके दिल का, पर दिल लगा रहा उस दिल को बहलाने में। हर्फ-दर-हर्फ सजाए जो अपने जज़्बात, अब मज़े लेती थी तन्हाई उन्हें दोहराने में। इर्द-गिर्द बेतरतीब छाई थी यादें उसकी, सुनती थी उसी की आहट मैं विराने‌ में। रस्म-ए-आशिकी निभाई उसके इंतज़ार में, बहुत वक्त लगा फिर एक नई सुबह आने में।                                                                @ Anjali

सदा मिज़ाज

 जाने का सबब मेरी रूसवाई बतला रहा था वो ‬ महफ़िल में बड़ी सादगी से पेश आ रहा था वो ‪उसकी हर बात में दम था सुर बहुत मध्यम था‬ मेरे अश्क़ों को जो  बनावटी बतला रहा था वो  सादगी से  मैं पैरवी भी ना कर पाई थी ख़ुद की  झूठ से हर क़दम पे मात जो खिला रहा था वो  उसकी सादगी पर ज़माना मर मिटा था  वार कर रहा था पर लड़ता नज़र नहीं आ रहा था वो                                                            @ritu chaudhry

चले आना मेरे हमदम..चले आना ©सम्प्रीति

 जब भी कभी मिलने का मन हो हमसे तो चले आना, चले आना यूँ सोच कर के कभी हम भी रात रात भर इंतजार किया करते थे तुम्हारा, और अगर हम "ना" कह भी दें फिर भी चले आना, चले आना ये सोच कर के ये "ना" बोलना तुम्हीं से सीखा है और अब बाकी उन पर हक है तुम्हारा, जिस दिन‌ गुजरे कोई रात तन्हाई में और याद हमारी तड़पाए तो चले आना, चले आना ये सोच कर के जाने कितनी रातें हमने भी काटी होंगी यूँ ही तन्हाइयों में बिस्तर पर करवटें बदल‌ बदल‌ के, जिस दिन‌ "मुझे मिलना है" छोड़कर "क्या वो मिलेगी" सोचने लगो तो चले आना, चले आना बस इतना समझकर की जाने कितने ही पल तुमसे मिले बगैर काटे हैं हमने, जिस दिन अपनी मर्जी छोड़कर हमारी मर्जी को समझने लगो तो चले आना, चले आना ये सोच कर के चलो रिश्ते पे पड़ी गर्दिश को साफ करते हैं दोनों मिलके, जिस दिन‌ "मैं" को छोड़ "हम" कहने लगो तो चले आना, चले आना ये सोच कर के आज भी तुम्हारी हमसफर बीच सफर में बैठी है इंतजार में सिर्फ तुम्हारे।                                                                                  ©सम्प्रीति

भयावह ©रमन यादव

 देश की राजधानी दिल्ली में,  रात अंधेरी, सूनी गलियां, जा रही थी वो घर को, माँ-बाप की इकलौती बिटिया, नौकरी का समय यही था,  था रोज का आना जाना, डर दिल में नित ही था पर,  मिला नहीं था जालिम जमाना, कार रुकी आ बगल में, शीशा नीचे उतर गया, अकेली लड़की देख सड़क पर,  दिमाग नशीला बिफर गया, आओ छोड़ दूँ तुमको, जहाँ पर तुमको जाना है,  लड़की के लिए नहीं सुरक्षित,  बहन तुम्हें मैंने माना है, घबराई सी लड़की थी, ना बोल दिया सिर हिलाकर,  बेशर्म ने कार रोक दी,  क्या कर लेती वो चिल्लाकर, दूर-दूर तक कोई नहीं था, सब कुछ बियाबान था, बहन बोलकर जो मिला था, उसमें एक हैवान था, उसकी मर्जी ना चली तो,  मार दिया गाड़ी में धक्का,  चार दोस्तों को फोन किया,  बोला इंतजाम रात का है़ पक्का, थोड़ी दारु लेते आना, इसको भी पिला देंगे, जिस्म भला क्या बला है, इसकी आत्मा तक हिला देंगे, आँखें उसकी लाल हो गई, रो-रो कर फरियाद कर, भाई भाई कह रही थी, वो माँ-बाप को याद कर, चूर नशे में वहशी था, चार मोड़ पर थे खड़े, एक अकेली लड़की पर, सारे के सारे टूट पड़े, बेसहारा लाचार पड़ी थी,  अंधेरे कोने में कार खड़ी थी,  लड़ रही थी हिम्मत कर के, प

