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सितंबर, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

गाँव ठिठका ©नवल किशोर सिंह

 गाँव ठिठका चौमुहाने,  ढूँढ़ता अस्तित्व अपना। वृद्ध बरगद दंड पाया, नीम अंदर जेल में है। ठूँठ पीपल हाशिये पर, नव्यता के खेल में है। कोख ठंढ़ी सभ्यता की , आँकती दायित्व अपना। ओढ़ती पगडंडियाँ हैं, डामरों की स्याह चादर। बीच खड्डों के झरोखे, झाँकती है रेत आकर। एक झाँवाँ देखता है, दर्प से व्यक्तित्व अपना। देख गोधन वीथियों में, धार बधिकों की ठठाती। दूध दुर्मिल डेयरी पर, गाय संसद में रँभाती। लेख पोस्टर कागजों का, हाँकता अहमित्व अपना। राहु ग्रसता चाँद-रोटी, पाव बर्गर अब सगा है। बालियों के रंग उतरे, भंग खेतों में लगा है। मेड़ भी तो धान वाला, बेचता स्वामित्व अपना। -©नवल किशोर सिंह

कुछ वक्त तुम्हारे शहर में गुजार के देखते हैं ©विराज प्रकाश श्रीवास्तव

 चलो कुछ वक्त तुम्हारे शहर में गुजार के देखते हैं , वो भूली यादें तुम्हारी रातों में निहारते हैं ! मैं जब भी मिलता हूं तेरे शहर के लोगों से , वो मुझे मुझसे नहीं ,तेरे नाम से पुकारते हैं ! चलो कुछ वक्त तुम्हारे शहर में गुजार के देखते हैं ..... रंजीदगी से लबरेज है तेरे शहर की हवा , चलो सेहर को खूबसूरत बना के देखते हैं ! तेरे शहर में जो भी मिला गमजदा मिला , चलो भीड़ में हम अपनी पहचान बना के देखते हैं !  चलो कुछ वक्त तुम्हारे शहर में गुजार के देखते हैं ..... फूल भी खिलना भूल चुके हैं अब तेरे शहर में , कांटे भी अब अपना हक मुझपर जताना जानते हैं ! और जब भी मैं याद करता हूं वो रूहानी रात , लोग मुझे सपने में भी तेरा होने से रोकते हैं !  चलो कुछ वक्त तुम्हारे शहर में गुजार के देखते हैं ..... © विराज प्रकाश श्रीवास्तव

सँवरने लगे हैं हम ©परमानन्द भट्ट

 कुछ तो गुनाह इश्क़ में करने लगे हैं हम ख़्वाबों  से  वर्ना आज क्यूँ डरने लगे हैं हम जब से हुए है दूर वो मेरी निग़ाह  से हर एक लम्हा देखिये मरने लगे हैं हम तीखे ये  ख़ार भी यहाँ लगते हैं फूल से   कैसी हसीन राह गुजरने लगे हैं हम जकड़ी हैं जब से पाँव में दुनिया ने बेड़ियाँ तेरी गली को सोच सिहरने लगे हैं हम  मुश्किल है हमको भूलना ओ मेरे दोस्तों यादों में रंग आपके भरने लगे हैं हम  दुनिया की भीड़ में हमें मत अब तलाशना आंखों में तेरे देख सँवरने लगे हैं हम  हमको ' परम 'के प्यार ने खुशबू  बना दिया  चारों दिशा में आज बिखरने लगे हैं हम   © परमानन्द भट्ट

ग़ज़ल ©प्रशान्त

 करूं मैं इजहार-ए-इश्क़ कैसे, दबी तमन्ना उभर न पाए l जो बात मुझको जला रही है, सनम सुने तो सुलग न जाए ll हैं इश्क़ के ही मक़ाम सारे, ये दिल्लगी, उंस या अकीदत.. करे इबादत ख़ुदा बनाकर  , जुनून-ए-दिलबर क़जा कहाए ll सराब का जब किया है पीछा, मिला हूँ आकर समंदरों से.... न काम दोनों ही आए मेरे, किसे कहूं तिश्नग़ी बुझाए ?? न झूठ बोले, न सच बताए, न ऐब जाने, न खूबियों को.... ये आइना है शरीफ़ कितना, जिसे नज़र सब ज़हीन आए ll गुज़ारिशें महफ़िलें सजातीं, तो कौन किसको 'ग़ज़ल' सुनाता l बने हक़ीक़त हों ख़्वाब जिसके, कही-अनकही वही सुनाए ll © प्रशान्त

