बारिश ©गुंजित जैन
अक़्सर दरवाज़े के नज़दीक बैठा घर के बाहर होती बारिश को देखता हूँ तो ख़ुद-ब-ख़ुद तुम्हारे बारे में सोच लेता हूँ, कि अगर तुम न होते, तो क्या होता। शायद, कुछ नहीं। बस ये बारिशें फ़िर उतनी हसीन नहीं लगती। क्योंकि आज भी घनें बादलों में तुम्हारी सूरत कभी तलाशकर तराशता हूँ तो कभी तराशकर तलाशता हूँ। या कभी बारिश में गिरती बूँदों को हथेली पर रखकर उनमें कहीं तुम्हें ढूँढता ही रहता हूँ। तुम्हें ढूँढने का सिलसिला यूँ चलता रहता है कि इतने में बारिश पल भर को थम जाती है। फ़िर आहिस्ते-आहिस्ते जब हवा चलती है तो पेड़ों पर से कुछ बूँदें मेरे चेहरे पर लाकर छिड़क देती हैं। शायद तुम्हें मेरे पास लाकर कहीं मेरी तलाश ख़त्म करना चाहती हों, और मैं! समझ ही नहीं पाता। बस उन बूँदों में खोता चला जाता हूँ। बादलों की एक गरज मन में अचानक एक सुंदर सी सिहरन पैदा कर देती है, ठीक वैसी जैसे तुम्हारे पुकारने पर होती थी। ये देख मेरी पुरानी कविताओं के कुछ अक्षर जीवंत हो उठते हैं और हवाओं से पलटते उन पन्नों में ही कहीं तुम्हें ढूँढने को दौड़ते हैं! मगर, हर बार की तरह केवल ढूँढकर ही रह जाते हैं। कहीं बादलों की ओट से सूरज जब तुम्हारी