संदेश

दिसंबर, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

नव वर्ष का अभिनंदन ©सरोज गुप्ता

 नव पल में हम नव उमंग से अभिनंदन नव वर्ष करें ।  नव विहान में नव स्वप्नों को  पल्वित कर परिपूर्ण करें ।।  नव युग का निर्माण करें हम मन को नवचेतन बल दें,  भूख, गरीबी, बेकारी को दूर भगा नूतन कल दें, भ्रष्टाचार मिटा करके हम नव भारत निर्माण करें ।  नव विहान में नव स्वप्नों को पल्वित कर परिपूर्ण करें ।।  वो पल फिर आयेगा जब सोने की चिड़िया फिर होगी,  राजगुरु संग भगत सिंह झाॅंसी की रानी फिर होगी, जन्मभूमि के हित के खातिर निज स्वार्थों का बलिदान करें ।  नव विहान में नव स्वप्नों को पल्वित कर परिपूर्ण करें ।।  जब हम स्वार्थ रहित होंगे तब ही नव जागृति होगी, नव रूप मिलेगा स्वप्नों को नव पर, नव आकृति होगी, ( नव पर* नये पंख)  प्रेम भाव के पुष्पों से माँ भारत का श्रृंगार करें ।  नव विहान में नव स्वप्नों को पल्वित कर परिपूर्ण करें ।।   ©सरोज गुप्ता

गीत ©विपिन बहार

 दर्द की क्या कहानी बताऊँ प्रिये । गीत यह तुम बिना अब बढ़ा ही नही ।। बंदगी को छुपाना कहाँ है सरल । प्यार क्या है बताना कहाँ है सरल ।। बस तुझे लिख दिया,भाव में गढ़ दिया । और फिर तुम बिना कुछ गढ़ा ही नही ।। गीत यह तुम बिना अब बढ़ा ही नही ।। जिंदगी से हमे कुछ गिला ही नही । चाहने से हमे कुछ मिला ही नही ।। यों खुदी से लड़ा बेवजह हर घड़ी । बाद तेरे किसी से लड़ा ही नही ।। गीत यह तुम बिना अब बढ़ा ही नही ।। दर्द को शायरी से सनम पी रहा । छोड़ तो तू गई पर तुझे जी रहा ।। लाख आए गए चेहरे तो कई । दूसरा चेहरा तो पढ़ा ही नही ।। गीत यह तुम बिना अब बढ़ा ही नही ।। ©विपिन "बहार"          

याद आने लगे ©दीप्ति सिंह

212  212  212  212 मुतदारिक मुसम्मन सालिम इस क़दर वो मुझे याद आने लगे मेरा सब्र-ओ-सुकूँ आज़माने लगे वो भले दूर हैं पास एहसास हैं  उनके एहसास हमको डुबाने लगे  वो समझते हैं ख़ामोशियाँ भी मेरी  जो समझने में सबको ज़माने लगे क़ैफ़ियत अब हमारी परेशान है ख़ैरियत आप जबसे छुपाने लगे   देखिए तो सही क्या मेरा हाल है  आपकी याद में सब भुलाने लगे आपसे मिल रहा दर्द भी ख़ास है  दर्द से दिल की महफ़िल सजाने लगे आपसे है मुकम्मल 'दीया' आपकी आपके बिन हक़ीक़त फ़साने लगे  © दीप्ति सिंह 'दीया'

हिंदुस्तान की ©सूर्यम मिश्र

 साजिशों में कैद है अब आन हिंदुस्तान की रोज कम अब हो रही है शान हिंदुस्तान की खूँ नहाई बेटियाँ है क्या बताऊँ दास्ताँ । खत्म होती जा रही मुस्कान हिंदुस्तान की ये गगन पूरा भरा है ,आज खूनी बाज से इक कबूतर में बसी है जान हिंदुस्तान की  गाल पे गज़ले बनीं यूँ भाल तो है लापता  बस भुलाई जा रही अब तान हिंदुस्तान की   अब कि फूलों की जगह, काँटे हैं डेरे डाल के हो रही कलियाँ हैं अब,बेजान हिंदुस्तान की  यूँ कलमकारों,कलम का सर,कलम होने न दो  है तुम्हारे हाथ अब पहचान हिंदुस्तान की   ©सूर्यम मिश्र