गणेश वंदना ©गुंजित जैन

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 रूप एकदंत है, उदारता अनंत है। वक्रतुंड है गणेश, शीत में वसंत है।। विघ्न को हरें सभी, गणेश शूपकर्ण हैं। ध्यान में झुके हुए समस्त शब्द-वर्ण हैं।। लोक की पुकार को प्रभू विनायका सुनो। यातना सभी हरो प्रभो प्रसन्नता चुनो।। चित्त में सदैव ही गणेश की प्रभा रहे। शुष्क प्राण में सुरम्य ओज की विभा रहे।। वेदना विषाद में विक्षुब्ध मातु भारती। रूप धार लो प्रभो, धरा सदा पुकारती।। ज्ञान बुद्धि हर्ष का, उमंग का प्रवेश हो। शब्द भाव चित्त में गणेश ही गणेश हो। © गुंजित जैन                   Click Here For Watch In YouTube

लिख देता हूँ ! ©रेखा खन्ना

 कोई ख्याल दिल में कौंध जाए, बस उसे लिख देता हूंँ तेरा ख्याल सताए तो तुझे ही लिख देता हूँ। था दिन थोड़ा उलझनों से भरा हुआ बेबसी में उलझने ही कलम उठा लिख देता हूँ। दिलो-दिमाग के बीच हर पल एक जंग चलती रहती है मैं तंग आकर उनकी तकरार ही लिख देता हूँ। तंग दिल थी मोहब्बत तेरी बहुत ही मैं तेरी सारी शर्तें खुद को बारम्बार पढ़ाने के लिए लिख देता हूँ। थी तहरीर मेरी बड़ी ही दिलकश मोहब्बत से भरी पर दुखी होकर मैं तेरी उस पर जताई रुसवाई ही लिख देता हूँ। ना मुक्कमल हुई नींद और ना सपनों का सफ़र मेरा मैं दास्तां में अधूरा ख्वाब ही अक्सर लिख देता हूँ। शुक्रिया कि तूने नफरतों में संँभाल रखा ताउम्र मुझे मैं तेरी नफरतों का खतों में शुक्रिया ही लिख देता हूँ। ज़िंदगी का सफर चल पड़ा था उथले  रास्तों पर मैं तमाम पत्थरों के चुकाने वाले हिसाब ही लिख देता हूँ। टूटा था जो वो नाज़ुक दिल था कांँच का बना हुआ मैं उसके सारे टूटे टुकड़े गिन गिन कर लिख देता हूँ।          © रेखा खन्ना

श्री कृष्ण स्तुति ©दीप्ति सिंह

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 सुंदर सलोने साँवरे दर्शन को नैना बावरे छवि मोहिनी गोपाल की जय बोलिए नंदलाल की गोकुल की गैयाँ झूमती मुरली अधर जब चूमती  सुध-बुध बिसारे गोपियाँ  प्रभु को निहारे गोपियाँ गोकुल के गिरिधर ग्वाल की जय बोलिए नंदलाल की मनमोहना मन मीत हैं  हर्षित हृदय का गीत हैं  सृष्टि के पालनहार हैं  भक्तों के तारणहार हैं दृष्टि हो दीनदयाल की जय बोलिए नंदलाल की  हे दीनबंधु दया करें  करुणा के सिंधु कृपा करें  सर्वत्र हाहाकार है विपदा में ये संसार है  शीतल हो ज्वाला काल की जय बोलिए नंदलाल की © दीप्ति सिंह "दीया"                                Click Here For Watch In YouTube

