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ग़ज़ल ©संजीव शुक्ला

सबको कदमों में झुकाने का हुनर रखते है  अपने अंदाज़ में शाहों का असर रखते हैँ l आपको फुरसतों में याद किया शुक्र करो... वर्ना बस काम के लोगों की कदर रखते हैँ l आप क्या हैँ के ख़ुदा से भी अना है उनकी ... क्या अनादार हैँ रिश्तों को इतर रखते हैँ l उनकी सानी में भला कौन जहाँ में होगा..... वो तो नायाब हैँ सुर्खाब के पर रखते हैँ l प्यार ज़्ज़्बात वफ़ा की उमीद उनसे जो... खुद को बेकार के मसलों से कगर रखते हैँ l आस इल्ज़ाम की रक्खो तो भलाई करना... लोग बातों में कहाँ कोर कसर रखते हैँ l 'रिक्त' ज़ाहिल हो ज़हानत के सलीके सीखो... बिक रहा हो जो, उसी घर पे नज़र रखते हैँ l  ©संजीव शुक्ला

गीत ©नवल किशोर सिंह

 भास तुल्य सपने दिखला कर। करते गोपन नहीं उजागर। पका-पका कर तर्क-तरावट। तथ्यों में कर दिए मिलावट। कहते झींगुर बोल रहा है, झुनकी जब वासव की पावट। रखते उदयन को बहला कर। दाँव बना यह बहुत प्रभावी। लिए विविध ही दर्प दुरावी। त्याग नीति को राज जमाते, मानस पर हो जाते हावी। बातों की कुंडली जमाकर। चख अंगूरों की लस्सी को। साँप बना देते रस्सी को। दया भाव दिखलाते निशिदिन, अभयदान देकर खस्सी को। तंदूरों में रान पकाकर। -©नवल किशोर सिंह

क्रिकेट ©गुंजित जैन

 "कुछ भी हो जाए, आज तो पहले मैं ही खेलूँगा" कहते हुए वो ख़ुद से ही बातें कर रहा था।  दूसरी तरफ़ उसका प्रतिद्वंदी। वैसे तो मित्र, पर खेल में दूसरी टीम का कप्तान, यानि उसका प्रतिद्वंद्वी, बल्ला घुमाते हुए आत्मविश्वास के साथ आ रहा था कि बल्ला मेरा है तो जायज़ सी बात है पहले मैं खेलूँगा।   न चेहरे पर कोई शिकन, न कोई तनाव। उस उम्र में तो स्कूल में आए नंबर भी खास मायने नहीं रखते, और वैसे भी तब तो सभी के नंबर बढ़िया ही आते हैं। आप के भी बेशक अच्छे ही आए होंगे!! उसके बाद जैसे-जैसे बड़े होते जाते हैं तब... ख़ैर! छोड़िए वो सब। हाँ तो कहाँ थे हम?? खेल पर! हाँ!! तो बस इन्हीं कश्मकश के बीच वह दोनों मैदान में चले आ रहे थे। एक तरफ़ वो भूरे रंग की अपनी वही पुरानी बारीक चेक वाली शर्ट और एक ढीला निक्कर पहने आ रहा था और दूसरी तरफ़, दूसरी टीम का कप्तान अपनी नारंगी-सी टी शर्ट और निक्कर में चला आ रहा था। उस उम्र में न ही अक्सर दिखावटी पन होता है, न कोई तुलना और न ही किसी को कपड़ों से कम या ज़्यादा आँका जाता है।  पर, केवल कपड़ों से।  बाकि जो ढंग से नहीं खेलता उसे तो तब भी कोई अपनी तरफ़ लेना पसंद नहीं करता था। 