मेरे गगन तुम ©अनिता सुधीर

चित्र
 मैं धरा मेरे गगन तुम अब क्षितिज हो उर निलय में दृश्य आलिंगन मनोरम लालिमा भी लाज करती पूर्णता भी हो अधूरी फिर मिलन आतुर सँवरती प्रीत की रचती हथेली गूँज शहनाई हृदय में।। धार इठलाती चली जब गागरें तुमने भरीं है वेग नदिया का सँभाले धीर सागर ने धरी है नीर को संगम तरसता प्यास रहती बूँद पय में।। नभ धरा को नित मनाता फिर क्षितिज की जीत होती रंग भरती चाँदनी तब बादलों से प्रीत होती भास क्यों आभास का हो काल मृदु हो पर्युदय में।। ©अनिता सुधीर Click Here For Watch In YouTube

वृद्धावस्था ©अनिता सुधीर

 नींव रहे , ये सम्मानित बुजुर्ग मजबूत हैं इनके बनाये दुर्ग छत्रछाया में जिनके पल रहा   सुरक्षित आज का नवीन युग.. परिवर्तनशील जगत में  खंडहर होती इमारतें  और उम्र के इस पड़ाव में .. निस्तेज पुतलियां,भूलती बातें पोपला मुख ,आँखो में नीर  झलकती व्यथा ,अब करती सवाल है ... मेरे होने का औचित्य क्या .. क्या मैं जिंदा हूँ .... तब स्पर्श की अनुभूति से अपनों का साथ पाकर दादा जी जो जिंदा है बस वो थके जीवन में  फिर जी उठेंगे .... वृद्धावस्था अंतिम सीढ़ी  सफर  की समझें ये पीढ़ी जतन से जब जीर्ण शीर्ण काया मे क्लान्त शिथिल हो जाये मन तब अस्ति से नास्ति का जीवन  बड़ा कठिन । अस्थि मज्जा की काया में सांसो का जब तक डेरा है तब तक  जग में अस्ति है फिर छूटा ये रैन बसेरा है ।" जो बोया काटोगे वही  मनन करें  सम्मान  दे इन्हें पाया जो प्यार इनसे ,  शतांश भी लौटा सके इन्हें ये तृप्त हो लेंगे..  ये फिर जी उठेंगें ... ©अनिता सुधीर

सुर लगाती अप्सरा हो ©गुंजित जैन

 भोर की इस लालिमा में, सुर लगाती अप्सरा हो, मेघ जैसे हम कदाचित, तुम गगन हो या धरा हो। स्वर तुम्हारे सूझते हैं, जब कहीं होती प्रभाती, रास्तों पर बन पपीहा, मुस्कुराहट खिलखिलाती। हैं नयन सुंदर सुशोभित, प्रस्फुटित ज्यों नव्य कोंपल, यह पलक लगती नयन पर, शीत में ज्यों धूप चंचल। शुद्ध, निर्मल, शांत मन में, शांति लगती दोपहर की, कुछ लटें यह कुन्तलों की, नापती शोभा अधर की। नित्य कोमल तर्जनी यह, लहलहाते पात सी है, ध्यान में तन्मय हथेली, रम्य, मृदु जलजात सी है। रूप सम्मुख देखते हैं, अति मनोहर यह घड़ी है, मन मुदित यह देखकर ज्यों, द्वार पर संध्या खड़ी है। अब तुम्हारे प्रेम में हम, खूब सिंचित हो रहे हैं, इस हृदय में कुछ मनोरम, गीत गुंजित हो रहे हैं। नित्य शोभा की प्रभा में, हर सरोवर खो गया है, चारु नयनों के क्षितिज में, मग्न सूरज हो गया है। छवि तुम्हारी चाँद सी है, चाँद जो गीतों भरा हो, यामिनी की चाँदनी में, सुर लगाती अप्सरा हो। ©गुंजित जैन

रेंगनी ©नवल किशोर सिंह

 मोह माहुर ले मिलन का, मुग्ध मन मनुहार संचित।  जेठ की धधकी तपन में। स्वेद-बूँदें हैं नयन में। श्रांत बैठा उर-श्रमिक है, वात वैभव चाह मन में। साँस सुरभित हो मलय से, प्राण पुलकित सार संचित। मास जब आषाढ़ आया। गोखरू में पात लाया। नेह पुष्पित कंटकों से, पाट कर पथ को सजाया। कंटकों के बीच चलना, पग महावर खार संचित। गात पुलकित हास लेकर। प्रीति पावन आस लेकर। खुल रहे द्वय बाँह मेरे, बैंगनी अकरास लेकर। एक लतिका बन सिमटती, सावनी अँकवार संचित। लाजवंती-सी छुअन में। ओढ़नी सहमी बदन में। रेंगनी-सा रोम मेरा, है विकर्षण इस मिलन में। वेदना सजती नयन में, भाद्रपद जलधार संचित। -©नवल किशोर सिंह

