सपनों की यह खंड-कहानी। ©नवल किशोर सिंह

 मंजरियाँ मनमोहक वन में, एक तिलंगी लहराती।

कोकिल कंठ विराजे जैसे, श्याम अधर वंशी गाती।

मन उपवन में पुलक प्रीति पल, नाच रही चंचल डाली।

भृंग झूमते मोद मनाते, कुसुमों की हर्षित आली।


किसलय कोमल स्निग्ध सरोवर, संचित अमिरस अम्लानी।

कुसुम कलश से छलके शीतल, तृषा-हरक निर्मल पानी।


बैठ बटोही निर्जन तटपर, गढ़ता नूतन परिभाषा।

संधित करता वह सरिता उर, होती पूरन अभिलाषा।   

साल रहे थे शूल नुकीले, या कलकल तरल तरंगें।

पा न सका पर्याय पंथ का, झोली में दमित उमंगें।  


उद्गम के आगे स्वयं साधते, कहते सारे विज्ञानी ।

पाँव शिथिल अनुराग तिरोहित, भीत क्रीत या अभिमानी।   


चंद चरण चंचल चलकर वह, जाने किस मग में खोता।

हवन-कुंड में अनल धधकता, पास नहीं पर वह होता॥

तिल-यव का आहुति सौरभ, सुरभित जग को कर जाता। 

एक छलावा धूम मचलकर, लोप अनिल में तर जाता॥


संदेशा रग भावन भरता, अधरों का कर अगवानी। 

साँस विलय मकरंद मलय में, ललिता कलिता अवधानी।


पलकों पर है भार लाज का, या छलना है अपनों का।

चिंतन में मुकुलित नयनों से, पथ निहारती सपनों का।

नील निलय निस्पंद खड़ा है, टिमटिम करते क्यों तारे?

चाँद विवर से बाहर निकले, नभसंगम बैठ निहारे। 


सर्पिल पंथ हुआ कब लोपित, अबतक इससे अनजानी?

आओ प्यारे पथिक हुलसकर, लेकर आशय अभियानी॥


-©नवल किशोर सिंह

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