मुहब्बत हो ही जाती है ©दीप्ति सिंह

जो तुमसे बात होती है, मुहब्बत हो ही जाती है ।  हसीं शुरुआत होती है,मुहब्बत हो जाती है । हमारी फिक़्र है तुमको, बयाँ करती हैं नज़रें भी, दुआ दिन-रात होती है, मुहब्बत हो ही जाती है । भिगोया है हमारी रूह को, भी इश्क़ नें तेरे,  जो अब बरसात होती है, मुहब्बत हो ही जाती है । हमें महसूस होती है, मुहब्बत की वही ख़ुशबू,  जो महकी रात होती है, मुहब्बत हो ही जाती है । तेरे होने से रौशन है,मेरी दुनियाँ मुहब्बत की, मिली सौगात होती है, मुहब्बत हो ही जाती है । मुहब्बत करने वालों का,कोई मज़हब नहीं होता,  जुदा ये ज़ात होती है, मुहब्बत हो ही जाती है । छुपा सकती नहीं 'दीया', कभी जज़्बात को अपने,  खुली हर बात होती है, मुहब्बत हो ही जाती है । ©दीप्ति सिंह 'दीया'

महकते हैं ©परमानन्द भट्ट

 धड़कने सुलगती जब, दिलजले महकते हैं आती जाती यादों के, सिलसिले महकते हैं आती है महक जिनके, ज़िस्म  के पसीने से उनके ज़ख्मी पांवों के, आब़ले  महकते हैं दूरी हो भले लेकिन, दिल से दिल के मिलने पर मंजिलें निकट आती, फ़ासले महकते हैं सुरमई अँधेरे में, शाख़ों  के लरज़ने पर फूल रजनीगंधा के, दिन ढले महकते हैं तेज बहते धारे में, माँझी के उतरने पर कश्तियाँ मचल उठती, होंसले महकते हैं  सत्य जब प्रकट होता, न्याय के उजाले में धूप बत्ती चंदन से, फ़ैसले महकते हैं साधना ये सरगम की, पूरी जब 'परम' करते शब्द श्लोक बन जाते, तब गले महकते हैं ©परमानन्द भट्ट

भारतवर्ष ©प्रशांत

 जय हो भारतवर्ष की ,  कहिए मिलकर आज l 'जन-गण-मन' गायन करे, जन-जन की आवाज l जन-जन की आवाज में, गूॅंज उठे कर्तव्य l निज भारत फिर से बने, श्रेष्ठ, सनातन, सभ्य l श्रेष्ठ सनातन सभ्यता, परम श्रेष्ठ इतिहास l सर्वश्रेष्ठ है विश्व में, भारत का विन्यास l भारत का विन्यास है , ज्यों मानव का वेश l हिम-पर्वत निर्मित मुकुट , हिम-तरंग हैं केश l हिम तरंग हैं केश सम, चरणों में जल-धाम l वाम-हस्त घनघोर घन , दक्षिण-कर घनश्याम l दक्षिण-कर घनश्याम जी, उत्तर राम नरेश l घट-घट वासी है यहाॅं , ब्रह्मा , विष्णु, महेश l ब्रह्मा, विष्णु, महेश ने ,  लिया जहाॅं अवतार l वहाॅं जन्म पाकर हुआ , निज जीवन साकार l निज जीवन साकार कर , किया देशहित कर्म l पूज्यनीय वे आज भी ,  जान गए जो मर्म l जान गए जो मर्म वे, देते हैं संदेश l वसुंधरा परिवार है , त्यागो सारे क्लेश l त्यागो सारे क्लेश अब, जाति, पंथ, दुष्कर्म l भारत उनका देश है , भारत जिनका धर्म l भारत जिनका धर्म हो, उनसे क्या संघर्ष ? भारतवासी बोलिए, जय हो भारतवर्ष l ~ ©प्रशांत

शायद कोई कमी रह गई थी ©अंशुमान मिश्र

 सारी उम्र कटेगी.. बस इस मुद्दे पर पछताने में, शायद कोई कमी रह गई थी तुमको समझाने में! तूफ़ाँ ने पल भर ना सोचा और गिरा डाला उसको, हमने जीवन वारा जिस पौधे को पेड़ बनाने में! जो खोया था, आधा जीवन उस पर रोने में बीता, बाकी आधा बीता, जो पाया था उसे बचाने में! इश्क सीखना चाहो गर, तो शम्मा से जाकर सीखो, पैदा होती परवाने से, मिट  जाती   परवाने  में! उठकर लड़ना, लड़कर मरना, मरकर उठना, फिर लड़ना, अलग लड़ाई  है, हर दिन जीकर,  हर दिन मर जाने में! तुम कहते थे जिसको खुद से दूर नहीं होने दोगे, मिली वही तस्वीर हमारी कल, घर के तहखाने में! मैं, तुम, हम दोनों, कुछ सपने, कुछ पैसे, छोटा-सा घर, कितना कम लगता है खुशियों का इक जहां बसाने में! शायद कोई कमी रह गई थी तुमको समझाने में!                        - ©अंशुमान मिश्र