सुर्ख रंग की बहारें ©रेखा खन्ना

 सुर्ख रंग की बहारों को क्या ग़म लग गया क्यूँ इनका पीले पतझड़ से पाला पड़ गया। नदी की चाल थी बलखाती मदमाती हुई क्या हुआ कि बनना संकरा नाला पड़ गया। आसमां में बादलों का रंग शफाक ही देखा किसके दुख में दुखी हो, रंग काला पड़ गया। रास्ते की ठोकरों सा नसीब हर पल ही रहा खंडहर हुए जर्जर नसीब पर जाला पड़ गया। मोहब्बत की तलब में दिल बेताब था बड़ा दिल टुकड़े हुआ तो रूह पर छाला पड़ गया। हकीकत थी कि सच्चाई दिखाती रही बारम्बार सच को नकार क्यूंँ अक्ल पर ताला पड गया। कर्ज़ जिंदगी का चुकाना था या साहूकार का जर्जर हुए बदन के पीछे क्यूंँ लाला पड़ गया। ©रेखा खन्ना

लाज़मी सा था ©रानी श्री

 1222 1222 1222 1222 फ़कत तन्हा दिलों को आशियाना लाज़मी सा था, बिना मंज़िल सफ़र से लौट आना लाज़मी सा था। जवानी थी बुलंदी पर कई अरमाँ मचलते थे, तज़ुर्बे के लिये तो दिल लगाना लाज़मी सा था। लगी जो आग दिल में थी बुझा ना हम सके उसको, जलाती घर अगर तो लौ बुझाना लाज़मी सा था। कफ़स में रह चुका जो एक अरसा उस परिंदे का, रिहा हो हाथ में ख़ंज़र उठाना लाज़मी सा था l ख़ुदा चाहे मुसीबत में हमें बस बेवफ़ाई दे, वफ़ा फ़िर भी उसी से ही निभाना लाज़मी सा था। समझ आती नहीं थी हर्फ़ की कोई ज़ुबां उनको, ज़ुबां खामोशियों की ही सुनाना लाज़मी सा था। बुरी है शायरी तेरी भरी है दर्द से  'रानी', खबर फ़िर मौत की अपनी बताना लाज़मी सा था। ©रानी श्री

तुम याद आये ©सरोज गुप्ता

 जब लिये लालिमा गालों पे रक्तिम आँचल को लहराये, जब चली उषा मिलने रवि से कलरव नभ में मधुरिम छाये, तब श्याम से श्यामल संध्या में मनमीत मेरे तुम याद आये ।।  सूरज की स्वर्ण किरण से जब हिमशिखर स्वर्ण सम बन जाये, अस्तित्व पिघल प्रिय बाहों में आलिंगित  होकर  लरजाये,  तब श्याम से श्यामल संध्या में मनमीत मेरे तुम याद आये ।।  बिखरा  के  सिंदूरी  रंगत बेला गोधूलि की जब छाये, पंछी की टोली मस्त मगन नीड़ को निज वापस आये,  तब श्याम से श्यामल संध्या में मनमीत मेरे तुम याद आये ।।  सुरमई श्याम सी रातों में तारों से अंबर भर जाये,  चाँद भ्रमण करते-करते जब छत पर मेरे आ जाये,  तब श्याम से श्यामल संध्या में मनमीत मेरे तुम याद आये ।। ©सरोज गुप्ता

तुम मुझको कितना तोड़ोगे? ©अंशुमान मिश्र

 की  क्षुधा  पूर्ति   मेरी  सदैव, बाधा  ने  ठोकर खिला मुझे! नित क्रूर भाग्य से छला गया, विषकुंभ पयोमुख मिला मुझे! पर   मैंने   की    हुंकार   पुनः! रवि  ने  चीरा  अँधियार  पुनः! मैं    सबका   प्रत्युत्तर   दूँगा, कब तक विपदा-शर छोड़ोगे? तुम मुझको कितना तोड़ोगे? कस दो थोड़ी और बेड़ियाँ, चाहे  और  कष्ट  दो मुझको, चाहे  और  बेध  दो तन-मन, या कर पूर्ण  नष्ट दो  मुझको, मैं  फिर  से  उठ खड़ा रहूँगा!  निज  प्रश्नों  पर  अड़ा  रहूंँगा! मेरे  प्रश्नों  से   छिपकर  तुम, कब तक अपना मुख मोड़ोगे? तुम मुझको कितना तोड़ोगे? तुम मुझको कितना तोड़ोगे? -©अंशुमान मिश्र

