संदेश

जनवरी, 2024 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

कविता-पुष्प की व्यथा ©संजीव शुक्ला 'रिक्त'

नमन, माँ शारदे नमन, लेखनी बीज नष्ट कर दो कितने, पौधे कितने निर्मूल करो । नव पराग परिमल अंकुर के , उन्मूलन की भूल करो । पुष्प लताओं की जड़ काटो , या अबोध कलिका नोचो। निश्छल निरपराध कलियों की, पीड़ा रंच न तुम सोचो । फूलों को रौंदो कोमल, कलियों पर अत्याचार करो । कुत्सित चित में पुष्प विरोधी , पैदा नए विकार करो । कर लो यत्न अनेक ,सुमन का , सौरभ का न अंत होगा । मुस्काएंगीं कलियां ,फूलों का, खिलता बसंत होगा । ©संजीव शुक्ला 'रिक्त'

गीत- बाबा फिर से आओ ना! ©सौम्या शर्मा

नमन, माँ शारदे नमन, लेखनी कितना विचलित जनमानस है, बाबा फिर से आओ ना! कर दो मानस का गायन भी, फिर से अलख जगाओ ना। धूल धूसरित गरिमा सब की, सब ही हैं पथभ्रष्ट हुए, पशुता मानवता में पसरी, जीव जंतु भी नष्ट हुए, आ जाओ ना फिर से बाबा, रामचरित फिर गाओ ना, कितना विचलित जनमानस है, बाबा फिर से आओ ना! त्राहिमाम करती है प्रकृति भी, जीवन सबके अस्त-व्यस्त हैं, विष फैला संबंधों में ‌भी, लोलुपता के वरदहस्त हैं, देख दुर्दशा कलियुग की , अब कृपादृष्टि बरसाओ ना, कितना विचलित जनमानस है, बाबा फिर से आओ ना! मानस रखी घरों में लेकिन, हाथ न कोई लगाता है, राक्षस कलि का नयी पौध को, भांति-भांति भरमाता है, कैसे हो कल्याण मनुज का, आकर फिर बतलाओ ना, कितना विचलित जनमानस है, बाबा फिर से आओ ना! ©सौम्या शर्मा 

दिखाई दे ©परमानन्द भट्ट

  नज़र से दूर होकर भी उसी का दर दिखाई दे मुझे तो ख़्वाब में भी अब वही अक्सर दिखाई दे अलौकिक रूप का दर्शन अवध के धाम होते ही  नयन को रात दिन केवल सिया के वर दिखाई दे  उपस्थित हैं वही इस सृष्टि के हर एक कोने में करें क्या हम अगर तुमको महज़ पत्थर दिखाई दे अवध के धाम से बाहर निकल कर ओ मेरे रघुवर हमारी चाह है तू देश के हर घर दिखाई दे हमारा जी नहीं भरता, झलक को देख लेने से हमारे सामने आकर हमें जी भर दिखाई दे सभी में वो विराजित है बड़ा हो या भले छोटा कोई भी शख़्स हमको किसलिए कमतर दिखाई दे 'परम' के प्यार की ख़ुशबू समाई जब से तन मन में हमें तो हर तरफ बस ख़ुशनुमा मंजर दिखाई दे  ©परमानन्द भट्ट

ग़ज़ल ©गुंजित जैन

जो उल्फ़त में हारा नहीं है, किसी ग़म का मारा नहीं है। समंदर ख़यालों का उमड़ा, पर उसका किनारा नहीं है। कहाँ चल दिया शोर सुनकर, किसी ने पुकारा नहीं है। मुहब्बत भला क्या बला है? तज़र्बा हमारा नहीं है। बिना तेरे इस ज़िन्दगी में, हमारा गुज़ारा नहीं है। नज़र रोज़ तेरा चुराना, हमें कुछ गवारा नहीं है। ख़ुदा साथ सबके है 'गुंजित", कोई बे-सहारा नहीं है। ©गुंजित जैन