नारियल! ©सौम्या शर्मा

 वह नारियल! भीतर तरल! आवरण कठोर! अन्तर निर्मल! छद्मावरण जग के लिए! कंटक बिछे पग के लिए! संसार उसे निष्ठुर कहता! करूणा उदधि मन में रहता! है ज्ञात यह यदि कह दिया! है हास्य को संसार यह! सब कुछ छिपाए स्वयं में! रहता अडिग हर बार वह! वह नारियल! भीतर तरल! आवरण कठोर! अन्तर निर्मल! वह नारियल! ©सौम्या शर्मा

कविता ©सूर्यम् मिश्र

 शांति के वो श्वेत से कपोत खूब उड़ें किन्तु, शत्रुखोर सिंह व्याघ्र व्यग्रकारी भी रहें। सद्भावना के अग्रदूत संग इस धरा पे, युद्ध भावना प्रबल प्रखर प्रहारी भी रहें। भोले भोली भावना को कभी नहीं भूलें किंतु, संग- संग रूप  उनका रौद्रधारी भी रहें। औ मंदिरों से प्रेम मेरा और भी बढ़ेगा, यदि देवताओं संग वहां क्रांतिकारी भी रहें।  ©सूर्यम् मिश्र

अम्मा ©विपिन बहार

 कंधे पर बोझा लेकर भी,हँसती,गाती प्यारी अम्मा । मेरे जीवन की मानो तो,फूलो सी इक क्यारी अम्मा ।। पढ़ना मुझको होता था पर,चिंता उसे सताती रहती । मुझसे ज्यादा करती रहती,मेरी ही तैयारी अम्मा ।। लूडो का हो खेल अनोखा,या शतरंजी बाजी होती । मुझकों खुशियाँ देने खातिर,कितनी पारी हारी अम्मा ।। दासी जैसा रखने वालों,घर की वो रानी थी बाबू । घर के कोने-कोने में अब, फ़िरती मारी-मारी अम्मा ।। जो भी माँगा देती रहती,खुशियाँ अपनी छोटी करके । बाबू जी से पैसे रखकर,देती चीज हमारी अम्मा ।। जीवन की सब खुशियाँ यारा,बस केवल लाचारी थी । मेरी यारा,मेरी रानी,मेरी थी अधिकारी अम्मा ।। © विपिन बहार          

ग़ज़ल ©संजीव शुक्ला

 कल चाँद काफ़ी दूर था l बस चाँदनी का नूर था l था अर्श बेहद शाद कल ... पहलू में हुस्न-ए-हूर था l बस बेखुदी बेताबियाँ.... आलम नशे में चूर था l मदहोशियाँ बहकी फ़िज़ा... हरसू अजीब....सुरूर था l कलियाँ खिलीं महका समा ... रोशन गुहर....... मगरूर था l वादी में बिखरी चाँदनी.... दिलकश समा भरपूर था l सरगोशियाँ करती हवा... हर दर्द ग़म..काफूर था l ©संजीव शुक्ला रिक्त

धीरता ©अनिता सुधीर

 धीरता की नित परीक्षा धैर्य डरता कब धमक से ज्ञानियों की भीड़ कहती अब सहें आलोचना क्या तीस मारे ख़ाँ सभी हैं बुद्धि दूजी सोचना क्या मिर्च लगती जब अहं को झूठ कहता फिर तमक से।। सीख जब भी रार करती भिनभिनाती मक्षिका है पीर रोती फिर बिलख कर क्रोध करती नासिका है चीखता सा घाव रोया  मात्र चुटकी भर नमक से।। हैं मनुज की जातियाँ दो सीखतीं या फिर सिखातीं मर्म गहरा लुप्त होता ये क्रियाएं जग चलातीं अनवरत धर धीरता को मुख दमकता फिर चमक से।। ©अनिता सुधीर आख्या

