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गीत- मेरे राम ©ऋषभ दिव्येन्द्र

नमन माँ शारदे नमन, लेखनी छंद- चौपाई विकल चित्त को आस बँधाओ। मेरे   राम   पुनः   आ   जाओ।। टूट  रही  डोरी  आशा  की। बुझती है लौ प्रत्याशा की।। सून  लगे आँगन-फुलवारी। लुप्त हुई मन की किलकारी।। रघुवर! अंतस् कष्ट मिटाओ। मेरे  राम  पुनः  आ  जाओ।। महिमा अगम अनन्त तुम्हारी। नारि  अहिल्या  शबरी  तारी।। कपि दल के तुम बने सहायक। सागर  सेतु  बना  सुखदायक।। मुझ पर नाथ  कृपा  बरसाओ। मेरे   राम   पुनः   आ   जाओ।। अपने  ही  घर  से  निर्वासित। प्राण हुए तन से निष्कासित।। जन-जन  करते  रहते  क्रीड़ा। हृदय समाहित अनगिन पीड़ा।। पीड़ाओं  पर  बाण  चलाओ। मेरे   राम   पुनः   आ   जाओ।। © ऋषभ दिव्येन्द्र

घनाक्षरी - हिंदी ©रजनीश सोनी

नमन, माँ शारदे नमन, लेखनी   भारत की भूमि में ये हो रहा है शंखनाद, 'हिन्दी'  राष्ट्रभाषा बने  जनता  पुकारती। लिखने में बोलने में  भाव के  संप्रेषण में,  सदा ही  समर्थ  रही  शब्द शक्ति  भारती। सागर सी धारणा भाषाओं को सहेजने में,  अपना पराया  भाव  कभी  ना  विचारती। हर भाषा-भाषी इसे सीख लें सहज में ही,  गर्व करो  हिन्दी की  उतारो सभी  आरती। ©रजनीश सोनी

गीत- कान्हा ©सौम्या शर्मा

नमन, माँ शारदे नमन, लेखनी तेरी श्यामल छवि का क्या कहना। कान्हा आ खेलो मोरे अँगना।। वंशीधर की लीला न्यारी, मनमोहक मुस्कान है प्यारी, तूने मोह लियो सगरे जग ना। रास रचावैं कृष्ण रसाला, माखन खावै नन्द को लाला, ओ रूनझुन बाजे पायल कँगना। लीला तुम्हरी सबसे न्यारी, बांकी चितवन है गिरधारी, हाँ! दर्शन दो प्रभु मानो कहना। तेरी श्यामल छवि का क्या कहना। कान्हा आ खेलो मोरे अंगना।। ©सौम्या शर्मा

यूं ही हमेशा सलामत रहो तुम ©रेखा खन्ना

नमन, माँ शारदे नमन लेखनी  कुछ ज़ख्म रिसते नहीं हैं कुछ तो जिस्म में टूटता है पर टूटने की आवाज़ नहीं आती है कुछ तो फांस बन कर चुभता है कहीं भीतर ही भीतर  पर कोई नुकीली चीज नज़र नहीं आती हैं ज़मीं पर जाने क्या क्या बिखरा हुआ है जब चलो तो किरचों का एहसास होता है पर बिखरे जज्बातों को नंगी आंखों से देखना मुश्किल हो जाता है सोचती हूंँ अक्सर कि क्या टूटा और बिखरा हुआ है यहांँ वहांँ पर मैं, दिल, एहसास, यादें, वजूद आखिर  क्या क्या बिखरा है? यूं तो वजूद में कोई कमी नहीं दिखती है जिसको देखो वही दुआ देता है कि यूं ही सलामत रहो तुम हमेशा फिर सोचती हूँ कि क्या कहा, ये कैसी दुआ है यूं ही हमेशा सलामत रहो तुम...  मतलब यूँ ही भीतर से टूटी हुई, अपने भीतर खुद को ही खोजती हुई, अपने वजूद की तलाश करती हुई, अपने वजूद के बिखरे टुकड़ों को समेटती हुई, अपने दिल के ज़ख्मों को रिसते हुए देखती हुई, कहीं कुछ बाकी तो नहीं रह गया समेटने को इस कश्मकश में उलझी हुई, यां फिर धीरे धीरे मौत की तरफ खुद को धकेलती हुई.... क्या इस तरह रहूँ हमेशा क्योंकि यही तो सत्य है और दुआ भी यही की गई है कि यूं ही हमेशा सलामत रहो तुम। फिर खुद

