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ग़ज़ल ©लवी द्विवेदी

  यकीं तुम करो, हम नहीं दूर जाते। मुक़द्दर से तुमको अगर छीन पाते। सफ़र में नहीं सर्द तन्हाई होती, कहीं से हँसी धूप हम ढूँढ लाते। वो मज़हब को लेकर सुलह जो कराता, कसम से ख़ुदा को ज़मीं पे बुलाते। ये इल्ज़ाम सर जो लगा जा चुके हो, अगर सच पता होता, आ तुम मनाते। वफ़ा की कसक सिर्फ़ तुमको नहीं है, नहीं पास हो वरना गाकर सुनाते। मिला तोहफ़ा है, ख़बर सबको होती, खिली धूप में फूल रख गर सुखाते। सितमगर कहा है तो मालूम होगा, अदब से सितमगर नहीं पेश आते। ©लवी द्विवेदी

छंद -सवैया ©संजीव शुक्ला

 नमन, लेखनी l तिन नैनन गेह सनेह कहाँ, जिन नैनन नीर बहे न बहे l नहिं जानत जो जन के मन की,तिन का मन पीर कहे न कहे ll कबहूँ नहिं हाथ धरे जिन काँधन का तिन संग रहे न रहे l मझधारन छाँड़ि दए बहियाँ, जिन का तिन बाँह गहे न गहे ll मन भीगत नाहिं न भीगत जा तन का रस धार बहे न बहे l जिन के मन पीर न औऱन की,तिन का निज पीर सहे न सहे ll दुख औऱन के नहिं पीरक भे, तिन का नित मोद लहे न लहे l निज संतति संपति नारिहि के, हित जानत ते न महे न महे ll ©संजीव शुक्ला

कोई हो अगर तो बताना ©तुषार पाठक

कोई तुझे मुझसे ज्यादा चाहे तो बताना,  कोई तेरी एक अभिलाषा को पूरा करे तो बताना,  कोई तेरे हर दुःख में खड़ा हो तो बताना,  कोई तेरे लिए अपने परिवार से लड़ जाए तो बताना,  कोई तेरे एक बार पुकारने पर आ जाए तो बताना, कोई तेरे लिए बचपन के दोस्त छोड़ दे तो बताना, कोई तुझपर कविता लिखे तो बताना,  कोई तेरे हर एक नख़रे उठाए तो बताना,  कोई तेरी हर मुस्कुराहट का कारण बन जाए तो बताना,  कोई तेरे लिए खुद को भी मार दे तो बताना।  कोई तेरी ज़िंदगी में हर पल पर साथ खड़ा हो तो बताना! कोई तेरे हर सवालों का जवाब बन जाए तो बताना, कोई तेरा होकर तुझे बताय तो बताना!! @तुषार पाठक

गीत- साँवरे न आए ©गुंजित जैन

 नमन, माँ शारदे नमन, लेखनी दिन- मंगलवार दिनांक- 18/03/2024 विधा- गीत आधार छंद - कुंडल (सम मात्रिक ) चरण - 4 (दो -दो, या चारों चरण सम तुकांत ) मात्रा -22 यति - 12,10 यति के पूर्व, एवंम् पश्चात त्रिकल चरणान्त - SS (गुरु, गुरु ) कृष्ण-नाम प्रेमरोग, शब्द में सजाए, राधिका सहे वियोग, अश्रु को छिपाए, ले हिये प्रणय अपार, आस को लगाए, पंथ ताकती पुकार, साँवरे न आए। कृष्ण का सदैव ध्यान, राधिका लगाती, अन्य विश्व के विधान, सर्वदा भुलाती, शून्य भाव ले प्रकर्ष, 'कृष्ण-कृष्ण' ध्याती, बीतते अनेक वर्ष, श्याम को न पाती, शून्य हो रहे विचार, चित्त में बसाए, पंथ ताकती पुकार, साँवरे न आए। स्मरण सुरम्य तान, बाँसुरी बजैया, खोजती निशा-विहान, प्राण नंद-छैया, सर्वदा समस्त भाव, में रहे कन्हैया, झेल ना सके बहाव, नैन नाम नैया, मेघ तुल्य अश्रु धार, नैन से बहाए, पंथ ताकती पुकार, साँवरे न आए। वक्ष में लिए विषाद, हर्ष को बिसारी, गूँजती रही निनाद, ले गुहार भारी, पावनी विशुद्ध प्रीत, पूजती मुरारी, जीतने अनंतजीत, जग समस्त हारी, श्वास, प्राण को बिसार, कृष्ण को बुलाए, पंथ ताकती पुकार, साँवरे न आए। ©गुंजित जैन