आएगी सुबह सुहानी ©आशीष हरीराम नेमा

 आएगी सुबह सुहानी ..... माना अंधियारा घोर घना है , इसके बढ़ने का डर दुगुना है । चाहे जितना पैर पसारेगा , तय है एक रोज ये हारेगा । मिटनी है व्याप्त निराशा,  और फिर से हैं खुशियाँ छानी ....। आएगी सुबह सुहानी .......।। तम के आने के कारण पर , इसके जटिल निवारण पर । अब सुबह से कितनी दूरी है , इस पर अभी मनन जरूरी है  । यह समय है जो अंधियारे का , संदेश है उस दुखियारे का । जिसने सृष्टि को रंग दिए , जीवन जीने के ढंग दिए । वह स्वच्छ गगन में रहता था , नदियों के संग संग बहता था । कभी पंछियों संग उड़ान भरे , निर्जीव में भी जो  प्राण भरे । मिट्टी की सौंधी सुगंध में था , मदमस्त पवन स्वछंद में था  । जग-सृजक का गौरव उसे प्राप्त था , वह यत्र-तत्र सर्वत्र व्याप्त था । फिर उसके एक खिलौने ने , समझाइश, अक्ल के बौने ने । प्रकृति से यूँ खिलवाड़ किया , दोहन के तिल का ताड़ किया  । निज स्वार्थ हेतु खोदा थल को , दूषित किया नदियों के जल को । ताकि रहे स्वयं वो ऐशों से , नभ भरा विषैली गैसों से । वन-उपवन वृक्ष उखाड़ दिए , जीवों के घर भी उजाड़ दिए । ऐसी उन्नत फसलें काटी , कि सनी रसायन से माटी । इतने पर भी संतोष नहीं , 

ग़ज़ल ©सुभागा भट्ट

 राहें जो तकलीफ़ दें तो क्या चलना छोड़ दें,  हुआ न रोशन तो क्या सूरज ढलना छोड़ दे।  वक्त से पहले ही बूढ़े हो चुके हमकदम,  जो मिले न ख़ुशी तो क्या मचलना छोड़ दें।  यह भी नहीं कि सब कुछ मिल जाए अब,   जो मिला नहीं क्या उसके लिए बहलना छोड़ दें। किया जज़्ब ख़ुद को तो भला हासिल क्या हुआ?  कभी गिर, कभी उड़ ज़्यादा संभलना छोड़ दे।                                                                   ©सुभागा भट्ट

श्राद्ध ©शैव्या मिश्रा

 माँ तुम जानती हो, मुझे बाबू जी से कोई प्रेम नहीं है, मुझे नहीं करना उनका श्राद्ध, मैंने गुस्से मे चीखते हुए लिफ्ट मे प्रवेश किया।  लिफ्ट मे एक बेहद खूबसूरत सी युवती लिफ्ट की दीवार से टेक लगा कर खड़ी थी, मेरी तेज़ आवाज़ से वो मानो चौंक सी उठी। पीले सूट मे लाल चुनरी वाले दुपट्टे मे बेहद खूबसूरत लग रही थी वो, सच कहूं एक पल के लिए मैं भूल ही गया की मैं फोन पर माँ से बात कर रहा हूँ। "बेटा सुन तो, दूसरी तरफ से माँ की आवाज़ ने उस खूबसूरत तिलिस्म को तोड़ा, जो इस लाल दुपट्टे वाली ने बाँध रखा था। " वैसे भी जीवन भर बाबूजी से मेरी नहीं बनी, यकीन मानिए आज भी मेरा दिया पानी वो स्वीकार नहीं करेंगे, और मुझे इसके आगे कोई बहस नहीं करनी, कह कर मैंने फोन काट दिया।  "अापको अपनी माँ से ऐसे बात नहीं करनी चाहिए थी, कानो मे शहद घोलती सी एक आवाज़ आयी, सॉरी मुझे आपको ऐसे टोकने का कोई अधिकार नही, पर मुझे अच्छा नहीं लगा। उस लड़की ने सहज भाव से कहा। मेरे कुछ कहने से बोली, हाय, मेरा नाम प्रिया है, मैं इसी बिल्डिंग के बराह्वी फ्लोर पर रहती हूँ। हाय आइ एम् प्रवेश, अभी हाल ही में नवी फ्लोर के फ्लैट नंबर

