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मैं तुम्हारा पाठक होना चाहता हूँ, आशिक़ नहीं। ©गुंजित जैन

 तुम्हारी भी हमेशा से चाहत रही है, कि मैं तुम्हें पढ़ता रहूँ। तुम्हारी बातों में छिपी हर गहराई को समझता रहूँ। हर अल्फ़ाज़, हर जज़्बात सुनता रहूँ। मैं हमेशा से सोचता था कि तुम कुछ लिखती नहीं, फ़िर भला कैसे तुमको पढूँ। ये सवाल, ये ख़याल, कई दिनों तक मेरे दिमाग से गया नहीं था। एक उलझन सी रहती थी। अक्सर घने जंगलों में, सवेरे एक धुँध सी छा जाती है। एक ऊंचाई के बाद कुछ ढंग से दिखना बन्द हो जाता है। न जाने वो धुँध किन उलझनों में उलझकर उन पेड़ों में किसी को खोजती रहती है। लेकिन फ़िर सूरज की धूप आकर धुँध की उलझन दूर कर देती है। ठीक उसी प्रकार एक दिन तुमने आकर अपने शब्दों की किरणों से मेरी उलझन दूर कर दी। बस इतना कहकर  कि "किसी को पढ़ने के लिए ज़रूरी तो नहीं कि वो लिखे"। वाकई,  क्या किसी का लिखना ज़रूरी है, उसे पढ़ने के लिए? मेरे मायनों में,  शायद नहीं। अगर आप चाहें, तो किसी के बिना लिखे भी उसे पढ़ सकते हैं। किसी के दिल को, किसी की भावनाओं को, बातों को। जैसे, मैं पढ़ लेता हूँ। तुमको। है न? जानती हो?  तुम्हारी आँखों की चमक अक्सर मुझको तुम्हारे दिल का हाल बयाँ कर देती है। वो चमक कब खुशी की और कब नमी क

अंतरद्वन्द ©रजनी सिंह

 कुछ है अनकही सी  अधूरी सी मगर पूरी  तुम हो के न हो  एक एहसास चारों तरफ तुम्हारी  आगोश में होने का कुछ कहूँ तो कैसे  चुप रहूँ तो कैसे  अजीब कश्मकश है  कुछ है जो बयाँ होता नहीं  कुछ है जो छुपाया जाता  नहीं  निडर भी है  सुकूँ भी  है  दूरी भी है  नजदीकी भी है  है कुछ ख्वाब सा कुछ हकीकत सा  क्या बोलूं लब इजाजत नहीं देते  दिल शोर मचा रहा है  एक खींच-तान रिवाजों और दिल के बीच  होती है हर रोज  एक बंधन तोड़ कर  दूसरे में बँध जाना चाहता है बहुत अजीब है सब कुछ अटपटा सा मगर सुलझा हुआ  बहुत अरमान थे  आसमान छूना था  सब था मगर हौसला नहीं था दिल था दिमाग़ था सोच थी  मगर सोच को आकार देने की हिम्मत नहीं थी  माफ़ कर देने की मेरी आदत मुझे अंदर से खोखला कर गई  खुल कर न विरोध किया न प्यार किया  एक घुटन भरी जिंदगी जीती रही  पता नहीं मगर कुछ है जो  मुझे दुख में हमेशा डाल देता है मै रोना नहीं चाहती मगर रुला जाता है मै हॅसने से  पहले सहम जाती हूँ कि क्या पता इस हसीं की कीमत अगले ही पल आसुओं से चुकानी पड़े किसी ने शायद देखा नहीं कि मै हर इंसान को खुद से दूर क्यों रखना चाहती हूँ मै हर छोटी छोटी बात को दिल पर लेती हू

©सौम्या शर्मा

 तारे गिनता है रात भर कोई! रखता अपनी नहीं खबर कोई!! तुझको एक रोज देखने की जिद! करता हर रोज है सबर कोई!! दुनिया कहती है लौट के आ जा! तुझमें गुम है,है बेखबर कोई!! तेरी उसको नजर है ऐसी लगी! अब है लगती नहीं नजर कोई!! एक तेरी चाह में सुकूं से है! दूजी हसरत न उम्र भर कोई!! हाल उसका मैं क्या बताऊं तुझे! फिरता रहता है दरबदर कोई!! तेरा दीदार हो तो चैन आए! सदियों से कर रहा सफर कोई!! तू जो मिल जाए उसे झूम उठे! तेरी तलाश में हमसफ़र कोई!! ©सौम्या शर्मा

जलाशय ©संजीव शुक्ला

 एक युग तक बैठा रहा किसी जलाशय के तट पर शांत मौन विस्तृत ताल जिसका निर्मल जल दृष्टि को पवित्र कर देता है स्वच्छ अथाह जल राशि शीतल, प्रफुल्लित कर देती है अंतर्मन जिसे देख कर  पवित्र विचार उठते हैं मन में उस निर्मल जल को पात्र में रख किसी देवता की पूजा के  पावन भाव उत्पन्न होते है कभी नहीं चाहा उस जलाशय के जल में उतर कर अपने तन का मैल उस निर्मल जल से धोना तपते शरीर की तपन शीतल जल से शांत करना कभी प्यास नहीं लगी मीठे जल को समीप पाकर कभी मन नहीं किया ठन्डे जल में पाँव डाल कर बैठने का मन में कभी नहीं उठा  स्वच्छ निर्मलता मैली करने का विचार जलाशय तट की सदा हरी घास की भाँति मन में कुछ प्रश्न बने रहते हैं यथावत क्या जलाशय का निर्मल जल स्वेच्छा से चाहता है कि कोई भी बुझा ले प्यास उस जल से  क्या वह देता है यह अधिकार ह्रदय से  किसी भी गर्मी से तपते शरीर को अपनी शीतलता से तृप्ति की क्या वह शांत मौन जल प्रतिकार करना चाहता है अक्षुण रखना चाहता है अपनी शुद्धता कहीं जल के मौन में विरोध का भाव तो नहीं क्या किसी को भी जलाशय के जल से प्यास बुझाने, निर्मल जल को मैला करने शुद्धता को अपवित्र करने का अधिकार