गीत- जी रहा हूँ ©ऋषभ दिव्येन्द्र

नमन, माँ शारदे

नमन, लेखनी

छंद– माधव मालती



बन्द  वातायन  हृदय  के,  वेदना  को  पी  रहा  हूँ।

द्वंद्व में प्रतिदिन उलझकर, मौन रहकर जी रहा हूँ।।


दृष्टि जाती है जहाँ तक, शूल ही दिखते वहाँ तक।

भग्न आशा सून मन में, कामना पलती कहाँ तक।।

शून्य नभ में नित उमड़ती, है घटा घनघोर काली।

कौन घोलेगा जगत में, साध की मधु तृप्त प्याली।।

कूल पर तटिनी किनारे, नित्य  तिरता  ही  रहा  हूँ।

द्वंद्व में प्रतिदिन उलझकर, मौन रहकर जी रहा हूँ।।


स्वर्णमय सी रश्मियाँ यह, भानु की मुझको न भाती।

स्निग्ध किरणें चन्द्रमा की, अब कहाँ मुझको हँसाती।। 

व्योम की नव तारिकाएँ, अंक  में  भर  कर  सुलाएँ।

किन्तु निर्जन मन विजन में, आस तो पनपा न पाएँ।।

झिलमिलाते  नैन  लेकर,   मुस्कुराता  भी  रहा  हूँ।

द्वंद्व में प्रतिदिन उलझकर, मौन रहकर जी रहा हूँ।।


इस क्षितिज से उस क्षितिज तक, कौन अब मुझको पुकारे।

प्राण को प्रतिकूल लगते, धार के सारे किनारे।।

लोचनों में घन तमस  के,  घिर  रहे  देखो  घनेरे।

क्या  कभी  साकार  होंगे, सुप्त  होते  स्वप्न  मेरे।।

चाहता कहना बहुत कुछ, पर अधर को सी रहा हूँ।

द्वंद्व में प्रतिदिन उलझकर, मौन रहकर जी रहा हूँ।।


©ऋषभ दिव्येन्द्र

टिप्पणियाँ

  1. द्वंद में प्रतिदिन उलझकर, मौन रहकर जी रहा हूँ... वाहहहहहहह🙏 अद्भुत भावों भरा गीत

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  2. अतिशय सुंदर,समस्त वेदनाओं को सजीव कर देने वाला गीत!

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