दिनकर ©संजीव शुक्ला

 तम हर, दिनकर हे !अँधियारे पथ के दिनकर,  दिनकर थक कर क्या कभी शांति से सोता है? निशि दिवस मात्र संकल्प रहा हो तिमिर नाश,  वह घोर अँधेरों से कब...... विचलित होता है ?  तुम सदा साथ हो दीन,विकल व्याकुल जन के,  जिनकी आवाज दबी........ खेतोँ की माटी में l है भूख, वही परिवेश....... जहाँ तुम छोड़ गए,  परिवर्तन आया नहीं........ कुटिल परिपाटी में l अब भी किसान जीवन यापन हित व्याकुल है,  अब भी ऋण पर्वत भार....... पाग में धरता है l अब भी दिल्ली को छोड़......शेष भारत भर में,  श्रापित खेतिहर खेतोँ में...... प्रतिदिन मरता है l अब भी चोरों के मस्तक..... मुकुट धरे जाते,  तुझ सा जन नायक शेष नही है कविकुल में l जो शोषित पीड़ित जन की व्यथित गिरा बनकर,  निर्भीक मुखर स्वर करे.... छद्म कोलाहल में l मसि,समसि,समर्थ न रही शेष रह गया समर,  विरुदावलि शेष,रही लख.. सत्ता भृकुटि वक्र  l हे ज्योति हीन नयनों की...  आभा के दीपक, हे दिनकर ! आकर देख काल गति का कुचक्र l © संजीव शुक्ला 'रिक्त'

शिव स्तुति ©लवी द्विवेदी

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 शिवं शंभु तुभ्यं नमामी मलंगा,  महे मुण्डमालं  गलेव्यं  भुजंगा।  विभूती विशालं वदामी विहंगा,  त्रियं नेत्र स्वामी शशी शीश गंगा।  शिला लेख संयास नंदीश धारी,  कृपाकाल कालाप कामादिकारी।  प्रभो पाप नाशाय पुण्यं पुरारी,  मधू पाणि शंकाश सिन्धुः खरारी।  सदा शोभितं शेष ग्रीवा समागं,  भुजायादि कंशादि तत्वं तड़ागं।  निरुद्धं विशुद्धं निशा नाथ नागं,  तुषाराद्रि तातं त्रयः ताप त्यागं।  च दृष्टांत दामोदरं श्री दयालं,  नमामीश गौरीश कशीश कालं।  शिवः सूप्ति सृष्टीश सोहं शिवालं,  क्रिया क्रांति कामी कुसाग्रं कृपालं।  नमो नाथ नाथाय रुद्राष्टस्वामी,  नमो पाहि आशीष नागेशबामी।  नमो अाशुतोषं शिवं कोटि कामी, नमो निर्विकारं नमामी नमामी।    © लवी द्विवेदी                           Click Here For Watch In YouTube

अभी बाकी है ©सरोज गुप्ता

  तेरी आँखों की कशिश यार अभी बाकी है ।  दरमियाँ इश्क़ का खुमार अभी बाकी है ।।  तेरे अंदाज़ ए बयां अब भी जान लेती है ।  मुझको लगता है सनम प्यार अभी बाकी है ।।  पेड़ की शाखों पे पत्ते जो खिलखिलाते हैं ।  वो बता देते हैं बहार अभी बाकी है ।।  भोर की सुरमई ओ सांझ की सुकूँ कहती ।  सरसराती चली बयार अभी बाकी है ।।  घर में ढूँढो खुशी महफ़िल को सजाने वालों । तेरे कूचे में तबस्सुम हज़ार बाकी है ।।  जिंदगी मौज से जी लो जो मिली है यारों ।  क्या पता साँसों में बस साँसें चार बाकी है ।     © सरोज गुप्ता

लाश ©विपिन बहार

 देख खाते चील-कौवे राह में उस लाश को । खींचते अब जानवर भी छाह में उस लाश को ।। कौन से मद में सुनो अब जल रही ये भीड़ है । मतलबी हाँ मतलबी इस पल रही ये भीड़ है ।। आँख अपने बंद करके बढ़ रही है शान से... लाश के ऊपर यहाँ अब चल रही ये भीड़ है ।। यार कुछ ने तो जहालत की हदें यूँ पार की... चाहते है कैमरे की चाह में उस लाश को... देख खाते चील-कौवे राह में उस लाश को.. खींचते अब जानवर भी छाह में उस लाश को.. कौन है जो दर्द अब यूँ बॉटने में लग रहा । दर्द की बदरी घनी को छाटने में लग रहा ।। लोग आपस मे यहाँ तो टाँग ही अब खींचते.. आदमी ही आदमी को काटने में लग रहा ।। लाश छूना अब यहाँ पर तो बड़ी सी बात है .. कौन अब भर ले यहाँ पर बाह में उस लाश को.. देख खाते चील-कौवे राह में उस लाश को.. खींचते अब जानवर भी छाह में उस लाश को... बेसहारो का यहाँ कोई सहारा ही नही । भुखमरों का अब यहाँ कोई गुजारा ही नही ।। बात हमको ये समझ मे अब यहाँ पर आ गई.. आदमी की जात का कोई किनारा ही नही ।। सोचने के बाद भी हमको नही मालूम है..  कौन लेकर अब चलेगा दाह में उस लाश को.. देख खाते चील -कौवे राह में उस लाश को.. खींचते अब जानवर भी छाह में उस

