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बारिश ©गुंजित जैन

 अक़्सर दरवाज़े के नज़दीक बैठा घर के बाहर होती बारिश को देखता हूँ तो ख़ुद-ब-ख़ुद तुम्हारे बारे में सोच लेता हूँ, कि अगर तुम न होते, तो क्या होता। शायद, कुछ नहीं।    बस ये बारिशें फ़िर उतनी हसीन नहीं लगती। क्योंकि आज भी घनें बादलों में तुम्हारी सूरत कभी तलाशकर तराशता हूँ तो कभी तराशकर तलाशता हूँ। या कभी बारिश में गिरती बूँदों को हथेली पर रखकर उनमें कहीं तुम्हें ढूँढता ही रहता हूँ। तुम्हें ढूँढने का सिलसिला यूँ चलता रहता है कि इतने में बारिश पल भर को थम जाती है। फ़िर आहिस्ते-आहिस्ते जब हवा चलती है तो पेड़ों पर से कुछ बूँदें मेरे चेहरे पर लाकर छिड़क देती हैं। शायद तुम्हें मेरे पास लाकर कहीं मेरी तलाश ख़त्म करना चाहती हों, और मैं! समझ ही नहीं पाता। बस उन बूँदों में खोता चला जाता हूँ। बादलों की एक गरज मन में अचानक एक सुंदर सी सिहरन पैदा कर देती है, ठीक वैसी जैसे तुम्हारे पुकारने पर होती थी। ये देख मेरी पुरानी कविताओं के कुछ अक्षर जीवंत हो उठते हैं और हवाओं से पलटते उन पन्नों में ही कहीं तुम्हें ढूँढने को दौड़ते हैं!  मगर, हर बार की तरह केवल ढूँढकर ही रह जाते हैं। कहीं बादलों की ओट से सूरज जब तुम्हारी

बजरंग वंदना ©दीप्ति सिंह

हे बजरंगी नाम तिहारा । अब जीवन को एक सहारा ।। आपन कृपा सबै पर कीजै । दुख दारिद संकट हर लीजै ।। संकट मोचन हैं महवीरा । हरते हैं सब जन की पीरा   ।। हाथ गदा भगवन के साजै । हिरदै में प्रभु राम विराजै ।। संकट भ्रात लखन के टारै । रघुवर के तुम बने सहारे ।। लै सुधि मातु सिया की आये । छन में लंका दिये जराये ।। संकट में जो नाम उचारे । विपदा से हनुमान उबारे ।। आये हम प्रभु सरन तिहारी । लीजै सुध बुध नाथ हमारी ।। स्वरचित- ©दीप्ति सिंह 'दीया'

आ गये कैसे ©रानी श्री

 वज़्न- 1222 1222 1222 1222 हमें परहेज़ सबसे थी, खबर में आ गये कैसै। अभी तो रात पूनम थी,सहर में आ गये कैसे। बहारें दूर से बस लौट आती छोड़कर जिसको, ख़िज़ां में फूल ये देखो,शजर में आ गये कैसे। किसी ने भी नहीं देखा, किसी को इश़्क फरमाते, ज़माना ही बता दे फ़िर,नज़र में आ गये कैसे। न थे उस्ताद ही ऐसे कि सबको मात  दे दें हम, ख़ुदा जाने,न जानें हम, असर में आ गये कैसे। उन्हें तो गांव के दिन रात भाते थे कभी 'रानी', कि अब तू  देख ले उनको, शहर में आ गये कैसे। ~©रानी श्री

गज़ल ©संजीव शुक्ला

बहृ - बहृ ए मीर, 32 मात्रिक  वज़्न - 22 22 22 22 22 22 22 22   मुद्द्त की तमन्ना पूरी हों,  आँखों में खुमार उतर जाए /                 पहलू में बैठे रहो यूं ही ये... उम्र की रात गुज़र जाए //                       इन फानूसों के बस में नहीं.... घर रौशन कर पाएं मेरा...                ज़ुल्फ़ों को हटा दो रुख से उजाला हर ज़र्रे में भर जाए //                  कलियों में नरमी खुश्बू के,  नायाब वो रंग वो नूर कहाँ....                                संदल सी बाहों के घेरे में... जिस्म-ओ-जान सिहर  जाए //                               वो चाँद पशेमाँ हो के छुपा...... बादल के साये के पीछे....                        है ताब कहाँ सानी में चाँद का,  हुस्न-ओ-ज़माल सँवर जाए //               गेसू बिखरे रेशम की नर्म तपिश मदहोशी का आलम....                     रोंये में बर्क उठे खुश्बू का गुबार... ज़हन कर तर जाए //                                               दो सुर्ख  गुलाबी कलियों पे  शबनम की बूँदों का आलम...                          चटकी कलियाँ जो तबस्सुम फिर, ज़र्रे ज़र्रे में बिखर जाए //                    रुख से