कविता- प्रश्न पत्र ही लीक हो गए ©रजनीश सोनी

नमन, माँ शारदे नमन, लेखनी  लद्धड़ प्रतिभागी कितने निर्भीक हो गये। भ्रष्टाचार  चरम  पर  है  तस्दीक हो गये।।  हुईं  रिक्तियाँ भरने की  घोषणा  प्रचारित,  जगा भरोसा जब चुनाव नजदीक हो गये। प्रश्न पत्र  अब बिकें  माल दे  हुई  खरीदी,  जिनने लिये खरीद बड़े रमणीक हो गये।  जैसे  तैसे  आया समय  परीक्षा का जब,  पता चला की  प्रश्न पत्र ही लीक हो गये। भर्ती बनी छलावा धन श्रम समय गँवाया,  खाये पान दलाल  प्रत्यासी पीक हो गये।  छीछा-लेदर हुयी  जांँच फिर लीपा-पोती,  अफसर-शाही  नेता कई  शरीक हो गये। अरबों का नुकसान हताश हुये प्रतिभागी,  'नेह' न लज्जा लगे लाख तहरीक हो गये।  ©रजनीश सोनी "नेह"

कविता- शब्दों के बीज ©रेखा खन्ना

नमन, माँ शारदे नमन, लेखनी शब्दों के कुछ बीज़ बोए थे काग़ज़ की खुश्क ज़मीं पर  जाने कैसे दरख़्त हो गए एहसास, टहनियां  ख्याल, अधखिले फूल  और  ख्वाब, अनगिनत पत्तियांँ हो गए। हृदय की अध-कच्ची मिट्टी में जज्बातों की नमी से  ज़डों को विस्तार मिला और मन की गहराई की ओर चल निकले  अपनी स्थाई जगह बनाने को। शब्दों के पेड़ को  जब एक सम्पूर्ण जीवन मिला वो कहने लगे एक कहानी  कहने लगे बेख़ौफ़ सच वो सच जिसे बहार का मौसम  नसीब ना हुआ और पतझड़ से मिला कर  मिट्टी में दबा दिया गया। क्या सच, नीम के जैसा होता है काग़ज़ को भी हिदायत दी है कि  चखना तो दूर की बात है अपने तन पर उकेरना भी नहीं नहीं तो जिस्म नीला पड़ जाएगा। जाने कैसे कुछ बीजों को  दरख़्त बनने की चाह जगी और वो बस उग आए ये सोच कर कि मुझ में साहस है  अपना विस्तार करने का ग़लत का विरोध करने का। किसी दरख़्त पर सच उगा किसी पर मक्कारी किसी पर कविता उगी किसी पर कोई कहानी  और बहुत से दरख़्तों पर उगा  बोझिल दिल की व्यथा को कहने  के लिए क़त्ल करने वाले बेहद कठोर  परंतु संवेदनशील शब्द पर साथ में एक विडंबना भी उगी कि  पढ़ने वाले परिपक्व नहीं निकले। उन्होंने केवल

ग़ज़ल ©परमानंद भट्ट

 नमन, माँ शारदे नमन, लेखनी किसी का दिल नहीं मिलता, किसी से दिल नहीं मिलता, मुक्कमल  इस जहां में है बहुत मुश्किल नहीं मिलता । नज़र बस नुक़्स ही आते तुम्हें  किरदार  में सबके, भरी दुनिया में तुमको  क्यूँ कोई काबिल नहीं मिलता। उसे हम किस तरह अपना समझ कर पास बैठाते, हमारे दर्द में तो वो कभी शामिल नहीं मिलता।  कहाँ हम ढूँढने जाते ख़ुशी  के अस्ल  क़ातिल को, हमें खुद से बड़ा कोई यहाँ क़ातिल नहीं मिलता। जगी है भोर तक आँखें किसी की याद में उसकी , वगरना  शख़्स वो यूँ नींद से बोझिल नहीं मिलता। जिसे  पतवार से धोखा मिला उस नाव को यारो, हवाएँ साथ में होते हुए साहिल नहीं मिलता। 'परम' आनन्द पाने के लिए एकांत में बैठो , कभी भी भीड़ में या ये भरी महफ़िल नहीं मिलता। ©परमानन्द भट्ट

ग़ज़ल ©रानी श्री

नमन, माँ शारदे नमन लेखनी अनोखे शौक़ हैं जो भी जँचा वो चाहिए उनको, हमें तो नाम तक मालूम ना जो चाहिये उनको। न ऐसी चीज़ की ख़्वाहिश सजा कर जो सज़ा दे दे  अजी जो ठान लेते हैं ,मज़ा सो चाहिए उनको। जिन्हे मालूम ही ना हो के मेहनत चीज़ ही क्या है , ज़रा पैसे उड़ाने का सुकूं तो चाहिए उनको । ज़माना नाचता फिरता रहे जिनके  इशारों पर , रिवायत या रियायत ,ज़िद्द कह लो चाहिए उनको । यहां शेरों पे तारीफ़ें नहीं मिलती हमें रानी, वहां तारीफ़ सारी एक ही को चाहिए उनको ।  ©रानी_श्री