गीत (वतन) ©प्रशान्त

 वतन से बिछड़कर वतन याद आया l गुलों से भरा वो चमन याद आया ll कमाई की खातिर कहां आ गये हैं l कहां छोड़ अपना जहां आ गये हैं ll न बोली, न भाषा, न त्योहार अपने, भला किसलिये हम यहां आ गये हैं ll पराई ज़मीं , आसमां भी पराया l वतन से बिछड़कर................ ll नए रास्तों की नई मंजिलें हैं l मगर अब कहां वो‌ हसीं महफ़िलें है ll बदन‌ है यहां पर , ज़हन है वहां पर, सफ़र संग करती कई मुश्किलें हैं ll जहाँ सब था अपना , न कोई किराया l वतन से बिछड़कर................ ll जुदाई की रातें , जुदाई भरे दिन l घड़ी चल रही धड़कनें रोज गिन-गिन ll क़दम कब रखेंगे वतन की ज़मीं पर, हमें उस घड़ी की तमन्ना है पल-छिन मुकद्दर ने कमबख़्त क्या-क्या दिखाया l वतन से बिछड़कर................ ll ख़ुदा से दुआ रात-दिन मांगता हूँ l सुख़न‌वर वो‌ अपना‌ वतन मांगता हूँ ll जहां बाप, मां और भाई बहन हैं , सनम संग बेटी-मिलन मांगता हूँ ll वही आशियाना, कभी जो बनाया l वतन से बिछड़कर................ ll वतन से बिछड़कर वतन याद आया l गुलों से भरा वो चमन याद आया ll       ©   प्रशान्त

गीत - प्रियतम ©संजीव शुक्ला

 तुम निकट हो,दृष्टि मेँ हो,मौन किंचित,  प्राण संप्रेषित करें संदेश प्रियतम l ज्ञान हो आसक्ति मन की चेतना हो,  तुम तृषित चातक हृदय की याचना हो l तुम अमिट पहचान हो अस्तित्व मेरा,  नेह हो अनवरत मोहक कामना हो l श्वास, मानस, देह कण-कण मेँ समाहित,  हो सदा गतिमान शोणित बन शिरा मेँ,  मधुर स्पंदन हृदय की अनवरत गति,  भावना, अभिव्यक्ति की विह्वल गिरा मेँ l शून्य हूँ निस्तेज हूँ निष्प्राण हूँ मैं,  तुम अनश्वर हो अमर प्राणेश प्रियतम ll एक क्षण यदि दृष्टि प्रिय की दूर जाती,  क्षीण मरुत प्रहार कृश लौ सह न पाती l श्याम तिमिर वितान का विस्तार नभ मेँ,  तेज प्रभा विहीन हों मन दीप बाती l ज्योत मलिन प्रकाश धूमिल हो रहा है,  फिर नए  उत्साह का संचार कर दे l फूँक फिर से प्राण बुझती रुग्ण लौ मेँ,  नेह से जगमग हृदय संसार कर दे l तू विमुख हो यदि निमिष तो शून्य हूँ मैं,  बिन तेरे निर्वात सम परिवेश प्रियतम ll है हृदय की वेदना का भान तुझको,  विकट अंतरद्वन्द का अनुमान तुझको l ज़ब चिरंतन प्राण का अनुबंध है फिर,  क्यों दिलाऊँ मैं व्यथा का ध्यान तुझको l यह तेरी मन रंजनी क्रीड़ा निराली, ये विमुख उपक्रम अपरिचित स्वर तुम्हा

लेखनी स्थापना दिवस के उपलक्ष्य मेँ काव्य पाठ एवम मिलन समारोह ©सम्प्रीति

 कोई साथ हो तो कदम और भी मजबूत हो जाते है,ऐसे ही हमारा लेखनी परिवार है जिसका हर सदस्य एक-दूसरे के साथ खड़ा रहता है। लेखनी परिवार ने हमेशा सिर्फ प्यार ही बाँटा है। आप चाहे हर रोज रहें या हफ्ते में एक दिन हमारे इस परिवार में आपके नाम का प्यार हमेशा बरकरार रहता है। मुझे इस खूबसूरत परिवार का हिस्सा बनाने के लिए हृदयतल से सभी को शुक्रिया अदा करती हूँ। लेखनी के दो साल पूरे होने पर रखे गए कार्यक्रम में मेरी प्रस्तुति: © सम्प्रीति Video 1: Video 2: Video 3: Video 4:

मातृ भाषा ©परमानन्द भट्ट

 तुतलाती बोली में हमने, जिस भाषा को अपनाया । और लोरियां गा कर माँ ने जिस बोली में बहलाया । जिस भाषा में सपने आये दर्द अधर पर आया है । युगों युगों  से जिस भाषा में गीत मिलन का गाया है ।। सारे पावन त्योहारों को,  जिस भाषा से मान मिला || पुरखों की गौरव गाथा का,  जिस भाषा में गान मिला || जिस भाषा से मिट्टी वाली,  महक रोज ही आती है || जिस भाषा में मायड़ हमको,  हालरिया हुलराती है ।| आँसू ख़ुशियाँ आवेगों को,  जिस भाषा में शब्द मिले || जिसको सुनकर सदा हृदय में,  रोज सुगंधित सुमन खिले || युगों  युगों से जो हम सब की,  संस्कृतियो की आशा है || मातृभूमि, जननी के जैसी,  वंदित हिंदी  भाषा है ।| © परमानन्द भट्ट

हिंदी ©सौम्या शर्मा

 भारती भाल की बिंदी है! भारत की भाषा हिंदी है!! सहज अभिव्यक्ति है भावों की! भाषा मनवांछित संवादों की!! भाषा जो स्वयं गौरवान्वित है! भाषा जिसने व्याकरण दिया!! भाषा जिसकी वरद छांव तले! कवियों ने कविता गान किया!! भाषा जिसका उत्कर्ष प्रखर! सुंदर वाचन, मनहर गायन!! भाषा जिसमें अपनत्व बसा! भाषा जिसमें सब अलंकरण!! भारती भाल की बिंदी है! मां वही हमारी हिंदी है!! हां! वही हमारी हिंदी है!!                        © सौम्या शर्मा

अदृश्य खंँजर ©रेखा खन्ना

  यादों ने अदृश्य खंँजर से  कई वार मुझ पर किए दिल के साथ-साथ रूह भी  ज़ख्मी हुई पर रिसता जख्म मेरा  किसी को भी दिखा ही नहीँ हाँ आँखों को देख सवाल जरूर किया कि कहाँ गुम हो क्यूँ बोझिल हो पर हँस कर मैंने टाल‌ दिया पता था मुझे ये समझ नहीं सकेंगे कि वार कितना तेज था और चोट कितनी गहरी लगी खुद के अंँदर झाँकने की इजाजत किसी को भी नहीं देती हूँ मैं पर हाँ कभी कभी महसूस होता है कि कोई होता जो मुझसे मेरे अंँदर झाँकने इजाज़त नहीं माँगता बल्कि खुद-ब-खुद ही चुपके से झाँक कर पता कर लेता कि ज़ख्म कितना गहरा है और क्या इलाज कर सकता है खुद ही अपनी बांँहों में समेट कर संँभाल लेता बिखरने से और, और टूटने से काश! एक कवच ऐसा भी होता  जो यादों के धारदार खंँजर से सीना चाक होने से बचाने की  कूवत रखता काश !  बस काश! ही तो रह गया है  बाकी जिंदगी में और  कुछ भी तो बचा नहीं शायद टुकड़े अनगिनत हो चुके हैं कि कोई भी समेट नहीं सकता अब इसलिए ही शायद कोई  दिल के अंँदर खुद-ब-खुद  झाँक कर देखना ही नहीं चाहता है इसलिए ही तो कहा कि  बस हँस कर अक्सर टाल दिया करती हूँ, कुछ कहने से यही  सही लगता है जाने जिंदा रहने के लिए और क