पुरुष ©सरोज गुप्ता

पुरुष को पुरुषार्थ से ना जानिये,  कष्ट होता है उसे भी मानिये ।  एक अस्फुट भाव ले मन में रहे,  प्रस्फुटित उसको है करना, ठानिये ।।  है बना यदि वो चरित्र, विचित्र सा,  रह ना जाये मात्र वो इक चित्र सा ।  कुछ करो वो खिल उठे बनके कमल,  महक जाये घर औ आँगन इत्र सा ।।  पति पिता,भाई बना घर का क्षितिज,  दायित्व धर कर रह न जाये वो तृषित ।  प्रेरित करें कुछ इस तरह खुल कर हॅंसे,  गुनगुनायें हम सभी संग हो मुदित ।।  नारी है जननी, तो नर भी है जनक,  नारी आभूषण है यदि, नर है कनक ।  दिल से करें आभार हर पुरुषार्थ का,  गूॅंजे फिर चॅंहु ओर खुशियों की खनक ।।  ©सरोज गुप्ता

ग़ज़ल ©हेमा कांडपाल

 किसी भी शख़्स पर कब मेहरबाँ थे हम  ये था इल्ज़ाम के कुछ बद-गुमाँ थे हम न लिक्खी ही गई आहें न काम-ए-दिल तभी जाना के  कितने  बे-कसाँ थे हम  तुम्हें  भी  राह  से  भटका  दिया हमने  अजी छोड़ो  कभी  तो  राह-दाँ  थे हम वो चलता साथ भी तो कब तलक चलता   वो  क़िस्सा  और  लम्बी   दास्ताँ  थे  हम गो मिज़्गाँ में रहे अटके मगर फिर भी तिरी आँखों में चुभती किर्चियाँ थे हम मिरी ख़स्ता-मिज़ाजी पर न जाना तुम है ये मालूम  तुमको  बद-ज़बाँ थे हम  धरा उजली,  शफ़क़ में  नूर था जिससे  गगन पर आज किश्त-ए-ज़ाफ़राँ थे हम  सभी  कहते  सुख़नवर   हो  बड़े  लेकिन 'हिया' कुछ थे तो बस अब राएगाँ थे हम ©हेमा कांडपाल 'हिया'

सपनों की यह खंड-कहानी। ©नवल किशोर सिंह

 मंजरियाँ मनमोहक वन में, एक तिलंगी लहराती। कोकिल कंठ विराजे जैसे, श्याम अधर वंशी गाती। मन उपवन में पुलक प्रीति पल, नाच रही चंचल डाली। भृंग झूमते मोद मनाते, कुसुमों की हर्षित आली। किसलय कोमल स्निग्ध सरोवर, संचित अमिरस अम्लानी। कुसुम कलश से छलके शीतल, तृषा-हरक निर्मल पानी। बैठ बटोही निर्जन तटपर, गढ़ता नूतन परिभाषा। संधित करता वह सरिता उर, होती पूरन अभिलाषा।    साल रहे थे शूल नुकीले, या कलकल तरल तरंगें। पा न सका पर्याय पंथ का, झोली में दमित उमंगें।   उद्गम के आगे स्वयं साधते, कहते सारे विज्ञानी । पाँव शिथिल अनुराग तिरोहित, भीत क्रीत या अभिमानी।    चंद चरण चंचल चलकर वह, जाने किस मग में खोता। हवन-कुंड में अनल धधकता, पास नहीं पर वह होता॥ तिल-यव का आहुति सौरभ, सुरभित जग को कर जाता।  एक छलावा धूम मचलकर, लोप अनिल में तर जाता॥ संदेशा रग भावन भरता, अधरों का कर अगवानी।  साँस विलय मकरंद मलय में, ललिता कलिता अवधानी। पलकों पर है भार लाज का, या छलना है अपनों का। चिंतन में मुकुलित नयनों से, पथ निहारती सपनों का। नील निलय निस्पंद खड़ा है, टिमटिम करते क्यों तारे? चाँद विवर से बाहर निकले, नभसंगम बैठ निहारे।