गाँव ठिठका ©नवल किशोर सिंह
गाँव ठिठका चौमुहाने, ढूँढ़ता अस्तित्व अपना। वृद्ध बरगद दंड पाया, नीम अंदर जेल में है। ठूँठ पीपल हाशिये पर, नव्यता के खेल में है। कोख ठंढ़ी सभ्यता की , आँकती दायित्व अपना। ओढ़ती पगडंडियाँ हैं, डामरों की स्याह चादर। बीच खड्डों के झरोखे, झाँकती है रेत आकर। एक झाँवाँ देखता है, दर्प से व्यक्तित्व अपना। देख गोधन वीथियों में, धार बधिकों की ठठाती। दूध दुर्मिल डेयरी पर, गाय संसद में रँभाती। लेख पोस्टर कागजों का, हाँकता अहमित्व अपना। राहु ग्रसता चाँद-रोटी, पाव बर्गर अब सगा है। बालियों के रंग उतरे, भंग खेतों में लगा है। मेड़ भी तो धान वाला, बेचता स्वामित्व अपना। -©नवल किशोर सिंह