मुनि शेखर छंद- श्री कृष्ण ©संजीव शुक्ला "रिक्त"

नमन, माँ शारदे नमन, लेखनी  छंद- मुनि शेखर छंद वर्णिक छंद (वर्णवृत)। चरण- ४ वर्ण - २० मात्रा - २८ गणक्रम- सगण,जगण,जगण,भगण,रगण,सगण, लघु गुरु  दो-दो चरण समतुकांत _____________________________________ सत आन धर्म निशान वेद पुरान शाश्वत ज्ञान हैं ।  छवि ध्यान चंद्र समान मोहन चित्त जीवन प्रान हैं । अभिमान का अवसान निर्मल ज्ञान का अवधान हैं । गुण ज्ञान रूप निधान कष्ट निदान प्रेम प्रधान हैं । चहुँ ओर भीषण शोर चित्त हिलोर संकट घोर हैं । अरि जोर निश्चर खोर यामिनि भोर कष्ट कठोर हैं । सिर मोर माखन चोर भाव विभोर नैन चकोर हैं । प्रभु नेग दृष्टि बहोर कातर सिक्त लोचन कोर हैं  । ©संजीव शुक्ला "रिक्त"

दोहे- मधुमास ©परमानन्द भट्ट

नमन, माँ शारदे नमन, लेखनी आस रखें मन में सदा, अडिग रखें विश्वास। हर पतझड़ के बाद में, आता है मधुमास।। मौसम यह मधुमास का, आया तेरे द्वार। घूंघट  के पट, खोलकर, आज लुटा दे प्यार।। मौसम यह मधुमास का, मुश्किल मिलता यार। आओ जी भर लूट ले, खुशबू का संसार।। उसके मन मधुमास है, जिसके मन में नेह। खुशबू यह बसती मिली, हमें प्रेम के गेह।। मघुघट यह मधुमास में, छलक रहा दिन रैन। विरहा को करता सदा, यह मौसम बेचैन।। महक रहे मधुमास में, मन के देश गुलाब। रात दिवस आते हमें, बस खुशबू  के ख्वाब।। करने दो मधुमास में, मन से मन की बात। जागे जागे काटनी, हमको प्यारी रात।। कोष लुटाकर गंध का, हंसते रहते फूल। कहते संचय भाव ही, सारे दुख का मूल।। मेरे मन मधुमास था, मन उसके पतझार। कैसे करता प्रेम को, वह दिल से स्वीकार।। मत कर तू मधुमास की, बीत गयी वह बात। बार बार मिलती नहीं, वह मनमोहक रात।। मादक यह मधुमास तो, जीवन में दिन चार। नहीं हमेशा के लिए, मिले महकती ड़ार।। मधुकर यह मधुमास में, रैन दिवस बौराय। इस लोभी को गंध का, संग निरंतर भाय।। आता है मधुमास में, वह मिलने को रात। पर दिन में करता नही, खुलकर के वह बात।। आया है मधुमास

