ग़ज़ल ©लवी द्विवेदी
नमन, माँ शारदे
नमन, लेखनी
हमारे पास अच्छा घर नहीं है।
हमें ज़िल्लत ज़बीं का डर नहीं है।
निकलते पाँव हो बेखौफ़ बाहर,
शुकर है एक भी चादर नहीं है।
तुम्हारा शौक़ है अन्दाज़-ए-उल्फ़त,
तुम्हे लगता लगी ठोकर नहीं है।
वफ़ा को कर दिया बाजार जिसने,
वो शातिर घर में है, बाहर नहीं है।
इसे बाहर कहीं मदफ़न में ढूँढों,
मेरा दिल अब मेरे अन्दर नहीं है।
अदब से आदमी कमतर है, बेशक,
ज़ुबाँ से कोई भी कमतर नहीं है।
तन्हाई को बनालो जीस्त "संज्ञा",
जो पीछे चल सके लश्कर नहीं है।
©लवी द्विवेदी 'संज्ञा'
बेहद खूबसूरत ग़ज़ल, बाकमाल 👏✨❤️
जवाब देंहटाएंवाह क्या बात है!! बेहद खूबसूरत गज़ल 💐
जवाब देंहटाएंबेहद बेहतरीन ग़ज़ल है🙏
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