भयावह ©रमन यादव

 देश की राजधानी दिल्ली में, 

रात अंधेरी, सूनी गलियां,

जा रही थी वो घर को,

माँ-बाप की इकलौती बिटिया,


नौकरी का समय यही था, 

था रोज का आना जाना,

डर दिल में नित ही था पर, 

मिला नहीं था जालिम जमाना,


कार रुकी आ बगल में,

शीशा नीचे उतर गया,

अकेली लड़की देख सड़क पर, 

दिमाग नशीला बिफर गया,


आओ छोड़ दूँ तुमको,

जहाँ पर तुमको जाना है, 

लड़की के लिए नहीं सुरक्षित, 

बहन तुम्हें मैंने माना है,


घबराई सी लड़की थी,

ना बोल दिया सिर हिलाकर, 

बेशर्म ने कार रोक दी, 

क्या कर लेती वो चिल्लाकर,


दूर-दूर तक कोई नहीं था,

सब कुछ बियाबान था,

बहन बोलकर जो मिला था,

उसमें एक हैवान था,


उसकी मर्जी ना चली तो, 

मार दिया गाड़ी में धक्का, 

चार दोस्तों को फोन किया, 

बोला इंतजाम रात का है़ पक्का,


थोड़ी दारु लेते आना,

इसको भी पिला देंगे,

जिस्म भला क्या बला है,

इसकी आत्मा तक हिला देंगे,


आँखें उसकी लाल हो गई,

रो-रो कर फरियाद कर,

भाई भाई कह रही थी,

वो माँ-बाप को याद कर,


चूर नशे में वहशी था,

चार मोड़ पर थे खड़े,

एक अकेली लड़की पर,

सारे के सारे टूट पड़े,


बेसहारा लाचार पड़ी थी, 

अंधेरे कोने में कार खड़ी थी, 

लड़ रही थी हिम्मत कर के,

पर मुसीबत बहुत बड़ी थी,


कब तक जोर वो आजमाती,

जबरदस्ती उसे शराब पिला दी, 

बेहोश खौफ में होने से पहले, 

खूब जोर से वो चिल्ला ली,


राक्षसों को रहम ना आया,

नशा चढ़ा था कामाग्नि का, 

नहीं खयाल मन में आया,

घर बैठी अपनी माँ-भगिनी का,


जिस्म तृप्ति तक पहुंचा तो, 

सिर पर बोतल फोड़ दी,

चेहरा पत्थर से कुचला,

रीढ़ की हड्डी तोड़ दी,


अर्धनग्न वो बदहवास,

सारी रात रही तड़पती, 

अपमानित पुरुषार्थ हुआ और, 

पुरुष की छाती रही अकड़ती, 


किसकी बेटी, क्या हुआ, 

चर्चाएं महीनों चली रहीं, 

कुकर्मियों को अपना लिया, 

वो लड़की दूषित बनी रही, 


घाव बदन के ग़र भर भी जाएं, 

डर का पहरा कभी मिटेगा?

जिस रूह को कभी मसला था, 

उसका चेहरा कभी खिलेगा?


                                        ©रमन यादव


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