ग़ज़ल ©संजीव शुक्ला

 रोटियाँ अपनी बेशक़ पकाया करो l मुल्क सारा मगर मत जलाया करो l सातरंगी धनक है वतन बेवज़ह..  रंग कर के अलग मत दिखाया करो l आसमाँ,डोर हों लापता इस तरह....  मत ज़ुबानी पतंगें उड़ाया करो l नींद खुलती है सबकी कभी ना कभी..  ये हकीकत कभी मत भुलाया करो l ये उधारी के वादे मुनासिब नहीं...  कुछ चुकाओ नगद कुछ बकाया करो l ईद अच्छी नहीं पाँच साला हुज़ूर....  बीच में चाँद चेहरा दिखाया करो l फ़ितरतें चाशनी की ज़ुबाँ की शहद..  'रिक्त' रक्खो बचाकर न जाया करो l © संजीव शुक्ला

किताब ©प्रशान्त

 बहरे मुजतस मुसमन मख़बून महज़ूफ मुफ़ाइलुन फ़इलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन 1212 1122 1212 22   कहीं पे ख़ार , कहीं पे गुलाब होता है l यहाँ नसीब के ज़रिए हिसाब होता है l सफ़र में दूर करे जो सियाह अंधेरा ,  चराग़-ए-इल्म वही आफ़ताब होता है l अमीर हो तो सुनो ऐब सैकड़ों पालो ,  ग़रीब हो तो हुनर भी ख़राब होता है l मुझे सवाल परेशान कर नहीं सकते ,  अजी! ज़वाब मेरा लाज़वाब होता है l मशाल कौन जलाए, किसे थमाए अब ?  लहूलुहान बड़ा इंकलाब होता है l शराब प्यास बुझा दे , कबाब बिस्मिल्ला,  तलाश कौन करे क्या सराब होता है?  जह-ए-नसीब अगर ये समझ सके दुनिया,  'ग़ज़ल' का शेर मुकम्मल किताब होता है l ©प्रशान्त

लोलुपी प्रेम ©लवी द्विवेदी

छंद- हरिगीतिका चरण- 4 ( दो-दो चरण समतुकांत)  विधान- IISIS × 4   तम छद्म द्वेष व्यथा लिये मनु गूढ़ता मृदु गीतिका,  जिहके हिये अमिता नही, तिह लोलुपी हिय वीथिका। प्रण प्राण से करते रहे, मन से नही हिय प्राण के,  तिह प्राण प्रेम अनाथ है, जिन औषधी मुख बाण के।  प्रति देहरी अवनी लहे, रचि राखती दृग बावरी,  कृतिका लहे शशि पूर्णिमा,मुख चंद्र चंचल सावरी।  पिय प्रेम में परिचारिका प्रिय हो गई छण दाँवरी,  पिय सामने प्रिय प्राण के, पर ब्याह, संमुख भाँवरी।  दृग भाव नीर प्रवाह को नहि रोकते रह कोसते,  हिय के बिना हिय प्राण क्या अभिशाप ना हिय सोचते। तजि आस प्यास विलास आहत नैन शिथिल निहारते,  विजया पिया किह सामने प्रिय प्रेम दर्पण हारते।  ©लवी द्विवेदी

भुखमरी ©विपिन बहार

नून रोटी भी नही अधिकार में । घास खाती जिंदगी परिवार में ।। बैठ कलुआ ज्ञान अब यों झोंकता । श्वान जैसे बेसबब वह भौंकता ।। दाल-चावल जो धरा पर है पड़े । दीन अब वह भूख वश यों घोटता ।। मौत दिखती भूख के आकार में । घास खाती जिंदगी परिवार में ।। दो टका भी तो नही इस हाथ हैं । दर्द की रेखा उभरती माथ है ।। ना वसन है,ना जतन ना चादरें । शीत में बस कँपकपी ही साथ है ।। नींद रोती दीन के किरदार में । घास खाती जिंदगी परिवार में ।। दीनता यों वेदना से जा लड़ी । जिंदगी किस राह पर आकर खड़ी ।। भुखमरी की क्या सुनाऊँ दास्ताँ । आँसुओं की दाल कुकर में पड़ी ।। दर्द,आसूँ ही मिले आहार में । घास खाती जिंदगी परिवार में ।।   © विपिन"बहार"

