ग़ज़ल ©गुंजित जैन

नमन, माँ शारदे

नमन, लेखनी

1222 1222 122



जो उसके गाल को छूते नहीं तुम,

ऐ झुमकों खूब-रू उतने नहीं तुम।


मेरी ख़ामोशी कैसे जान लोगे?

मेरी इक बात तो समझे नहीं तुम।


हर इक तरक़ीब को तुम जानते हो,

खिलाड़ी हो कोई कच्चे नहीं तुम।


मुहब्बत में मैं टूटा जिस क़दर हूँ,

भला है उस क़दर टूटे नहीं तुम।


मेरी महबूब के हाथों के कंगन,

जुदा होने पे क्यों खनके नहीं तुम?


मुहब्बत मिल गई तुमको, ख़ुशी है,

मलाल इतना है के मेरे नहीं तुम।


भला कैसे सुख़नवर तुम हो गुंजित?

सियाही से अगर रोए नहीं तुम।

©गुंजित जैन

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