गजल ©विपिन बहार

 भूख खोजें बेतहाशा नून रोटी दाल को । गाँव मे आए विधायक पूछते है हाल को ।। छप्परों से आँसुओ की बूंद टपकी जा रही । काम मंत्री जी करेंगे अब नए ही साल को ।। आग जो फ़ैली तुम्हारा घर जला सकती कभी । गर नही समझें मियाँ तुम इस सियासी चाल को ।। शान-शौकत ,चार पीछे लोग है अब आपके । जानते है हम विधायक आप के भौकाल को ।। तुम शिकंजी पी रहे हो राजशाही ठाठ में । भूख से बेचे गरीबी रोज अपने खाल को ।। दोस्त मेरे दोष मुझकों आप मत देना कभी । एक शायर कह रहा बस आप के ख्याल को ।। ©विपिन बहार

साँवरे ©लवी द्विवेदी

 सुगम सुंदर सर्वस साँवरो,  मृदुल भाषिणि वल्लभ श्याम है।  नयन कंज अलौकिक मोहना,  प्रभु प्रिया मुरलीधर नाम है।   प्रिय पतीश्वर गोपिक राधिका,  प्रिय मनोहर केशव वृन्द है,  प्रिय सुधारस प्रेम मणिः प्रभू,  प्रभुहि कोमल कान्त सुनंद है।  विमल व्योम विभा विरुदावली,  मणिक कुंज प्रभा कटि कर्धनी।  अतुल सौम्य सरोरुह वर्णिमा,  पद सुकोमल पारुल पैजनी।  सरस गोपिक वल्लभ श्री हरी,  रुचिक नंद सनेह सुधामयं।  रमण वेणुधरीश्वर शेखरे, पतित पावन प्रीत प्रियामयं।  भुवन मंगल कारण कुंज श्री,  सकल पूज्य हरी वियना हरी।  भव पिता कमलेश विशेश्वरम्,  परम पुण्य पतिः विघना हरी। प्रभुहि माखनचोर सुलक्षणा,  सुत यशोमति श्याम सुनाम श्री।  प्रभु किशोरहि माधव प्राणदा,  हरि प्रियापति हे घनश्याम श्री। प्रभुहि दीनदयाल दयानिधिं,  प्रभु नमामि नमो हरिनाम श्री।  कमल कांतिप्रिया अभिराम हे,  सतत बारमबार प्रणाम श्री। ©लवी द्विवेदी

समर्पण ©संजय मिश्रा

 जीवन जीने के दो ही ढंग है या तो किसी को अपना बना लो या किसी के हो जाओ किसी को अपना बनाना संघर्ष और अंहकार  को बढाता है और संघर्ष  अंहकार में सुख कहाँ । तो किसी के हो जाओ वो आसान है संघर्ष से परे अंहकार से मुक्त है समर्पण में सुख है  किसी को अपना बनाने  से ज्यादा सरल सहज है किसी के हो जाओ । ©संजय मिश्रा

ग़ज़ल ©अंशुमान मिश्र

 बेईमानों   से   शराफत   कर  रहे  हैं! हम यहां खुद की वकालत कर रहे हैं! झूठ  की बैठी अदालत में खड़े हम, सच बताने की हिमाकत कर रहे हैं! वो  ठिठुर  ठंडी   हवाओं   से   रहे  हैं, आंधियों  से  हम  बगावत  कर रहे हैं! एक पागल वो, जो पागल दिख रहा है, एक पागल हम.... मुहब्बत कर रहे हैं! वो  हमारी  जान   लेने  पर  आमादा, हम कि दीदार-ए-नज़ाकत कर रहे हैं, आज  लाखों  जानें  फिर कुर्बान होंगी, आज सज कर वो कायमत कर रहे हैं!                     -©अंशुमान मिश्र

मुकरियाँ ©दीप्ति सिंह

 बैरी हमको बहुत सताये लाख बुलाऊँ पास न आये  कर डारा है मोहे पागल  का सखि साजन? ना सखि बादल । मन करता है उसकी बातें  सारा दिन और सारी रातें  क्षण भर को भी ना बिसराती का सखि साजन? ना सखि पाती । वो आये तो मन हरसाए  घर को उजियारा कर जाए  घर आंगन की सूरत बदली  का सखि साजन? ना सखि बिजली । देखूँ उसको मन खो जाए  सारी सारी रैन जगाए  लागे मोहे कितना प्यारा  का सखि साजन? ना सखि तारा ।        ©दीप्ति सिंह 'दीया'