मोहब्बत ज़िंदगी से ©अंजलि

नमन, माँ शारदे नमन, लेखनी कभी बारिश की बूँदों को, सूखी जमीं पर गिरते देखा है? महक सी जाती है ना उसका आना भी ऐसा ही था। पहली बार उसे देखा, उसकी आँखों में खो सी गई, उसकी बातों में मानो मैंने नई खुद को पा लिया। वो गिटार बजाता, पुराने गाने गाता, लोगों के हुजूम में, अलग सा नजर आता। धीरे-धीरे वक्त बीतने लगा  वो मुझे जानने लगा, मुलाकातें बढ़ने लगी और मेरी चाहत दोस्ती में बदलने लगी। वो मेरे साथ अपने सुख-दुख बाँटता, मुझे मेरी गलतियों पर डाँटता, मैं सोचती कि वक्त बस यहीं थम जाए, हम साथ हो और जिंदगी गुजर जाए। पर कहते है न कि वक्त किसी के लिए नहीं रुकता, और जो किस्मत में न हो, वो चाहकर भी नही मिलता। एक दिन उसने मुझे अपनी मंज़िल अपनी मोहब्बत से मिलवाया, सारे ख्वाबों को मानो एकदम  हक़ीक़त की ज़मी पर ले आया। मोहब्बत अधूरी रह गई  पर दोस्ती हरदम पूरी रही, माना स्याह काली रात थी, पर आने वाली नई शुरुवात थी। दिमाग ने दिल को एक बात बताई, जिंदगी सफ़र है, बात समझाई, जरूरी नही जो चाहो वो मिल जाए, पर जो मिले उसमे सुकून से जिया जाए। ©अंजलि

गीत- मधुमास ©रानी श्री

नमन, माँ शारदे नमन, लेखनी आधार छंद- विजात (मात्रिक) चार चरण, प्रति चरण 14 मात्रा,  दो-दो चरण समतुकांत, पहली व आठवीं मात्रा लघु अनिवार्य। मिलन को मान भी जाओ, तनिक मिलने चले आओ।  मचलते हम बजे सरगम, सजा मधुमास का मौसम।। करोगे आज आलिंगन, यही विश्वास है साजन। हृदय में चित्र अंकित है, तुम्हारा प्रेम संचित है। हृदय का आज हो संगम, सजा मधुमास का मौसम।। खुशी से झूमता तन-मन, सुनहरा प्रेम मनभावन।  गगन में चांद तारे हैं, लगे जैसे हमारे हैं। नयन कर चार लो प्रियतम, सजा मधुमास का मौसम।। ©रानी श्री

ग़ज़ल ©दीप्ति सिंह "दीया"

नमन, माँ शारदे नमन, लेखनी 2122 1212 22 याद जब आपकी चली आए, जैसे खुशबू कोई चली आए। हमने महसूस है किया जिनको , बात में वो खुशी चली आए। आपके दिल में उतर आने से , रूह में रौशनी चली आए। दिल को आराम भी नहीं मिलता , आँख में जब नमी चली आए। आपका इश्क़ ऐसे हासिल हो , साँस में आशिक़ी चली आए। इश्क़ तब और ख़ूबसूरत हो, साथ पाकीज़गी चली आए। ये तो दीया की ख़ुशनसीबी है , पास यूँ ज़िंदगी चली आए। ©दीप्ति सिंह "दीया"