रामस्तुति !! ©सूर्यम मिश्र

  नमो रामाय,राग-रागाय,राज-राजाय धीमहि! रामचन्द्राय, राम-भद्राय, राम-रामाय धीमहि!! नमो पाराय पराकाशाय प्राप्तिपर्वाय धीमहि! धर्म-अर्थाय,धर्म-खंडाय,स्वयं धर्माय धीमहि!! नमो जैत्राय,जितामित्राय,प्रियंमित्राय धीमहि! सूर्य-वेशाय,सूर्य-अंशाय, सूर्य-वंशाय धीमहि!! नमो लोकाय,लोक देवाय,देवलोकाय धीमहि! त्रियंनूपाय, त्रियुगरूपाय,त्रिपुरभूपाय धीमहि!! नमो सत्याय,सत्यश्रेष्ठाय,श्रेष्ठ-सत्याय धीमहि! अवधईशाय,अवधदेशाय,अवधपुत्राय धीमहि!! नमो यज्ञाय,यज्ञकर्माय,यज्ञ-यज्ञाय धीमहि! वेद-वेदाय, वेद-साराय, वेद-पाराय धीमहि!!  नमो पुंजाय,परं-धामाय,परं-ब्रह्माय धीमहि! शूर-शूराय, शूर-वीराय, शूर-धीराय धीमहि!! नमो रामाय,राम-रामाय,राम-रामाय धीमहि! नम: रामाय,राम-रामाय राम-रामाय धीमहि!! !नम: राम: ईश्वरम अस्य,रामस्य ईश्वरम च! ©सूर्यम मिश्र

मेरे कविवर ©लवी द्विवेदी

  आज दुखी कविता ने देखा,  मुझसे कहती कहो छुआ क्या। चाह रहे थे अंबर छूना, अंबर तेरा नहीं हुआ क्या? पहले हर क्षण अंबर छूकर, तुमने अपने पंख पसारे।  अब जब उड़ना सीख चुके हो, फिर क्यों बैठे हारे हारे।  क्यों अंतस में है कोलाहल ? मेरे कविवर। तुमने मेरा वरण किया था,  तब से गेह तुम्हारे बैठी। मन मस्तिष्क कुँवारे थे जब,  उस क्षण हो रतनारे बैठी।  नई वधूटी जो जो करती,  मैने नित नव रचना की थी।  नित्य नए सृजनानंदों में,  नाम तुम्हारे की थी वीथी।  पर तुम ही हो बैठे घायल, मेरे कविवर।  यशोगान, सम्मान, प्रतिष्ठा, क्या क्या तुमको नहीं दिलाया। हर क्षण मान प्रतिक्रिया ने तो, नहीं कदाचित गरल मिलाया? क्षण क्षण दुर्बल होते जाते,  ऐसा क्या विषपान कर लिया।  नहीं रह गई कोई आशा,  कितना संयम अंक भर लिया।  या फिर हार गया है संबल, मेरे कविवर।  नहीं चाहिए मान तुम्हे अब, मुझको तुम बस पढ़ना चाहो।  कभी कभी अँधियारा पाकर, थोड़ा सा ही रचना चाहो... लेकिन नहीं रचा जाता है,  जाते छोड़ अधूरी रचना। कहीं दूर बैठी रचना को,  गाती नित्य तुम्हारी रसना। नहीं रहा तुमको प्रिय शतदल , मेरे कविवर।  एक काव्य ऐसा कवि चाहे, कविता प्रेम कभी

दोहा ©ऋषभ दिव्येन्द्र

    बदले-बदले लग रहे, सर्दी के सन्देश। मकर राशि में भानु ने, जबसे किया प्रवेश।। नाच रही है झूम के, नभ में नवल पतंग। मनभावन मन मोहती, मनवा हुआ मलंग।। नीचे सरसो खिल रही, ऊपर दिखे पतंग। मन मेरा ये बावरा, उड़े हवा के संग।। भाँति-भाँति के रंग में, रंग गया है व्योम। पावन प्रेम पतंग-सा, पुलकित होता रोम।। प्राण डोर जिससे बँधा, ज्ञात न उसका छोर। भटक रहा बन बावरा मन पे किसका जोर।।  मैं रजनी की कालिमा, तुम हो भावन भोर। मैं पतंग तुम डोर हो, ले जाओ जिस ओर।। जीवन में मिलता रहे, नित-नित नव उल्लास। आशाओं की डोर से, पले जगत विश्वास।। – –©ऋषभ दिव्येन्द्र