हिंदी प्रसारण ©प्रशान्त

 पठन-पाठन, सृजन, लेखन , श्रवण, गायन किया जाए l यथासंभव समय 'हिंदी', प्रसारण को दिया जाए l सनातन गीत-गायन हो , नवल कविता विधायन हो l पुरातन मातृभाषा का , निरन्तर सोम-पायन हो l विविध छंदों, अलंकारों , विधानों के जलाशय में  ,  भिगोकर भावनाओं के रसायन को पिया जाए l कहानी, जीवनी , नाटक,  कथाओं, संस्मरणों में l उपन्यासों , समीक्षाओं , निबंधों, उद्धहरणों में l महाग्रंथों व पत्रों में, समाहित मातृभाषा के ,  विवेचन, शिल्प-निर्धारण , सुलेखन को जिया जाए l जहाँ सम्मान भाषा का , वहीं वासी विधाता है l नमन उस मंच को जिस पर , व्यवस्थित लेख आता है l समय की भांति अक्षुण्ण हो , सदा अस्तित्व हिंदी का ,  शपथ परिपूर्ण आयोजन सुनिश्चित कर लिया जाए l पठन-पाठन, सृजन, लेखन , श्रवण, गायन किया जाए l यथासंभव समय 'हिंदी', प्रसारण को दिया जाए l ©प्रशांत

शजर ©हेमा काण्डपाल

 भीगे आसमाँ के सीने से जब धरती लिपट गई, तो इस मिलन से जन्म लिया, इक कोमल पौधे ने। जिसके अब्रों से बने झूले को तारों के झुनझुने से सजाया गया , और चाँद का तकिया उसमें बिछाया गया। नैनीहाल से तोहफ़े में आया इक जोड़ा जीवन रूपी वस्त्र का और झरनों की पाजेब।  वो पौधा जब सो जाता तो पवन धीमी चाल चलती, और धरती घूम घूम उसे थपकियाँ देती, भँवरे लोरी सुनाते थे और आसमाँ उसे छाँव देता । पर अब पौधा बड़ा हो रहा था।  झूले, तारों के झुनझुने और चाँद रूपी तकिए को अब उसे अलविदा कहना था।  वो कोमल पौधा अब शजर बन चुका था, जिसके पैर गढ़ चुके थे अपनी अलग दुनिया में, यहाँ आसमाँ नदारद था और धरती लापता , साथ थी तो बस कुछ हरी पत्तियाँ जो बस बसंत में साथ देती थी और पतझड़ आते ही वो पेड़ अपने तने के आगोश में सिसक सिसक के रोता था। मेरा जीवन भी उस पेड़ के जैसा ही है, जिसकी छाँव में न जाने कितने पथिक आए , विश्राम किया और चले गए । वो शजर जो अपनी ही जड़ों की क़ैद में है, वो शजर जो औरों को छाँव तो दे सकता है पर ख़ुद के सर पर छत नहीं। शजर बनना अच्छा होता है, पर पौधे से शजर बनना नहीं। शजर औरों को नया जीवन तो दे सकता है किन्तु ख़

मैं तेरी कौन, पिया ? ©रेखा खन्ना

 " देखकर भी क्यूंँ तुम मुझे देखते ही नहीं    यारा ऐसी बेरूखी सही तो नहीं....... " सुनो! ये गाना तुमने सुना है कभी ..... ना ना ऐसे शुरू नहीं  होता है , ये तो गाने के बीच की एक पंक्ति है जो आज जुबां पर चढ़ गई है और मैं इसे बस गुनगुना रही हूंँ बार बार। पता नहीं क्या हैं इस पंक्ति में जो मुझे खींच रहा है ठीक वैसे ही जैसे तुम्हारा एहसास खींचता है मुझे। बस यूं ही इसे गुनगुनाते हुए सोच रही थी  .... कि देखकर भी क्यूँ तुम मुझे देखते ही नहीं सोचती हूँ अक्सर तेरी जिंदगी में मैं हूंँ भी कि नहीं  दो पल की भी तो बात कभी होती ही नहीं मेरे दिल की आवाज़ भी तुझ तक पहुंँचती ही नहीं दिन रात का इंतज़ार कभी खत्म होता ही नहीं मेरी तमन्नाओं को कभी तेरा साथ मिलता क्यूँ नहीं। सोचती हूंँ अक्सर तेरे दिल में मैं हूँ भी कि नहीं ......... मेरी राहों में क्यूँ तेरा घर पड़ता ही नहीं तेरे घर की दीवारें भी तो मुझे पहचानती ही नहीं क्यूँ कदम मेरे तेरी राह हर पल ढूँढते ही रहे क्यूँ तेरे कदमों के निशान भी मुझे देख मिटते ही गए क्यूँ मेरे दिल के तार तेरे दिल को छेड़ते ही नहीं। सोचती हूंँ अक्सर तेरे दिल में मैं हूँ भ