ग़ज़ल © प्रशान्त

 इक जिन्दगी.....जो उम्र भर थी लापता क्या फ़ाएदा  l इक मौत जिसको जी गये हर हादसा क्या फ़ाएदा  ll मैं चाहता था दिल मिरा...तड़पे नहीं धड़के फकत...  ये दिल मगर है ख्वाहिशों का मक़बरा क्या फ़ाएदा ll मैं आइने से..........आइना मुझसे हुआ हैरत ज़दा...  सूरत दिखी....सीरत मगर है गुमशुदा क्या फ़ाएदा ll अन्धी अदालत मांगती है...झूठ से सच का सुबूत...  हर काएदा-क़ानून है.......बे-काएदा क्या फ़ाएदा  ll हर आदमी डरता बहुत है....हादसों से क्यूँ 'ग़ज़ल'...  ये जिन्दगी क्या है फकत इक बुलबुला क्या फ़ाएदा ll                                                                                                                                            © प्रशान्त 'ग़ज़ल'

प्रिय ©शशिकांत

 प्रिय तुम ढलती शाम तो मैं चांदनी रात प्रिय तुम तुलसी आंगन की तो मैं पेड़ पीपल का प्रिय तुम ढाई घंटे की सिनेमा तो मैं 10 episode की web series प्रिय तुम scooty activa honda तो मैं scoter Chetak प्रिय तुम हो अगर किसी शायर की लेख, तो मैं भी गीता का सार प्रिय तुम हो अगर बेहता पानी किसी झील का,  तो मैं भी लेहर गंगा का प्रिय तुम हो अगर cold coffee, तो मैं भी अदरक वाली चाय प्रिय तुम हो अगर खुशबू इत्र की, तो मैं भी मिट्टी की सोंधी महक प्रिय तुम Raftaar की rap तो मैं Breathless song प्रिय तुम light की चमक तो मैं दीपक की लौ प्रिय तुम नोट 2000 की तो मैं सिक्का 1 का प्रिय तुम whatsapp की chat तो मैं पुराना खत प्रिए तुम हो अगर गर्मी की बारिश, तो मैं भी सर्दी की धूप प्रिय तुम हो अगर मुकम्मल ख्वाब, तो मैं भी सुबह का सपना प्रिय तुम हो अगर हमेशा साथ रहने वाला प्यार, तो मैं भी स्कूल वाला पहला प्यार प्रिय तुम हो अगर सूरज की तपिश, तो मैं भी पेड़ की छाव प्रिय                                     @Shashi Kant

माँ तू कैसे जान जाती है?? ©तुषार पाठक

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Sabse phele maa sharde ko namam aur saath mai maa lekhni ko namam mai apni rachna padhne ja raha hoo  मेरी पहली कविता मेरी माँ को समर्पित है जिसका शीर्षक है "माँ"    माँ तू कैसे जान जाती है??  तू दूर होकर भी मेरी आवाज़ से मेरी तबीयत जान जाती है, जो मेरे पास होकर भी नही जान पाते। तू कैसे जान जाती यह फोन तेरे बेटे ने ही किया है। तुझे कैसे पता चल जाता है मेरी  गलतियों का।। माँ तू  कैसे जान जाती है?? तू  कैसे जान जाती सबकी ज़रूत को, और सबकी आदतों को, तू  कैसे भूखे रहकर बाकी का पेट भर देती है, बहाने में कहती है कि तुझे भूख नही है। तू  कैसे अपने सपनों को छोड़ कर अपने  बच्चो का सपना पूरा कर लेती है, माँ तू  कैसे कर लेती  है?? बीमार होने पर भी स्वस्थ होने का बहाना बनाती है  और बीमार होकर भी घर का सारा काम  कर लेती है।। माँ तू सब के लिए दीवार बन खड़ी हो जाती है।। तू अपने को चुनने से पहले अपने परिवार को चुनती है माँ तू  कैसे कर लेती  है?? माँ तू  कभी अपने दर्द छुपाकर दूसरों का दर्द कम कर देती है। अपनी मदद करने से पहले दूसरों की मदद करती है। कैसे तू  सबका गुस्सा बर्दाश्त कर लेती है। माँ तू