कविता- पुकार ©गुंजित जैन

  छंद- पञ्चचामर मात्रा- 24, वर्ण- 16 दो-दो चरण समतुकांत जगण रगण जगण रगण जगण + गुरु ISI  SIS  ISI  SIS  ISI  S शीर्षक- पुकार विचार भिन्न-भिन्न चित्त की धरा लिखे गए, लिए नवीनता, मिटा परंपरा लिखे गए, क्षणोपरांत नव्य में नवीनता नहीं रही, परंतु वृक्ष-सी विशाल सभ्यता नहीं रही, सजा विशाल, भव्य वृक्ष स्वर्ण-वर्ण सीप से, जिन्हें कनिष्ठ हस्त में समेटता समीप से, अपूर्ण छोड़ जीर्ण स्वर्ण-हार, नष्ट हो गई, मुझे पुकारती हुई पुकार नष्ट हो गई। अनंत अंतरिक्ष सा विशाल, भव्य ताल था, प्रवाहमान नीर ज्यों, चलायमान काल था, प्रसूति एक छोर और मुक्ति एक कूल था, समीर का प्रचंड वेग हर्ष और शूल था, सहे असंख्य ज्वार-घात देह-नाव निर्मला, परंतु ज्वार का प्रहार घोर उग्र हो चला, हुई न नाव तीव्र धार पार, नष्ट हो गई, मुझे पुकारती हुई पुकार नष्ट हो गई। सुनी निनाद चित्त में उठी मुझे पुकारती, समस्त हर्ष-शूल प्राण के समेट धारती, अभिज्ञ था न काल के चढ़ाव से, उतार से, हुआ मुझे सुज्ञान आत्मचित्त की पुकार से, "करो न व्यर्थ देह को महत्वहीन भूल में, सदैव धूल की रही, मिली सदैव धूल में", बता विनाश-रूप सत्य सार, नष्ट हो गई, मु

गीत- नव्यानुराग ©सूर्यम मिश्र

नमन, माँ शारदे नमन लेखनी कल्पना मौन की कल्पना रह गई, कल्पना कल्प की वेदना पी गई । उँगलियों को कलम ने सहारा दिया, मौन विस्मृत हुआ,कल्पना जी गई।। मुक्ति मिलती गई चित्त के द्वंद्व से। तीव्र होते गए भाव सब मंद से। प्राण में प्रीति की बाढ़ सी आ गई। गूथते जब गए भाव सब छंद से। भावमाला महारम्य मोहक बनी। शब्दसागर से जब सीपिजा ली गई।। प्रेम को जो हुआ प्रेम से प्रेम तब। खुल गए रास्ते जल पड़े दीप सब। प्राण में सम्मिलित हो गईं शुद्धता।  प्रेम के आवरण से ढका चित्त जब। चक्षुओं की प्रखरता सहज बढ़ गई। जैसे तिमिरों में घोली प्रभाती गई।। नित्य नवतन दिया राग के भाग को हंसरूपी किया चित्त के काग को साधना साध कर साधु मन हो गया  मानमंडित किया नव्य अनुराग को  प्रेम की बस क्षुदा छा गई रोम पर भाव बन-बन के उर में समाती गई ©सूर्यम मिश्र

चामर छंद- लेखनी ©लवी द्विवेदी

नमन, माँ शारदे नमन, लेखनी छंद-  चामर चरण- ४(चार चरण समतुकांत) मात्रा- २३ वर्ण- १५ विधान रगण जगण रगण जगण रगण  भाव भृंग भावना विचार सार लेखनी, रम्य ओज वाहिनी स्वराग तार लेखनी। भव्य मालिका प्रमाणिका प्रकार लेखनी पीत, श्याम ,गौर वर्णिका तुषार लेखनी। गीत प्रीत रीति भीति मुक्त द्वार लेखनी, नेह पार्थ मित्र कृष्ण रश्मिहार लेखनी। ओज अद्विका विभिन्न व्यंगकार लेखनी, गीतिका सुजीत वीथिका विहार लेखनी। दर्श हर्ष वर्ष पर्व पूज्य वार लेखनी, प्रेम भावना प्रवीणता अपार लेखनी। प्रीति व्यंजना विशेषता विचार लेखनी, नौमि ईश रिक्त वंदना पुकार लेखनी। ©लवी द्विवेदी 'संज्ञा'

