अदृश्य खंँजर ©रेखा खन्ना

 

यादों ने अदृश्य खंँजर से 

कई वार मुझ पर किए

दिल के साथ-साथ रूह भी 

ज़ख्मी हुई पर

रिसता जख्म मेरा 

किसी को भी दिखा ही नहीँ

हाँ आँखों को देख सवाल जरूर किया

कि कहाँ गुम हो

क्यूँ बोझिल हो

पर हँस कर मैंने टाल‌ दिया

पता था मुझे ये समझ नहीं

सकेंगे कि वार कितना तेज था

और चोट कितनी गहरी लगी

खुद के अंँदर झाँकने की इजाजत

किसी को भी नहीं देती हूँ मैं

पर हाँ कभी कभी महसूस होता है

कि कोई होता जो मुझसे

मेरे अंँदर झाँकने इजाज़त नहीं माँगता

बल्कि खुद-ब-खुद ही चुपके से

झाँक कर पता कर लेता कि

ज़ख्म कितना गहरा है और

क्या इलाज कर सकता है

खुद ही अपनी बांँहों में

समेट कर संँभाल लेता

बिखरने से और, और टूटने से

काश! एक कवच ऐसा भी होता 

जो यादों के धारदार खंँजर से

सीना चाक होने से बचाने की 

कूवत रखता

काश ! 

बस काश! ही तो रह गया है 

बाकी जिंदगी में और 

कुछ भी तो बचा नहीं

शायद टुकड़े अनगिनत हो चुके हैं कि

कोई भी समेट नहीं सकता अब

इसलिए ही शायद कोई 

दिल के अंँदर खुद-ब-खुद 

झाँक कर देखना ही नहीं चाहता है

इसलिए ही तो कहा कि 

बस हँस कर अक्सर टाल दिया

करती हूँ, कुछ कहने से यही 

सही लगता है

जाने जिंदा रहने के लिए

और कितनी मौतें मरना होगा

और कितनी बार हकीकत 

और यादों के खंँजर से 

दो चार होना होगा

और कितनी बार ज़ख्मों

का रिसाव सहना होगा

और कितनी बार मुर्दा जिस्म को

जिँदा साबित करते हुए

जिंदा रहना होगा

यादों के खँजर पर लिपटा ज़हर

कब तक खुद के

अँदर भरते रहना होना

ज़हर जब नस नस में दौड़ने लगता है

तब सीना दर्द से चाक होकर फटता है

अदृश्य खंँजर, अदृश्य मौत

अदृश्य मुर्दा मन और

अदृश्य मुर्दा रूह

कितना कुछ अदृश्य है

पर दिल महसूस कर ही लेता है कि ये सब

अदृश्य नहीं अपितु यथार्थ है।


© रेखा खन्ना

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