दोहा छल ©दीप्ति सिंह

 जब छल जग से पाइए, रखिए नहीं छुपाय। अनुभव सबसे बाँटिए, जनहित यही उपाय ।। छले गए तो क्या हुआ, बड़ी नहीं यह बात । शिक्षा मिलती है हमें,जीवन से दिन-रात।। जीवन अनुभव से भरा, गठरी लीजै खोल।  सीखें और सिखाइए, अनुभव हैं अनमोल।।   बीती बात बिसारिए,बाँध आस की डोर।  उजियारा जीवन करें, आई है नव भोर ।।  "दीया" बोले राम से, कृपा करें भगवान । शरणागत हम आपके,संबल करें प्रदान ।।   ©दीप्ति सिंह 'दीया'

नज़्म : कभी नहीं © हेमा काण्डपाल

 किसी के जाने का दुःख जब  सोग हो जाए तकलीफ़ बढ़े और इतनी  के रोग हो जाए  पथरीली पड़ जाएँ मेरी साँसें  और यौवन  तेरे लिए भी जोग हो जाए  तब मिलना जब तारे सारे मर जाएँ सारस आपस में लड़ जाएँ भँवरों का रस पी जाएँ कँवल  जीवन बन जाए एक ख़लल तू अब भी वादों का कच्चा हो दिल लेकिन तेरा बच्चा हो तब मिलना जब फूल जहाँ के खो जाएँ पीले पत्ते, भूरे हो जाएँ जब तिरछा वक़्त का काँटा हो घर ने दहलीज़ को बाँटा हो जीते जी फिर से मरना हो  ख़ुद 'ख़ुद' को रुस्वा करना हो तब मिलना नाते संसार के यकजा ही जब राह का पत्थर जान पड़ें जब लोरी भी इक चीख़ लगे  और प्राण हथेली आन पड़ें जब माया ख़ुद को डस जाए जीवन दो राह में फँस जाए  तब मिलना जब ग़म बढ़ जाए मीलों तक ख़ुशियाँ पल भर ही टिक पाए  कूचे कूचे फिरने पर भी सारा दर्द न बिक पाए जब कोई याद दिलाए मेरी  और तुमको पत्थर याद आए तब मिलना जब हाथ में कोई हाथ न हो सिरहाने क़िताब न हो जो मेरी नज़्में भूलो तुम ख़त को उल्टा ही खोलो तुम  जब वक़्त के पास भी वक़्त न हो दिल तेरा बर्फ़ सा सख़्त न हो  तब मिलना तुमने ख़त में पूछा था ना कब है मिलना!  और जवाब में लिक्खा मैंने तब मिलना  ©हिया

लव जिहाद ©अनिता सुधीर आख्या

 प्रेम जाल में फाँस कर फिर तितली पर वार करें पंखों पर जब पुष्प उगे सूरज लेने दौड़ी थी मस्ती ने थैले में फिर भरी न कोई कौड़ी थी पदचिन्हों की ताली भी खुशियों पर अधिकार करे।। बाज उसाँसे भर-भर कर झूठे दाने फेंक रहा मीन फाँस कर मुख में रख नाम धर्म का सेंक रहा रक्त सने मासूमों पर शोषण को हथियार करे।। तभी सियासी जामे ने प्रेम गरल का रूप धरा भीड़ तंत्र ने कुचला जो प्रीत भाव फिर कूप गिरा मित्र बना दीपक ही क्यो जीवन को अंगार करे।। ©अनिता सुधीर आख्या