ग़ज़ल ©अंशुमान मिश्र

नमन, माँ शारदे नमन, लेखनी नाव खुद चलती बनी मझधार फिर क्या कीजिए? ज़िन्दगी ही जान  का आज़ार फिर क्या  कीजिए? इन  हकीमों  की  दवाओं का नहीं कुछ फायदा, क़ल्ब घायल, आस है बीमार फिर क्या कीजिए? साथ  जो  गर  हो  कोई, तनहाइयांँ  रहती नहीं, साथ  तन्हाई  रही  है  यार.. फिर  क्या कीजिए? जान  जिनकी जान में बसती है, वो अनजान बन, जान  लेने  को  खड़े  तैयार,  फिर  क्या  कीजिए? है  सुना,  झूठी   क़सम  से  जान   जाती   है  यहांँ, हम मुसलसल मर चुके सौ बार, फिर क्या कीजिए? अब   निज़ाम-ए-क़ल्ब  ही  करते  शहर  बर्बाद हैं, हो चुकी फरियाद  हर  बेकार, फिर क्या कीजिए? ©अंशुमान मिश्र                                                    

गीत- जी रहा हूँ ©ऋषभ दिव्येन्द्र

नमन, माँ शारदे नमन, लेखनी छंद– माधव मालती बन्द  वातायन  हृदय  के,  वेदना  को  पी  रहा  हूँ। द्वंद्व में प्रतिदिन उलझकर, मौन रहकर जी रहा हूँ।। दृष्टि जाती है जहाँ तक, शूल ही दिखते वहाँ तक। भग्न आशा सून मन में, कामना पलती कहाँ तक।। शून्य नभ में नित उमड़ती, है घटा घनघोर काली। कौन घोलेगा जगत में, साध की मधु तृप्त प्याली।। कूल पर तटिनी किनारे, नित्य  तिरता  ही  रहा  हूँ। द्वंद्व में प्रतिदिन उलझकर, मौन रहकर जी रहा हूँ।। स्वर्णमय सी रश्मियाँ यह, भानु की मुझको न भाती। स्निग्ध किरणें चन्द्रमा की, अब कहाँ मुझको हँसाती।।  व्योम की नव तारिकाएँ, अंक  में  भर  कर  सुलाएँ। किन्तु निर्जन मन विजन में, आस तो पनपा न पाएँ।। झिलमिलाते  नैन  लेकर,   मुस्कुराता  भी  रहा  हूँ। द्वंद्व में प्रतिदिन उलझकर, मौन रहकर जी रहा हूँ।। इस क्षितिज से उस क्षितिज तक, कौन अब मुझको पुकारे। प्राण को प्रतिकूल लगते, धार के सारे किनारे।। लोचनों में घन तमस  के,  घिर  रहे  देखो  घनेरे। क्या  कभी  साकार  होंगे, सुप्त  होते  स्वप्न  मेरे।। चाहता कहना बहुत कुछ, पर अधर को सी रहा हूँ। द्वंद्व में प्रतिदिन उलझकर, मौन रहकर जी रहा हूँ।।

सूर्यवंश को प्रणाम है ©रजनीश सोनी

नमन, माँ शारदे नमन, लेखनी चामर छंद   15 वर्ण, 23 मात्रा रगण, जगण, रगण, जगण, रगण नाद में  निनाद में  प्रतीक  छंद ज्ञान में।  योग में प्रयोग में निमग्न भाव ध्यान में।।  तत्व में सजीव में  स्वभाव में बहाव में।  राम  सर्व व्याप्त हैं  निरीह में प्रमाव में।।  राम  रीति-नीति हैं  पुनीत  संविधान हैं।  राम ही क्रियाकलाप राम ही विधान हैं।।  आसुरी  प्रवृत्ति  हेतु  दण्ड के प्रधान हैं।  दीन  रक्षणार्थ  राम ही कृपा-निधान हैं।।  दीपमालिका अनूप  भव्य नव्य धाम है।  दिव्य दर्शनीय  रूप राशि हैं  ललाम है।।  रोम - रोम  मे  रमें  रमेति  राम नाम  है।  सूर्यवंश  कौशलेन्द्र राम को  प्रणाम है।। ©रजनीश सोनी