गीत बुधनी ©नवल किशोर सिंह

 जलती-भुनती बुधनी मन में, और तवे पर रोटी। आँगन में मुनिया चिल्लाती, मैया कर दो चोटी। ढली रात तो आया कलुआ, बोतल चार चढ़ाकर। माँग रहा वह दाल-बघाड़ा, थाली को टरकाकर। मान-मनौवल के चक्कर में, बनती बुधनी बोटी। ऐसे ही वह रात गुजारी, और उठी भिनसारे। गौशाले में गाय रँभाती, अम्मा उसे पुकारे। फूट फफोले निकले दिल के, जैसे हो पनगोटी। भावों के नवनीत बिना ही, निशिदिन दही बिलोना। छलछल मट्ठा बटलोही में, नीचे पड़ा सिरोना। नयनों के दो खाली दोने, बूँदें मोटी-मोटी। -©नवल किशोर सिंह

कविता-उड़ान ©गुंजित जैन

 दूर क्षितिज तक लंबी कोई, हम सब उड़ान भरते हैं। मार्ग कठिन यह लगता हमको, लक्ष्य दिखे अब पास नहीं, तीव्र हवाओं को भी देखो, उड़ना होता रास नहीं, पर हर काँटे, कठिनाई को, सरल सुगम हम करते हैं, दूर क्षितिज तक लंबी कोई, हम सब उड़ान भरते हैं। स्वप्नों के आकाश तले अब, हम दुख सभी भुलाते हैं, पंख हमारे जो चंचल हैं, चलो! इन्हें फैलाते हैं, पंख पसारे नील गगन में, खग-सा चलो विहरते हैं, दूर क्षितिज तक लंबी कोई, हम सब उड़ान भरते हैं। छूनी सभी बुलंदी हैं अब, पैर धरा पर रखकर ही, जोश नहीं थोड़ा भी खोना, रहना सदैव तत्पर ही, है जज़्बा, है जोश रगों में, इनसे नहीं मुकरते हैं, दूर क्षितिज तक लंबी कोई, हम सब उड़ान भरते हैं। ©गुंजित जैन

ग़ज़ल -ज़ुस्तज़ू ©संजीव शुक्ला

 हमारी  जुस्तज़ू का हद से  कुछ आगे  निकल जाना l तुम्हारा दर तलक आ-आ के फिर रस्ता बदल जाना ll बहुत बेचैन करता है...... किसी का मुन्तज़िर होना....  कि वो करवट बदलना बारहा छत पर टहल जाना ll रही ख़्वाबों के महलों की हसीं तामीर यूँ बाक़ी....  नज़र में चांदनी दे तीरगी में शब का ढल जाना ll बहुत आसाँ है ख्वाहिश की शमा हम भी जला तो लें.. क़रार-ओ-चैन के परवाने का मुमकिन है जल जाना ll सुना है अक्स मह का झील में उतरा रहा शब भर... के हम तकते रहे पानी .....मछलियों का उछल जाना ll बहुत तकलीफ देता है किसी का रुख बदल लेना...  वो उनका अजनबी सा यूँ गुज़र कर आजकल जाना ll उजाड़ा जिन दरख्तों को......... बहारों ने कभी खुद ही...  बहुत मुश्किल है उनका"रिक्त"फिर से फूल फल जाना ll ©संजीव शुक्ला 'रिक्त '