विमर्श ©नवल किशोर सिंह

#चामर छंद (15 वर्ण- र ज र ज र)  मेढ़की जुकाम से उदास हो कराहती। नीर की निवासिनी अधीर हो विलापती। मेघ रेख देख के विराग को सुजापती। नेत्र नीर धार ले तड़ाग को सरापती। लोग क्या न जानते जुकाम के प्रमाद को। लोभ से सने सभी निरर्थ के विवाद को। जीव आज मग्न मत्त सावनी फुहार में। ताप का तड़ाग चाह है कहीं जवार में। भेक का विलाप देख देख विज्ञ देश को। ग्राह राह में पड़ा लिए अबूझ वेश को। श्याम मेघ व्योम में छटा घटा सुदर्श है। सोखना न पोखरा यही भला विमर्श है।     -© नवल किशोर सिंह

ग़ज़ल ©विपिन"बहार"

 हाथ अपने अब घुमाकर बैठ जा । काम अपने सब बताकर बैठ जा ।। लोग जल कर ख़ाक हो ही जा रहे । आग सारी तू लगाकर बैठ जा ।। राजशाही ने हमे ये सीख दी । दूसरो को यूँ हटाकर बैठ जा ।। आजकल के लोग देते मशवरा । साथ वालो को लड़ाकर बैठ जा ।। राज करने का सुनो तुम ये जुगत । ताज-कुर्सी से उठाकर बैठ जा ।। यार गूंगो का शहर है चुप रहो तू गजल अपनी सुनाकर बैठ जा ।।   ©   विपिन"बहार"

नज़्म © हेमा काण्डपाल

 सुनो वो सज गई है क्या  वो डोली सज गई है क्या  कोई बतला दे ये मुझको  मेरी बारात है ये क्या  सजन तुम रूठ जाओगे! बलम तुम रूठ जाओगे! कहो जल्दी वगरना तुम यकीनन भूल जाओगे कि कैसे भूल जाओगे?  कि कैसे देख पाओगे! सुनो! तुम देख पाओगे? सुनो वो सज गई है क्या  वो डोली सज गई है क्या  ज़ख़्म मुझको लगा भारी ये बिंदी और ये साड़ी  ये नथनी नोच डालूॅं क्या कि सचमुच तोड़ डालूॅं क्या मुझे भाती थी वो बाली सजन हाॅं वो ही इक बाली  जो तुम बरसात में लाए  हाॅं बरसात में छुम छुम वो बरसात की रिम झिम सजन क्या थम गई होगी? सजन वो थम गई होगी! बलम जब सर्द आएगी  न यूॅं परहेज़ तुम करना  भला परहेज़ क्यों करना गला जो बैठ जाएगा  हाॅं बिल्कुल बैठ जाएगा  ज़रा तकलीफ़ तो होगी मगर तुम ये तो सोचो जान कि खुल के रो तो पाओगे ! बहाना कर के सर्दी का किनारे ज़ब्त को करके उस दिन खुल के रोना तुम  के जैसे रोते हैं बच्चे  कि कैसे रोते हैं बच्चे  सजन तुम सीख जाओगे,  सजन हाॅं सीख जाओगे मेरी डोली पे जो परदा,है वो क्या पारदर्शी है?  सजन जो ब्याहने आया ,है क्या वो भी दूरदर्शी है ?  मुझे डोली से क्या पंछी ,खुला आकाश दिक्खेगा?  सजन क्या वो भी मुझ

कहानी:- "पहुंचकर फ़ोन करना" ©गुंजित जैन

जब उच्च शिक्षा के लिए गांव से शहर आया था तो साथ सबकी उम्मीदें और कुछ सपने लाया था। सभी के अंतिम शब्द "खूब तरक्की करो, और बड़े आदमी बन जाओ" से शुरू होकर "पढ़ाई के बाद जल्दी अच्छी सी सरकारी नौकरी ढूंढ लेना" तक आकर खत्म हो रहे थे। मगर किसी का एक वाक्य उस भीड़ के शोर, स्टेशन की अनाउंसमेंट और ट्रेन की इंजन की आवाज़ के बीच दबी दबी आवाज़ में भी अलग सुनाई पड़ रहा था। "बेटा, पहुंचकर फ़ोन करना" कहती हुई माँ, अपने बच्चे से दूर होने के दुख को मुस्कराते होठों के ठीक पीछे कहीं छुपाने की कोशिशें कर रही थी। "हाँ माँ" कहते हुए मैं अपनी ट्रेन के अंदर चला गया। अपना सीट नंबर देखा, और जाकर बैठ गया।  अब ट्रेन चल चुकी थी, अपने गंतव्य की ओर।  "याद से फ़ोन करना" कहती हुई माँ की आवाज़ ने फ़िर होते शोर को चीर दिया।  खिड़की से गुजरती पटरियां और दौड़ते पेड़ों को देखता हुआ मैं मन में खुद से ही कुछ सवाल करने लगा, "क्या शहर पहुंचकर मैं भी सबकी तरह गांव भूल जाऊंगा?"  शायद, या शायद नहीं। इन सवालों ने मुझे उलझनों में डाल दिया था। मगर फ़िर शैलेश लोढ़ा जी की कुछ पंक्तियों ने मे

