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अक्तूबर, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

रक्तबीज संहार ©आशीष हरीराम नेमा

 धरती-पाताल-गगन तीनों, असुरों के भय से ग्रस्त हुए। सुर नर मुनिजन सत्कर्मी सब,शुंभ निशुंभ से त्रस्त हुए। वरदानों के बल पर उनने ,इंद्र से स्वर्ग भी छीन लिया । न जाने कितने निर्दोषों को,मिलकर जीवनहीन किया । दुराचार जाग्रत हुआ जग में ,सदाचार था सुप्त हुआ । अधर्म तिमिर पसरा चहुंदिशि,और धर्मादित्य विलुप्त हुआ । भोग-विलास की सीमा टूटी ,जप-तप-चिंतन बंद हुए। त्राहि-त्राहि का शोर मचा ,और भजन कीर्तन मंद हुए । रक्तबीज बलवान दैत्य , सेनापति शुंभ निशुंभ का था । देवों का रक्तपिपासु वह,पर्याय कपट छल दंभ का था। शिव से पाया वरदान ये था,जिस पर दानव इठलाता था। जहाँ रक्त बिंदु छू ले भू को,नव दैत्य वहाँ उग आता था। जब देवासुर संग्राम प्रतिदिन, सुर पक्ष हेतु प्रतिकूल बना । जब रक्तबीज अभिमानी ही,सारी चिंता का मूल बना। जब देवों की शक्ति के सम्मुख,बढ़ते दैत्य असाध्य हुए। तब सुर समूह त्रिदेवों से ,आश्रय पाने को बाध्य हुए। कर जोड़ कहे त्रिदेवों से,स्वामी जग के अनुकूलन को। कोई मार्ग सुझाए सहज प्रभु ,अब रक्तबीज उन्मूलन को। हम देव युद्ध में नित्य प्रभु,बल एड़ी-चोटी का लगाते हैं । पर एक दैत्य यदि मारें तो, कुछ नए दैत्

पवनपुत्र ©अनिता सुधीर

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 चैत माह की पूर्णिमा, प्रकट भक्त हनुमान । राम नाम उर मे धरे ,करें राम का ध्यान ।। मारुति नन्दन वीर हैं ,रुद्र शिवा अवतार। रामदूत  हनुमान जी ,करते बेड़ा  पार ।। जपे नाम हनुमान का, मिटते सारे रोग । भवसागर से तार दें ,उत्तम जीवन भोग।। मूरत  तेरी  देख  कर , दूर  भागता   काल। दया करो मुझ दीन पर ,हे अँजनी के लाल ।। भक्तों के दुख दूर हों,संकट मोचक आप। प्रभु अपना आशीष दो, मिटे जगत का ताप ।। ज्येष्ठ मास मंगल रहा,लखनऊ का कुछ खास । पवन पुत्र हनुमान जी,पूरी  करिये आस ।। तुलसी तुलसी घाट पर,पूर्ण किये थे ग्रंथ। इष्ट देव हनुमान जी,सदा दिखाए पंथ।।                                     @अनिता सुधीर आख्या

दिल की सीढ़ी ©रेखा खन्ना

 कल रात बस यूं ही ख्याल आया था कि क्या दिल में भी कोई सीढ़ी होती हैं जिससे उतर कर कोई दिल की गहराइयों में बस जाता हैं। अपने कदमों के पक्के निशान दिल की जमीं पर उकेर देता हैं। मोहब्बत का एहसास तो होता हैं पर क्यूं दिल की कश्मकश खत्म होने का नाम ही नहीं लेती हैं कि ये मोहब्बत ही यां सिर्फ एक वहम कि कोई तो उतरा हैं दिल में।          " दिल की सीढ़ी " क्या और कैसे हुआ मुझे कुछ पता ही नहीं चला वो दिल में उतरा कैसे, उसे दिल की सीढ़ी का पता कैसे था चला इक इक सीढ़ी संभल कर उतरा और गहराई तक पहुंच गया। जाने किसने उसको मेरे दिल का पता था दिया  पर मेरे दिल में गहराई तक जाने वाली हर इक सीढ़ी थी कमजोर  हल्की सी आहट से भी जो हो जाती शायद चकनाचूर। फिर कैसे उसका भार सहन  कर लिया क्यूं दिल की तह तक पहुंचा दिया धीरे धीरे घर बनाया और फिर मोहब्बत का अंकुर उगा दिया। पर मेरा दिल तो सदियों से था बंजर फिर कैसे उसने उपजाऊ बना दिया कहां से लाया एहसासों का पानी जिसने जमीं में नमी को बढ़ा दिया। मोहब्बत, मोहब्बत के इक नए रंग से मुझे सराबोर किया पर वो क्यूं दिल में ही है रहता, क्यूं रूबरू नहीं होता। अक्सर