चाय ©रजनीश सोनी

  हो इसी से मेजबानी।  चाय की दुनिया दी'वानी।।  दाँत की है क्या जरूरत,  बस इसे तो सुरक जानी।  चाय की चुस्की चली तब,  ठंड ने भी हार मानी।  चाय से आदर, निरादर,  चल पड़े किस्सा कहानी।  जो पिलाये स्वागम् है,  धन्य! उनकी मेहरबानी।  पी इसे खुश हो रहे सब,  दादा' दादी नाना' नानी।  सुबह से अब बाल बच्चे,  लग गये हैं रट लगानी।  "नेह" कुछ नखरे दिखायें,  पर उसी में नजर जानी।  ©रजनीश सोनी "नेह"

ग़ज़ल ©संजीव शुक्ला

  कोई टूटा हुआ गुलदान बनकर देख लेना । कभी बेकार सा सामान बनकर देख लेना । नसीहत हर कदम पर खुद-ब-खुद मिलने लगेंगी.. किसी दिन बस ज़रा नादान बन कर देख लेना । चले आएंगे पीछे लोग जितना दूर जाओ.. किसी सहरा में नखलिस्तान बन कर देख लेना । नए हर रास्ते पर जा-ब-जा काँटे मिलेंगे.. हमारी राह से अनजान बनकर देख लेना । नया मिसरा कोई जो भी सुनेगा जोड़ देगा.. अधूरी नज़्म का उन्वान बन कर देख लेना । मिलेगी तालियाँ हर बात पर ये सोचना मत.. सुखनवर हो कभी इंसान बन कर देख लेना । ©संजीव शुक्ला 'रिक़्त'

हनुमान ©तुषार पाठक

  राम के भक्त हो तुम, तुम्हारे भक्त हैं हम। तेरी कृपा से मेरा हर काम होता है। दुनिया के सामने नहीं तेरे सामने झुकने से मेरा नाम होता है। चुनौतियाँ परेशानियों में तेरे नाम लेने से सब भाग जाते हैं। राम का नाम तुम्हें बेहद प्यारा है, उनका नाम सुनते ही तुम्हे आनंद आता है, जहाँ उनका कीर्तन चलता है, वहाँ तुम खुद पहुँच जाते हो। तुम राम लाला के प्यारे हो, और सीता के दुलारे हो। संतो को तुम प्यारे हो, अंजनियो॔ के तुम दुलारे हो। तुम राम की लम्बी आयु के लिए ख़ुद को लाल रंग से रंगते हो, तुम्हारे दिल मे सिया राम साथ खुद सजते हैं। तुमने सूर्य को फल समझ का खाया है, यहाँ तक की शनि को भी उसकी साढ़े साती याद दिलाई है। इसलिए तुम्हे नव ग्रह शीश झुकाते हैं। ©तुषार पाठक

