जलाशय ©संजीव शुक्ला

 एक युग तक

बैठा रहा किसी जलाशय के तट पर

शांत मौन विस्तृत ताल

जिसका निर्मल जल

दृष्टि को पवित्र कर देता है

स्वच्छ अथाह जल राशि

शीतल, प्रफुल्लित कर देती है अंतर्मन

जिसे देख कर 

पवित्र विचार उठते हैं मन में

उस निर्मल जल को पात्र में रख

किसी देवता की पूजा के

 पावन भाव उत्पन्न होते है

कभी नहीं चाहा

उस जलाशय के जल में उतर कर

अपने तन का मैल

उस निर्मल जल से धोना

तपते शरीर की तपन

शीतल जल से शांत करना

कभी प्यास नहीं लगी

मीठे जल को समीप पाकर

कभी मन नहीं किया

ठन्डे जल में पाँव डाल कर बैठने का

मन में कभी नहीं उठा 

स्वच्छ निर्मलता मैली करने का विचार

जलाशय तट की सदा हरी घास

की भाँति

मन में कुछ प्रश्न

बने रहते हैं यथावत

क्या जलाशय का निर्मल जल

स्वेच्छा से चाहता है कि

कोई भी बुझा ले प्यास उस जल से 

क्या वह देता है यह अधिकार

ह्रदय से 

किसी भी गर्मी से तपते शरीर को

अपनी शीतलता से तृप्ति की

क्या वह शांत मौन जल

प्रतिकार करना चाहता है

अक्षुण रखना चाहता है अपनी शुद्धता

कहीं जल के मौन में

विरोध का भाव तो नहीं

क्या किसी को भी जलाशय के जल से

प्यास बुझाने,

निर्मल जल को मैला करने

शुद्धता को अपवित्र करने का अधिकार

केवल इस लिए मिल जाता है

के प्रकृति ने किया है निर्माण जलाशय का

केवल तृप्ति के उद्देश्य से

क्या अन्य कोई प्रयोजन नहीं

अमृत तुल्य जल से भरे जलाशय का

युगों तक यही सब प्रश्न

मन में लिए बैठा रहा हूँ

मौन जलाशय के तट पर

अथाह जल की गहराइयों का अनुमान करता

शांत जल सतह के भीतर

मचलती, उछलती कूदती

असंख्य मछलियों की अस्थिरता 

जल के अन्तःस्थल के विचलन

का आंकलन करता हुआ

और जलाशय टालता आया है

मेरे चिरंतन अनुत्तरित प्रश्नों को

कभी अनसुना कर के

तो कभी चिड़चिड़ा कर

आखिर एक युग के उपरांत एक दिन

आवेश में आ कर जलाशय बोल उठा

उसके चिरंतन मौन शांत मूक जल

की मुखर हुई अाजन्म तल में दबी पीड़ा

और जलाशय ने सपाट निर्विकार स्वर में

सिसकते हुए बताई जलाशय की कामना

वह अाजन्म प्रतीक्षा में है उस योगी की

जो तटस्थ हो उसकी शीतलता से

जिसे उसके स्वादिष्ट जल की प्यास न हो

जिसे चिंता हो जलाशय के अस्तित्व की

शुद्धता अक्षुण रखने की

अपने शरीर के ताप को शमन करने से अधिक

जिसे  ध्यान हो शुद्ध जल की पावनता का 

जिसे निर्मल जल को देख

प्यास बुझाने से अधिक चिंता हो

जलाशय के पावन अस्तित्व की

जो निहारता रहे अपलक

तट पर बैठ

जलाशय की अगाध जलराशि 

जिसका ह्रदय प्रफुल्लित हो

जलाशय के नीरव निर्दाग़ जल को देख

जिसका उद्देश्य हो 

पावन पवित्र जल की अस्मिता की रक्षा 

जिसे समीप पाकर शांत हो

जलाशय के अंतर्मन का उदवेग

समाप्त हो अंतहीन आजन्म प्रतीक्षा

अंत हो अन्तः में बसी

असंख्य मछलियों के उद्वेलन का 

वह योगी तटस्थ हो जो

जलाशय के वक्ष पर खिले कमल दलों की सुंदरता से

जो विरक्त हो मदमाती पंखुड़ियों की सुगंध से 

जो देख सके जलाशय तल के

 कण कण में संचित वेदना

जिसकी दृष्टि हो अनछुई आत्मा पर

वह योगी जो निरलिप्त हो निर्विकार हो

और जो जलाशय को द्रवित करदे

अपनी योग साधना से 

वह योगी जिसे तट पर आया देख

जलाशय विह्वल हो उठे

वह योगी जिसके आलिंगन के लिए

जलाशय तोड़ दे सारे तटबंध

और स्थिर, शांत, मौन निर्भाव जलाशय

बन जाये एक विह्वल चंचल नदी

वह योगी जो प्यासा कर दे

स्वयं तृप्ति के प्रतीक जलाशय को..........

   ©संजीव शुक्ला

टिप्पणियाँ

  1. शानदार, भावपूर्ण सृजन के लिए बधाइयाँ

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  2. कहीं जल के मौन में विरोध का भाव तो नहीं.....
    हर एक पंक्ति अत्यंत गहन भाव से युक्त अत्यंत उत्तम भावपूर्ण कविता सर जी ।
    सादर नमन 🙏

    जवाब देंहटाएं
  3. अत्यंत सूक्ष्मता एवं जीवंतता के साथ एक जलाशय की स्थिति को प्रस्तुत किया है आपने 🙏🏼💐💐💐

    जवाब देंहटाएं

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