गीत- हिंदी ©गुंजित जैन

 लेखन-पठन का सार है, हिंदी समसि की धार है, आषाढ़ की बौछार है, नित ज्ञान का भंडार है, हर वेदनाएं यातनाएं शब्द में भरती सदा, छंदों अलंकारों रसों का सौम्य सा संसार है। हिंदी सरल स्पष्ट भावों से सजी भाषा प्रचुर, यह भक्ति का सद्मार्ग है, हिंदी समूचा देव-पुर, कविता कहानी कथ्य हैं, सुंदर सुशोभित शब्द हैं, साहित्य के सौंदर्य की, है एक परिभाषा मधुर। माँ भारती की प्रीत सी, हिंदी सुखद संगीत सी, चहुँ ओर ही दिखता तिमिर, हिंदी सबल उजियार है। मृदुभाषिनी मनभावनी, अभिव्यक्ति का माध्यम बनी, हर दुक्ख पीड़ा के समय साथी सदा उत्तम बनी, हिंदी समसि से जा मिली, नव कोंपलें बनकर खिली, जब भी धरा यह शुष्क थी, जल वृष्टि की छम छम बनी।  पहचान हिंदुस्तान की मनहर कथा यशगान की, हिंदी जगत में भारतीयों का सहज विस्तार है। सागर-सरोवर सी अगन, हिंदी असीमित सा गगन, संदेश केवल नेह का, उपदेश से करती अमन, माधुर्य में सब लीन हैं, ज्यों पोखरों में मीन हैं, मस्तक झुका, यह कर मिला, हिंदी तुझे करता नमन। आराधना, हर भावना, हिंदी हृदय की साधना, गुंजित तिहारे प्राण में, नित श्वास का संचार है। ©गुंजित जैन

हमारे नौ सेना.. जिंदाबाद ©परमानन्द भट्ट

 सागरो के इन तटों पर, सख्त पहरे हैं हमारे । शत्रु दल रोंदे बिना कब, पोत ठहरे हैं हमारे । आकाश से पाताल तक, विजय की गाथा लिखेंगे, सुयश की प्रस्तर शिला पर, चिन्ह गहरे हैं हमारे । भारती की आरती हम, व्योम,जल,थल में उतारे । रोज अपलक देखते हैं सिन्धु के सुन्दर नजारे । शत्रु दल थर्रा रहे है, नाम सुन कर के हमारा । सुयश की प्रस्तर शिला पर, चिन्ह गहरे हैं हमारे । © परमानन्द भट्ट

दिसंबर ©सौम्या शर्मा

 लेखा-जोखा स्मृतियों का! लाया है हर बार दिसंबर!! हर पीड़ा और हर आंसू का! मंथन है क्रमवार दिसंबर!! कितने अपने छोड़ गये हैं! कितने राहें मोड़ गये हैं!! कितनों ने जोड़ा है हमको!  कितने हमको तोड़ गये हैं!! लेखा-जोखा स्मृतियों का! लाया है हर बार दिसंबर!! हर एक भाव की पुनरावृत्ति! भावों का संसार दिसंबर!! कुछ पाया कुछ खोया भी है! लम्हों को संजोया भी है!! कुछ सीखा है कुछ बांटा है!! हंसकर दिल फिर रोया भी है!! प्रतिक्षण की स्मृति-गाथा बन! लो आया फिर यार दिसंबर!! लेखा-जोखा स्मृतियों का! लाया है हर बार दिसंबर!! ©सौम्या शर्मा

केशवानंदी ©सूर्यम मिश्र

आज घर में चारो ओर बड़ी चहल-पहल थी। सब जगह से मेहमान आ रहे थे। पूरा घर मेहमानों से भर चुका था। घर के एक कोने में कुछ बच्चे बहुत तेज़ शोर करते हुए लुका-छिपी खेल रहे थे। एक तरफ़ कई औरतें बैठ कर ढोलक बजाते हुए प्रसन्नता के गीत गा रही थी। आज मानों पूरा संसार ही उत्सवमय हो चुका था,आज गोपाल काका की सबसे छोटी बेटी "आनंदी" का ब्याह जो था।  माँ जी घर के अंदर ब्याह की सारी रस्में, पूजा-पाठ करवा रही थी। वो कभी शृंगार दान से सिंदूर लाने के लिए दौड़ती तो कभी दिया जलाने के लिए घी लाने तो कभी गाय के उपलो के आग की ज़रूरत पड़ जाती। पिता जी सभी अभ्यागतों के सत्कार में व्यस्त थे। कभी किसी को पानी पिलाने के लिए मीठा लाने दौड़ते तो कभी किसी का पाँव धुलने को परात ढूंढ़ने लगते तो कभी किसी के लिए तकिये का इंतज़ाम करने लगते। बड़े भैया बाहर हलवाई के कहे अनुसार सामाग्री उपलब्ध करवाते, टेंट की व्यवस्था में देरी पे दाँत भींचते।  घर में ढोल और शहनाई के बाद आनंदी के सखियों की पायलों की छुन-छुन की आवाज़ गज़ब का वातावरण तैयार कर रही थीं। आनंदी की सखियाँ मधुर गीत गाकर उसे उबटन और हल्दी लगा रही थी। उसकी सखियाँ कभी-कभार बीच