कहाँ है एंकात ©रेखा खन्ना

 नमन लेखनी 🙏🏻 मरघट के आंगन में मौत नाचती हैं क्रंदन रूंदन की थाप पर थिरकती है रात की शाँत लहरों में राख ठंडी होती है दिन के उजालों में जीस्त सुकून खोती है। जीवन के शोर की आवाज़े दब गई है जिम्मेदारियों के अनदेखे बोझ के नीचे एंकात में मन जीता है यां समय की माँग है सुकून-औ-करार की चाहत में पल-पल जलता बुझता है। कहाँ है एंकात, मरघट में या जीवित संसार में एहसासों की उथल-पुथल में या मन मारने में तब्दीलियों में यां स्थिरता में ठहर जाने में कुछ कर गुजरने के जोश में यां हालात स्वीकारने में। जीवन की धारा को बहते पानी की तरह चलना है कभी तेज़ लहरों सा शोर करते हुए कभी शांत हो कर के जन्म से मृत्यु तक का सफ़र तय होना है कभी किश्तों में मर कर के कभी खुशियों को जीते हुए। जिंदगी सिर्फ जिंदा जीस्त का नाम नहीं है रूह को भी खिलखिलाते हुए दिखना होगा चाहे नकली आवरण मुख पर लगाए चाहे सचे भाव‌ दिखा कर  मरघट चाहे कितना भी शांत दिखता है कभी मरघट में दो घड़ी अकेले बैठ कर महसूस करना  वहाँ दिल‌ दहला देने वाली हृदय विदारक चीत्कारों को अभयदान मिला हुआ है। ©रेखा खन्ना

ग़ज़ल ©गुंजित जैन

  जान लुटाई यारों पर और सबसे नाता, अच्छा था, हाल मगर मेरा भी मुझसे पूछा जाता, अच्छा था। उनकी वो आँखें, वो लब, वो ज़ुल्फ़ यकीनन दिलकश हैं, लेकिन फ़िर भी उनका चेहरा याद न आता, अच्छा था। जितनी दूरी तक अंगूठे से बातें कर लेता है, उतनी दूरी तक इंसाँ बाहें फैलाता, अच्छा था। बचपन की गलती भी कितनी भोली-भाली होती थी, हर्फ़ कागज़ों पर लिखता, फिर उन्हें मिटाता, अच्छा था। राह देखना ख़त्म हो गया दूरभाष के दौर में आ, कोई डाकिया अब भी चिट्ठी भर घर लाता, अच्छा था। बढ़ते-बढ़ते ना जाने किस दलदल में आ उलझा हूँ, बच्चा ही रहता, मुस्काता, हँसता-गाता, अच्छा था। उनके हर इक ज़र्रे से ये दिल उल्फ़त कर बैठा है, इश्क़ उन्हें भी मुझसे थोड़ा ग़र हो पाता, अच्छा था। बेटी के मर जाने पर लेकर दीपक चल देते हैं, शमा समझ की लड़कों में भी कोई जलाता, अच्छा था। हर इंसाँ जज़्बातों को क्यों दिल में रखता है गुंजित? उनमें थोड़े हर्फ़ मिलाता, ग़ज़ल बनाता, अच्छा था। ©गुंजित जैन

गीत- बदला है ©परमानंद भट्ट

भूख गरीबी बदहाली का काला  मंज़र बदला है, मौसम सचमुच बदल गया या सिर्फ़ कलैण्ड़र बदला है। पाँच वर्ष में सत्ताओं के ताज बदलते देखें है, और साथ में साजिंदे सब साज बदलते देखे हैं, बात-बात पर गिरगिट जैसे रूप  बदलते लोग यहाँ, धन बल गुंडाबल करता है सत्ता का उपयोग यहाँ, अफ़सर, नेता बाबू वो ही, केवल दफ़्तर बदला है, मौसम सचमुच बदल गया या सिर्फ़ कलैण्डर बदला है। दीवारों पर रंग-बिरंगे आप कलैण्डर टांँग रहे, बुनियादी कुछ प्रश्न अभी भी सब से उत्तर माँग रहे, साल बदलते जाते हैं पर चाल बदल कब पाए हम, दीवारों पर मकड़ी वाले जाल बदल कब पाए हम, ध्यान रहे यह उस क़ातिल का केवल खंजर बदला है, मौसम सचमुच बदल गया या सिर्फ़ कलैण्डर बदला है। बदलावों की अमर कहानी, लिखने का अवसर आया, नये साल का नया नवेला,यह सूरज घर घर आया, विश्व-जयी भारत का परचम, दुनिया में फहराना है, नये साल में सकल विश्व को, जय जय भारत गाना है, वही मनुज लाता परिवर्तन, वो जो अंदर बदला है, मौसम सचमुच बदल गया या , सिर्फ़ कलैण्डर बदला है। ©परमानन्द भट्ट