लेखनी स्थापना दिवस के उपलक्ष्य मेँ काव्य पाठ एवम मिलन समारोह ©अंजलि

 लेखनी परिवार उस कुम्हार के मिट्टी के घड़े के जैसा है जिसे मेहनत के साथ-साथ प्यार, विश्वास और परिवार के सफ़र की रूपरेखा देकर घड़ा गया है, इसीलिए सभी सदस्यों को अमूल्य ही प्यारा है। इसी वर्ष लेखनी परिवार ने दो वर्षों का सफ़र तय किया है इसी उपलक्ष्य पर ये मेरी प्रस्तुती है- मुझे इस परिवार का हिस्सा बनाने के लिए हृदयतल आभार🙏 © अंजलि Video 1:    Video 2: Video 3:

लेखनी स्थापना दिवस के उपलक्ष्य मेँ काव्य पाठ एवम मिलन समारोह ©रजनी सिंह

लेखनी दिवस के द्वितीय वर्षगांठ के उपलक्ष्य में लेखनी पटल पर मेरा कार्यक्रम..लेखनी परिवार भावनाओं का सागर है इनसे जुड़कर खुद को बहुत गौरवांवित महसूस कर रही हूँ l आप सभी का हृदयतल से धन्यवाद मुझे यह अवसर प्रदान करने के लिए। © रजनी सिंह Video 1: Video 2: Video 3: Video 4: Video 5:  

निः शर्त प्रेम ©लवी द्विवेदी

 किस हक से शृंगार करूँ मैं,  माँ की दुविधा, मेरी सुविधा,  भाई करे रक्षा नजरों से,  पात हिलोरे लेते कह कह,  आंसू लेलो इन शजरों से,  उसपर पीड़ा प्रेम भरी इक,  तेरी ही इंकार करूँ मैं,  किस हक से......  बहते सुंदर भाव बहन के,  दिखते देखो द्वार गहन के,  तात हमारे इच्छाधारी,  सुख के पूरक दुख संहारी,  आंसू बहते झरने जैसे,  तुझको गर मझधार करूँ मैं,  किस हक से.....  जुगनू ढूंढे रात सुहानी,  चाँद से कहता इक कहानी,  शायद तेरी मेरी होगी,  प्रेम समर्पण देरी होगी,  दिखता जो अंगार नही है,  राख हटा गर वार करूँ मैं,  किस हक से......  बुनकर हुई पृथक रोयी मैं,  यादें तिरी अलग बोयी मैं,  फसल उपजती मन के भीतर,  द्वंदी हिय में लड़ते तीतर,  दुविधा हार पहन मैं बैठी,  मन ही मन इजहार करूँ मैं,  किस हक से शृंगार करूँ मैं।  © लवी द्विवेदी

ग़ज़ल - (नई-नई) ©प्रशान्त

 बहरे मज़ारिअ मुसमन अख़रब मकफूफ़ मकफूफ़ महज़ूफ़ मफ़ऊलु फ़ाइलातु  मुफ़ाईलु फ़ाइलुन  221 2121 1221 212 क्या-क्या बदल रही है मुहब्बत नई-नई l रंगत हुई हसीन..........तबीयत नई-नई ll दिल को लुभा रही है निग़ाहों की गुफ्तगू... धड़कन बढ़ा गई है....... शरारत नई-नई ll कुछ आप, कुछ मिज़ाज जुदा सा है आपका... आई है हाथ आपके......... दौलत नई-नई ll सरहद अज़ीब है..... मेरे हिंदोस्तान की...... हर रोज़ मांगती है..........शहादत नई-नई ll आदम नकाबपोश कहीं खौफ़ मौत का..... आई 'ग़ज़ल' जहां भी..... क़यामत नई-नई ll  क्या-क्या सिला मिला जो तरक्की हुई बहुत... बंजर जमीन और..........इमारत नई-नई ll © प्रशान्त