महाभारत ©सूर्यम मिश्र

 सब एकत्रित हो रहे,सैन्य साधन समस्त  रणक्षेत्र सज रहा करने को भू विपर्यस्त  छा रहा धरा पर एक भयानक अंधकार  रह-रह गरजे आकाश कर्ण पर कर प्रहार  चहुँओर गर्जना भीषण,ध्वज उड़ते भर-भर  टकटकी लगाए देव, काँप उठते थर-थर  चमका हो जैसे,नभ से एक प्रलयी विनाश  मस्तक पर बैठा काल कर रहा अट्टहास दोनों पक्षों से खड़े सज्ज सैनिक समर्थ करने को एक दूजे के अरि का शौर्य व्यर्थ सब वृक्ष वनस्पति सज्ज आज बनने पिशाच  चहुँओर मृत्यु ही मृत्यु कर रही नग्न नाच अब त्याग, धर्म, सत्यता और न्यायी प्रवृत्ति  कुरु दल के आगे द्रोण भीष्म बन खड़े भित्ति देने निज रण कौशल का,बल का,शुचि प्रमाण थे खड़े कर्ण, ले चाप्‌ हस्त में, बन पहाड़  फ़िर शल्य,शकुनि,भगदत्त,जयद्रथ औ बृहद्वल सौ भाई ले, दुर्योधन हँसता है, खल-खल  रह-रह उत्तेजित करता वह सेना अपार  मानो रण से ही प्राप्त करेगा सहस्त्रार  निज सेना का वीरत्व भाँप कर रहा गर्व  ना दिखता उसको नाश वंश का वह अखर्व उसकी आँखों में दृश्य एक बस राज्य पूर्ण  उन्मत्त हृदय करता मानवता चूर्ण-चूर्ण  दूसरे पक्ष की सेना का वह भाग अग्र  देखे तो कंपित हो पड़ता यह जग समग्र  सोचो किसका साहस क्या कितना कहां बढ़

प्रेम और प्रेमविवाह ©रानी श्री

 हमें बचपन से ही सबसे प्रेम करना सिखाया जाता है लेकिन जब बात प्रेम विवाह पर आती है तो क्यों हम पीछे हट जाते हैं? क्यों तब जाति, धर्म, लिंग, उम्र, समझ और नासमझी मध्य में आने लग जाते हैं? क्यों बड़े लोगों को लगता है कि प्रेम विवाह का परिणाम केवल कलह और विनाश ही होगा।  बचपन से ही मन में सजातीय विवाह की धारणा मन मस्तिष्क में कील की भांति ठोक दी जाती है और चाह कर भी कुछ प्रेम कथाएं पूर्ण नहीं हो पातीं। और दैव संयोग अगर गलती से प्रेम विवाह कर भी लिया तो उन्हें हेय दृष्टि से देखा जाता है जैसे कितना बड़ा पाप कर दिया हो उन्होंने।  जिन्हें प्रेम का अर्थ नहीं पता वो क्या समझेंगे कि प्रेम, उसकी सीमाएं व पराकाष्ठा क्या है? हमारी दृष्टि में ये गलत है कि बच्चे अनभिज्ञ लोगों से बात करें लेकिन ये सही है कि बच्चे किसी अंजान से विवाह कर लें और जीवनपर्यंत उनके संग रहें।  यही कारण है कि प्रेमी युगल को छिप कर और डरकर रहना पड़ता है। ये किस प्रकार की धारणा है कि यदि कोई प्रेम कर बैठे तो वह पतित है और यदि प्रेम विवाह कर ले तो उससे बड़ा पापी कोई नहीं। क्यों यह समाज व हमारी संस्कृति उसे अपना नहीं पाती? संस्कृति

गीत- कुंठा ©लवी द्विवेदी

 विवश उर मूक क्यों चिंतित विवादित आत्मचिंतन है।  सफल पर्याय है पर्यावरण से किंतु अन-बन है।।  प्रफुल्लित हो रही धरती गगन की लालिमा से मिल,  अधिक ही सौम्यता क्षिति की कपोंलों पर निखरती है।  वहीं जब भूलवस मिहिका बरस जाती है कलियों पर,  अलंकृत हो सवेरे, दोपहर क्षण-क्षण बिखरती है।  अनुपमा दे रही खिलते प्रसूनों को कपोलों की,  क्षितिज ने घूर कर बोला तुम्हारी सोच विचलन है।  सफल पर्याय है पर्यावरण से किंतु अन-बन है।।  प्रवाहित कर प्रणय बहती रही निश्छल सरल सरिता,  प्रभाती दृश्य ही अत्यंत मनहर, वेदना का था।  गगन में लीन अरुणोदय, तनूजा रँग बदलने में,  कि संगम इंद्रधनुषी सार्वभौमिक साधना का था।  कभी पक्षी दिखें सरिता कभी, बादल कभी कल-कल,  तभी लहरें सुनाती राग मुझको तू विलग मन है।  सफल पर्याय है पर्यावरण से किन्तु अन-बन है।।  पनपते ज्वार का आक्रोश लेकर ही मनः सारे,  ठहरती द्रुमदलों की सरस शीतल छाँव विचलित हैं,  निरोगी औषधी कैसे करे, मन में कलुष कुंठा,  श्वेत को श्याम करने में मनुज लोचन विलोपित हैं।  सफलता सीख ली कैसे मिलेगी, किंतु अल्हड़पन,  निहित आलस्य ही तो आत्महत्या का निवेदन है।  सफल पर्याय है प