रक्तबीज संहार ©आशीष हरीराम नेमा
धरती-पाताल-गगन तीनों, असुरों के भय से ग्रस्त हुए। सुर नर मुनिजन सत्कर्मी सब,शुंभ निशुंभ से त्रस्त हुए। वरदानों के बल पर उनने ,इंद्र से स्वर्ग भी छीन लिया । न जाने कितने निर्दोषों को,मिलकर जीवनहीन किया । दुराचार जाग्रत हुआ जग में ,सदाचार था सुप्त हुआ । अधर्म तिमिर पसरा चहुंदिशि,और धर्मादित्य विलुप्त हुआ । भोग-विलास की सीमा टूटी ,जप-तप-चिंतन बंद हुए। त्राहि-त्राहि का शोर मचा ,और भजन कीर्तन मंद हुए । रक्तबीज बलवान दैत्य , सेनापति शुंभ निशुंभ का था । देवों का रक्तपिपासु वह,पर्याय कपट छल दंभ का था। शिव से पाया वरदान ये था,जिस पर दानव इठलाता था। जहाँ रक्त बिंदु छू ले भू को,नव दैत्य वहाँ उग आता था। जब देवासुर संग्राम प्रतिदिन, सुर पक्ष हेतु प्रतिकूल बना । जब रक्तबीज अभिमानी ही,सारी चिंता का मूल बना। जब देवों की शक्ति के सम्मुख,बढ़ते दैत्य असाध्य हुए। तब सुर समूह त्रिदेवों से ,आश्रय पाने को बाध्य हुए। कर जोड़ कहे त्रिदेवों से,स्वामी जग के अनुकूलन को। कोई मार्ग सुझाए सहज प्रभु ,अब रक्तबीज उन्मूलन को। हम देव युद्ध में नित्य प्रभु,बल एड़ी-चोटी का लगाते हैं । पर एक दैत्य यदि मारें तो, कुछ नए दैत्