दिखाई दे ©परमानन्द भट्ट
नज़र से दूर होकर भी उसी का दर दिखाई दे
मुझे तो ख़्वाब में भी अब वही अक्सर दिखाई दे
अलौकिक रूप का दर्शन अवध के धाम होते ही
नयन को रात दिन केवल सिया के वर दिखाई दे
उपस्थित हैं वही इस सृष्टि के हर एक कोने में
करें क्या हम अगर तुमको महज़ पत्थर दिखाई दे
अवध के धाम से बाहर निकल कर ओ मेरे रघुवर
हमारी चाह है तू देश के हर घर दिखाई दे
हमारा जी नहीं भरता, झलक को देख लेने से
हमारे सामने आकर हमें जी भर दिखाई दे
सभी में वो विराजित है बड़ा हो या भले छोटा
कोई भी शख़्स हमको किसलिए कमतर दिखाई दे
'परम' के प्यार की ख़ुशबू समाई जब से तन मन में
हमें तो हर तरफ बस ख़ुशनुमा मंजर दिखाई दे
©परमानन्द भट्ट
अत्यंत सुन्दर रचना सर जी 🙏🍃
जवाब देंहटाएंहमारी चाह है तू देश के हर घर दिखाई दे....❤️❤️
जवाब देंहटाएंकमाल की ग़ज़ल आदरणीय श्री 👌👌👏👏🙏🙏
अहा!!! अति सुंदर एवं सार्थक गज़ल 💐🙏🏼
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर ग़ज़ल सर🙏
जवाब देंहटाएंबहुत सार्थक ग़ज़ल!अतिशय सुंदर 💐
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