कविता- शिव विवाह ©अंजलि

नमन, माँ शारदे नमन, लेखनी महिना है फागुन का, दिन तेरस का आये बन वर पक्ष के अध्यक्ष नारद विवाह का न्यौता देने जाए। पंडित बने है ब्रह्मा, विष्णु कैलाश सजाएं, भस्म लगाकर तन पर भोले गौरी ब्याहने जाए। मुस्कुरा रहा शीश पर चंदा, जटाओं में गंगा नाचे गाये, पुष्प से सजा है नन्दी वासुकी हर्ष मनाए। चंद्राणी, ब्रह्माणी बन बहनें, रीति रिवाज रही निभाए, भूत प्रेत देवता दानव, बारात लिए सजाए। नाच रहे है बाराती, गण डमरू रहे बजाए, होकर नंदी पर सवार, शिव शक्ति ब्यहाने जाए। पहुंच गई बारात गौरी द्वार, नारद संदेश दिया पहुंचाए, उत्साहित गौरी की सखियां, गौरी का दूल्हा देखन आए। देखकर शंभू की काया, सखियां गई घबराएं, जाकर राजा रानी को सारा प्रसंग रही सुनाए। भाई मैनक द्वार खड़ा, शिव स्वागत की विधि कराए, पहुंच अन्तर्यामी गौरी की नगरी, गौरी को कैलाश ले जाने आए। मैना रानी महादेव को देखने की इच्छा जताए, देखने को शिव की काया, द्वार की ओर कदम बढ़ाए। धरकर विराट सा कुरूप, प्रभु मैना सबक सिखाए, करे रानी भोले की निंदा, नारद शिव महिमा गाये। बन गए भोले तेजस्वी युवक, मुकुट लिया सर पर सजाए, संसार बनाने वाले, खुद का संसार बसाने आ

कविता- पुनरावर्तन ©सूर्यम मिश्र

  नियति चाहे प्रतिष्ठित पथ में सदा कंटक बिछाए। चक्षुओं का स्वप्न मोहक भले क्षण में उचट जाए।। चित्त होकर चित्त..कतिपय भीरुता के गीत गाए। राग वो रण-त्यागने के मात्र,...अधरों पर सजाए।। शक्ति की समिधा चढ़ा तब, शौर्य हम भर लाएँगे। फ़िर खड़े हो जाएँगे,हम फ़िर खड़े हो जाएँगे।।  काल क्रंदन मान मंडित,......वंदना के शीश धाए। जग तिमिर को, देवता कह, नेह आनन से लगाए।। पाप का परिमाप,....पुण्यों के हृदय में घर बसाए। या कि उस दुर्बोध को बस,.निरावृत रहना सुहाए।। जब निराश्रित अश्रु के कण,..धरा को अपनाएँगे। फ़िर खड़े हो जाएंगे,हम फ़िर खड़े हो जाएंगे।।  प्रीति का उद्यान,.....उद्यमशील रहना भूल जाए।  नग्न नर्तन काल का वो,...प्रणय पुंजों में दिखाए।।  वेदना ही वेदना बस,........चेतना को नोच खाए। प्रीति शाश्वत देख ले ये मान मद यदि लाज आए।।  ज्ञान बन अज्ञान से तब,.....युद्ध हम कर आएँगे। फ़िर खड़े हो जाएँगे,हम फ़िर खड़े हो जाएँगे।।  गगन अच्युत,.धूरि के एक धुँध से ही ना दिखाए। अमर अंबर उड़ रहा हो,..तितलियों के पंख पाए।। पवन उर आलस्य धर कर,.कंपनों में सकपकाए।  वेदना ब्रह्मांड भर की,..प्रति श्रवण में आ सुनाए।।  भ्रम बने जब जुगनुओ

ग़ज़ल ©अंशुमान मिश्र

नमन, माँ शारदे नमन, लेखनी फिर बचाने को बिखरता आशियाना, लौटकर गर आ सके, तो लौट आना। मैं तेरी  नजरों में फिर  से  डूब  जाऊंँ, और तू बिन कुछ कहे सब कुछ बताना। वो तुझे पाना, मगर फिर खो भी देना, याद है सब जीत कर, सब हार जाना। छोड़ने  को, एक  झूठा सा तेरा सच, रोकने  को, इक  मेरा  सच्चा बहाना। इक  सुनाने  को, तेरी झूठी कहानी, इक छिपाने को, मेरा सच्चा फसाना। हो सके तो लौट कर करना मुकम्मल, इक  अधूरा सा  बचा किस्सा पुराना।  ©अंशुमान मिश्र

ग़ज़ल ©लवी द्विवेदी

नमन, माँ शारदे नमन, लेखनी  हमारे पास अच्छा घर नहीं है। हमें ज़िल्लत ज़बीं का डर नहीं है। निकलते पाँव हो बेखौफ़ बाहर,  शुकर है एक भी चादर नहीं है। तुम्हारा शौक़ है अन्दाज़-ए-उल्फ़त,  तुम्हे लगता लगी ठोकर नहीं है। वफ़ा को कर दिया बाजार जिसने, वो शातिर घर में है, बाहर नहीं है। इसे बाहर कहीं मदफ़न में ढूँढों, मेरा दिल अब मेरे अन्दर नहीं है। अदब से आदमी कमतर है, बेशक, ज़ुबाँ से कोई भी कमतर नहीं है। तन्हाई को बनालो जीस्त "संज्ञा", जो पीछे चल सके लश्कर नहीं है। ©लवी द्विवेदी 'संज्ञा'