छाँव ©नवल किशोर सिंह
घाम जबतक माथ मेरे ।
फिर रही थी साथ मेरे ।
दूर होती दिन ढले वो,
मैं अकेला पाथ मेरे ॥
पाँव पैदल भागना है ।
वो चली या मैं चला था ।
साथ में चलना भला था !
नील तुम अब तो बता दो,
कौन किसको तब छला था ?
भूत फिर से वाचना है ?
दाघ व्याकुल पात में था ।
मोद तब तो गात में था ।
चौंध भी कोई नहीं थी,
चाँद लेकिन रात में था ?
भ्रांत मन की भावना है।
जीवते जो ले भुलावा ।
कौन जाने यह छलावा।
लोप होती चोर जैसी,
मोह खंडित शून्य दावा॥
छाँव में भी यातना है।
चाँद किंचित अनमना है।
--©नवल किशोर सिंह
उत्कृष्ट रचना सर जी 👌
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट एवं भावपूर्ण सृजन 👌👌👌🙏
जवाब देंहटाएंअत्यंत भावपूर्ण पंक्तियां
जवाब देंहटाएंवाहह... अति सुंदर आदरणीय रचना 🙏💐
जवाब देंहटाएंबेहद उत्कृष्ट 🙏🏻
जवाब देंहटाएंवाह! अतिसुंदर! सीमित शब्दों में गहनता लिए... नमन...🙏🙏🙏
जवाब देंहटाएंAprateem rachna sir ji👌👌
जवाब देंहटाएंआप सभी का हृदयतल से धन्यवाद
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