सुर लगाती अप्सरा हो ©गुंजित जैन

 भोर की इस लालिमा में,

सुर लगाती अप्सरा हो,

मेघ जैसे हम कदाचित,

तुम गगन हो या धरा हो।


स्वर तुम्हारे सूझते हैं,

जब कहीं होती प्रभाती,

रास्तों पर बन पपीहा,

मुस्कुराहट खिलखिलाती।


हैं नयन सुंदर सुशोभित,

प्रस्फुटित ज्यों नव्य कोंपल,

यह पलक लगती नयन पर,

शीत में ज्यों धूप चंचल।


शुद्ध, निर्मल, शांत मन में,

शांति लगती दोपहर की,

कुछ लटें यह कुन्तलों की,

नापती शोभा अधर की।


नित्य कोमल तर्जनी यह,

लहलहाते पात सी है,

ध्यान में तन्मय हथेली,

रम्य, मृदु जलजात सी है।


रूप सम्मुख देखते हैं,

अति मनोहर यह घड़ी है,

मन मुदित यह देखकर ज्यों,

द्वार पर संध्या खड़ी है।


अब तुम्हारे प्रेम में हम,

खूब सिंचित हो रहे हैं,

इस हृदय में कुछ मनोरम,

गीत गुंजित हो रहे हैं।


नित्य शोभा की प्रभा में,

हर सरोवर खो गया है,

चारु नयनों के क्षितिज में,

मग्न सूरज हो गया है।


छवि तुम्हारी चाँद सी है,

चाँद जो गीतों भरा हो,

यामिनी की चाँदनी में,

सुर लगाती अप्सरा हो।

©गुंजित जैन

टिप्पणियाँ

  1. अत्यंत उत्कृष्ट, अनुपम एवं मनमोहक सृजन 💐💐💐💐

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  2. छवि तुम्हारी चाँद सी है,चाँद जो गीतों भरा है👏👏👏
    अद्भुत💐💐💐💐

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  3. बहुत सुंदर भावपूर्ण, सौन्दर्यपूर्ण, मनभावन रचना 👏👏👏💐💐💐❤❤❤

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