गीत- कुंठा ©लवी द्विवेदी
विवश उर मूक क्यों चिंतित विवादित आत्मचिंतन है।
सफल पर्याय है पर्यावरण से किंतु अन-बन है।।
प्रफुल्लित हो रही धरती गगन की लालिमा से मिल,
अधिक ही सौम्यता क्षिति की कपोंलों पर निखरती है।
वहीं जब भूलवस मिहिका बरस जाती है कलियों पर,
अलंकृत हो सवेरे, दोपहर क्षण-क्षण बिखरती है।
अनुपमा दे रही खिलते प्रसूनों को कपोलों की,
क्षितिज ने घूर कर बोला तुम्हारी सोच विचलन है।
सफल पर्याय है पर्यावरण से किंतु अन-बन है।।
प्रवाहित कर प्रणय बहती रही निश्छल सरल सरिता,
प्रभाती दृश्य ही अत्यंत मनहर, वेदना का था।
गगन में लीन अरुणोदय, तनूजा रँग बदलने में,
कि संगम इंद्रधनुषी सार्वभौमिक साधना का था।
कभी पक्षी दिखें सरिता कभी, बादल कभी कल-कल,
तभी लहरें सुनाती राग मुझको तू विलग मन है।
सफल पर्याय है पर्यावरण से किन्तु अन-बन है।।
पनपते ज्वार का आक्रोश लेकर ही मनः सारे,
ठहरती द्रुमदलों की सरस शीतल छाँव विचलित हैं,
निरोगी औषधी कैसे करे, मन में कलुष कुंठा,
श्वेत को श्याम करने में मनुज लोचन विलोपित हैं।
सफलता सीख ली कैसे मिलेगी, किंतु अल्हड़पन,
निहित आलस्य ही तो आत्महत्या का निवेदन है।
सफल पर्याय है पर्यावरण से किंतु अन-बन है।।
©लवी द्विवेदी
सुंदर, हृदय स्पर्शी गीत
जवाब देंहटाएंसादर आभार सर जी 🙏🍃
हटाएंअत्यंत उत्कृष्ट भावपूर्ण गीत सृजन 👏👏🌺🌺🌺
जवाब देंहटाएंसादर आभार मैम 🙏🍃
हटाएंउत्कृष्ट गीत🙏
जवाब देंहटाएंसादर आभार भैया 🙏🍃
हटाएंअति उत्कृष्ट रचना
जवाब देंहटाएंसादर आभार जिज्जी 🙏🍃
हटाएंअत्यंत सुंदर, सार्थक, उत्कृष्ट,गीत💐💐💐❤️
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर गीत👌👌
जवाब देंहटाएंअत्यंत उत्कृष्ट एवं संवेदनशील गीत सृजन 💐💐💐
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