प्रेम का गणित ©रमन यादव

तुम में मुझको जोड़ो या फिर, मुझमें खुद को जोड़ कर देखो, 'तुम-मैं' 'मैं-तुम' हम बनते हैं, चुनर प्रीत की ओढ़ कर देखो। अश्रु धारा शून्य हुई है, शून्य दुख से टकरा कर के, खुशियां रख ली संजो संजो कर, प्रेम परिधि खिंचवा कर के। इक-दूजे संग चलते ऐसे, रेखाएं संपाती मानो, मेरी सफलता तुम में झलके, प्रेम हुआ अनुपाती मानो। राह जुदा जो हुई कभी तो, संगत कोण से हुए बराबर, तीर-ए-नज़र से भेद कर दूरी, तिर्यक रेखा सा छुए बराबर। सम्पूर्ण मेरे जीवन के वृत्त का, तुम केंद्र व्यास और त्रिज्या हो, अन्धकार के दुर्गम पथ पर, तुम चन्द्र सूर्य तिष्या हो। 'तेरा-मेरा',  'मेरा-तेरा', नियम लगे न प्यार में, सब मतभेदों मनभेदों का, उत्तर बाहों के हार में।                  @रमन यादव

ध्वनि ©आशीष हरीराम नेमा

 सृजन कर्ता  ने किया,  जब सृष्टि निर्माण ... क्या मनुज क्या कीट- पक्षी , डाले सबमें प्राण.... कर जीवंत सकल सृष्टि को, ब्रम्हा करें विचार .. व्याप्त रहा यूं मौन सदा,  तो कैसे हो संचार ?..... मूक सृष्टि के संचालन में , होगी बड़ी कठिनाई ... सदा मौन रहना मृत्यु सम,  यह कैसी दुविधा आई... ब्रह्म कहें शारदे! सुनो , अब तुम ही एक सहाय ... दूर करो दुविधा मेरी,  सोचो कोई उपाय .... ज्ञान स्त्रोत जगजननी ने,  हित सोचा नभ-जल-अवनि का .... तब वीणा मधुर बजाकर माँ ने,  उद्भव कर दिया "ध्वनि" का... शब्द बने सारथी ध्वनि के ,  दूर हुई चिंता ब्रम्हा की ... झूम उठी सृष्टि ध्वनि पाकर , कृपा हुई जब शारदा माँ की ... ध्वनि हुई कल-कल नदियों में ,  चहक उठे खगकुल सारे...  सुनकर के ध्वनि एक-दूजे की ,  मानव भी मुख से उच्चारे... सरगम बन गीतों की ध्वनि , अंतर्मन को भी प्रसन्न करें .... छूकर धरती बर्षा की बूँदे ,  मनमोहक ध्वनि उत्पन्न करें.... नभ में छाऐ काले बादल,   जब आपस में टकरावें.... भीषण ध्वनि विस्तारित कर ,  मन में भय को उपजावें..... शांत जान सारी प्रकृति को ,  मंद पवन भी शोर करे ... मधुर ध्वनि कोयल की द

छाँव ©नवल किशोर सिंह

 घाम जबतक माथ मेरे । फिर रही थी साथ मेरे । दूर होती दिन ढले वो, मैं अकेला पाथ मेरे ॥ पाँव पैदल भागना है । वो चली या मैं चला था । साथ में चलना भला था ! नील तुम अब तो बता दो, कौन किसको तब छला था ? भूत फिर से वाचना है ? दाघ व्याकुल पात में था । मोद तब तो गात में था । चौंध भी कोई नहीं थी, चाँद लेकिन रात में था ? भ्रांत मन की भावना है।  जीवते जो ले भुलावा । कौन जाने यह छलावा। लोप होती चोर जैसी, मोह खंडित शून्य दावा॥ छाँव में भी यातना है। चाँद किंचित अनमना है।                        --©नवल किशोर सिंह

ग़ज़ल ©सुचिता

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 आज शाम भी है कुछ धुँआ-धुँआ  तेरी याद भी है यूँ रवाँ-रवाँ  ख़ुशबू तेरी आ रही हवाओं से  दिल को हो रहा ये क्यूँ  गुमाँ- गुमाँ  आँखें यूँ जगी -जगी सी सोई हैं  कोई रहता इनमें है निहाँ- निहाँ  आज भी पयाम आया  ना   तेरा  बुझ गया ये दिल , है बस निशाँ-निशाँ ज़ब्त-ए-ग़म से लब की खामुशी तलक  दिल का सौदा यूँ रहा ग़राँ- ग़राँ  तकती रहती  आँख क्यूँ सितारों को  तुझको अब भी कोई है गुमाँ-गुमाँ                                          @Suchita